"उदयनाचार्य": अवतरणों में अंतर
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12:48, 30 अप्रैल 2012 का अवतरण
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उदयन प्राचीन न्याय वैशेषिक परम्परा के आखिरी प्रभावशाली दार्शनिक माने जा सकते हैं। क्योंकि उदयन के बाद न्याय वैशेषिक दर्शनों ने नया मोड़ अपनाया, जिसकी परिणति नव्यन्याय में हुई। लेकिन उदयन पूरे अर्थ में 'प्राचीन नैयायिक' नहीं माने जा सकते। नव्यन्याय के विद्वान अन्य प्राचीन नैयायिकों की अपेक्षा उदयन के लेखन का विचार विशेष गौरव के साथ करते हैं। गंगानाथ झा जैसे आधुनिक विद्वान तो उदयन को नव्यन्याय का संस्थापक मानते हैं। क्योंकि उदयन के लेखन में न्याय और वैशेषिक दर्शन का जो मिलन पाया जाता है तथा प्रणाली विज्ञान के प्रति जो अति सूक्ष्म निष्ठा पायी जाती है, वह नव्यन्याय की विचार प्रणाली से ही अधिक मिलती है।
हिन्दू परम्परा में उदयन के एक महान नैयायिक माने जाने का दूसरा कारण यह है कि भारत में बौद्ध दर्शन का खंडन करते हुए उस दर्शन का वैचारिक प्रभाव कम करने वाले पंडितों में उदयन एक प्रभावशाली पंडित सिद्ध हुए। उनके ग्रंथों में विशेषत: आत्मतत्त्व विवेक में बौद्ध दर्शन की बहुत ही तीखी आलोचना मिलती है। उदयन बौद्ध दर्शन का निर्णायक रूप में खंडन नहीं कर पाये या नहीं, इस बारे में मतभेद हो सकते हैं, लेकिन उनका बौद्ध दर्शन का खंडन सूक्ष्म बुद्धि तथा वाद कौशल का एक नमूना है।
उदयन के इस पौराणिक वृत्त में सत्य तथा दंतकथा की मिलावट हो सकती है। लेकिन बौद्धों के साथ उदयन ने बड़ा प्रभावशाली संघर्ष किया होगा, यह बात इससे स्पष्ट है।
उदयन के काल के बारे में विद्वानों के जो अनुमान हैं, वे उदयन के काल को दसवीं सदी के चरम पाद और ग्याहरवीं सदी के उत्तरार्ध के दरम्यान स्थापित करते हैं।
वेदशास्त्र
उदयन मिथिला के निवासी थे तथा उन्होंने वाद विवाद के प्रसंग में बहुत यात्रा की होंगी, ऐसा विद्वानों का अभिमत है। उदयन की जीवनी के बारे में भविष्य पुराण परिशिष्ट[1] में जो जानकारी मिलती है, वह इस प्रकार से है-
- एक बौद्ध पंडित मिथिला में आये तथा उन्होंने राजा को संदेश दिया- 'आप वेदशास्त्र पढ़कर भ्रम में फंस गए हो। अब मेरे शास्त्र पढ़कर बौद्ध मार्ग के अनुयायी बन जाइए। अगर आप के देश में कोई वेदशास्त्र का विद्वान हो, तो उसे मेरे साथ शास्त्रचर्चा करने के लिए भेज दीजिए।
राजा ने उदयनाचार्य को कई पंडितों के साथ भेज दिया। बहुत दिनों तक चर्चा चली, लेकिन जब कोई निर्णय नहीं हो सका तब बौद्ध पंडित ने उदयन को एक मायिक प्रयोग का निमंत्रण दिया। एक शिलाखंड का उन्होंने पानी बना दिया और फिर उस पानी को दुबारा से शिलाखंड बनाने की चुनौती उदयन को दी। उदयन ने चुनौती मान ली तथा पानी से फिर से शिलाखंड भी बना दिया। उसके बाद उदयन ने भी एक बात का प्रस्ताव रखा : दो बड़े तालवृक्षों पर चढ़कर दोनों कूद पड़ेंगे, जो जिएगा वह जीतेगा। बौद्ध पंडित ने मान