"गंगासागर मेला": अवतरणों में अंतर

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13:42, 16 मार्च 2012 का अवतरण

गंगासागर मेला पश्चिम बंगाल में आयोजित होने वाले सबसे बड़े मेलों में से एक है। इस मेले का आयोजन कोलकाता के निकट हुगली नदी के तट पर ठीक उस स्थान पर किया जाता है, जहाँ पर गंगा बंगाल की खाड़ी में मिलती है। इसीलिए इस मेले का नाम गंगासागर मेला है। यह मेला विक्रमी संवत के अनुसार प्रतिवर्ष पौष मास के अन्तिम दिन लगता है। यह मकर संक्रान्ति का दिन होता है।

तीर्थ रूप में मान्यता

हिमाच्छादित हिमालय के हिमनद से आरम्भ होकर गंगा नदी, पर्वतों से नीचे उतरती है, और हरिद्वार से मैदानी स्थानों पर पहुँचती है, और आगे बढ़ते हुए प्राचीन बनारसप्रयाग से प्रवाहित होती हुई, बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है। बंगाल में हुगली नदी के मुहाने पर जहाँ गंगा सहस्रों जलधाराओं में फूट पड़ती है तथा समुद्र में बह जाती है, उस स्थान को 'सागर द्वीप' कहा जाता है। इस स्थल की गंगासागर नामक एक तीर्थ के रूप में मान्यता है।

हिन्दू आस्था स्थल

लगभग दो–तीन लाख व्यक्ति प्रतिवर्ष इस मेले में आते हैं। इस स्थान को हिन्दुओं के एक विशेष पवित्र स्थल के रूप में जाना जाता है। यह समस्त हिन्दू धर्म के मानने वालों का आस्था स्थल है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि, गंगासागर की पवित्र तीर्थयात्रा सैकड़ों तीर्थयात्राओं के समान है—"अन्य तीर्थ बार–बार, गंगासागर एक बार।" सुन्दरवन निकट होने के कारण मेले को कई विषम स्थितियों का सामना करना पड़ता है। तूफ़ान व ऊँची लहरें हर वर्ष मेले में बाधा डालती हैं, परन्तु परम्परा और श्रद्धा के सामने हर बाधा बोनी हो जाती है।

पवित्र स्नान

गंगा के सागर में मिलने के स्थान पर स्नान करना अत्यन्त शुभ व पवित्र माना जाता है। स्नान यदि विशेष रूप से मकर संक्रान्ति के दिन किया जाए, तो उसकी महत्ता और भी बढ़ जाती है। मकर संक्रान्ति के दिन सूर्य देव धनु राशि से निकलकर मकर राशि में प्रवेश करते हैं। इस अवसर पर यह स्थान बड़े मेले का केन्द्र बन जाता है। यहाँ पर यात्री व संन्यासी पूरे देश से आते हैं। गंगा में स्नान कर ये लोग सूर्य देव को अर्ध्य देते हैं। मान्यतानुसार यह स्नान उन्हें पुण्य दान करता है। अच्छी फ़सल प्रदान करने के लिए धन्यवाद स्वरूप सूर्य देव की विशेष पूजा की जाती है। इस त्यौहार पर तिल व तेल का विशेष महत्व है, इसलिए लोग इस दिन चावल का ही विशेष भोजन करते हैं।

पिण्डदान

गंगासागर के संगम पर श्रद्धालु 'समुद्र देवता' को नारियल और यज्ञोपवीत भेंट करते हैं। पूजन एवं पिण्डदान के लिए बहुत से पंडागण गाय–बछिया के साथ खड़े रहते हैं, जो उनकी इच्छित पूजा करा देते हैं। समुद्र में पितरों को जल अवश्य अर्पित करना चाहिए तथा स्नान के बाद कपिल मुनि का दर्शन कपिल मन्दिर में करना चाहिए। गंगासागर में स्नान–दान का महत्व शास्त्रों में विस्तार से बताया गया है।

कपिलमुनि मन्दिर

स्थानीय मान्यतानुसार जो युवतियाँ यहाँ पर स्नान करती हैं, उन्हें अपनी इच्छानुसार वर तथा युवकों को स्वेच्छित वधु प्राप्त होती है। अनुष्ठान आदि के पश्चात् सभी लोग कपिल मुनि के आश्रम की ओर प्रस्थान करते हैं तथा श्रद्धा से उनकी मूर्ति की पूजा करते हैं। मन्दिर में गंगा देवी, कपिल मुनि तथा भागीरथी की मूर्तियाँ स्थापित हैं।

गंगा अवतरण का आख्यान

पुराणों में कहते हैं कि राजा सगर ने अश्वमेघ यज्ञ का घोड़ा छोड़ा और उसकी रक्षा का भार 60 हज़ार पुत्रों को दिया। इन्द्र ने वह घोड़ा चुराकर कपिल मुनि के आश्रम में बाँध दिया। घोड़े को खोजते हुए जब राजकुमार वहाँ पर पहुँचे तो मुनि को भला–बुरा कहने लगे। मुनि को इस उदण्डता पर क्रोध आ गया और सभी 60 हज़ार सगर पुत्र मुनि की क्रोधाग्नि में जलकर भस्म हो गए, तब सगर के पुत्र अंशुमान ने मुनि से क्षमा–याचना की तथा राजकुमारों की मुक्ति का उपाय पूछा। मुनि ने कहा-स्वर्ग से गंगा को पृथ्वी पर लाओं, उसी की जलधारा के स्पर्श से ये मुक्त होंगे। अंशुमान ने तप किया, किन्तु सफल नहीं हुए। भागीरथ ने तप करके गंगा को पृथ्वी पर उतारा। उनके रथ के पीछे–पीछे गंगाजी अविरल प्रवाह के साथ यहीं गंगासागर कपिल आश्रम में आयीं और उनके पितरों की राख को स्पर्श किया, जिससे सभी राजकुमार मोक्ष को प्राप्त हुए। वह दिन मकर संक्रान्ति का दिन था। तभी से मकर संक्रान्ति के दिन यहाँ पर प्रतिवर्ष स्नान–दान, पूजा व मेला की परम्परा का शुभारम्भ हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