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'''भारत छोड़ो आन्दोलन''' [[9 अगस्त]], [[1942]] ई. को सम्पूर्ण [[भारत]] में राष्ट्रपिता [[महात्मा गाँधी]] के आह्वान पर प्रारम्भ हुआ था। भारत की आज़ादी से सम्बन्धित इतिहास में दो पड़ाव सबसे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण नज़र आते हैं- प्रथम '1857 ई. का स्वतंत्रता संग्राम' और द्वितीय '1942 ई. का भारत छोड़ो आन्दोलन'। भारत को जल्द ही आज़ादी दिलाने के लिए महात्मा गाँधी द्वारा [[अंग्रेज़]] शासन के विरुद्ध यह एक बड़ा 'नागरिक अवज्ञा आन्दोलन' था। 'क्रिप्स मिशन' की असफलता के बाद गाँधी जी ने एक और बड़ा आन्दोलन प्रारम्भ करने का निश्चय ले लिया। इस आन्दोलन को 'भारत छोड़ो आन्दोलन' का नाम दिया गया।
'''भारत छोड़ो आन्दोलन''' [[9 अगस्त]], [[1942]] ई. को सम्पूर्ण [[भारत]] में राष्ट्रपिता [[महात्मा गाँधी]] के आह्वान पर प्रारम्भ हुआ था। भारत की आज़ादी से सम्बन्धित इतिहास में दो पड़ाव सबसे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण नज़र आते हैं- प्रथम '1857 ई. का स्वतंत्रता संग्राम' और द्वितीय '1942 ई. का भारत छोड़ो आन्दोलन'। भारत को जल्द ही आज़ादी दिलाने के लिए महात्मा गाँधी द्वारा [[अंग्रेज़]] शासन के विरुद्ध यह एक बड़ा 'नागरिक अवज्ञा आन्दोलन' था। 'क्रिप्स मिशन' की असफलता के बाद गाँधी जी ने एक और बड़ा आन्दोलन प्रारम्भ करने का निश्चय ले लिया। इस आन्दोलन को 'भारत छोड़ो आन्दोलन' का नाम दिया गया।
==स्वतंत्रता की महान लड़ाई==
'भारत छोड़ो आन्दोलन' या 'अगस्त क्रान्ति भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन' की अन्तिम महान लड़ाई थी, जिसने ब्रिटिश शासन की नींव को हिलाकर रख दिया। क्रिप्स मिशन के खाली हाथ भारत से वापस जाने पर भारतीयों को अपनी छले जाने का अहसास हुआ। दूसरी ओर दूसरे विश्वयुद्ध के कारण परिस्थितियाँ अत्यधिक गम्भीर होती जा रही थीं। [[जापान]] सफलतापूर्वक [[सिंगापुर]], मलाया और [[बर्मा]] पर क़ब्ज़ा कर भारत की ओर बढ़ने लगा, दूसरी ओर युद्ध के कारण तमाम वस्तुओं के दाम बेतहाश बढ़ रहे थे, जिससे [[अंग्रेज़]] सत्ता के ख़िलाफ़ भारतीय जनमानस में असन्तोष व्याप्त होने लगा था। जापान के बढ़ते हुए प्रभुत्व को देखकर [[5 जुलाई]], 1942 ई. को गाँधी जी ने हरिजन में लिखा "अंगेज़ों! भारत को जापान के लिए मत छोड़ों, बल्कि भारत को भारतीयों के लिए व्यवस्थित रूप से छोड़ जाओ।"
==क्रिप्स मिशन का आगमन==
==क्रिप्स मिशन का आगमन==
इस समय द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ चुका था, और इसमें ब्रिटिश फ़ौजों की दक्षिण-पूर्व [[एशिया]] में हार होने लगी थी। एक समय यह भी निश्चित माना जाने लगा कि [[जापान]] भारत पर हमला कर ही देगा। मित्र देश, [[अमेरिका]], [[रूस]] व [[चीन]] [[ब्रिटेन]] पर लगातार दबाव डाल रहे थे, कि इस संकट की घड़ी में वह भारतीयों का समर्थन प्राप्त करने के लिए पहल करें। अपने इसी उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए उन्होंने स्टेफ़ोर्ड क्रिप्स को मार्च, 1942 ई. में भारत भेजा। ब्रिटेन सरकार भारत को पूर्ण स्वतंत्रता देना नहीं चाहती थी। वह भारत की सुरक्षा अपने हाथों में ही रखना चाहती थी और साथ ही [[गवर्नर-जनरल]] के वीटो अधिकारों को भी पहले जैसा ही रखने के पक्ष में थी। भारतीय प्रतिनिधियों ने क्रिप्स मिशन के सारे प्रस्तावों को एक सिरे से ख़ारिज कर दिया।
इस समय द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ चुका था, और इसमें ब्रिटिश फ़ौजों की दक्षिण-पूर्व [[एशिया]] में हार होने लगी थी। एक समय यह भी निश्चित माना जाने लगा कि [[जापान]] भारत पर हमला कर ही देगा। मित्र देश, [[अमेरिका]], [[रूस]] व [[चीन]] [[ब्रिटेन]] पर लगातार दबाव डाल रहे थे, कि इस संकट की घड़ी में वह भारतीयों का समर्थन प्राप्त करने के लिए पहल करें। अपने इसी उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए उन्होंने स्टेफ़ोर्ड क्रिप्स को मार्च, 1942 ई. में भारत भेजा। ब्रिटेन सरकार भारत को पूर्ण स्वतंत्रता देना नहीं चाहती थी। वह भारत की सुरक्षा अपने हाथों में ही रखना चाहती थी और साथ ही [[गवर्नर-जनरल]] के वीटो अधिकारों को भी पहले जैसा ही रखने के पक्ष में थी। भारतीय प्रतिनिधियों ने क्रिप्स मिशन के सारे प्रस्तावों को एक सिरे से ख़ारिज कर दिया।