लिया। दोनों पेड़ से कूद पड़े। उदयन 'वेद प्रमाण है' ऐसा कहकर कूद पड़े और बौद्ध पंडित 'वेद अप्रमाण है' ऐसा कहकर कूदे। बौद्ध पंडित मर गया और उदयन जीवित रहे। राजा ने वेदशास्त्र का प्रामाण्य नतमस्तक होकर स्वीकार कर लिया, उदयन को अपना राजगुरु बना लिया, नास्तिकों के सब शास्त्र ग्रंथ पानी में फिंकवा दिये तथा राज्य में रहने वाले सब नास्तिकों को सजा देकर उन्हें सख्ति से आस्तिक बना लिया।
पुरी की यात्रा
एक बार उदयनाचार्य पुरुषोत्तमपुर (पुरी) में जगन्नाथ मंदिर गए। लेकिन दरवाजे चारों तरफ़ से बंद थे। तब उदयन जगन्नाथ को बोले-
'जगन्नाथ सुरश्रेष्ठ भक्त्यहंकारपूर्वकम्।
ऐश्वर्यमदमत्तोऽसि सामवज्ञाय वर्तसे।।
उपस्थितेषु बौद्धषु मदधोना तब स्थिति:।।'[2]
उदयनाचार्य के इस वचन के तत्काल बाद ही बंद दरवाजे खुल गए। थोड़े दिन बाद खुद जगन्नाथ ने वहाँ पुराजियों को सपने में दर्शन दिए और कहा कि मेरी मूर्ति पर जो पीताम्बर है, वह उदयन को दीजिए, क्योंकि उदयन मेरा ही अंश स्वरूप है। उन्होंने मेरी स्थापना की है, मेरा अस्तित्व सिद्ध किया है, जब कि बौद्धों ने मेरा तिरस्कार किया। इसके बाद जगन्नाथ का प्रसाद लेकर उदयन फिर से मिथिला आए तथा बहुत वर्षों तक शास्त्र का अध्ययन किया। बुढ़ापे में काशी आकर उन्होंने प्राणत्याग किया।
उदयन के ग्रंथ
उदयन के नाम से सात ग्रंथ उपलब्ध हैं। उनमें से 'आत्मतत्व विवेक' और 'न्याय कुसुमांजलि' स्वतंत्र वादग्रंथ हैं। लक्षणावली और लक्षणमाला संग्राहक प्रकरण ग्रंथ हैं तथा बाकी ग्रंथ दूसरे ग्रंथों की टीका मात्र हैं। इन ग्रंथों का परिचय इस प्रकार है-
आत्मतत्वविवेक
उदयन के इस महत्त्वपूर्ण ग्रंथ का विषय है- नैरात्म्यवाद का खंडन तथा आत्मा के अस्तित्व की स्थापना। नैरात्म्यवाद का खंडन करते समय उदयन ने बौद्धों को ही अपने प्रधान प्रतिपक्ष के रूप में सामने रखा है। इसीलिए आत्मतत्वविवेक का ही दूसरा नाम 'बौद्धाधिकार' है।
आत्मतत्वविवेक में उदयन ने बौद्धों की मुख्यत: जिन चार युक्तियों का खंडन करने का प्रयास किया है, वे इस प्रकार हैं-
- 'जो भी सत् है, वह क्षणजीवी है।' अगर आत्मा है तो वह भी क्षणिक है। इसलिए नैयायिकों का माना हुआ नित्य आत्मा वास्तविक नहीं हो सकता। इस युक्ति का खंडन करते समय उदयन ने बौद्धों के क्षणभंगवाद का खंडन प्रस्तुत किया है।
- बाह्य पदार्थ सत् नहीं है। इसलिए मेरे बाहर भी किसी की-मेरी या दूसरे किसी की आत्मा है, यह नहीं हो सकता। आत्मा बाह्यर्थ नहीं है। इस युक्ति के खंडन में उदयन ने बौद्धों के विज्ञानवाद की कड़ी आलोचना की है।
- गुणों के अलावा कोई द्रव्य नाम की चीज है ही नहीं। इसलिए क्षणिक ज्ञान जिसका गुण माना जा सकता है, हो ही नहीं सकती। (न्याय के अनुसार ज्ञान आत्मा का गुण है।) बौद्धों की इस युक्ति का उत्तर देते समय उदयन ने द्रव्य का अस्तित्व सिद्ध करने का यत्न किया है।
