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क़ुरान या क़ुरआन ([[अरबी भाषा|अरबी]]: القرآن, अल-क़ुर्'आन) [[इस्लाम धर्म]] की पवित्रतम पुस्तक है और इस्लाम की नींव है। [[मुसलमान]] मानते हैं कि इसे परमेश्वर ([[अल्लाह]]) ने देवदूत (फ़रिश्ते) जिब्राएल द्वारा [[हज़रत मुहम्मद]] को सुनाया था। मुसलमानों का मानना है कि क़ुरान ही अल्लाह की भेजी अन्तिम और सर्वोच्च पुस्तक है। क़ुरान शब्द का प्रथम उल्लेख स्वयं क़ुरान में ही मिलता है, जहाँ इसका अर्थ है - उसने पढ़ा, या उसने उच्चारा। यह शब्द इसके सीरियाई समानांतर कुरियना का अर्थ लेता है जिसका अर्थ होता है ग्रंथों को पढ़ना। हालाँकि पाश्चात्य जानकार इसको सीरियाई शब्द से जोड़ते हैं, अधिकांश मुसलमानों का मानना है कि इसका मूल क़ुरा शब्द ही है। पर चाहे जो हो मुहम्मद साहब के जन्मदिन के समय ही यह एक अरबी शब्द बन गया था।<ref name="इस्लाम सब के लिए">{{cite web |url=http://www.c9soft.com/islamsabkeliye/article.php?event=detail&id=41 |title=क़ुरान |accessmonthday=[[9 मार्च]] |accessyear=[[2011]] |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=इस्लाम सब के लिए |language=हिन्दी }}</ref> मुस्लिम समाज के लिये आवश्यक [[बिदअत]] में क़ुरान की सही समझ-बूझ, हदीस (पैगम्बर मुहम्म्द की दीक्षाओं या परंपराओं) के मूल्यांकन और उनकी वैधता तय करने, विधर्मता का खंडन करने और क़ानून के संहिताकरण के लिये [[अरबी भाषा|अरबी]] [[व्याकरण (व्यावहारिक)|व्याकरण]] और भाषाशास्त्र (फ़र्द किफ़ाया) का अध्ययन ज़रूरी है। | क़ुरान या क़ुरआन ([[अरबी भाषा|अरबी]]: القرآن, अल-क़ुर्'आन) [[इस्लाम धर्म]] की पवित्रतम पुस्तक है और [[इस्लाम]] की नींव है। [[मुसलमान]] मानते हैं कि इसे परमेश्वर ([[अल्लाह]]) ने देवदूत ([[फ़रिश्ता|फ़रिश्ते]]) जिब्राएल द्वारा [[हज़रत मुहम्मद]] को सुनाया था। मुसलमानों का मानना है कि क़ुरान ही अल्लाह की भेजी अन्तिम और सर्वोच्च पुस्तक है। क़ुरान शब्द का प्रथम उल्लेख स्वयं क़ुरान में ही मिलता है, जहाँ इसका अर्थ है - उसने पढ़ा, या उसने उच्चारा। यह शब्द इसके सीरियाई समानांतर कुरियना का अर्थ लेता है जिसका अर्थ होता है ग्रंथों को पढ़ना। हालाँकि पाश्चात्य जानकार इसको सीरियाई शब्द से जोड़ते हैं, अधिकांश मुसलमानों का मानना है कि इसका मूल क़ुरा शब्द ही है। पर चाहे जो हो मुहम्मद साहब के जन्मदिन के समय ही यह एक अरबी शब्द बन गया था।<ref name="इस्लाम सब के लिए">{{cite web |url=http://www.c9soft.com/islamsabkeliye/article.php?event=detail&id=41 |title=क़ुरान |accessmonthday=[[9 मार्च]] |accessyear=[[2011]] |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=इस्लाम सब के लिए |language=हिन्दी }}</ref> मुस्लिम समाज के लिये आवश्यक [[बिदअत]] में क़ुरान की सही समझ-बूझ, हदीस (पैगम्बर मुहम्म्द की दीक्षाओं या परंपराओं) के मूल्यांकन और उनकी वैधता तय करने, विधर्मता का खंडन करने और क़ानून के संहिताकरण के लिये [[अरबी भाषा|अरबी]] [[व्याकरण (व्यावहारिक)|व्याकरण]] और भाषाशास्त्र (फ़र्द किफ़ाया) का अध्ययन ज़रूरी है। | ||
==अध्याय== | ==अध्याय== | ||
*इस्लाम धर्म की पवित्र पुस्तक का नाम क़ुरान है जिसका [[हिन्दी भाषा|हिन्दी]] में अर्थ 'सस्वर पाठ' है। क़ुरान शरीफ़ 22 साल 5 माह और 14 दिन के अर्से में ज़रूरत के मुताबिक़ किस्तों में नाज़िल हुआ। क़ुरान शरीफ़ में 30 पारे, 114 सूरतें और 540 रुकूअ हैं। क़ुरान शरीफ़ की कुल आयत की तादाद 6666 (छः हज़ार छः सौ छियासठ) है।