"चाणक्य नीति- अध्याय 1": अवतरणों में अंतर
No edit summary |
No edit summary |
||
पंक्ति 3: | पंक्ति 3: | ||
===अध्याय 1=== | ===अध्याय 1=== | ||
----- | ----- | ||
;दोहा -- | |||
<blockquote><span style="color: blue"><poem> | |||
सुमति बढावन सबहि जन, पावन नीति प्रकास । | सुमति बढावन सबहि जन, पावन नीति प्रकास । | ||
टिका चाणक्यनीति कर, भनत भवानीदास | टिका चाणक्यनीति कर, भनत भवानीदास ॥1॥ | ||
</poem></span></blockquote> | </poem></span></blockquote> | ||
'''अर्थ -- '''मैं उन विष्णु भगवान को प्रणाम करके कि जो तीनों लोकों के स्वामी हैं, अनेक शास्त्रों से उद् धृत राजनीतिसमुच्चय विषयक बातें | '''अर्थ -- '''मैं उन विष्णु भगवान को प्रणाम करके कि जो तीनों लोकों के स्वामी हैं, अनेक शास्त्रों से उद् धृत राजनीतिसमुच्चय विषयक बातें कहूंगा। | ||
----- | ----- | ||
;दोहा-- | ;दोहा -- | ||
<blockquote><span style="color: blue"><poem> | <blockquote><span style="color: blue"><poem> | ||
तत्व सहित पढि शास्त्र यह, नर जानत सब बात । | तत्व सहित पढि शास्त्र यह, नर जानत सब बात । | ||
काज अकाज शुभाशुभहिं, मरम नीति विख्यात | काज अकाज शुभाशुभहिं, मरम नीति विख्यात ॥2॥ | ||
</poem></span></blockquote> | </poem></span></blockquote> | ||
इस नीति के विषय को शास्त्र के अनुसार अध्ययन करके सज्जन धर्मशास्त्र में कहे शुभाशुभ कार्य को जान लेते | '''अर्थ -- '''इस नीति के विषय को शास्त्र के अनुसार अध्ययन करके सज्जन धर्मशास्त्र में कहे शुभाशुभ कार्य को जान लेते हैं। | ||
----- | ----- | ||
;दोहा-- | ;दोहा -- | ||
<blockquote><span style="color: blue"><poem> | <blockquote><span style="color: blue"><poem> | ||
मैं सोड अब बरनन करूँ , अति हितकारक अज्ञ । | मैं सोड अब बरनन करूँ , अति हितकारक अज्ञ । | ||
जाके जानत हो जन, सबही विधि सर्वज्ञ | जाके जानत हो जन, सबही विधि सर्वज्ञ ॥3॥ | ||
</poem></span></blockquote> | </poem></span></blockquote> | ||
लोगों की भलाई के लिए मैं वह बात बताऊँगा कि जिसे समभक्त लेने मनुष्य सर्वज्ञ हो जाता | '''अर्थ -- '''लोगों की भलाई के लिए मैं वह बात बताऊँगा कि जिसे समभक्त लेने मनुष्य सर्वज्ञ हो जाता है। | ||
----- | ----- | ||
;दोहा-- | ;दोहा -- | ||
<blockquote><span style="color: blue"><poem> | <blockquote><span style="color: blue"><poem> | ||
उपदेशत शिषमूढ कहँ; व्यभिचारिणि ढिग वास । | उपदेशत शिषमूढ कहँ; व्यभिचारिणि ढिग वास । | ||
अरि को करत विश्वास उर, विदुषहु लहत विनास | अरि को करत विश्वास उर, विदुषहु लहत विनास ॥4॥ | ||
</poem></span></blockquote> | </poem></span></blockquote> | ||
मूर्खशिष्य को उपदेश देने से, कर्कशा स्त्री का भरण पोषण करने से ओर दुखियों का सम्पर्क रखने से समझदार मनुष्य को भी दुःखी होना पडता | '''अर्थ -- '''मूर्खशिष्य को उपदेश देने से, कर्कशा स्त्री का भरण पोषण करने से ओर दुखियों का सम्पर्क रखने से समझदार मनुष्य को भी दुःखी होना पडता है। | ||
----- | ----- | ||
;दोहा-- | ;दोहा -- | ||
<blockquote><span style="color: blue"><poem> | <blockquote><span style="color: blue"><poem> | ||