- हम कभी भी आत्मा का अनुभव नहीं करते हैं। इसलिए आत्मा नहीं है। यह सचमुच बौद्धों की युक्ति है, इसके बारे में संदेह हो सकता है, क्योंकि बौद्ध जब 'अनुपलब्धि' की चर्चा करते हैं, तब 'उपलब्धि लक्षण प्राप्त (यानी दर्शन योग्य चीज) की अनुपलब्धि उस चीज का अभाव सिद्ध करने में उपयुक्त होती है' ऐसा मानते हैं। लेकिन बौद्धों के मतानुसार नैयायिकों के द्वारा आत्मा दर्शन योग्य चीज ही नहीं है। उसका प्रत्यक्षमान असंभव है, तो उसकी अनुपलब्धि के आधार पर उसका अभाव सिद्ध होगा, ऐसा बौद्ध कहाँ तक मानेंगे। इसलिए यह चौथी नैरात्म्यवादी युक्ति चार्वाकों के मुंह में शोभा दे सकती है, बौद्धों के नहीं।
इस चौथी नैरात्म्यवादी युक्ति के खंडन के साथ साथ उदयन न्यायवैशेषिक दृष्टि से आत्मा का अस्तित्व सिद्ध करने के लिए प्रमाण भी प्रस्तुत करते हैं। उदयन के मतानुसार 'मैं घट को जानता हूँ, इस प्रकार का जो सविकल्पक मानस प्रत्यक्ष हमें होता है, वह आत्मा का प्रत्यक्ष ज्ञान ही है। यह आत्मा, जैसा विज्ञानवादी बौद्ध मानते हैं, उस प्रकार की, क्षणिक विज्ञानों की संतान नहीं है, बल्कि अविनाशी है, यह सिद्ध करने के लिए भी उदयन ने युक्तियाँ दी हैं। 'जिस मैंने घट को देखा, वह मैं अब इस घट को छू रहा हूँ।' इस प्रकार की प्रत्यभिज्ञा में हम दोनों में 'मैं' शब्दों का वाच्य एक ही आत्मा मानते हैं। वैसे ही हमें जो पूर्वानुभूत विषय का स्मरण होता है, उसकी व्याख्या के लिए भी अनुभव तथा स्मरण जिसे होता है, वह एक ही आत्मा है, ऐसा मानना ज़रूरी है। तथा शुभ और अशुभ कर्मों का हमें शुभ और अशुभ फल मिलता है। इसकी उपपत्ति दिखाने के लिए भी कर्म की इच्छा तथा प्रयत्न करने वाला और उस कर्म का फल भोगने वाला एक ही आत्मा मानना चाहिए। यहाँ धर्म और अधर्म नामक कर्मजन्य गुणों की वजह से हम फल भोगते हैं, ऐसा उदयन मानते हैं। इस आत्मा का विशिष्ट स्वरूप सिद्ध करने के लिए, जैसे की आत्मा भौतिक, देहस्वरूप या इंद्रियस्वरूप नहीं है, यह परमाणु के आकार वाली नहीं है, बल्कि परममहत् परिमाण वाली (सर्वव्यापी) है, उदयन ने बहुत युक्तियाँ दी हैं। मानस प्रत्यक्ष से भी हमें 'अहम्' शब्द वाक्य आत्मा का अनुभव होता है। लेकिन उदयन का कहना है कि आत्मा आत्म-भिन्न पदार्थों से किस तरह भिन्न है, यह जानने से ही नि:श्रेयस की प्राप्ति हो सकती है। आत्मा का यह स्वरूप निश्चित करने के लिए दो प्रमाण हैं- अनुमान तथा वेद। उनमें से वेद प्रमाण इसलिए हैं कि वे आप्तोक्त हैं। यथार्थवक्ता ईश्वर ने उनका निर्माण किया है। यहाँ उदयन ने ईश्वर का अस्तित्व तथा उसका विशिष्ट स्वरूप, सर्वज्ञ, एकमात्र, कारुणिक, यथार्थवक्ता सिद्ध करने के लिए युक्तियाँ दी हैं। ग्रंथ के आखिरी हिस्से में उदयन ने मोक्ष के स्वरूप तथा उपाय का दर्शन न्यायवैशेषिक परम्परा के अनुसार किया है।
नैरात्म्यवादी युक्तियों के खंडन के साथ साथ उदयन ने बौद्धों के अन्य कई संबद्ध सिद्धांतों का भी खंडन प्रस्तुत किया है। इनमें से प्रमुख हैं: अपोहवाद, चित्राद्वैतवाद, शून्यवाद, संघातवाद।
न्यायकुसुमांजलि