क्रिप्स मिशन की असफलता के बाद 'भारतीय नेशनल कांग्रेस कमेटी' की बैठक [[8 अगस्त]], 1942 ई. को [[बम्बई]] में हुई। इसमें यह निर्णय लिया गया कि [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] को हर हाल में भारत छोड़ना ही पड़ेगा। भारत अपनी सुरक्षा स्वयं ही करेगा और साम्राज्यवाद तथा फ़ाँसीवाद के विरुद्ध रहेगा। यदि अंग्रेज भारत छोड़ देते हैं, तो अस्थाई सरकार बनेगी। ब्रिटिश शासन के विरुद्ध 'नागरिक अवज्ञा आन्दोलन' छेड़ा जाएगा और इसके नेता गाँधी जी होंगे।
क्रिप्स मिशन की असफलता के बाद 'भारतीय नेशनल कांग्रेस कमेटी' की बैठक [[8 अगस्त]], 1942 ई. को [[बम्बई]] में हुई। इसमें यह निर्णय लिया गया कि [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] को हर हाल में भारत छोड़ना ही पड़ेगा। भारत अपनी सुरक्षा स्वयं ही करेगा और साम्राज्यवाद तथा फ़ाँसीवाद के विरुद्ध रहेगा। यदि अंग्रेज भारत छोड़ देते हैं, तो अस्थाई सरकार बनेगी। ब्रिटिश शासन के विरुद्ध 'नागरिक अवज्ञा आन्दोलन' छेड़ा जाएगा और इसके नेता गाँधी जी होंगे।
====नेताओं की गिरफ़्तारी====
====वर्धा प्रस्ताव====
ब्रिटेन की सरकार [[कांग्रेस]] से ना तो किसी भी प्रकार का समझौता करना चाहती थी और न ही उसने आन्दोलन के विधिवत आरम्भ होने की प्रतीक्षा की। 9 अगस्त, 1942 ई. को प्रात: होने से पूर्व ही कांग्रेस के सभी प्रमुख नेताओं को बन्दी बनाकर उन्हें अनजान स्थानों पर ले जाया गया। इसके फलस्वरूप 'भारत छोड़ो आन्दोलन' की बागडोर नौजवानों और उग्रवादी देशभक्तों के हाथों में आ गई। जनता ने सार्वजनिक स्थानों पर राष्ट्रीय ध्वज को ज़बरदस्ती फहराया, रेल की पटरियाँ उखाड़ दी गईं, पुलों को उड़ा दिया गया और अन्य सरकारी प्रतीकों को बहुत नुकसान पहुँचाया गया। समानांतर सरकारें [[बलिया]], तामलुक, [[सतारा]] आदि में स्थापित कर दी गईं। इस आन्दोलन में नौजवानों, मजदूरों, किसानों, सरकारी कर्मचारियों, नारियों, क्रांतिकारियों और साम्यवादियों ने भी बढ़-चढ़कर भाग लिया। अंग्रेज़ सरकार ने देश की जनता पर बहुत अत्याचार किए और लोगों पर लाठियाँ, अश्रु गैस और गोलियाँ बरसाईं। इस काण्ड में 10 हज़ार से भी अधिक लोग शहीद हो गये। [[गाँधी जी]] हज़ारों निशस्त्र और बेगुनाह लोगों की निर्मम हत्या के विरोध में मरणव्रत पर बैठ गए। इसके परिणामस्वरूप देश और विदेश में ब्रिटिश सरकार की बहुत निन्दा हुई। [[वायसराय]] की कौंसिल के तीन सदस्यों ने भी अपने पद से त्यागपत्र दे दिया।[[चित्र:Gandhi-Ji-Statue.jpg|thumb|250px|फ़ेरी इमारत पर [[गाँधीजी]] की प्रतिमा, सेन फ़्रांसिस्को]]
गांधीजी ने [[कांग्रेस]] को अपने प्रस्ताव को न स्वीकार किये जाने की स्थिति में चुनौती देते हुए कहा कि "मैं देश की बालू से ही कांग्रेस से भी बड़ा आन्दोलन खड़ा कर दूंगा।" [[14 जुलाई]], 1942 ई. में कांग्रेस कार्यसमिति की वर्धा बैठक में गांधीजी के इस विचार को पूर्ण समर्थन मिला कि भारत में संवैधनिक गतिरोध तभी दूर हो सकता है, जब अंग्रेज़ भारत से चले जायें। वर्धा में कांग्रेस कार्यसमिति ने 'अंग्रेज़ों भारत छोड़ो प्रस्ताव' पारित किया। आन्दोलन की सार्वजनिक घोषणा से पूर्व [[1 अगस्त]], 1942 ई. को [[इलाहाबाद]] में 'तिलक दिवस' मनाया गया। इस अवसर पर [[जवाहरलाल नेहरू]] ने कहा- "हम आग से खेलने जा रहे हैं। हम दुधारी तलवार का प्रयोग करने जा रहे हैं, जिसकी चोट उल्टी हमारे ऊपर भी पड़ सकती है।"