भामिनी दुष्टा मित्र शठ, प्रति उत्तरदा भृत्य। | भामिनी दुष्टा मित्र शठ, प्रति उत्तरदा भृत्य। | ||
अहि युत बसत अगार में, सब विधि मरिबो सत्य | अहि युत बसत अगार में, सब विधि मरिबो सत्य ॥5॥ | ||
</poem></span></blockquote> | </poem></span></blockquote> | ||
जिस मनुष्य की स्त्री दुष्टा है, नौकर उत्तर देनेवाला (मुँह लगा) है और जिस घर में साँप रहता है उस घर में जो रह रहा है तो निश्चय है कि किसी न किसी रोज उसकी मौत होगी | '''अर्थ -- '''जिस मनुष्य की स्त्री दुष्टा है, नौकर उत्तर देनेवाला (मुँह लगा) है और जिस घर में साँप रहता है उस घर में जो रह रहा है तो निश्चय है कि किसी न किसी रोज उसकी मौत होगी ही। | ||
----- | ----- | ||
;दोहा-- | ;दोहा -- | ||
<blockquote><span style="color: blue"><poem> | <blockquote><span style="color: blue"><poem> | ||
धन गहि राखहु विपति हित, धन ते वनिता धीर । | धन गहि राखहु विपति हित, धन ते वनिता धीर । | ||
तजि वनिता धनकूँ तुरत, सबते राख शरीर | तजि वनिता धनकूँ तुरत, सबते राख शरीर ॥6॥ | ||
</poem></span></blockquote> | </poem></span></blockquote> | ||
आपत्तिकाल के लिए धन को और धन से भी बढकर स्त्री की रक्षा करनी चाहिये। किन्तु स्त्री और धन से भी बढकर अपनी रक्षा करनी उचित | '''अर्थ -- '''आपत्तिकाल के लिए धन को और धन से भी बढकर स्त्री की रक्षा करनी चाहिये। किन्तु स्त्री और धन से भी बढकर अपनी रक्षा करनी उचित है। | ||
----- | ----- | ||
;दोहा-- | ;दोहा -- | ||
<blockquote><span style="color: blue"><poem> | <blockquote><span style="color: blue"><poem> | ||
आपद हित धन राखिये, धनहिं आपदा कौन । | आपद हित धन राखिये, धनहिं आपदा कौन । | ||
संचितहूँ नशि जात है, जो लक्ष्मी करु गौन | संचितहूँ नशि जात है, जो लक्ष्मी करु गौन ॥7॥ | ||
</poem></span></blockquote> | </poem></span></blockquote> | ||
आपत्ति से बचने के लिए धन कि रक्षा करनी चाहिये। इस पर यह प्रश्न होता है कि श्रीमान् के पास आपत्ति आयेगी ही क्यों ? उत्तर देते हैं कि कोई ऐसा समय भी आ जाता है, जब लक्ष्मी महारानी भी चल देती हैं। फिर प्रश्न होता है कि लक्ष्मी के चले जाने पर जो कुछ बचा बचाया धन है, वह भी चला जायेगा | '''अर्थ -- '''आपत्ति से बचने के लिए धन कि रक्षा करनी चाहिये। इस पर यह प्रश्न होता है कि श्रीमान् के पास आपत्ति आयेगी ही क्यों ? उत्तर देते हैं कि कोई ऐसा समय भी आ जाता है, जब लक्ष्मी महारानी भी चल देती हैं। फिर प्रश्न होता है कि लक्ष्मी के चले जाने पर जो कुछ बचा बचाया धन है, वह भी चला जायेगा ही। | ||
----- | ----- | ||
;दोहा-- | ;दोहा -- | ||
<blockquote><span style="color: blue"><poem> | <blockquote><span style="color: blue"><poem> | ||
जहाँ न आदर जीविका, नहिं प्रिय बन्धु निवास । | जहाँ न आदर जीविका, नहिं प्रिय बन्धु निवास । | ||
नहिं विद्या जिस देश में, करहु न दिन इक वास | नहिं विद्या जिस देश में, करहु न दिन इक वास ॥8॥ | ||
</poem></span></blockquote> | </poem></span></blockquote> | ||