उदयन का दूसरा महत्त्वपूण ग्रंथ न्यायकुसुमांजलि। इस ग्रंथ का विषय है, ईश्वर के अस्तित्व की सिद्धि। इसमें उदयनाचार्य ने प्रमुख पांच निरीश्वरवादी युक्तियों का निर्देश करते हुए उनका खंडन करने का प्रयास किया है। वे पांच युक्तियां इस प्रकार हैं-
1. चार्वाक कहते हैं कि जिस आधार पर हम परलोक (तथा पुनर्जन्म) सिद्ध कर सकें, ऐसी 'अदृष्ट' नाम की चीज कोई है ही नहीं, और अदृष्ट न होने से उस अदृष्ट के अनुसार कर्म फल बांटने वाला ईश्वर भी नहीं है।
इस युक्ति का आशय इस प्रकार है। कर्मसिद्धांत के अनुसार आदमी जो अच्छा या बुरा कर्म करता है, उसका फल उसको और उसी को भोगना पड़ता है। लेकिन दुनिया में हम देखते हैं कि कई अच्छे कर्मों का अच्छा फल या बुरे कर्मों का बुरा फल तुरन्त, इस जन्म में तथा इसी लोक में नहीं मिल पाता। ऐसी स्थिति में जो कर्म करने के बाद ही नष्ट हो गया, उसका फल दूसरे जन्म में या परलोक में प्राप्त करने वाला, कर्म और फल को जोड़ देने वाला, कोई माध्यम मानना पड़ता है। इस माध्यम को मीमांसकों ने 'अपूर्व' तथा नैयायिकों ने 'अदृष्ट' कहा है। अगर कर्म का फल इस दुनिया में तथा इस जन्म में मिलता हुआ नहीं दिखता, तो ऐसा मानना पड़ेगा कि अदृष्टरूप वह फल कर्मकर्ता को ज़रूर दूसरे जन्म में या परलोक में भोगना पड़ेगा। इस प्रकार अदृष्ट के आधार पर कर्मवादी परलोक की तथा पुनर्जन्म की सिद्धि का प्रयास करते हैं। ईश्वरवादी दार्शनिक इसी आदृष्ट के आधार पर या ईश्वर की सिद्धि का प्रयास करते हैं। हर एक जीव को उसके कर्म के अनुसार अर्थात् तज्जन्य अदृष्ट के अनुसार फल देने वाला ही ईश्वर है। लेकिन चार्वाक कहते हैं कि हमें अदृष्ट ही मंजूर नहीं है, उसके आधार पर ईश्वर सिद्धि की बात तो दूर ही रही।
इस आक्षेप का उत्तर देते हुए उदयनाचार्य कर्म और फल में होने वाली अनादि कार्यकरण श्रृंखला का समर्थन करते हैं, तथा उसी के आधार पर अदृष्ट की स्थापना करते हैं। अदृष्ट की सिद्धि करने के बाद उसी स्तबक में उदयन ने सांख्य तथा बौद्ध दर्शन की आलोचना की है। उदयन का कहना है कि सांख्य तथा बौद्धों ने जो आत्मा का स्वरूप माना है, वह कर्मसिद्धांत तथा अदृष्टतत्व से बिल्कुल विसंगत है। कर्मसिद्धांत के अनुसार जो करने वाला है, वही भोगने वाला भी होना चाहिए। लेकिन सांख्य के अनुसार करने वाली प्रकृति तथा भोगने वाला पुरुष परस्पर भिन्न है। इस प्रकार कर्मसिद्धांत ही अगर झूठा हो गया तो संसार या मोक्ष की व्याख्या कैसे की जाये। अगर आत्मा का स्वरूप क्षणभंगुर है, जैसा कि बौद्ध कहते हैं तो फिर उस क्षण का 'मैं' दूसरे क्षण के 'मैं' से अलग ही सिद्ध हुआ। इस स्थिति में एक के किए का फल दूसरे को भोगना पड़ेगा। इसलिए आत्मा न केवल नित्य (अविनाशी) है, बल्कि वही कर्ता (इच्छा तथा प्रयत्नों का आधार) तथा भोक्ता (सुख-दु:खादि भोगने वाला) है, इस न्याय वैशेषिक मत की स्थापना उदयन करते हैं।