==अखिल भारतीय कांग्रेस की बैठक==
आन्दोलन के दौरान 8 अगस्त, 1942 ई. को 'अखिल भारतीय कांग्रेस' की बैठक [[बम्बई]] के ऐतिहासिक 'ग्वालिया टैंक' में हुई। गांधीजी के ऐतिहासिक 'भारत छोड़ों प्रस्ताव' को कांग्रेस कार्यसमिति ने कुछ संशोधनों के बाद 8 अगस्त, 1942 ई. की स्वीकार कर लिया। युद्ध की तेयारी में सहयोग देने के प्रस्ताव के साथ-साथ सरकार को तत्काल कदम उठाने की चुनौती दी गयी। कहा गया कि "[[भारत]] की स्वतंत्रता की घोषणा के साथ एक स्थायी सरकार गठित हो जायगी और स्वतंत्र भारत संयुक्त राष्ट्र संघ का एक मित्र बनेगा।" [[मुस्लिम लीग]] से वायदा किया गया कि ऐसा संविधान बनेगा, जिसमें संघ में शामिल होने वाली इकाइयों को अधिकाधिक स्वायत्तता मिलेगी और बचे हुए अधिकार उसी के पास रहेंगें। प्रस्ताव का अंतिम अंश था- "देश ने साम्राज्यवादी सरकार के विरुद्ध अपनी इच्छा जाहिर कर दी है। अब उसे उस बिन्दु से लौटाने का बिल्कुल औचित्य नहीं है। अतः समिति अहिंसक ढंग से, व्यापक धरातल पर गांधीजी के नेतृत्व में जनसंघर्ष शुरू करने का प्रस्ताव स्वीकार करती है।"
==मूलमंत्र 'करो या मरो'==
==मूलमंत्र 'करो या मरो'==
'वह लोग जो कुर्बानी देना नहीं जानते, वे आज़ादी प्राप्त नहीं कर सकते।' भारत छोड़ो आन्दोलन का मूल भी इसी भावना से प्रेरित था। गाँधीजी वैसे तो अहिंसावादी थे, मगर देश को आज़ाद करवाने के लिए उन्होंने 'करो या मरो' का मूल मंत्र दिया। अंग्रेज़ी शासकों की दमनकारी, आर्थिक लूट-खसूट, विस्तारवादी एवं नस्लवादी नीतियों के विरुद्ध उन्होंने लोगों को क्रमबद्ध करने के लिए 'भारत छोड़ो आन्दोलन' छेड़ा था। गाँधीजी ने कहा था कि-
कांग्रेस के इस ऐतिहासिक सम्मेलन में महात्मा गांधी ने लगभग 70 मिनट तक भाषण दिया। अपने संबोधन में उन्होने कहा कि "मैं आपको एक मंत्र देता हूँ, '''करो या मरो''', जिसका अर्थ था- भारत की जनता देश की आज़ादी के लिए हर ढंग का प्रयत्न करे। गांधीजी के बारे में डॉ. पट्टाभि सीतारमैया ने लिखा है कि "वास्तव में गांधीजी उस दिन [[अवतार]] और पैगम्बर की प्रेरक शक्ति से प्रेरित होकर भाषण दे रहे थे।" 'वह लोग जो कुर्बानी देना नहीं जानते, वे आज़ादी प्राप्त नहीं कर सकते।' भारत छोड़ो आन्दोलन का मूल भी इसी भावना से प्रेरित था। गाँधी जी वैसे तो अहिंसावादी थे, मगर देश को आज़ाद करवाने के लिए उन्होंने 'करो या मरो' का मूल मंत्र दिया। अंग्रेज़ी शासकों की दमनकारी, आर्थिक लूट-खसूट, विस्तारवादी एवं नस्लवादी नीतियों के विरुद्ध उन्होंने लोगों को क्रमबद्ध करने के लिए 'भारत छोड़ो आन्दोलन' छेड़ा था। गाँधीजी ने कहा था कि-