जिस देश में न सम्मान हो, न रोजी हो, न कोई भाईबन्धु हो और न विद्या का ही आगम हो, वहाँ निवास नहीं करना | '''अर्थ -- '''जिस देश में न सम्मान हो, न रोजी हो, न कोई भाईबन्धु हो और न विद्या का ही आगम हो, वहाँ निवास नहीं करना चाहिये। | ||
----- | ----- | ||
;दोहा-- | ;दोहा -- | ||
<blockquote><span style="color: blue"><poem> | <blockquote><span style="color: blue"><poem> | ||
धनिक वेदप्रिय भूप अरु, नदी वैद्य पुनि सोय । | धनिक वेदप्रिय भूप अरु, नदी वैद्य पुनि सोय । | ||
बसहु नाहिं इक दिवस तह, जहँ यह पञ्च न होय | बसहु नाहिं इक दिवस तह, जहँ यह पञ्च न होय ॥9॥ | ||
</poem></span></blockquote> | </poem></span></blockquote> | ||
धनी (महाजन) वेदपाठी ब्राह्मण, राजा, नदी और पाँचवें वैद्य, ये पाँच जहाँ एक दिन भी न | '''अर्थ -- '''धनी (महाजन) वेदपाठी ब्राह्मण, राजा, नदी और पाँचवें वैद्य, ये पाँच जहाँ एक दिन भी न वसो। | ||
----- | ----- | ||
;दोहा-- | ;दोहा -- | ||
<blockquote><span style="color: blue"><poem> | <blockquote><span style="color: blue"><poem> | ||
दानदक्षता लाज भय, यात्रा लोक न जान । | दानदक्षता लाज भय, यात्रा लोक न जान । | ||
पाँच नहीं जहँ देखिये, तहाँ न बसहु सुजान | पाँच नहीं जहँ देखिये, तहाँ न बसहु सुजान ॥10॥ | ||
</poem></span></blockquote> | </poem></span></blockquote> | ||
जिसमें रोजी, भय, लज्जा, उदारता और त्यागशीलता, ये पाँच गुण विद्यमान नहीं, ऎसे मनुष्य से मित्रता नहीं करनी | '''अर्थ -- '''जिसमें रोजी, भय, लज्जा, उदारता और त्यागशीलता, ये पाँच गुण विद्यमान नहीं, ऎसे मनुष्य से मित्रता नहीं करनी चाहिये। | ||
----- | ----- | ||
;दोहा-- | ;दोहा -- | ||
<blockquote><span style="color: blue"><poem> | <blockquote><span style="color: blue"><poem> | ||
काज भृत्य कूँ जानिये, बन्धु परम दुख होय । | काज भृत्य कूँ जानिये, बन्धु परम दुख होय । | ||
मित्र परखियतु विपति में, विभव विनाशित जोय | मित्र परखियतु विपति में, विभव विनाशित जोय ॥11॥ | ||
</poem></span></blockquote> | </poem></span></blockquote> | ||
सेवा कार्य उपस्थित होने पर सेवकों की, आपत्तिकाल में मित्र की, दुःख में बन्धुवों की और धन के नष्ट हो जाने पर स्त्री की परीक्षा की जाती | '''अर्थ -- '''सेवा कार्य उपस्थित होने पर सेवकों की, आपत्तिकाल में मित्र की, दुःख में बन्धुवों की और धन के नष्ट हो जाने पर स्त्री की परीक्षा की जाती है। | ||
----- | ----- | ||
;दोहा-- | ;दोहा -- | ||
<blockquote><span style="color: blue"><poem> | <blockquote><span style="color: blue"><poem> | ||
दुख आतुर दुरभिक्ष में, अरि जय कलह अभड्ग । | दुख आतुर दुरभिक्ष में, अरि जय कलह अभड्ग । | ||
भूपति भवन मसान में, बन्धु सोइ रहे सड्ग | भूपति भवन मसान में, बन्धु सोइ रहे सड्ग ॥12॥ | ||
</poem></span></blockquote> | </poem></span></blockquote> | ||
जो बीमारी में दुख में, दुर्भिक्ष में शत्रु द्वारा किसी प्रकार का संकट उपस्थित होने पर, राजद्वार में और श्मशान पर जो ठीक समय पर पहुँचता है, वही बांधव कहलाने का अधिकारी | '''अर्थ -- '''जो बीमारी में दुख में, दुर्भिक्ष में शत्रु द्वारा किसी प्रकार का संकट उपस्थित होने पर, राजद्वार में और श्मशान पर जो ठीक समय पर पहुँचता है, वही बांधव कहलाने का अधिकारी है। | ||
