"अर्जुन की प्रतिज्ञा -मैथिलीशरण गुप्त": अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
छो (श्रेणी:कवि; Adding category Category:पद्य साहित्य (को हटा दिया गया हैं।))
No edit summary
पंक्ति 5: पंक्ति 5:
{{सूचना बक्सा कविता
{{सूचना बक्सा कविता
|चित्र=Maithilisharan-Gupt.jpg
|चित्र=Maithilisharan-Gupt.jpg
|पूरा नाम=मैथिलीशरण गुप्त
|चित्र का नाम=मैथिलीशरण गुप्त
|अन्य नाम=
|कवि= [[मैथिलीशरण गुप्त]]
|जन्म=[[3 अगस्त]], [[1886]]
|जन्म=[[3 अगस्त]], 1886
|जन्म भूमि=चिरगाँव, [[झाँसी]], [[उत्तर प्रदेश]]
|जन्म भूमि=चिरगाँव, [[झाँसी]], [[उत्तर प्रदेश]]
|अविभावक=सेठ रामचरण, काशीबाई
|अविभावक=सेठ रामचरण, काशीबाई
पंक्ति 14: पंक्ति 14:
|कर्म भूमि=
|कर्म भूमि=
|कर्म-क्षेत्र=नाटरकार, लेखक, कवि
|कर्म-क्षेत्र=नाटरकार, लेखक, कवि
|मृत्यु=[[12 दिसंबर]], [[1964]]
|मृत्यु=[[12 दिसंबर]], 1964
|मृत्यु स्थान=चिरगाँव, [[झाँसी]]
|मृत्यु स्थान=चिरगाँव, [[झाँसी]]
|मुख्य रचनाएँ=पंचवटी, साकेत, यशोधरा, द्वापर, झंकार, जयभारत  
|मुख्य रचनाएँ=पंचवटी, साकेत, यशोधरा, द्वापर, झंकार, जयभारत  

08:30, 23 सितम्बर 2011 का अवतरण

इस लेख का पुनरीक्षण एवं सम्पादन होना आवश्यक है। आप इसमें सहायता कर सकते हैं। "सुझाव"
अर्जुन की प्रतिज्ञा -मैथिलीशरण गुप्त
मैथिलीशरण गुप्त
मैथिलीशरण गुप्त
कवि मैथिलीशरण गुप्त
जन्म 3 अगस्त, 1886
मृत्यु 12 दिसंबर, 1964
मृत्यु स्थान चिरगाँव, झाँसी
मुख्य रचनाएँ पंचवटी, साकेत, यशोधरा, द्वापर, झंकार, जयभारत
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
मैथिलीशरण गुप्त की रचनाएँ

उस काल मारे क्रोध के तन काँपने उसका लगा,
मानों हवा के वेग से सोता हुआ सागर जगा ।
मुख-बाल-रवि-सम लाल होकर ज्वाल सा बोधित हुआ,
प्रलयार्थ उनके मिस वहाँ क्या काल ही क्रोधित हुआ ?

युग-नेत्र उनके जो अभी थे पूर्ण जल की धार-से,
अब रोश के मारे हुए, वे दहकते अंगार-से ।
निश्चय अरुणिमा-मिस अनल की जल उठी वह ज्वाल ही,
तब तो दृगों का जल गया शोकाश्रु जल तत्काल ही ।

साक्षी रहे संसार करता हूँ प्रतिज्ञा पार्थ मैं,
पूरा करूँगा कार्य सब कथानुसार यथार्थ मैं ।
जो एक बालक को कपट से मार हँसते हैँ अभी,
वे शत्रु सत्वर शोक-सागर-मग्न दीखेंगे सभी ।

अभिमन्यु-धन के निधन से कारण हुआ जो मूल है,
इससे हमारे हत हृदय को, हो रहा जो शूल है,
उस खल जयद्रथ को जगत में मृत्यु ही अब सार है,
उन्मुक्त बस उसके लिये रौख नरक का द्वार है ।

उपयुक्त उस खल को न यद्यपि मृत्यु का भी दंड है,
पर मृत्यु से बढ़कर न जग में दण्ड और प्रचंड है ।
अतएव कल उस नीच को रण-मघ्य जो मारूँ न मैं,
तो सत्य कहता हूँ कभी शस्त्रास्त्र फिर धारूँ न मैं ।

अथवा अधिक कहना वृथा है, पार्थ का प्रण है यही,
साक्षी रहे सुन ये बचन रवि, शशि, अनल, अंबर, मही ।
सूर्यास्त से पहले न जो मैं कल जयद्रथ-वधकरूँ,
तो शपथ करता हूँ स्वयं मैं ही अनल में जल मरूँ ।

संबंधित लेख