"एक देश तब तक आज़ाद नहीं हो सकता, जब तक कि उसमें रहने वाले लोग एक-दूसरे पर भरोसा नहीं करते।"
"एक देश तब तक आज़ाद नहीं हो सकता, जब तक कि उसमें रहने वाले लोग एक-दूसरे पर भरोसा नहीं करते।"


गाँधी जी के इन शब्दों ने [[भारत]] की जनता पर जादू-सा असर डाला और वे नये जोश, नये साहस, नये संकल्प, नई आस्था, दृढ़ निश्चय और आत्मविश्वास के साथ स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। देश के कोने-कोने में 'करो या मरो' की आवाज़ गुंजायमान हो उठी, और चारों ओर बस यही नारा श्रमण होने लगा।
गाँधी जी के इन शब्दों ने [[भारत]] की जनता पर जादू-सा असर डाला और वे नये जोश, नये साहस, नये संकल्प, नई आस्था, दृढ़ निश्चय और आत्मविश्वास के साथ स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। देश के कोने-कोने में 'करो या मरो' की आवाज़ गुंजायमान हो उठी, और चारों ओर बस यही नारा श्रमण होने लगा।
==नेताओं की गिरफ़्तारी==
[[9 अगस्त]] को भोर में ही 'ऑपरेशन ज़ीरो ऑवर' के तहत कांग्रेस के सभी महत्वपूर्ण नेता गिरफ्तार कर लिये गये। गांधीजी को [[पूना]] के 'आगा ख़ाँ महल' में तथा कांग्रेस कार्यकारिणी के अन्य सदस्यों को [[अहमदनगर]] के दुर्ग में रखा गया। कांग्रेस को अवैधानिक संस्था घोषित कर ब्रिटिश सरकार ने इस संस्था की सम्पत्ति को जब्त कर लिया और साथ में जुलूसों को प्रतिबंधित कर दिया। सरकार के इस कृत्य से जनता में आक्रोश व्याप्त हो गया। जनता ने स्वयं अपना नेतृत्व संभाल कर जुलूस निकाला और सभाऐं कीं। स्वतन्त्रता आंदोलन के दौरान यह पहला आंदोलन था, जो नेतृत्व विहीनता के बाद भी उत्कर्ष पर पहुँचा। सरकार ने जब आंदोलन को दबाने के लिए लाठी और बंन्दूक का सहारा लिया तो आन्दोलन का रूख बदलकर हिसात्मक हो गया। अनेक स्थानों पर रेल की पटरियाँ उखाड़ी गईं और स्टेशनों में [[आग]] लगा दी गई। [[बम्बई]], [[अहमदाबाद]] एवं [[जमशेदपुर]] में मजदूरों ने संयुक्त रूप से विशाल हड़ताल कीं। संयुक्त प्रांत में [[बलिया]] एवं [[बस्ती ज़िला|बस्ती]], [[बम्बई]] में [[सतारा]], [[बंगाल]] में [[मिदनापुर ज़िला|मिदनापुर]] एवं [[बिहार]] के कुछ भागों में 'भारत छोड़ों आंदोलन' के समय अस्थायी सरकारों की स्थापना की गयी। इन स्वाशासित समानान्तर सरकारों में सर्वाधिक लम्बे समय तक सरकार सतारा तक थी। यहाँ पर विद्रोह का नेतृत्व नाना पाटिल ने किया था। सतारा के सबसे महत्वपूर्ण नेता वाई.बी. चाह्नाण थे। पहली समान्तर सरकार बलिया में चितू पाण्डेय के नेतृत्व में बनी।
बंगाल के मिदनापुर ज़िले में तामलुक अथवा ताम्रलिप्ति में गठिन राष्ट्रीय सरकार [[1944]] ई. तक चलती रही। यहाँ की सरकार को जातीय सरकार के नाम से जाना जाता है। सतीश सावंत के नेतृत्व में गठित इस जातीय सरकार ने स्कूलों को अनुदान दिये और 'सशस्त्र विद्युत वाहिनी सैन्य संगठन' बनाया। इस आंदोलन से सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्र थे- बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, मद्रास एवं बम्बई। जयप्रकाश, नारायण, राममनोहर लोहिया एवं अरुणा आसिफ़ अली जैसे नेताओं ने भूमिगत रहकर इस आंदोलन को नेतृत्व प्रदान किया।
====गाँधी जी का प्रभाव====
====गाँधी जी का प्रभाव====
'भारत छोड़ो आन्दोलन' मूल रूप से एक जनांदोलन था, जिसमें [[भारत]] का हर जाति वर्ग का व्यक्ति शामिल था। इस आन्दोलन ने युवाओं को एक बहुत बड़ी संख्या में अपनी ओर आकृष्ट कर लिया। युवाओं ने अपने कॉलेज छोड़ दिये और वे जेल का रास्ता अपनाने लगे। जिस दौरान [[कांग्रेस]] के नेता जेल में थे, ठीक इसी समय [[मोहम्मद अली जिन्ना]] तथा [[मुस्लिम लीग]] के उनके साथी अपना प्रभाव क्षेत्र फ़ैलाने में लग गये। इसी वर्ष में मुस्लिम लीग को [[पंजाब]] और [[सिंध]] में अपनी पहचान बनाने का मौक़ा मिला, जहाँ पर उसकी अभी तक कोई ख़ास पहचान नहीं थी। जून [[1944]] ई. में जब विश्वयुद्ध समाप्ति की ओर था, गाँधी जी को जेल से रिहा कर दिया गया। जेल से निकलने के बाद उन्होंने कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच फ़ासले को पाटने के लिए जिन्ना के साथ कई बार मुलाकात की और उन्हें समझाने का प्रयत्न किया। इसी समय [[1945]] ई. में [[ब्रिटेन]] में 'लेबर पार्टी' की सरकार बन गई। यह सरकार पूरी तरह से भारतीय स्वतंत्रता के पक्ष में थी। उसी समय वायसराय [[लॉर्ड वेवेल]] ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग के प्रतिनिधियों के बीच कई बैठकों का आयोजन किया।
'भारत छोड़ो आन्दोलन' मूल रूप से एक जनांदोलन था, जिसमें [[भारत]] का हर जाति वर्ग का व्यक्ति शामिल था। इस आन्दोलन ने युवाओं को एक बहुत बड़ी संख्या में अपनी ओर आकृष्ट कर लिया। युवाओं ने अपने कॉलेज छोड़ दिये और वे जेल का रास्ता अपनाने लगे। जिस दौरान [[कांग्रेस]] के नेता जेल में थे, ठीक इसी समय [[मोहम्मद अली जिन्ना]] तथा [[मुस्लिम लीग]] के उनके साथी अपना प्रभाव क्षेत्र फ़ैलाने में लग गये। इसी वर्ष में मुस्लिम लीग को [[पंजाब]] और [[सिंध]] में अपनी पहचान बनाने का मौक़ा मिला, जहाँ पर उसकी अभी तक कोई ख़ास पहचान नहीं थी। जून [[1944]] ई. में जब विश्वयुद्ध समाप्ति की ओर था, गाँधी जी को जेल से रिहा कर दिया गया। जेल से निकलने के बाद उन्होंने कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच फ़ासले को पाटने के लिए जिन्ना के साथ कई बार मुलाकात की और उन्हें समझाने का प्रयत्न किया। इसी समय [[1945]] ई. में [[ब्रिटेन]] में 'लेबर पार्टी' की सरकार बन गई। यह सरकार पूरी तरह से भारतीय स्वतंत्रता के पक्ष में थी। उसी समय वायसराय [[लॉर्ड वेवेल]] ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग के प्रतिनिधियों के बीच कई बैठकों का आयोजन किया।
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==संबंधित लेख==
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10:55, 2 मई 2012 का अवतरण