----- | ----- | ||
;दोहा-- | ;दोहा -- | ||
<blockquote><span style="color: blue"><poem> | <blockquote><span style="color: blue"><poem> | ||
ध्रुव कूँ तजि अध्र अ गहै, चितमें अति सुख चाहि । | ध्रुव कूँ तजि अध्र अ गहै, चितमें अति सुख चाहि । | ||
ध्रुव तिनके नाशत तुरत, अध्र व नष्ट ह्वै जाहि | ध्रुव तिनके नाशत तुरत, अध्र व नष्ट ह्वै जाहि ॥13॥ | ||
</poem></span></blockquote> | </poem></span></blockquote> | ||
जो मनुष्य निश्चित वस्तु छोडकर अनिश्चित की ओर दौडता है तो उसकी निश्चित वस्तु भी नष्ट हो जाती है और अनिश्चित तो मानो पहले ही से नष्ट | '''अर्थ -- '''जो मनुष्य निश्चित वस्तु छोडकर अनिश्चित की ओर दौडता है तो उसकी निश्चित वस्तु भी नष्ट हो जाती है और अनिश्चित तो मानो पहले ही से नष्ट थी। | ||
----- | ----- | ||
;दोहा-- | ;दोहा -- | ||
<blockquote><span style="color: blue"><poem> | <blockquote><span style="color: blue"><poem> | ||
कुल जातीय विरूप दोउ, चातुर वर करि चाह । | कुल जातीय विरूप दोउ, चातुर वर करि चाह । | ||
रूपवती तउ नीच तजि, समकुल करिय विवाह | रूपवती तउ नीच तजि, समकुल करिय विवाह ॥14॥ | ||
</poem></span></blockquote> | </poem></span></blockquote> | ||
समझदार मनुष्य का कर्तव्य है कि वह कुरूपा भी कुलवती कन्या के साथ विवाह कर ले, पर नीच सुरूपवती के साथ न करे। क्योंकि विवाह अपने समान कुल में ही अच्छा होता | '''अर्थ -- '''समझदार मनुष्य का कर्तव्य है कि वह कुरूपा भी कुलवती कन्या के साथ विवाह कर ले, पर नीच सुरूपवती के साथ न करे। क्योंकि विवाह अपने समान कुल में ही अच्छा होता है। | ||
----- | ----- | ||
;दोहा-- | ;दोहा -- | ||
<blockquote><span style="color: blue"><poem> | <blockquote><span style="color: blue"><poem> | ||
सरिता श्रृड्गी शस्त्र अरु, जीव जितने नखवन्त । | सरिता श्रृड्गी शस्त्र अरु, जीव जितने नखवन्त । | ||
तियको नृपकुलको तथा , करहिं विश्वास न सन्त | तियको नृपकुलको तथा , करहिं विश्वास न सन्त ॥15॥ | ||
</poem></span></blockquote> | </poem></span></blockquote> | ||
नदियों का, शस्त्रधारियों का, बडे-बडे नखवाले जन्तुओं का, सींगवालों का, स्त्रियों का और राजकुल के लोगों का विश्वास नहीं करना | '''अर्थ -- '''नदियों का, शस्त्रधारियों का, बडे-बडे नखवाले जन्तुओं का, सींगवालों का, स्त्रियों का और राजकुल के लोगों का विश्वास नहीं करना चाहिये। | ||
----- | ----- | ||
;दोहा-- | ;दोहा -- | ||
<blockquote><span style="color: blue"><poem> | <blockquote><span style="color: blue"><poem> | ||
गहहु सुधा विषते कनक, मलते बहुकरि यत्न । | गहहु सुधा विषते कनक, मलते बहुकरि यत्न । | ||
नीचहु ते विद्या विमल, दुष्कुलते तियरत्न | नीचहु ते विद्या विमल, दुष्कुलते तियरत्न ॥16॥ | ||
</poem></span></blockquote> | </poem></span></blockquote> | ||