2. मीमांसक आदि निरीश्वरवादी दार्शनिक अदृष्ट को स्वीकार तो करते हैं, तथा परलोक सिद्धि के लिए 'अदृष्ट' मानना आवश्यक भी समझते हैं, लेकिन उसके लिए ईश्वर को मानना आवश्यक नहीं समझते। उनके मत का खंडन करते सूमय उदयनाचार्य कहते हैं कि सृष्टि की उत्पत्ति तथा प्रलय की व्याख्या ईश्वर को मानकर ही सम्भव है, अन्यथा नहीं। सृष्टि की उत्पत्ति मानने पर हमें वेदों की उत्पत्ति भी माननी चाहिए। और उन वेदों के निर्माता ईश्वर को मानना पड़ेगा। 'ईश्वर के सिवाए दूसरा ही कोई कपिल जैसा सर्वज्ञ व्यक्ति होगा, जो सृष्टि के प्रारम्भ में ही पूर्व सृष्टि के अभ्यास के आधार पर नये वेद का निर्माण करेगा', ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि ऐसे अनेक सर्वज्ञ व्यक्ति मानने के बजाए एक ही सर्वज्ञ ईश्वर मानने में लाघव हैं, एक प्रकार की सुविधा है।
इस पर मीमांसक कहेंगे कि हम सृष्टि की उत्पत्ति तथा प्रलय मानते ही नहीं हैं। जिस मौखिक परम्परा से वेदों का रक्षण आज तक हुआ है, वह गुरु परम्परा आज तक अनादि काल से चली आ रही है, ऐसा मानना उचित है, इसलिए वेद अनादि हैं। चातुर्वर्ण्य, दिनरात यह सब अनादि काल से ऐसे ही चलता आ रहा है। इस पर उदयन ईश्वरवाद का समर्थन करते हुए कहत हैं कि जिस प्रकार हर साल सूर्य का कर्क राशि में प्रवेश होते ही वर्षा ऋतु की शुरुआत होती है, उसी प्रकार कभी न कभी दिन-रात की शुरुआत हुई होगी, तथा जैसे आदमी हमेशा जागृत नहीं रहता है, कभी गहरी निंद्रा में लीन हो जाता है, उसी प्रकार विश्व का प्रलय भी हम मानते हैं। तथा जैसे किसी पेड़ की उत्पत्ति कभी शाखा से या कभी बीज से होती है, वैसे ही सृष्टि के आदि में चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति अदृष्ट से हुई, बाद में जन्म के आधार पर वर्ण व्यवस्था चलती रही, ऐसा हम कह सकते हैं। ईश्वर वेदोत्पत्ति करके वेद को कई महर्षियों को विदित करता है और उनसे वेद परम्परा शुरू होती है तथा धीरे धीरे यह वेद परम्परा नष्ट भी होती है। ऐसा उदयन मानते हैं।
3. दूसरे कई निरीश्वरवादी मानते हैं कि प्रमाणों के आधार पर हम ईश्वर का अभाव निश्चित कर सकते हैं। वे अपने समर्थन में अनुपलब्धि, अनुमान आदि प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। इस पर उदयन का कहना है कि अनुपलब्धि यानी दर्शनाभाव प्रमाण कब हो सकता है। जब जिसका दर्शनाभाव हो, वह दर्शन के योग्य हो, तभी। परमाणु या पिशाच का अभाव हम अनुपलब्धि के आधार पर नहीं निश्चित कर सकते। इसलिए अनुपलब्धि अगर 'योग्यानुपलब्धि' हो तभी वह प्रमाण कहलाती है। ईश्वर होते हुए भी वह दर्शन के योग्य नहीं है। यही तो हमारा कहना है। इसलिए योग्यानुपलब्धि का यहाँ कोई उपयोग नहीं है। यहाँ प्रश्न उठेगा कि शशश्रृंग (या बंध्यापुत्र, खपुष्प) कभी दिखाई न देने पर भी हम अनुपलब्धि के आधार पर 'शशश्रृं नहीं है' ऐसा व्यवहार कैसे कर सकते हैं। इस पर उदयन का उत्तर है कि अनुपलब्धि से हम 'शशश्रृंग' का बोध नहीं करते, बल्कि (शश पर) श्रृंग का या (श्रृंगसंबद्ध) शश का बोध करते हैं और श्रृंग तथा शश दोनों भी दर्शनयोग्य हैं।