महात्मा गाँधी

भारत छोड़ो आन्दोलन 9 अगस्त, 1942 ई. को सम्पूर्ण भारत में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के आह्वान पर प्रारम्भ हुआ था। भारत की आज़ादी से सम्बन्धित इतिहास में दो पड़ाव सबसे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण नज़र आते हैं- प्रथम '1857 ई. का स्वतंत्रता संग्राम' और द्वितीय '1942 ई. का भारत छोड़ो आन्दोलन'। भारत को जल्द ही आज़ादी दिलाने के लिए महात्मा गाँधी द्वारा अंग्रेज़ शासन के विरुद्ध यह एक बड़ा 'नागरिक अवज्ञा आन्दोलन' था। 'क्रिप्स मिशन' की असफलता के बाद गाँधी जी ने एक और बड़ा आन्दोलन प्रारम्भ करने का निश्चय ले लिया। इस आन्दोलन को 'भारत छोड़ो आन्दोलन' का नाम दिया गया।

स्वतंत्रता की महान लड़ाई

'भारत छोड़ो आन्दोलन' या 'अगस्त क्रान्ति भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन' की अन्तिम महान लड़ाई थी, जिसने ब्रिटिश शासन की नींव को हिलाकर रख दिया। क्रिप्स मिशन के खाली हाथ भारत से वापस जाने पर भारतीयों को अपनी छले जाने का अहसास हुआ। दूसरी ओर दूसरे विश्वयुद्ध के कारण परिस्थितियाँ अत्यधिक गम्भीर होती जा रही थीं। जापान सफलतापूर्वक सिंगापुर, मलाया और बर्मा पर क़ब्ज़ा कर भारत की ओर बढ़ने लगा, दूसरी ओर युद्ध के कारण तमाम वस्तुओं के दाम बेतहाश बढ़ रहे थे, जिससे अंग्रेज़ सत्ता के ख़िलाफ़ भारतीय जनमानस में असन्तोष व्याप्त होने लगा था। जापान के बढ़ते हुए प्रभुत्व को देखकर 5 जुलाई, 1942 ई. को गाँधी जी ने हरिजन में लिखा "अंगेज़ों! भारत को जापान के लिए मत छोड़ों, बल्कि भारत को भारतीयों के लिए व्यवस्थित रूप से छोड़ जाओ।"