<ref>{{cite web |url=http://hindi.webdunia.com/religion/religion/islam/0809/22/1080922003_1.htm |title=कुरआन नूर की हिदायत |accessmonthday=[[23 सितंबर]] |accessyear=[[2010]] |last= |first= |authorlink= |format=एच टी एम |publisher=वेब दुनिया |language=हिन्दी }}</ref> | *इस्लाम धर्म की पवित्र पुस्तक का नाम क़ुरान है जिसका [[हिन्दी भाषा|हिन्दी]] में अर्थ 'सस्वर पाठ' है। क़ुरान शरीफ़ 22 साल 5 माह और 14 दिन के अर्से में ज़रूरत के मुताबिक़ किस्तों में नाज़िल हुआ। क़ुरान शरीफ़ में 30 पारे, 114 सूरतें और 540 रुकूअ हैं। क़ुरान शरीफ़ की कुल आयत की तादाद 6666 (छः हज़ार छः सौ छियासठ) है।<ref>{{cite web |url=http://hindi.webdunia.com/religion/religion/islam/0809/22/1080922003_1.htm |title=कुरआन नूर की हिदायत |accessmonthday=[[23 सितंबर]] |accessyear=[[2010]] |last= |first= |authorlink= |format=एच टी एम |publisher=वेब दुनिया |language=हिन्दी }}</ref> | ||
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{{दाँयाबक्सा|पाठ=क़ुरआन हकीम 22 साल 5 माह और 14 दिन के अर्से में ज़रूरत के मुताबिक़ किस्तों में नाज़िल हुआ। कुरआन मजीद में 30 पारे, 114 सूरतें और 540 रुकूअ हैं। क़ुरआन मजीद की कुल आयत की तादाद 6666 (छः हज़ार छः सौ छियासठ) है।|विचारक=}} | {{दाँयाबक्सा|पाठ=क़ुरआन हकीम 22 साल 5 माह और 14 दिन के अर्से में ज़रूरत के मुताबिक़ किस्तों में नाज़िल हुआ। कुरआन मजीद में 30 पारे, 114 सूरतें और 540 रुकूअ हैं। क़ुरआन मजीद की कुल आयत की तादाद 6666 (छः हज़ार छः सौ छियासठ) है।|विचारक=}} | ||
क़ुरान के विषय में उसके अनुयायियों का विश्वास है और स्वयं क़ुरान में भी लिखा है- '''सचमुच पूज्य क़ुरान अदृष्ट पुस्तक में (वर्तमान) है। जब तक शुद्ध न हो, उसे मत छुओ। वह लोक-परलोक के स्वामी के पास उतरा है'''।<ref>56 : 3 : 3-5</ref> अदृष्ट पुस्तक से यहाँ अभिप्राय उस स्वर्गीय लेख-पटिट्का से है जिसे इस्लामी परिभाषा में ‘लौह-महफूज’ कहते हैं। सृष्टिकर्ता ने आदि से उसमें त्रिकालवृत्ति लिख रक्खा है, जैसा कि स्थानान्तर में कहा है- | क़ुरान के विषय में उसके अनुयायियों का विश्वास है और स्वयं क़ुरान में भी लिखा है- '''सचमुच पूज्य क़ुरान अदृष्ट पुस्तक में (वर्तमान) है। जब तक शुद्ध न हो, उसे मत छुओ। वह लोक-परलोक के स्वामी के पास उतरा है'''।<ref>56 : 3 : 3-5</ref> अदृष्ट पुस्तक से यहाँ अभिप्राय उस स्वर्गीय लेख-पटिट्का से है जिसे इस्लामी परिभाषा में ‘लौह-महफूज’ कहते हैं। सृष्टिकर्ता ने आदि से उसमें त्रिकालवृत्ति लिख रक्खा है, जैसा कि स्थानान्तर में कहा है- | ||
'''हमने अरबी क़ुरान रचा कि तुमको ज्ञान हो। निस्सन्देह वह उत्तम ज्ञान-भण्डार हमारे पास पुस्तकों की माता (लौह महफूज) में लिखा है'''।<ref>53 : 1 : 3-5</ref> | '''हमने अरबी क़ुरान रचा कि तुमको ज्ञान हो। निस्सन्देह वह उत्तम ज्ञान-भण्डार हमारे पास पुस्तकों की माता (लौह महफूज) में लिखा है'''।<ref>53 : 1 : 3-5</ref> | ||
जगदीश्वर ने क़ुरान में वर्णित ज्ञान को जगत के हित के लिए अपने प्रेरित के हृदय में प्रकाशित किया, यही इस सबका भावार्थ है। अपने [[धर्म]] की शिक्षा देने वाले ग्रन्थ पर असाधारण श्रद्धा होना मनुष्य का स्वभाव है। यही कारण है कि क़ुरान के माहात्म्य के विषय में अनेक कथाएँ जनसमुदाय में प्रचलित हैं, यद्यपि उन सबका आधार श्रद्धा छोड़ कर क़ुरान में ढूँढ़ना युक्त नहीं है, किन्तु ऐसे वाक्यों का उसमें सर्वथा अभाव है, यह भी नहीं कहा जा सकता। एक स्थल पर कहा है- | जगदीश्वर ने क़ुरान में वर्णित ज्ञान को जगत के हित के लिए अपने प्रेरित के हृदय में प्रकाशित किया, यही इस सबका भावार्थ है। अपने [[धर्म]] की शिक्षा देने वाले ग्रन्थ पर असाधारण श्रद्धा होना मनुष्य का स्वभाव है। यही कारण है कि क़ुरान के माहात्म्य के विषय में अनेक कथाएँ जनसमुदाय में प्रचलित हैं, यद्यपि उन सबका आधार श्रद्धा छोड़ कर क़ुरान में ढूँढ़ना युक्त नहीं है, किन्तु ऐसे वाक्यों का उसमें सर्वथा अभाव है, यह भी नहीं कहा जा सकता। एक स्थल पर कहा है- | ||
'''यदि हम इस क़ुरान को किसी पर्वत (वा पर्वत-सदृश कठोर हृदय) पर उतारते, तो अवश्य तू उसे परमेश्वर के भय से दबा और फटा देखता। इन दृष्टान्तों को मनुष्यों के लिए हम वर्णित करते है जिससे कि वह सोचें।'''<ref>59 : 3 : 4</ref> | |||
'''यदि हम इस क़ुरान को किसी [[पर्वत]] (वा पर्वत-सदृश कठोर हृदय) पर उतारते, तो अवश्य तू उसे परमेश्वर के भय से दबा और फटा देखता। इन दृष्टान्तों को मनुष्यों के लिए हम वर्णित करते है जिससे कि वह सोचें।'''<ref>59 : 3 : 4</ref> | |||
==लेखन== | ==लेखन== | ||
[[मुहम्मद|हज़रत मुहम्मद ( | [[मुहम्मद|हज़रत मुहम्मद (सल्ल.)]] स्वयं पढ़े-लिखे न थे। क़ुरआन का जो भी अंश अवतरित होता वह विशेष ईश्वरीय प्रावधान से मुहम्मद को कंठस्थ (याद) हो जाता<ref>सूरः क़ियामः (75) आयत 17-19</ref> मुहम्मद तुरंत या शीघ्रताशीघ्र अपने साथियों को बोल कर उसे लिखवा देते। इतिहास में प्रमाणित तौर पर ऐसे लिखने वालों (वह्य-लिपिकों) की संख्या 41 उल्लिखित है। उन सब के नाम, [[पिता]] के नाम, क़बीले (वंश, कुल) के नाम भी इतिहास के रिकार्ड पर हैं। | ||
==क़ुरान का प्रयोजन, वर्णन-शैली== | |||
‘कदाचित तुमको ज्ञान हो। इसलिए उस ([[मुहम्मद]]) पर हमने अरबी क़ुरान उतारा!’<ref>12 : 1 : 2</ref> | |||
‘मंगल संदेशप्रद, भयदायक, वह [[ग्रंथ]]-[[अरबी भाषा|अरबी]] क़ुरान-परम कृपालु दयामय की ओर से उतरा है। इसमें उस (प्रभु) का लक्षण वर्णित है जिसमें कि जातियाँ उसे जानें’<ref>41 : 1 : 2-4</ref> | |||
‘हे मुहम्मद ! इस प्रकार हमने अरबी क़ुरान तेरे हृदयस्थ किया, तू उससे ग्रामों की जननी ([[मक्का (अरब)|मक्का]]) और उसके आसपास को इकट्ठा होने के दिन (प्रलय) से डरावै।‘<ref>42 : 1 : 7</ref> | |||
‘हे मुहम्मद ! इस प्रकार हमने उस अरबी हुक्म (क़ुरान) को उतारा। जो कुछ तेरे पास (उस) ज्ञान में से आया, यदि उसे छोड़ तूने उन (लोगों) की इच्छा का अनुसरण किया, तो महाप्रभु की ओर से तेरे लिए सहायक और रक्षक (कोई) नहीं।‘<ref>13 : 15 :6</ref> | |||
उपर्युक्त क़ुरान से उद्धृत इन वाक्यों में ‘क़ुरान’ यह नाम, उसकी भाषा और प्रतिपाद्य विषय बतलाया गया है। क़ुरान क्या है? ईश्वर-प्रदत्त एक अरबी ग्रन्थ्। उसके प्रदान का प्रयोजन क्या? यही कि सन्मार्ग-भ्रष्ट जनों को भय दिखा और श्रद्धालुओं को उनके पुण्य कार्यों के मंगलमय परिणाम का संदेश दे सत्पथ पर आरूढ़ किया जाय। महानुभाव मुहम्मद के समय का ‘अरब’ कहाँ तक सन्मार्ग-व्युत हो गया था? उस समय का व्यवहार कहाँ तक दुराचारपूर्ण हो गया था? अज्ञान कहाँ तक अपनी पराकाष्ठा को पहुँच चुका था? इत्यादि बातों का परिचय कुछ तो प्रथम विन्दु से मिल चुका है और कुछ का वर्ण्न आगे भी यथास्थान होगा। उन अज्ञानतमोनिमग्न, सदाचार-संज्ञाहीन, क्रुरकर्मा अरब-निवासियों को सच्चे रास्ते पर ले चलने के दो ही उपाय थे। एक तो यह था कि उनको पापों का दुष्परिणाम समझाकर उन्हें अच्छे कामों की ओर प्रेरित किया जाय। | |||
कितनी ही बार अनेक प्रलोभन सत्पुरुषों को भी सन्मार्ग-भ्रष्ट करने में सफल होते हैं। सर्वप्रिय बनने की इच्छा बहुधा अमधुर सत्य प्रकाशित करने की आज्ञा नहीं देती। इसीलिए ऊपर संकेत किया गया है कि लोगों की इच्छा का अनुसरण करने वाला कभी ईश्वर की रक्षा और सहायता का भाजन नहीं हो सकता। सचमुच संसार में समालोचन और संशोधन का काम बहुत कठिन है। नाना छल-पाखण्डयुक्त संसार के दुष्कृत्यों की यदि निर्भीकतापूर्वक समालोचना की जाती है तो एक बार जनसमुद्र अपने निस्सीमाधिकार तथा चिरस्थापित नीति के तरंगों का गत्यवरोध देख, अपनी सम्पूर्ण शक्ति को उसके प्रतिकार में लिए प्रस्तुत हो जाता है। बड़ी-बड़ी तरंगो की तो बात ही अलग है, क्षुद्र बुद्बुद-समुदाय भी अभिमत्त हो अपने स्वरूप का विचार न कर उस समय उसके सिर पर पादप्रहार करने का उद्योग भी आरम्भ कर देता है। किन्तु निश्चल-नीति, सत्यमनस्क, सुधारक- | |||
<blockquote> | |||
<poem>“निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तृवन्तु। | |||
लक्ष्मी समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्॥ | |||
अद्यैव मरणमस्तु युगान्तरे वा। | |||
न्यायात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः॥1॥“</poem></blockquote> | |||
भर्तृहरि के इस वाक्यानुसार अपना सर्वस्व स्वाह करने के लिए उस प्रलय-कोलाहलपूर्ण, संक्रुद्ध जन-सिन्धु की कुछ भी परवाह न कर, सुमेरुवत् अपने स्थान पर स्थित रहता है। उसका सदुपदेश अरण्य-रोदन-सा प्रतीत होता है अथवा गम्भीर भेरीनाद के सामने क्षीण वीणास्वर। सहायकों और संरक्षकों के बिना अकेला, अपने भीषण विरोधियों का सामुख्य, वह उस निराशपूर्ण अन्धनिशा में करता है जब उसे क्षणमात्र के लिए भी आशारूपी तारों की टिमटिमाहट भी नहीं दीख पड़ती। सुधारक मुहम्मद का जीवन भी ऐसी ही घटनाओं से पूर्ण है। | |||
ऊपर के वाक्यों में क़ुरान का अरबी में उतरना भी आया है। मक्का और उसके आसपास के लिए तभी क़ुरान की उपयोगिता है जब कि वह वहाँ की [[भाषा]] में हो। दूसरी जगह कहा भी है- | |||
‘’यदि हम अरबी से भिन्न भाषा में क़ुरान बनाते, तो अवश्य (लोग) कहने लगते- ‘उसके तांत्पर्य क्यों नहीं स्पष्ट किये गये। क्या ! अरब का आदमी और अरब की भाषा से भिन्न भाषा?’ यह विश्वादियों के लिए मार्गदर्शक और स्वास्थप्रद है।“<ref>41 : 5 : 12</ref> | |||
==अनुप्रासबद्ध-वर्णन== | |||
युद्धप्रिय अरब के लोगों में उस समय कविता के लिए बड़ा प्रेम था। वहाँ कितने ही ऐसे [[कवि]] हुए है जिनकी कविताएँ युद्धाग्नि भड़काने में घी का काम देती थीं। इसके लिए इस विषय के विशेष जिज्ञासुओं को श्रद्धेय नहेशप्रसाद साध विरचित प्रसिद्ध हिन्दी-ग्रन्थ ‘अरब काव्य’ पढ़ना चाहिए। सुन्दर भाषा और स्वास्थ्य-लाभ के लिए मक्का नगर के प्रतिष्ठित घरानों से दो-दो, तीन-तीन [[वर्ष]] के बच्चे अस्थिर-वास बद्दू अरबों के डेरों में पलते थे। स्वयं माननीय मुहम्मद का शैशव भी इसी प्रका व्यतीत हुआ था। | |||
इससे भी उनकी भाषा अत्यन्त परिमार्जित और सुन्दर थी। क़ुरान ‘अथ’ से ‘इति’ तक अनुप्रासबद्ध लिखा गया है; जैसे- | |||
<blockquote><poem>कुल् हुबल्लाहु अहद्। अल्लाहुस्समद्। | |||
लम् यलिद् व लम् यूलद्। व लम् यकुन् कुफुवन् अहद्॥</poem></blockquote> | |||
कह, वह परमेश्वर एक, सर्वाधार (है)। (वह) न उत्पन्न करता, न उत्पन्न हुआ है और न कोई उसके समान (है)।<ref>112</ref> | |||
==संरक्षण== | ==संरक्षण== | ||
क़ुरआन को चूँकि रहती दुनिया तक के लिए, समस्त संसार में मानव-जाति का मार्गदर्शन करना था और इस बात को भी निश्चित बनाना था कि ईश-वाणी पूरी की पूरी सुरक्षित हो जाए, एक शब्द भी न कम हो न ज़्यादा, इसमें किसी मानव-वाणी की मिलावट, कोई बाह्य हस्तक्षेप, संशोधन-परिवर्तन होना संभव न रह जाए इसलिए ईश्वरीय स्तर पर तथा मानवीय स्तर पर इसके कई विशेष प्रयोजन किए गए:- | क़ुरआन को चूँकि रहती दुनिया तक के लिए, समस्त संसार में मानव-जाति का मार्गदर्शन करना था और इस बात को भी निश्चित बनाना था कि ईश-वाणी पूरी की पूरी सुरक्षित हो जाए, एक शब्द भी न कम हो न ज़्यादा, इसमें किसी मानव-वाणी की मिलावट, कोई बाह्य हस्तक्षेप, संशोधन-परिवर्तन होना संभव न रह जाए इसलिए ईश्वरीय स्तर पर तथा मानवीय स्तर पर इसके कई विशेष प्रयोजन किए गए:- | ||
# चूँकि इससे पहले के ईशग्रंथों में मानवीय हस्तक्षेप से बहुत कुछ कमी-बेशी हो चुकी थी इसलिए क़ुरआन के संरक्षण की ज़िम्मेदारी स्वयं ईश्वर ने अपने ऊपर ले ली। ख़ुद क़ुरआन में उल्लिखित है- '''हमने इसे अवतरित किया और हम ही इसकी हिफ़ाज़त करेंग'''।<ref>सूरः हिज्र 15, आयत 9</ref> ईश्वर ने इसके लिए निम्नलिखित प्रावधान किए— | # चूँकि इससे पहले के ईशग्रंथों में मानवीय हस्तक्षेप से बहुत कुछ कमी-बेशी हो चुकी थी इसलिए क़ुरआन के संरक्षण की ज़िम्मेदारी स्वयं ईश्वर ने अपने ऊपर ले ली। ख़ुद क़ुरआन में उल्लिखित है- '''हमने इसे अवतरित किया और हम ही इसकी हिफ़ाज़त करेंग'''।<ref>सूरः हिज्र 15, आयत 9</ref> ईश्वर ने इसके लिए निम्नलिखित प्रावधान किए— | ||
# प्राथमिक स्तर पर ईश्वर ने पैग़म्बर को पूरा ग्रंथ कंठस्थ करा दिया, क़ुरआन में इसकी पुष्टि भी कर दी<ref>सूर: 75, आयत 17-19</ref> | # प्राथमिक स्तर पर ईश्वर ने पैग़म्बर को पूरा ग्रंथ कंठस्थ करा दिया, क़ुरआन में इसकी पुष्टि भी कर दी<ref>सूर: 75, आयत 17-19</ref> | ||
# पैग़म्बर ( | # पैग़म्बर (सल्ल.) के कई साथियों ने क़ुरआन को पूर्ण शुद्धता के साथ कंठस्थ (हिफ़्ज़) कर लिया। | ||
# पैग़म्बर ( | # पैग़म्बर (सल्ल.) के जीवन-काल में ही क़ुरआन का संकलन-कार्य पूरा कर लिया गया। | ||
# पैग़म्बर ( | # पैग़म्बर (सल्ल.) के देहावसान (632 ई.) के बाद दो उत्तराधिकारियों (ख़लीफ़ाओं हज़रत अबूबक्र (रज़ि.) और हज़रत उमर (रज़ि.) के शासन-काल (632-644 ई.) में उनकी व्यक्तिगत निगरानी में सारे लिपिकों की लिखित सामग्री को एक-दूसरे से जाँच कर तथा ग्रंथ के कंठस्थकारों से पुनः-पुनः जाँच कर, पैग़म्बर (सल्ल.) के निर्देशित क्रम में पुस्तक-रूप में ले आया गया। फिर तीसरे ख़लीफ़ा हज़रत उस्मान (रज़ि.) के शासनकाल (644-656 ई.) में इस ग्रंथ की सात प्रतियाँ तैयार की गईं। एक-एक प्रति इस्लामी राज्य के विभिन्न भागों (यमन, सीरिया, फ़िलिस्तीन, आरमेनिया, [[मिस्र]], [[इराक़]] और [[ईरान]]) में सरकारी प्रति के तौर भी भेज दी गई। उनमें से कुछ मूल-प्रतियाँ आज भी ताशकन्द, इस्तंबूल आदि के संग्रहालयों में मौजूद हैं। | ||
# ईश्वर ने ईशदूत हज़रत मुहम्मद ( | # ईश्वर ने ईशदूत [[हज़रत मुहम्मद|हज़रत मुहम्मद (सल्ल.)]] को आदेश देकर चैबीस घंटों में प्रतिदिन पाँच बार की अनिवार्य [[नमाज़|नमाज़ों]] में क़ुरआन के कुछ अंश पढ़ना अनिवार्य कर दिया। इसके अलावा स्वैच्छिक नमाज़ों में भी इसे अनिवार्य किया गया। [[रमज़ान]] के महीने में रात की नमाज़ (तरावीह) में पूरा क़ुरआन पढ़े जाने और सुने जाने को ‘महापुण्य’ कहकर पूरे विश्व में प्रचलित किया गया। पूरे क़ुरआन को (या कुछ अध्यायों को) कंठस्थ करना ‘महान पुण्य कार्य’ कहा गया, और लाखों-करोड़ों लोगों ने पूर्ण ग्रंथ को, तथा संसार के सभी मुसलमानों ने ग्रंथ के कुछ अध्यायों को कंठस्थ कर लिया। (यह क्रम 1400 वर्ष से जारी है, भविष्य में भी जारी रहेगा)। इस प्रकार क़ुरआन अपने मूलरूप में (पूरी शुद्धता, पूर्णता व विश्वसनीयता के साथ) सुरक्षित हो गया।<ref name="इस्लाम धर्म" /> | ||
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | |||
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==बाहरी कड़ियाँ== | |||
*[http://tanzil.net/#trans/hi.farooq/112:2 कुरआन का सरल हिन्दी अनुवाद] | |||
*[http://www.quranhindi.com/ पवित्र क़ुरआन] | |||
==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== |
06:46, 20 मार्च 2012 का अवतरण

क़ुरान या क़ुरआन (अरबी: القرآن, अल-क़ुर्'आन) इस्लाम धर्म की पवित्रतम पुस्तक है और इस्लाम की नींव है। मुसलमान मानते हैं कि इसे परमेश्वर (अल्लाह) ने देवदूत (फ़रिश्ते) जिब्राएल द्वारा हज़रत मुहम्मद को सुनाया था। मुसलमानों का मानना है कि क़ुरान ही अल्लाह की भेजी अन्तिम और सर्वोच्च पुस्तक है। क़ुरान शब्द का प्रथम उल्लेख स्वयं क़ुरान में ही मिलता है, जहाँ इसका अर्थ है - उसने पढ़ा, या उसने उच्चारा। यह शब्द इसके सीरियाई समानांतर कुरियना का अर्थ लेता है जिसका अर्थ होता है ग्रंथों को पढ़ना। हालाँकि पाश्चात्य जानकार इसको सीरियाई शब्द से जोड़ते हैं, अधिकांश मुसलमानों का मानना है कि इसका मूल क़ुरा शब्द ही है। पर चाहे जो हो मुहम्मद साहब के जन्मदिन के समय ही यह एक अरबी शब्द बन गया था।[1] मुस्लिम समाज के लिये आवश्यक बिदअत में क़ुरान की सही समझ-बूझ, हदीस (पैगम्बर मुहम्म्द की दीक्षाओं या परंपराओं) के मूल्यांकन और उनकी वैधता तय करने, विधर्मता का खंडन करने और क़ानून के संहिताकरण के लिये अरबी व्याकरण और भाषाशास्त्र (फ़र्द किफ़ाया) का अध्ययन ज़रूरी है।