"ईश्वर नहीं है", ऐसा हम अनुमान से भी सिद्ध नहीं कर सकते। अनुमान में आवश्यक है कि पक्ष (जो प्राय: 'प्रतिज्ञा' का उद्देश्य बनता है) सत् ही हो और साध्य का पक्ष के साथ सम्बन्ध अनुमान से सिद्ध किया जाये। 'यहाँ तो ईश्वर नहीं है', इस प्रतिज्ञा का उद्देश्य ईश्वर ही पक्ष है। अगर ईश्वर पक्ष और इसलिए यथार्थ अनुमान की शर्तों के अनुसार सत् है, तो उसका अभाव उसी अनुमान से कैसे सिद्ध किया जाये। इसी प्रकार उपमान, शब्द या अर्थापत्ति के द्वारा भी ईश्वर का अभाव सिद्ध करना असम्भव है, ऐसा उदयन ने दिखाया है।
4. अन्य कई निरीश्वरवादी ईश्वर के न्यायसंगत स्वरूप के बारे में संशय उपस्थित करते हैं। नैयायिकों के अनुसार ईश्वर 'प्रमाण' (अर्थात् प्रमाता, प्रमा का आधार) है, क्योंकि उस ईश्वर को समूचे विश्व के बारे में प्रमा अर्थात् यथार्थ ज्ञान है। यहाँ प्रतिपक्षी कहते हैं कि ईश्वर इस प्रकार प्रमायुक्त है, ऐसा हम नहीं मान सकते, क्योंकि प्रमाण (=प्रमा का साधन) वही कहलायेगा, जिससे कोई नई जानकारी मिले, जिसका प्रमेय पहले अज्ञान हो, जानने वाले को नया हो। उसी नई जानकारी को हम प्रमा कह सकते हैं। लेकिन ईश्वर को जो विश्व का ज्ञान है, वह इस अर्थ में प्रमा कहने के लायक नहीं है।
न्यायसंमत ईश्वर तो नित्यज्ञानवानहै। अर्थात् इस ईश्वर को सब पहले से ही ज्ञात है। उसके लिए कोई प्रमेय 'नया' नहीं है। प्रतिपादियों का यह आक्षेप मीमांसकों की प्रमाणकल्पना पर आधारित है।
इसका प्रतिपाद करते समय उदयन ने नैयायिकों की प्रमाण कल्पना का विशदीकरण किया है। प्रमाण का प्रमाण कहने के लिए उससे अज्ञात विषय का ही ज्ञान होना चाहिए, ऐसा नियम नहीं है, बल्कि प्रमाण से होने वाला ज्ञान यथार्थ अनुभवरूप होना चाहिए, यही नियम है। ईश्वर में प्रमा उत्पन्न नहीं होती, फिर भी ईश्वर प्रमाण (=प्रमाता) है, यह सिद्ध करने के लिए उदयन प्रमाण (प्रमा साधन) का नया लक्षण प्रस्तुत करते हैं। जिस आत्मा में समवाय संबंध से प्रमा है, वह आत्मा प्रमाता है, तथा उस प्रमाता के साथ अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ प्रमाण है।
5. इस पर आक्षेपकर्ता कहेंगे कि ठीक है, 'ईश्वर नहीं है', ऐसा सिद्ध करने के लिए हमारे पास कोई प्रमाण नहीं है, लेकिन ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध करने के लिए आपके पास भी कोई प्रमाण नहीं है।
- उदयन के अनुमान
इस आक्षेप के उत्तर में पांचवे स्तबक में उदयन कई ईश्वरसाधक अनुमान प्रस्तुत करते हैं तथा उन अनुमानों का समर्थन करते हैं। उनमें से कुछ अनुमान इस प्रकार हैं-
- पृथ्वी आदि का कोई कर्ता ज़रूर है, क्योंकि पृथ्वी आदि उत्पन्न हैं, जैसे घट। (वह पृथ्वी आदि का कर्ता ही ईश्वर है।)
- सुष्ट्युत्पत्ति के समय परमाणुओं से जो द्वयणुक की उत्पत्ति हुई उसके लिए ज़रूर किसी चेतन सत्ता का प्रयत्न कारण है। (वह चेतन सत्ता ही ईश्वर है।)
- वेदों का जनक ज़रूर कोई यथार्थज्ञानी सत्ता है। (वही ईश्वर है)।