क्रिप्स मिशन का आगमन

इस समय द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ चुका था, और इसमें ब्रिटिश फ़ौजों की दक्षिण-पूर्व एशिया में हार होने लगी थी। एक समय यह भी निश्चित माना जाने लगा कि जापान भारत पर हमला कर ही देगा। मित्र देश, अमेरिका, रूसचीन ब्रिटेन पर लगातार दबाव डाल रहे थे, कि इस संकट की घड़ी में वह भारतीयों का समर्थन प्राप्त करने के लिए पहल करें। अपने इसी उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए उन्होंने स्टेफ़ोर्ड क्रिप्स को मार्च, 1942 ई. में भारत भेजा। ब्रिटेन सरकार भारत को पूर्ण स्वतंत्रता देना नहीं चाहती थी। वह भारत की सुरक्षा अपने हाथों में ही रखना चाहती थी और साथ ही गवर्नर-जनरल के वीटो अधिकारों को भी पहले जैसा ही रखने के पक्ष में थी। भारतीय प्रतिनिधियों ने क्रिप्स मिशन के सारे प्रस्तावों को एक सिरे से ख़ारिज कर दिया।

क्रिप्स मिशन की असफलता के बाद 'भारतीय नेशनल कांग्रेस कमेटी' की बैठक 8 अगस्त, 1942 ई. को बम्बई में हुई। इसमें यह निर्णय लिया गया कि अंग्रेज़ों को हर हाल में भारत छोड़ना ही पड़ेगा। भारत अपनी सुरक्षा स्वयं ही करेगा और साम्राज्यवाद तथा फ़ाँसीवाद के विरुद्ध रहेगा। यदि अंग्रेज भारत छोड़ देते हैं, तो अस्थाई सरकार बनेगी। ब्रिटिश शासन के विरुद्ध 'नागरिक अवज्ञा आन्दोलन' छेड़ा जाएगा और इसके नेता गाँधी जी होंगे।

वर्धा प्रस्ताव

गांधीजी ने कांग्रेस को अपने प्रस्ताव को न स्वीकार किये जाने की स्थिति में चुनौती देते हुए कहा कि "मैं देश की बालू से ही कांग्रेस से भी बड़ा आन्दोलन खड़ा कर दूंगा।" 14 जुलाई, 1942 ई. में कांग्रेस कार्यसमिति की वर्धा बैठक में गांधीजी के इस विचार को पूर्ण समर्थन मिला कि भारत में संवैधनिक गतिरोध तभी दूर हो सकता है, जब अंग्रेज़ भारत से चले जायें। वर्धा में कांग्रेस कार्यसमिति ने 'अंग्रेज़ों भारत छोड़ो प्रस्ताव' पारित किया। आन्दोलन की सार्वजनिक घोषणा से पूर्व 1 अगस्त, 1942 ई. को इलाहाबाद में 'तिलक दिवस' मनाया गया। इस अवसर पर जवाहरलाल नेहरू ने कहा- "हम आग से खेलने जा रहे हैं। हम दुधारी तलवार का प्रयोग करने जा रहे हैं, जिसकी चोट उल्टी हमारे ऊपर भी पड़ सकती है।"

अखिल भारतीय कांग्रेस की बैठक

आन्दोलन के दौरान 8 अगस्त, 1942 ई. को 'अखिल भारतीय कांग्रेस' की बैठक बम्बई के ऐतिहासिक 'ग्वालिया टैंक' में हुई। गांधीजी के ऐतिहासिक 'भारत छोड़ों प्रस्ताव' को कांग्रेस कार्यसमिति ने कुछ संशोधनों के बाद 8 अगस्त, 1942 ई. की स्वीकार कर लिया। युद्ध की तेयारी में सहयोग देने के प्रस्ताव के साथ-साथ सरकार को तत्काल कदम उठाने की चुनौती दी गयी। कहा गया कि "भारत की स्वतंत्रता की घोषणा के साथ एक स्थायी सरकार गठित हो जायगी और स्वतंत्र भारत संयुक्त राष्ट्र संघ का एक मित्र बनेगा।" मुस्लिम लीग से वायदा किया गया कि ऐसा संविधान बनेगा, जिसमें संघ में शामिल होने वाली इकाइयों को अधिकाधिक स्वायत्तता मिलेगी और बचे हुए अधिकार उसी के पास रहेंगें। प्रस्ताव का अंतिम अंश था- "देश ने साम्राज्यवादी सरकार के विरुद्ध अपनी इच्छा जाहिर कर दी है। अब उसे उस बिन्दु से लौटाने का बिल्कुल औचित्य नहीं है। अतः समिति अहिंसक ढंग से, व्यापक धरातल पर गांधीजी के नेतृत्व में जनसंघर्ष शुरू करने का प्रस्ताव स्वीकार करती है।"

मूलमंत्र 'करो या मरो'