अध्याय
- इस्लाम धर्म की पवित्र पुस्तक का नाम क़ुरान है जिसका हिन्दी में अर्थ 'सस्वर पाठ' है। क़ुरान शरीफ़ 22 साल 5 माह और 14 दिन के अर्से में ज़रूरत के मुताबिक़ किस्तों में नाज़िल हुआ। क़ुरान शरीफ़ में 30 पारे, 114 सूरतें और 540 रुकूअ हैं। क़ुरान शरीफ़ की कुल आयत की तादाद 6666 (छः हज़ार छः सौ छियासठ) है।[2]
- क़ुरान में कुल 114 अध्याय हैं जिन्हें सूरा कहते हैं। बहुचन में इन्हें सूरत कहते हैं। यानि 15वें अध्याय को सूरत 15 कहेंगे। हर अध्याय में कुछ श्लोक हैं जिन्हें आयत कहते हैं। क़ुरआन की 6,666 आयतों में से (कुछ के अनुसार 6,238) अभी तक 1,000 आयतें वैज्ञानिक तथ्यों पर बहस करती हैं।[1]
- क़ुरआन में कुल 6,233 आयतें (वाक्य) हैं। अरबी वर्णमाला के कुल 30 अक्षर 3,81,278 बार आए हैं। ज़ेर (इ की मात्राएँ) 39,582 बार, ज़बर (अ की मात्राएँ) 53,242 बार, पेश (उ की मात्राएँ) 8,804 बार, मद (दोहरे, तिहरे ‘अ’ की मात्राएँ) 1771 बार, तशदीद (दोहरे अक्षर के प्रतीक) 1252 बार और नुक़्ते (बिन्दु) 1,05,684 हैं। इसके 114 में से 113 अध्यायों का आरंभ ‘‘बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम’’ से हुआ है, अर्थात् ‘"शुरू अति कृपाशील, अति दयावान अल्लाह के नाम से।" पठन-पाठन और कंठस्थ में आसानी के लिए पूरे ग्रंथ को 30 भागों में बाँट कर हर भाग का नामांकरण कर दिया गया है। हर भाग 'पारा' (Part) कहलाता है।[3]
लौह महफूज में क़ुरान
क़ुरान के विषय में उसके अनुयायियों का विश्वास है और स्वयं क़ुरान में भी लिखा है- सचमुच पूज्य क़ुरान अदृष्ट पुस्तक में (वर्तमान) है। जब तक शुद्ध न हो, उसे मत छुओ। वह लोक-परलोक के स्वामी के पास उतरा है।[4] अदृष्ट पुस्तक से यहाँ अभिप्राय उस स्वर्गीय लेख-पटिट्का से है जिसे इस्लामी परिभाषा में ‘लौह-महफूज’ कहते हैं। सृष्टिकर्ता ने आदि से उसमें त्रिकालवृत्ति लिख रक्खा है, जैसा कि स्थानान्तर में कहा है-
हमने अरबी क़ुरान रचा कि तुमको ज्ञान हो। निस्सन्देह वह उत्तम ज्ञान-भण्डार हमारे पास पुस्तकों की माता (लौह महफूज) में लिखा है।[5]
जगदीश्वर ने क़ुरान में वर्णित ज्ञान को जगत के हित के लिए अपने प्रेरित के हृदय में प्रकाशित किया, यही इस सबका भावार्थ है। अपने धर्म की शिक्षा देने वाले ग्रन्थ पर असाधारण श्रद्धा होना मनुष्य का स्वभाव है। यही कारण है कि क़ुरान के माहात्म्य के विषय में अनेक कथाएँ जनसमुदाय में प्रचलित हैं, यद्यपि उन सबका आधार श्रद्धा छोड़ कर क़ुरान में ढूँढ़ना युक्त नहीं है, किन्तु ऐसे वाक्यों का उसमें सर्वथा अभाव है, यह भी नहीं कहा जा सकता। एक स्थल पर कहा है-
यदि हम इस क़ुरान को किसी पर्वत (वा पर्वत-सदृश कठोर हृदय) पर उतारते, तो अवश्य तू उसे परमेश्वर के भय से दबा और फटा देखता। इन दृष्टान्तों को मनुष्यों के लिए हम वर्णित करते है जिससे कि वह सोचें।[6]
लेखन
हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) स्वयं पढ़े-लिखे न थे। क़ुरआन का जो भी अंश अवतरित होता वह विशेष ईश्वरीय प्रावधान से मुहम्मद को कंठस्थ (याद) हो जाता[7] मुहम्मद तुरंत या शीघ्रताशीघ्र अपने साथियों को बोल कर उसे लिखवा देते। इतिहास में प्रमाणित तौर पर ऐसे लिखने वालों (वह्य-लिपिकों) की संख्या 41 उल्लिखित है। उन सब के नाम, पिता के नाम, क़बीले (वंश, कुल) के नाम भी इतिहास के रिकार्ड पर हैं।
क़ुरान का प्रयोजन, वर्णन-शैली
‘कदाचित तुमको ज्ञान हो। इसलिए उस (मुहम्मद) पर हमने अरबी क़ुरान उतारा!’[8]
‘मंगल संदेशप्रद, भयदायक, वह ग्रंथ-अरबी क़ुरान-परम कृपालु दयामय की ओर से उतरा है। इसमें उस (प्रभु) का लक्षण वर्णित है जिसमें कि जातियाँ उसे जानें’[9]
‘हे मुहम्मद ! इस प्रकार हमने अरबी क़ुरान तेरे हृदयस्थ किया, तू उससे ग्रामों की जननी (मक्का) और उसके आसपास को इकट्ठा होने के दिन (प्रलय) से डरावै।‘[10]
‘हे मुहम्मद ! इस प्रकार हमने उस अरबी हुक्म (क़ुरान) को उतारा। जो कुछ तेरे पास (उस) ज्ञान में से आया, यदि उसे छोड़ तूने उन (लोगों) की इच्छा का अनुसरण किया, तो महाप्रभु की ओर से तेरे लिए सहायक और रक्षक (कोई) नहीं।‘[11]
उपर्युक्त क़ुरान से उद्धृत इन वाक्यों में ‘क़ुरान’ यह नाम, उसकी भाषा और प्रतिपाद्य विषय बतलाया गया है। क़ुरान क्या है? ईश्वर-प्रदत्त एक अरबी ग्रन्थ्। उसके प्रदान का प्रयोजन क्या? यही कि सन्मार्ग-भ्रष्ट जनों को भय दिखा और श्रद्धालुओं को उनके पुण्य कार्यों के मंगलमय परिणाम का संदेश दे सत्पथ पर आरूढ़ किया जाय। महानुभाव मुहम्मद के समय का ‘अरब’ कहाँ तक सन्मार्ग-व्युत हो गया था? उस समय का व्यवहार कहाँ तक दुराचारपूर्ण हो गया था? अज्ञान कहाँ तक अपनी पराकाष्ठा को पहुँच चुका था? इत्यादि बातों का परिचय कुछ तो प्रथम विन्दु से मिल चुका है और कुछ का वर्ण्न आगे भी यथास्थान होगा। उन अज्ञानतमोनिमग्न, सदाचार-संज्ञाहीन, क्रुरकर्मा अरब-निवासियों को सच्चे रास्ते पर ले चलने के दो ही उपाय थे। एक तो यह था कि उनको पापों का दुष्परिणाम समझाकर उन्हें अच्छे कामों की ओर प्रेरित किया जाय।
कितनी ही बार अनेक प्रलोभन सत्पुरुषों को भी सन्मार्ग-भ्रष्ट करने में सफल होते हैं। सर्वप्रिय बनने की इच्छा बहुधा अमधुर सत्य प्रकाशित करने की आज्ञा नहीं देती। इसीलिए ऊपर संकेत किया गया है कि लोगों की इच्छा का अनुसरण करने वाला कभी ईश्वर की रक्षा और सहायता का भाजन नहीं हो सकता। सचमुच संसार में समालोचन और संशोधन का काम बहुत कठिन है। नाना छल-पाखण्डयुक्त संसार के दुष्कृत्यों की यदि निर्भीकतापूर्वक समालोचना की जाती है तो एक बार जनसमुद्र अपने निस्सीमाधिकार तथा चिरस्थापित नीति के तरंगों का गत्यवरोध देख, अपनी सम्पूर्ण शक्ति को उसके प्रतिकार में लिए प्रस्तुत हो जाता है। बड़ी-बड़ी तरंगो की तो बात ही अलग है, क्षुद्र बुद्बुद-समुदाय भी अभिमत्त हो अपने स्वरूप का विचार न कर उस समय उसके सिर पर पादप्रहार करने का उद्योग भी आरम्भ कर देता है। किन्तु निश्चल-नीति, सत्यमनस्क, सुधारक-
“निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तृवन्तु।
लक्ष्मी समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्॥
अद्यैव मरणमस्तु युगान्तरे वा।
न्यायात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः॥1॥“
भर्तृहरि के इस वाक्यानुसार अपना सर्वस्व स्वाह करने के लिए उस प्रलय-कोलाहलपूर्ण, संक्रुद्ध जन-सिन्धु की कुछ भी परवाह न कर, सुमेरुवत् अपने स्थान पर स्थित रहता है। उसका सदुपदेश अरण्य-रोदन-सा प्रतीत होता है अथवा गम्भीर भेरीनाद के सामने क्षीण वीणास्वर। सहायकों और संरक्षकों के बिना अकेला, अपने भीषण विरोधियों का सामुख्य, वह उस निराशपूर्ण अन्धनिशा में करता है जब उसे क्षणमात्र के लिए भी आशारूपी तारों की टिमटिमाहट भी नहीं दीख पड़ती। सुधारक मुहम्मद का जीवन भी ऐसी ही घटनाओं से पूर्ण है।
ऊपर के वाक्यों में क़ुरान का अरबी में उतरना भी आया है। मक्का और उसके आसपास के लिए तभी क़ुरान की उपयोगिता है जब कि वह वहाँ की भाषा में हो। दूसरी जगह कहा भी है-
‘’यदि हम अरबी से भिन्न भाषा में क़ुरान बनाते, तो अवश्य (लोग) कहने लगते- ‘उसके तांत्पर्य क्यों नहीं स्पष्ट किये गये। क्या ! अरब का आदमी और अरब की भाषा से भिन्न भाषा?’ यह विश्वादियों के लिए मार्गदर्शक और स्वास्थप्रद है।“[12]
अनुप्रासबद्ध-वर्णन
युद्धप्रिय अरब के लोगों में उस समय कविता के लिए बड़ा प्रेम था। वहाँ कितने ही ऐसे कवि हुए है जिनकी कविताएँ युद्धाग्नि भड़काने में घी का काम देती थीं। इसके लिए इस विषय के विशेष जिज्ञासुओं को श्रद्धेय नहेशप्रसाद साध विरचित प्रसिद्ध हिन्दी-ग्रन्थ ‘अरब काव्य’ पढ़ना चाहिए। सुन्दर भाषा और स्वास्थ्य-लाभ के लिए मक्का नगर के प्रतिष्ठित घरानों से दो-दो, तीन-तीन वर्ष के बच्चे अस्थिर-वास बद्दू अरबों के डेरों में पलते थे। स्वयं माननीय मुहम्मद का शैशव भी इसी प्रका व्यतीत हुआ था।
इससे भी उनकी भाषा अत्यन्त परिमार्जित और सुन्दर थी। क़ुरान ‘अथ’ से ‘इति’ तक अनुप्रासबद्ध लिखा गया है; जैसे-
कुल् हुबल्लाहु अहद्। अल्लाहुस्समद्।
लम् यलिद् व लम् यूलद्। व लम् यकुन् कुफुवन् अहद्॥
कह, वह परमेश्वर एक, सर्वाधार (है)। (वह) न उत्पन्न करता, न उत्पन्न हुआ है और न कोई उसके समान (है)।[13]
संरक्षण
क़ुरआन को चूँकि रहती दुनिया तक के लिए, समस्त संसार में मानव-जाति का मार्गदर्शन करना था और इस बात को भी निश्चित बनाना था कि ईश-वाणी पूरी की पूरी सुरक्षित हो जाए, एक शब्द भी न कम हो न ज़्यादा, इसमें किसी मानव-वाणी की मिलावट, कोई बाह्य हस्तक्षेप, संशोधन-परिवर्तन होना संभव न रह जाए इसलिए ईश्वरीय स्तर पर तथा मानवीय स्तर पर इसके कई विशेष प्रयोजन किए गए:-
- चूँकि इससे पहले के ईशग्रंथों में मानवीय हस्तक्षेप से बहुत कुछ कमी-बेशी हो चुकी थी इसलिए क़ुरआन के संरक्षण की ज़िम्मेदारी स्वयं ईश्वर ने अपने ऊपर ले ली। ख़ुद क़ुरआन में उल्लिखित है- हमने इसे अवतरित किया और हम ही इसकी हिफ़ाज़त करेंग।[14] ईश्वर ने इसके लिए निम्नलिखित प्रावधान किए—
- प्राथमिक स्तर पर ईश्वर ने पैग़म्बर को पूरा ग्रंथ कंठस्थ करा दिया, क़ुरआन में इसकी पुष्टि भी कर दी[15]
- पैग़म्बर (सल्ल.) के कई साथियों ने क़ुरआन को पूर्ण शुद्धता के साथ कंठस्थ (हिफ़्ज़) कर लिया।
- पैग़म्बर (सल्ल.) के जीवन-काल में ही क़ुरआन का संकलन-कार्य पूरा कर लिया गया।
- पैग़म्बर (सल्ल.) के देहावसान (632 ई.) के बाद दो उत्तराधिकारियों (ख़लीफ़ाओं हज़रत अबूबक्र (रज़ि.) और हज़रत उमर (रज़ि.) के शासन-काल (632-644 ई.) में उनकी व्यक्तिगत निगरानी में सारे लिपिकों की लिखित सामग्री को एक-दूसरे से जाँच कर तथा ग्रंथ के कंठस्थकारों से पुनः-पुनः जाँच कर, पैग़म्बर (सल्ल.) के निर्देशित क्रम में पुस्तक-रूप में ले आया गया। फिर तीसरे ख़लीफ़ा हज़रत उस्मान (रज़ि.) के शासनकाल (644-656 ई.) में इस ग्रंथ की सात प्रतियाँ तैयार की गईं। एक-एक प्रति इस्लामी राज्य के विभिन्न भागों (यमन, सीरिया, फ़िलिस्तीन, आरमेनिया, मिस्र, इराक़ और ईरान) में सरकारी प्रति के तौर भी भेज दी गई। उनमें से कुछ मूल-प्रतियाँ आज भी ताशकन्द, इस्तंबूल आदि के संग्रहालयों में मौजूद हैं।
- ईश्वर ने ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) को आदेश देकर चैबीस घंटों में प्रतिदिन पाँच बार की अनिवार्य नमाज़ों में क़ुरआन के कुछ अंश पढ़ना अनिवार्य कर दिया। इसके अलावा स्वैच्छिक नमाज़ों में भी इसे अनिवार्य किया गया। रमज़ान के महीने में रात की नमाज़ (तरावीह) में पूरा क़ुरआन पढ़े जाने और सुने जाने को ‘महापुण्य’ कहकर पूरे विश्व में प्रचलित किया गया। पूरे क़ुरआन को (या कुछ अध्यायों को) कंठस्थ करना ‘महान पुण्य कार्य’ कहा गया, और लाखों-करोड़ों लोगों ने पूर्ण ग्रंथ को, तथा संसार के सभी मुसलमानों ने ग्रंथ के कुछ अध्यायों को कंठस्थ कर लिया। (यह क्रम 1400 वर्ष से जारी है, भविष्य में भी जारी रहेगा)। इस प्रकार क़ुरआन अपने मूलरूप में (पूरी शुद्धता, पूर्णता व विश्वसनीयता के साथ) सुरक्षित हो गया।[3]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इस तक ऊपर जायें: 1.0 1.1 क़ुरान (हिन्दी) इस्लाम सब के लिए। अभिगमन तिथि: 9 मार्च, 2011।
- ↑ कुरआन नूर की हिदायत (हिन्दी) (एच टी एम) वेब दुनिया। अभिगमन तिथि: 23 सितंबर, 2010।
- ↑ इस तक ऊपर जायें: 3.0 3.1 क़ुरआन (हिन्दी) इस्लाम धर्म। अभिगमन तिथि: 9 मार्च, 2011।
- ↑ 56 : 3 : 3-5
- ↑ 53 : 1 : 3-5
- ↑ 59 : 3 : 4
- ↑ सूरः क़ियामः (75) आयत 17-19
- ↑ 12 : 1 : 2
- ↑ 41 : 1 : 2-4
- ↑ 42 : 1 : 7
- ↑ 13 : 15 :6
- ↑ 41 : 5 : 12
- ↑ 112
- ↑ सूरः हिज्र 15, आयत 9
- ↑ सूर: 75, आयत 17-19
बाहरी कड़ियाँ
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