- आपेक्षकर्ताओं के अनुसार
आपेक्षकर्ताओं के अनुसार इन अनुमानों में जो कर्ता या चेतन आत्मा सिद्ध किया जाता है, वह शरीरधारी होना चाहिए, क्योंकि जिनके उदाहरण इन अनुमानों में प्रस्तुत किए जा सकते हैं, वे सब लौकिक कर्ता तथा चेतन आत्मा शरीरधारी ही दिखाई देते हैं, तथा शरीर की सहायता से ही वे घटादि के कर्ता बन सकते हैं। लेकिन उदयन के अनुसार निरीश्वरवादियों को यह आक्षेप करने का हक नहीं है, क्योंकि वे ईश्वर का अस्तित्व मानते ही नहीं हैं। इस प्रकार निरीश्वरवादियों का विरोधी तर्क निराधार साबित होता है। उदयन के मतानुसार ईश्वर को शरीरधारी मानने की आपत्ति नैयायिकों पर लागू नहीं होती।
ईश्वरसिद्धि के लिए दी हुई युक्तियों के बावजूद उदयन ने न्यायकुसुमांजलि में अन्य विषयों की भी प्रसंगानुसार चर्चा की है। जैसे उपमान, प्रमाण में करण क्याय तथा फल क्या है। अर्थापत्ति अनुमान में कैसे अंतर्भूत होती है, अनुपलब्धि को स्वतंत्र प्रमाण मानने की क्यों ज़रूरत होती है, तथा वेदों में ग्रंथित विधिवाक्यों का अर्थ कैसे लगाना चाहिए।
उदयन के अन्य तत्व
किरणावली
प्रशस्तवाद के पदार्थ धर्म संग्रह पर उदयन ने जो भाष्य लिखा उसका नाम किरणावली है। किरणावली में भी उदयन ने अनेक नए मुद्दे ग्रंथित किए हैं। इसमें प्रमाण संख्या कि चर्चा करते समय उदयन ने वैशेषिक मत का ही समर्थन किया है और उपमान और शब्द का अनुमान में ही अंतर्भाव करने का सुझाव दिया है। लेकिन उसी उदयन ने न्यायकुसुमांजलि तथा अन्य ग्रंथों में उपमान तथा शब्द का स्वतंत्र प्रमाण के रूप में स्थान स्वीकृत किया है और न्याय की भूमिका अपना ली है। इसलिए इस बारे में उदयन का निजी मत न्याय के अनुकूल ही लगता है।
न्यायपरिशुद्धि
यह ग्रंथ वाचस्पतिमिश्र के न्यायवार्तिक तात्पर्य टीका पर लिखी हुई टीका है। यह पूर्णरूप से उपलब्ध नहीं है। आकार में बहुत बड़ा तथा समझने में कठिन है।
न्यायपरिशिष्ट
गौतम प्रणीत न्यायसूत्र के आखिरी हिस्से में जाति और निग्रह स्थान के बारे में जो सूत्र आए हैं, उनका विवरण उदयनाचार्य ने इस ग्रंथ में किया है।
लक्षणावली
वैशेषिक दर्शन में आने वाले पदार्थों के तथा उनके उपप्रकारों के लक्षण उदयन ने इसमें प्रस्तुत किए हैं। अव्याप्ति, अतिव्याप्ति आदि दोषों को दूर रखते हुए बारीकी के साथ लक्षण बनाने का प्रयत्न, जो बाद में नव्यन्याय का एक लक्ष्य बन गया, उदयन ने इसमें किया है।
लक्षणमाला
इसका कर्ता उदयन ही था या शिवादित्य, उसके बारे में विद्वानों में मतभेद हैं। गौतम प्रणीत न्यायसूत्रों में जिन सोलह पदार्थों का वर्णन हुआ है, उनके लक्षण इस ग्रंथ में ग्रंथित हैं। साथ साथ वैशेषिकों के पदार्थों के लक्षण भी इसमें समाविष्ट हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
गोखले, डॉ. पी.पी. विश्व के प्रमुख दार्शनिक (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग, नई दिल्ली, 70।
बाहरी कड़ियाँ
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