कांग्रेस के इस ऐतिहासिक सम्मेलन में महात्मा गांधी ने लगभग 70 मिनट तक भाषण दिया। अपने संबोधन में उन्होने कहा कि "मैं आपको एक मंत्र देता हूँ, करो या मरो, जिसका अर्थ था- भारत की जनता देश की आज़ादी के लिए हर ढंग का प्रयत्न करे। गांधीजी के बारे में डॉ. पट्टाभि सीतारमैया ने लिखा है कि "वास्तव में गांधीजी उस दिन अवतार और पैगम्बर की प्रेरक शक्ति से प्रेरित होकर भाषण दे रहे थे।" 'वह लोग जो कुर्बानी देना नहीं जानते, वे आज़ादी प्राप्त नहीं कर सकते।' भारत छोड़ो आन्दोलन का मूल भी इसी भावना से प्रेरित था। गाँधी जी वैसे तो अहिंसावादी थे, मगर देश को आज़ाद करवाने के लिए उन्होंने 'करो या मरो' का मूल मंत्र दिया। अंग्रेज़ी शासकों की दमनकारी, आर्थिक लूट-खसूट, विस्तारवादी एवं नस्लवादी नीतियों के विरुद्ध उन्होंने लोगों को क्रमबद्ध करने के लिए 'भारत छोड़ो आन्दोलन' छेड़ा था। गाँधीजी ने कहा था कि-

"एक देश तब तक आज़ाद नहीं हो सकता, जब तक कि उसमें रहने वाले लोग एक-दूसरे पर भरोसा नहीं करते।"

गाँधी जी के इन शब्दों ने भारत की जनता पर जादू-सा असर डाला और वे नये जोश, नये साहस, नये संकल्प, नई आस्था, दृढ़ निश्चय और आत्मविश्वास के साथ स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। देश के कोने-कोने में 'करो या मरो' की आवाज़ गुंजायमान हो उठी, और चारों ओर बस यही नारा श्रमण होने लगा।

नेताओं की गिरफ़्तारी

9 अगस्त को भोर में ही 'ऑपरेशन ज़ीरो ऑवर' के तहत कांग्रेस के सभी महत्वपूर्ण नेता गिरफ्तार कर लिये गये। गांधीजी को पूना के 'आगा ख़ाँ महल' में तथा कांग्रेस कार्यकारिणी के अन्य सदस्यों को अहमदनगर के दुर्ग में रखा गया। कांग्रेस को अवैधानिक संस्था घोषित कर ब्रिटिश सरकार ने इस संस्था की सम्पत्ति को जब्त कर लिया और साथ में जुलूसों को प्रतिबंधित कर दिया। सरकार के इस कृत्य से जनता में आक्रोश व्याप्त हो गया। जनता ने स्वयं अपना नेतृत्व संभाल कर जुलूस निकाला और सभाऐं कीं। स्वतन्त्रता आंदोलन के दौरान यह पहला आंदोलन था, जो नेतृत्व विहीनता के बाद भी उत्कर्ष पर पहुँचा। सरकार ने जब आंदोलन को दबाने के लिए लाठी और बंन्दूक का सहारा लिया तो आन्दोलन का रूख बदलकर हिसात्मक हो गया। अनेक स्थानों पर रेल की पटरियाँ उखाड़ी गईं और स्टेशनों में आग लगा दी गई। बम्बई, अहमदाबाद एवं जमशेदपुर में मजदूरों ने संयुक्त रूप से विशाल हड़ताल कीं। संयुक्त प्रांत में बलिया एवं बस्ती, बम्बई में सतारा, बंगाल में मिदनापुर एवं बिहार के कुछ भागों में 'भारत छोड़ों आंदोलन' के समय अस्थायी सरकारों की स्थापना की गयी। इन स्वाशासित समानान्तर सरकारों में सर्वाधिक लम्बे समय तक सरकार सतारा तक थी। यहाँ पर विद्रोह का नेतृत्व नाना पाटिल ने किया था। सतारा के सबसे महत्वपूर्ण नेता वाई.बी. चाह्नाण थे। पहली समान्तर सरकार बलिया में चितू पाण्डेय के नेतृत्व में बनी।

बंगाल के मिदनापुर ज़िले में तामलुक अथवा ताम्रलिप्ति में गठिन राष्ट्रीय सरकार 1944 ई. तक चलती रही। यहाँ की सरकार को जातीय सरकार के नाम से जाना जाता है। सतीश सावंत के नेतृत्व में गठित इस जातीय सरकार ने स्कूलों को अनुदान दिये और 'सशस्त्र विद्युत वाहिनी सैन्य संगठन' बनाया। इस आंदोलन से सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्र थे- बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, मद्रास एवं बम्बई। जयप्रकाश, नारायण, राममनोहर लोहिया एवं अरुणा आसिफ़ अली जैसे नेताओं ने भूमिगत रहकर इस आंदोलन को नेतृत्व प्रदान किया।