विष से भी अमृत, अपवित्र स्थान से भी कञ्चन, नीच मनुष्य से भी उत्तम विद्या और दुष्टकुल से भी स्त्रीरत्न को ले लेना | '''अर्थ -- '''विष से भी अमृत, अपवित्र स्थान से भी कञ्चन, नीच मनुष्य से भी उत्तम विद्या और दुष्टकुल से भी स्त्रीरत्न को ले लेना चाहिए। | ||
----- | ----- | ||
;दोहा-- | ;दोहा -- | ||
<blockquote><span style="color: blue"><poem> | <blockquote><span style="color: blue"><poem> | ||
तिय अहार देखिय द्विगुण, लाज चतुरगुन जान । | तिय अहार देखिय द्विगुण, लाज चतुरगुन जान । | ||
षटगुन तेहि व्यवसाय तिय, काम अष्टगुन मान | षटगुन तेहि व्यवसाय तिय, काम अष्टगुन मान ॥17॥ | ||
</poem></span></blockquote> | </poem></span></blockquote> | ||
स्त्रियों में पुरुष की अपेक्षा दूना आहार चौगुनी लज्जा छगुना साहस और अठगुना काम का वेग रहता | '''अर्थ -- '''स्त्रियों में पुरुष की अपेक्षा दूना आहार चौगुनी लज्जा छगुना साहस और अठगुना काम का वेग रहता है। | ||
----- | ----- | ||
;इति चाणक्यनीतिदर्पणो प्रथमोऽध्यायः | ;इति चाणक्यनीतिदर्पणो प्रथमोऽध्यायः ॥1॥ | ||
----- | ----- | ||
[[चाणक्यनीति - अध्याय 2]] | [[चाणक्यनीति - अध्याय 2]] |
14:46, 4 जनवरी 2012 का अवतरण
इस लेख का किसी अन्य वेबसाइट अथवा ब्लॉग से पूरा प्रतिलिपि कर बनाये जाने का प्रमाण मिला है। इसलिए इस पन्ने की सामग्री हटाई जा सकती है। सदस्यों को चाहिये कि वे भारतकोश के मानकों के अनुरूप ही पन्ना बनाएँ। यह लेख शीघ्र ही पुन: निर्मित किया जाएगा। आप इसमें सहायता कर सकते हैं।
|
अध्याय 1
- दोहा --
सुमति बढावन सबहि जन, पावन नीति प्रकास ।
टिका चाणक्यनीति कर, भनत भवानीदास ॥1॥
अर्थ -- मैं उन विष्णु भगवान को प्रणाम करके कि जो तीनों लोकों के स्वामी हैं, अनेक शास्त्रों से उद् धृत राजनीतिसमुच्चय विषयक बातें कहूंगा।
- दोहा --
तत्व सहित पढि शास्त्र यह, नर जानत सब बात ।
काज अकाज शुभाशुभहिं, मरम नीति विख्यात ॥2॥
अर्थ -- इस नीति के विषय को शास्त्र के अनुसार अध्ययन करके सज्जन धर्मशास्त्र में कहे शुभाशुभ कार्य को जान लेते हैं।
- दोहा --
मैं सोड अब बरनन करूँ , अति हितकारक अज्ञ ।
जाके जानत हो जन, सबही विधि सर्वज्ञ ॥3॥
अर्थ -- लोगों की भलाई के लिए मैं वह बात बताऊँगा कि जिसे समभक्त लेने मनुष्य सर्वज्ञ हो जाता है।
- दोहा --
उपदेशत शिषमूढ कहँ; व्यभिचारिणि ढिग वास ।
अरि को करत विश्वास उर, विदुषहु लहत विनास ॥4॥
अर्थ -- मूर्खशिष्य को उपदेश देने से, कर्कशा स्त्री का भरण पोषण करने से ओर दुखियों का सम्पर्क रखने से समझदार मनुष्य को भी दुःखी होना पडता है।
- दोहा --
भामिनी दुष्टा मित्र शठ, प्रति उत्तरदा भृत्य।
अहि युत बसत अगार में, सब विधि मरिबो सत्य ॥5॥
अर्थ -- जिस मनुष्य की स्त्री दुष्टा है, नौकर उत्तर देनेवाला (मुँह लगा) है और जिस घर में साँप रहता है उस घर में जो रह रहा है तो निश्चय है कि किसी न किसी रोज उसकी मौत होगी ही।
- दोहा --
धन गहि राखहु विपति हित, धन ते वनिता धीर ।
तजि वनिता धनकूँ तुरत, सबते राख शरीर ॥6॥
अर्थ -- आपत्तिकाल के लिए धन को और धन से भी बढकर स्त्री की रक्षा करनी चाहिये। किन्तु स्त्री और धन से भी बढकर अपनी रक्षा करनी उचित है।
- दोहा --
आपद हित धन राखिये, धनहिं आपदा कौन ।
संचितहूँ नशि जात है, जो लक्ष्मी करु गौन ॥7॥