गाँधी जी का प्रभाव

'भारत छोड़ो आन्दोलन' मूल रूप से एक जनांदोलन था, जिसमें भारत का हर जाति वर्ग का व्यक्ति शामिल था। इस आन्दोलन ने युवाओं को एक बहुत बड़ी संख्या में अपनी ओर आकृष्ट कर लिया। युवाओं ने अपने कॉलेज छोड़ दिये और वे जेल का रास्ता अपनाने लगे। जिस दौरान कांग्रेस के नेता जेल में थे, ठीक इसी समय मोहम्मद अली जिन्ना तथा मुस्लिम लीग के उनके साथी अपना प्रभाव क्षेत्र फ़ैलाने में लग गये। इसी वर्ष में मुस्लिम लीग को पंजाब और सिंध में अपनी पहचान बनाने का मौक़ा मिला, जहाँ पर उसकी अभी तक कोई ख़ास पहचान नहीं थी। जून 1944 ई. में जब विश्वयुद्ध समाप्ति की ओर था, गाँधी जी को जेल से रिहा कर दिया गया। जेल से निकलने के बाद उन्होंने कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच फ़ासले को पाटने के लिए जिन्ना के साथ कई बार मुलाकात की और उन्हें समझाने का प्रयत्न किया। इसी समय 1945 ई. में ब्रिटेन में 'लेबर पार्टी' की सरकार बन गई। यह सरकार पूरी तरह से भारतीय स्वतंत्रता के पक्ष में थी। उसी समय वायसराय लॉर्ड वेवेल ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग के प्रतिनिधियों के बीच कई बैठकों का आयोजन किया।

केबिनेट मिशन की असफलता

गाँधी जी ने 'भारत छोड़ो आन्दोलन' को बहुत ही सुनियोजित ढंग से चलाने की रूपरेखा तैयार की थी। उन्होंने कहा, 'हम या तो भारत को आज़ाद करवाएंगे या इस कोशिश में मिट जाएंगे।' भारत में 1946 ई. के प्रारम्भ में प्रांतीय विधान मंडलों के लिए नए सिरे से चुनाव सम्पन्न हुए। इन चुनावों में कांग्रेस को भारी सफलता प्राप्त हुई। मुस्लिमों के लिए आरक्षित सीटों पर मुस्लिम लीग को भारी बहुमत प्राप्त हुआ। इसी समय 1946 ई. की गर्मियों में कैबिनेट मिशन भारत पहुँचा। मिशन ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग को एक ऐसी संघीय व्यवस्था पर राज़ी करने की कोशिश की, जिसमें भारत के अन्दर विभिन्न प्रांतों को सीमित स्वायत्तता दी जाये। लेकिन कैबिनेट मिशन का यह प्रयास असफल सिद्ध हुआ। इस मिशन के असफल हो जाने के कारण जिन्ना ने पाकिस्तान की स्थापना के लिए लीग की माँग के समर्थन में एक प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस का ऐलान किया। 16 अगस्त, 1946 का दिन इसके लिये नियत किया गया था, लेकिन उसी दिन कलकत्ता में संघर्ष शुरू हो गया। यह हिंसा कलकत्ता से प्रारम्भ होकर बंगाल, बिहार और पंजाब तक फैल गई। कई स्थानों पर हिन्दू, तो कई स्थानों पर मुस्लिमों को निशाना बनाया गया।

माउंटवेटन की घोषणा

लॉर्ड वावेल के स्थान पर लॉर्ड माउंटबेटन को फ़रवरी 1947 ई. में भारत का वायसराय नियुक्त कर दिया गया। माउंटबेटन ने हिन्दू और मुस्लिमों में अंतिम दौर की वार्ता का माहौल तैयार किया। जब सुलह के लिए उनका प्रयास भी विफ़ल हो गया तो, उन्होंने ऐलान कर दिया कि ब्रिटिश भारत को स्वतंत्रता दे दी जाएगी, लेकिन उसका विभाजन भी होगा। सत्ता हस्तांतरण के लिए 15 अगस्त का दिन निश्चित किया गया। उस दिन भारत के विभिन्न भागों में लोगों ने जमकर खुशियाँ मनायीं। दिल्ली में जब संविधान सभा के अध्यक्ष ने मोहनदास करमचंद गाँधी को राष्ट्रपिता की उपाधि देते हुए संविधान सभा की बैठक शुरू की तो बहुत देर तक मधुर ध्वनि चारों ओर विद्यमान रही। बाहर जमा भीड़ गाँधीजी के जयकारे लगा रही थी।

आज़ादी की प्राप्ति

देश की राजधानी दिल्ली में जो उत्सव 15 अगस्त-1947 को मनाये जा रहे थे, उनमें महात्मा गाँधी शामिल नहीं थे। वे इस समय कलकत्ता में थे। उन्होंने वहाँ पर भी किसी कार्यक्रम में भाग नहीं लिया, क्योंकि उन्होंने इतने दिन तक जिस स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया था, वह एक बहुत बड़ी कीमत पर प्राप्त हुई थी। राष्ट्र का विभाजन उनके लिये किसी बुरे सपने से कम नहीं था। हिन्दू और मुसलमान एक-दूसरे की गर्दन काटने पर आमादा थे। गाँधी जी ने हिन्दू, सिक्ख और मुस्लिमों से कहा कि अतीत को भुलाकर अपनी पीड़ा पर ध्यान देने के बजाय एक-दूसरे के साथ आपसी भाईचारे की मिसाल को अपनायें।


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