अर्थ -- आपत्ति से बचने के लिए धन कि रक्षा करनी चाहिये। इस पर यह प्रश्न होता है कि श्रीमान् के पास आपत्ति आयेगी ही क्यों ? उत्तर देते हैं कि कोई ऐसा समय भी आ जाता है, जब लक्ष्मी महारानी भी चल देती हैं। फिर प्रश्न होता है कि लक्ष्मी के चले जाने पर जो कुछ बचा बचाया धन है, वह भी चला जायेगा ही।
- दोहा --
जहाँ न आदर जीविका, नहिं प्रिय बन्धु निवास ।
नहिं विद्या जिस देश में, करहु न दिन इक वास ॥8॥
अर्थ -- जिस देश में न सम्मान हो, न रोजी हो, न कोई भाईबन्धु हो और न विद्या का ही आगम हो, वहाँ निवास नहीं करना चाहिये।
- दोहा --
धनिक वेदप्रिय भूप अरु, नदी वैद्य पुनि सोय ।
बसहु नाहिं इक दिवस तह, जहँ यह पञ्च न होय ॥9॥
अर्थ -- धनी (महाजन) वेदपाठी ब्राह्मण, राजा, नदी और पाँचवें वैद्य, ये पाँच जहाँ एक दिन भी न वसो।
- दोहा --
दानदक्षता लाज भय, यात्रा लोक न जान ।
पाँच नहीं जहँ देखिये, तहाँ न बसहु सुजान ॥10॥
अर्थ -- जिसमें रोजी, भय, लज्जा, उदारता और त्यागशीलता, ये पाँच गुण विद्यमान नहीं, ऎसे मनुष्य से मित्रता नहीं करनी चाहिये।
- दोहा --
काज भृत्य कूँ जानिये, बन्धु परम दुख होय ।
मित्र परखियतु विपति में, विभव विनाशित जोय ॥11॥
अर्थ -- सेवा कार्य उपस्थित होने पर सेवकों की, आपत्तिकाल में मित्र की, दुःख में बन्धुवों की और धन के नष्ट हो जाने पर स्त्री की परीक्षा की जाती है।
- दोहा --
दुख आतुर दुरभिक्ष में, अरि जय कलह अभड्ग ।
भूपति भवन मसान में, बन्धु सोइ रहे सड्ग ॥12॥
अर्थ -- जो बीमारी में दुख में, दुर्भिक्ष में शत्रु द्वारा किसी प्रकार का संकट उपस्थित होने पर, राजद्वार में और श्मशान पर जो ठीक समय पर पहुँचता है, वही बांधव कहलाने का अधिकारी है।
- दोहा --
ध्रुव कूँ तजि अध्र अ गहै, चितमें अति सुख चाहि ।
ध्रुव तिनके नाशत तुरत, अध्र व नष्ट ह्वै जाहि ॥13॥
अर्थ -- जो मनुष्य निश्चित वस्तु छोडकर अनिश्चित की ओर दौडता है तो उसकी निश्चित वस्तु भी नष्ट हो जाती है और अनिश्चित तो मानो पहले ही से नष्ट थी।
- दोहा --
कुल जातीय विरूप दोउ, चातुर वर करि चाह ।
रूपवती तउ नीच तजि, समकुल करिय विवाह ॥14॥
अर्थ -- समझदार मनुष्य का कर्तव्य है कि वह कुरूपा भी कुलवती कन्या के साथ विवाह कर ले, पर नीच सुरूपवती के साथ न करे। क्योंकि विवाह अपने समान कुल में ही अच्छा होता है।
- दोहा --
सरिता श्रृड्गी शस्त्र अरु, जीव जितने नखवन्त ।
तियको नृपकुलको तथा , करहिं विश्वास न सन्त ॥15॥
अर्थ -- नदियों का, शस्त्रधारियों का, बडे-बडे नखवाले जन्तुओं का, सींगवालों का, स्त्रियों का और राजकुल के लोगों का विश्वास नहीं करना चाहिये।
- दोहा --
गहहु सुधा विषते कनक, मलते बहुकरि यत्न ।
नीचहु ते विद्या विमल, दुष्कुलते तियरत्न ॥16॥
अर्थ -- विष से भी अमृत, अपवित्र स्थान से भी कञ्चन, नीच मनुष्य से भी उत्तम विद्या और दुष्टकुल से भी स्त्रीरत्न को ले लेना चाहिए।
- दोहा --
तिय अहार देखिय द्विगुण, लाज चतुरगुन जान ।
षटगुन तेहि व्यवसाय तिय, काम अष्टगुन मान ॥17॥
अर्थ -- स्त्रियों में पुरुष की अपेक्षा दूना आहार चौगुनी लज्जा छगुना साहस और अठगुना काम का वेग रहता है।
- इति चाणक्यनीतिदर्पणो प्रथमोऽध्यायः ॥1॥
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख