"भारत का संवैधानिक विकास": अवतरणों में अंतर
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इस अधिनियम के पारित होने के कुछ महत्त्वपूर्ण कारण थे। [[भारत]] के [[प्रथम स्वाधीनता संग्राम]], जो 1857 ई. में हुआ था, ने भारत में कम्पनी शासन के दोषों के प्रति ब्रिटिश जनमानस का ध्यान आकृष्ट किया। इसी समय [[ब्रिटेन]] में सम्पन्न हुए आम चुनावों के बाद पामस्टर्न प्रधानमंत्री बने, इन्होंने तत्काल कम्पनी के भारत पर शासन करने के अधिकार को लेकर ब्रिटिश क्राउन के अधीन करने का निर्णय लिया। उस कम्पनी के अध्यक्ष 'रोस मेगल्स' एवं 'जॉन स्टुअर्ट मिले' ने इस निर्णय की आलोचना की। | इस अधिनियम के पारित होने के कुछ महत्त्वपूर्ण कारण थे। [[भारत]] के [[प्रथम स्वाधीनता संग्राम]], जो 1857 ई. में हुआ था, ने भारत में कम्पनी शासन के दोषों के प्रति ब्रिटिश जनमानस का ध्यान आकृष्ट किया। इसी समय [[ब्रिटेन]] में सम्पन्न हुए आम चुनावों के बाद पामस्टर्न प्रधानमंत्री बने, इन्होंने तत्काल कम्पनी के भारत पर शासन करने के अधिकार को लेकर ब्रिटिश क्राउन के अधीन करने का निर्णय लिया। उस कम्पनी के अध्यक्ष 'रोस मेगल्स' एवं 'जॉन स्टुअर्ट मिले' ने इस निर्णय की आलोचना की। | ||
;अधिनियम की प्रमुख विशेषताएँ- | |||
#ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी का शासन समाप्त कर शासन की ज़िम्मेदारी ब्रिटिश क्राउन को सौंप दी गयी। भारत का गवर्नर-जनरल अब 'भारत का वायसराय' कहा जाने लगा। | #ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी का शासन समाप्त कर शासन की ज़िम्मेदारी ब्रिटिश क्राउन को सौंप दी गयी। भारत का गवर्नर-जनरल अब 'भारत का वायसराय' कहा जाने लगा। | ||
#'बोर्ड ऑफ़ डाइरेक्टर्स' एवं 'बोर्ड ऑफ़ कन्ट्रोल' के समस्त अधिकार 'भारत सचिव' को सौंप दिये गये। भारत संचिव ब्रिटिश मंत्रिमण्डल का एक सदस्य होता था, जिसकी सहायता के लिए 15 सदस्यीय 'भारतीय परिषद' का गठन किया गया था, जिसमें 7 सदस्यों की नियुक्ति 'कोर्ट ऑफ़ डायरेक्टर्स' एवं शेष 8 की नियुक्ति ब्रिटिश सरकार करती थी। इन सदस्यों में आधे से अधिक के लिए यह शर्त थी कि वे भारत में कम से कम 10 वर्ष तक रह चुके हों। | #'बोर्ड ऑफ़ डाइरेक्टर्स' एवं 'बोर्ड ऑफ़ कन्ट्रोल' के समस्त अधिकार 'भारत सचिव' को सौंप दिये गये। भारत संचिव ब्रिटिश मंत्रिमण्डल का एक सदस्य होता था, जिसकी सहायता के लिए 15 सदस्यीय 'भारतीय परिषद' का गठन किया गया था, जिसमें 7 सदस्यों की नियुक्ति 'कोर्ट ऑफ़ डायरेक्टर्स' एवं शेष 8 की नियुक्ति ब्रिटिश सरकार करती थी। इन सदस्यों में आधे से अधिक के लिए यह शर्त थी कि वे भारत में कम से कम 10 वर्ष तक रह चुके हों। | ||
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====1861 का भारतीय परिषद अधिनियम==== | ====1861 का भारतीय परिषद अधिनियम==== | ||
1858 ई. का अधिनियम अपनी कसौटी पर पूर्णतः खरा नही उतरा, परिणामस्वरूप 3 वर्ष बाद [[1861]] ई.में ब्रिटिश संसद ने 'भारतीय परिषद अधिनियम' पारित किया। यह पहला ऐसा अधिनियम था, जिसमें 'विभागीय प्रणाली' एवं 'मंत्रिमण्डलीय प्रणाली' की नींव रखी गयी। पहली बार विधि निर्माण कार्य में भारतीयों का सहयोग लेने का प्रयास किया गया। | 1858 ई. का अधिनियम अपनी कसौटी पर पूर्णतः खरा नही उतरा, परिणामस्वरूप 3 वर्ष बाद [[1861]] ई.में ब्रिटिश संसद ने 'भारतीय परिषद अधिनियम' पारित किया। यह पहला ऐसा अधिनियम था, जिसमें 'विभागीय प्रणाली' एवं 'मंत्रिमण्डलीय प्रणाली' की नींव रखी गयी। पहली बार विधि निर्माण कार्य में भारतीयों का सहयोग लेने का प्रयास किया गया। | ||
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#[[वायसराय]] की परिषद में एक सदस्य और बढ़ा कर सदस्यों की संख्या 5 कर दी गयी। 5वाँ सदस्य विधि विशेषज्ञ होता था। | |||
#क़ानून निर्माण के लिए वायसराय की काउन्सिल में कम से कम 6 एवं अधिकतम 12 अतिरिक्त सदस्यों की नियुक्ति का अधिकार वायसराय को दिया गया। इन सदस्यों का कार्यकाल 2 वर्ष का होता था। गैर सरकारी सदस्यों में कुछ उच्च श्रेणी के थे, पर भरतीय सदस्यों की नियुक्ति के प्रति वायसराय बाध्य नहीं था, किन्तु व्यवहार में कुछ गैर सरकारी सदस्य 'उच्च श्रेणी के भारतीय' थे। इस परिषद का कार्य क्षेत्र क़ानून निर्माण तक ही सीमित था। | |||
#इस अधिनियम की व्यवस्था के अनुसार [[बम्बई]] एवं [[मद्रास]] प्रान्तों को विधि निर्माण एवं उनमें संशोधन का अधिकार पुनः प्रदान कर दिया गया, किन्तु इनके द्वारा निर्मित क़ानून तभी वैध माने जाते थे, जब उन्हें वायसराय वैध ठहराता था। | |||
#वायसराय को प्रान्तों में विधान परिषद की स्थापना का अधिकार तथा लेफ़्टीनेन्ट गवर्नर की नियुक्ति का अधिकार प्राप्त हो गया। | |||
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12:01, 2 जुलाई 2012 का अवतरण
भारत के संवैधानिक विकास के अंतर्गत कई प्रकार के एक्ट और अधिनियम आदि समय-समय पर पारित किये गए थे।
कम्पनी शासन के अधीन लाये गये अधिनियम
1773 का रेग्युलेटिंग एक्ट
इस एक्ट का उद्देश्य भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की गतिविधियों को ब्रिटिश सरकार की निगरानी में लाना था। इसके अतिरिक्त कम्पनी की संचालक समिति में आमूल-चूल परिवर्तन करना तथा कम्पनी के राजनीतिक अस्तित्व को स्वीकार कर उसके व्यापारिक ढांचे को राजनीतिक कार्यों के संचालन योग्य बनाना भी इसका उद्देश्य था। इस अधिनियम को 1773 ई. में ब्रिटिश संसद में पास किया गया तथा 1774 ई. में इसे लागू किया गया। इस एक्ट के मुख्य प्रावधान निम्नलिखित थे-
- 'कोर्ट ऑफ़ डाइरेक्टर्स' का कार्यकाल एक वर्ष के स्थान पर चार वर्ष का हो गया तथा डाइरेक्टरो की संख्या 24 निर्धारित की गयी, जिसमें से 25 अर्थात् छ: सदस्यो द्वारा प्रतिवर्ष अवकाश ग्रहण करना पड़ता था। 1000 पौण्ड के हिस्सेदारों को वोट का अधिकार दिया गया। 3, 6 एवं 10 हज़ार पौण्ड के हिस्सेदारों को क्रमशः 2, 3 एवं 4 मत देने के अधिकार मिले।
1781 का संशोधनात्मक अधिनियम
सरकार को सुदृढ़ करने के उद्देश्य से इस अधिनियम में निम्नलिखित प्रावधान किये गये थे-
- कम्पनी के पदाधिकारियों को उच्चतम न्यायालय के अधिकार क्षेत्र से बाहर कर दिया गया।
- सर्वोच्च न्यायालय के अधिकतम क्षेत्र को स्पष्ट करते हुए कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) के सभी निवासियों पर उसकी अधिकारिता को प्रमाणित किया गया।
- गवर्नर-जनरल तथा उसकी परिषद द्वारा बनाये गये नियमों तथा विनियमों को उच्चतम न्यायालय में पंजीकृत कराने की बाध्यता समाप्त कर दी गयी।
- कोई भी नियम या विनियम बनाते समय भरतीय धार्मिक वा समाजिक रीति-रिवाजों पर ध्यान देने की आवश्यकता पर बल दिया गया।
पिट एक्ट
रेग्युलेटिंग एक्ट में व्याप्त खामियों को दूर करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने इस एक्ट को पारित किया था। एक्ट के मुख्य प्रावधान इस प्रकार थे-
- भारत के गवर्नर-जनरल की कौंसिल के सदस्यों की संख्या तीन कर दी गयी। गवर्नर व गवर्नर जनरल की नियुक्ति का अधिकार संचालको को था, पर उन्हें वापस बुलाने का अधिकार संचालक मण्डल तथा राजा को मिल गया। मद्रास एवं बम्बई की सरकारें पूरी तरह से बंगाल सरकार के आधीन हो गयीं।
- छ: कमिश्नरों के एक बोर्ड का गठन हुआ, जिसे भारत में अंग्रेज़ी क्षेत्र पर नियंत्रण का पूरा अधिकार दे दिया गया। संचालकों द्वारा समस्त आदेशों को इसी की अनुमति से भेजा जाना सुनिश्चित किया गया।
- संचालक या 'बोर्ड ऑफ़ कन्ट्रोल' की अनुमति के बिना गवर्नर-जनरल को किसी भी भारतीय नरेश के साथ संघर्ष आरम्भ करने या किसी राज्य को अन्य राज्यों के आक्रमण के विरुद्ध सहायता का आश्वासन देने का अधिकार नहीं था। इस अधिनियम द्वारा कंपनी के संविधान में दो मुख्य परिवर्तन हुए। पहला यह कि इस अधिनियम द्वारा द्वैध शासन प्रणाली, एक कम्पनी द्वारा और दूसरी संसदीय बोर्ड द्वारा बना दी गयी, जो 1858 तक चलती रही। दूसरा यह था कि इस अधिनियम से कार्यकारी पार्षदों की संख्या तीन रह गयी, जिनमें से एक मुख्य सेनापति था। परन्तु इस अधिनियम की सबसे महात्त्वपूर्ण धारा यह थी कि इसके द्वारा आक्रमक युद्धों को ही समाप्त नही किया गया, अपितु जो प्रत्याभूति सन्धियाँ कर्नाटक एवं अवध से की गई थीं, उन्हें भी समाप्त कर दिया गया, किन्तु व्यावहारिक रूप से इस आदेश का पालन विपरीत दिशा में ही हुआ।
1786 का एक्ट
पिट द्वारा रखे गये इस अधिनियम में गवर्नर-जनरल को विशेष व्यवस्था में अपनी परिषद के निर्णय को रद्द करने तथा अपने निर्णय लागू करने का अधिकार भी दे दिया गया।
1793 का चार्टर एक्ट
कम्पनी का भारत में व्यापार करने का अधिकार 20 वर्ष के लिए बढ़ा दिया गया। अपनी परिषदों के निर्णय को रद्द करने का अधिकार सभी गवर्नर-जनरलों को दिया गया। गवर्नर-जनरल का बम्बई तथा मद्रास प्रेसीडेंस पर भी अधिकार स्पष्ट हो गया।
1813 का चार्टर एक्ट
1813 ई. में कम्पनी को बीस वर्ष के लिए मिले व्यापारिक अधिकारो का चार्टर लाया गया, जिसके अनुसार कम्पनी का भारतीय व्यापार पर एकाधिकार समाप्त कर दिया गया, परन्तु चीन के साथ व्यापार व चाय के व्यापार का एकाधिकार कम्पनी के पास सुरक्षित रहा। कम्पनी के भागीदारों को भारतीय राजस्व से 10.5 प्रतिशत लाभांश देने का निश्चय किया गया। भारतीयों के लिए एक लाख रुपया वार्षिक शिक्षा के सुधार, साहित्य के सुधार एवं पुनरुथान के लिए और भारतीय प्रदेशों में विज्ञान की प्रगति के लिए खर्च करने का प्रावधान किया गया।
1833 का चार्टर एक्ट
एक अधिनियम द्वारा कम्पनी का चीन के साथ व्यापारिक एकाधिकार समाप्त कर दिया गया। अब कम्पनी एक राजनैतिक संस्था भर रह गयी। कम्पनी को आने वाले 20 वर्षों के लिए क्राउन व उसके उत्तराधिकारियों के न्यास के रूप में भारत पर प्रशासन का अधिकार दे दिया गया। अधिनियम ने प्रशासन का केन्द्रीयकरण कर दिया, बंगाल के गवर्नर-जनरल को अब भारत का गवर्नर-जनरल बना दिया गया और सपरिषद गवर्नर-जनरल को कम्पनी के सैनिक तथा असैनिक कार्य का नियंत्रण, निरक्षण तथा निर्देशन सौंपा गया। बम्बई, मद्रास तथा बंगाल व अन्य प्रदेश गवर्नर-जनरल के नियंत्रण में दे दिये गये। गवर्नर-जनरल को अपनी कौंसिल सहित सारे अंग्रेज़ी इलाकों के लिए क़ानून बनाने का अधिकार प्राप्त हो गया। बम्बई तथा मद्रास की संविधान सभाओं की क़ानून बनाने की शक्ति समाप्त हो गयी। सपरिषद गवर्नर-जनरल सभी विषयों पर सभी स्थानों तथा लोगों के लिए क़ानून बना सकता था और उसके क़ानून सभी न्यायालयों द्वारा लागू किये जाते थे। गवर्नर-जनरल की सहायता के लिए उसकी कौंसिल में एक अतिरिक्त क़ानून सदस्य को चौथे सदस्य के रूप में शामिल किया गया। भारतीय क़ानूनों को संहिताबद्ध करने के लिए एक 'विधि कमीशन' बनाया गया। इस अधिनियम में जाति, वर्ण, लिंग एवं व्यवसाय के अधार पर सरकारी सेवाओं में चयन के लिए भेदभाव अपनाने पर कुछ प्रतिबन्ध लगा। इस अधिनियम में दास प्रथा को खत्म करने के लिए भी व्यवस्था की गई थी।
1853 का चार्टर एक्ट
इस अधिनियम के तहत कम्पनी को ब्रिटिश सरकार की ओर से भारत का क्षेत्र, ट्रस्ट के रूप में तब तक रखने की आज्ञा दी गयी, जब तक कि ब्रिटिश संसद ऐसा चाहे। अधिनियम में दी गयी व्यवस्था के अन्तर्गत नियंत्रण बोर्ड, सचिव एवं अन्य अधिकारियों का वेतन ब्रिटिश सरकार निश्चित करेगी, पर धन कम्पनी उपलब्ध करायेगी। अब डाइरेक्टरों की संख्या में कटौती कर 24 से 18 कर दिया गया, जिसमें 6 की नियुक्ति क्राउन द्वारा होती थी। सरकारी सेवाओं में नियुक्तियाँ अब डाइरेक्टरों के द्वारा ना होकर प्रतियोगी परीक्षाओं द्वारा की जाने लगी। 1854 ई. में 'मैकाले समिति' नियुक्त की गयी, ताकि इस योजना को क्रियान्वित किया जा सके। विधि सदस्य अब गवर्नर-जनरल की काउन्सिल का पूर्ण सदस्य बन गया, परिषद जब नया क़ानून बनायेगी तो 6 अतिरिक्त सदस्य, जिसमें उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, एक अन्य न्यायाधीश, तीनों प्रेसीडेंसियों व उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त का एक-एक असैनिक प्रतिनिधि होना चाहिए। प्रान्तीय असैनिक पदाधिकारी के लिए यह आवश्यक था कि वह लगभग 10 वर्ष तक कम्पनी के आधीन सेवारत रहा हो। इस अधिनियम की सबसे बड़ी त्रुटि यह थी कि भारतीयों को अपने विषय में क़ानून बनाने की अनुमति नहीं दी गयी थी।
क्राउन शासन में विकास
1857 ई. के विद्रोह के शांत होने के बाद भारत का शासन ईस्ट इंडिया कम्पनी के हाथों से निकल कर ब्रिटिश क्राउन के हाथों में पहुँच गया।
ब्रिटिश संसद द्वारा पारित अधिनियम
1858 का अधिनियम
इस अधिनियम के पारित होने के कुछ महत्त्वपूर्ण कारण थे। भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम, जो 1857 ई. में हुआ था, ने भारत में कम्पनी शासन के दोषों के प्रति ब्रिटिश जनमानस का ध्यान आकृष्ट किया। इसी समय ब्रिटेन में सम्पन्न हुए आम चुनावों के बाद पामस्टर्न प्रधानमंत्री बने, इन्होंने तत्काल कम्पनी के भारत पर शासन करने के अधिकार को लेकर ब्रिटिश क्राउन के अधीन करने का निर्णय लिया। उस कम्पनी के अध्यक्ष 'रोस मेगल्स' एवं 'जॉन स्टुअर्ट मिले' ने इस निर्णय की आलोचना की।
- अधिनियम की प्रमुख विशेषताएँ-
- ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी का शासन समाप्त कर शासन की ज़िम्मेदारी ब्रिटिश क्राउन को सौंप दी गयी। भारत का गवर्नर-जनरल अब 'भारत का वायसराय' कहा जाने लगा।
- 'बोर्ड ऑफ़ डाइरेक्टर्स' एवं 'बोर्ड ऑफ़ कन्ट्रोल' के समस्त अधिकार 'भारत सचिव' को सौंप दिये गये। भारत संचिव ब्रिटिश मंत्रिमण्डल का एक सदस्य होता था, जिसकी सहायता के लिए 15 सदस्यीय 'भारतीय परिषद' का गठन किया गया था, जिसमें 7 सदस्यों की नियुक्ति 'कोर्ट ऑफ़ डायरेक्टर्स' एवं शेष 8 की नियुक्ति ब्रिटिश सरकार करती थी। इन सदस्यों में आधे से अधिक के लिए यह शर्त थी कि वे भारत में कम से कम 10 वर्ष तक रह चुके हों।
- भारत सचिव व उसकी कौंसिल का खर्च भारतीय राजकोष से दिया जायगा। संभावित जनपद सेवा में नियुक्तियाँ खुली प्रतियोगिता के द्वारा की जाने लगी, जिसके लिए राज्य सचिव ने जनपद आयुक्तों की सहायता से निगम बनाए।
इस अधिनियम के लागू होने के बाद 1784 ई. के 'पिट एक्ट' द्वारा स्थापित द्वैध शासन पद्धति पूरी तरह समाप्त हो गयी, देशों व राजाओं का क्राउन से प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित हो गया और डलहौज़ी की 'राज्य हड़प नीति' निष्प्रभावी हो गयी।
1861 का भारतीय परिषद अधिनियम
1858 ई. का अधिनियम अपनी कसौटी पर पूर्णतः खरा नही उतरा, परिणामस्वरूप 3 वर्ष बाद 1861 ई.में ब्रिटिश संसद ने 'भारतीय परिषद अधिनियम' पारित किया। यह पहला ऐसा अधिनियम था, जिसमें 'विभागीय प्रणाली' एवं 'मंत्रिमण्डलीय प्रणाली' की नींव रखी गयी। पहली बार विधि निर्माण कार्य में भारतीयों का सहयोग लेने का प्रयास किया गया।
- अधिनियम की प्रमुख विशेषताएँ-
- वायसराय की परिषद में एक सदस्य और बढ़ा कर सदस्यों की संख्या 5 कर दी गयी। 5वाँ सदस्य विधि विशेषज्ञ होता था।
- क़ानून निर्माण के लिए वायसराय की काउन्सिल में कम से कम 6 एवं अधिकतम 12 अतिरिक्त सदस्यों की नियुक्ति का अधिकार वायसराय को दिया गया। इन सदस्यों का कार्यकाल 2 वर्ष का होता था। गैर सरकारी सदस्यों में कुछ उच्च श्रेणी के थे, पर भरतीय सदस्यों की नियुक्ति के प्रति वायसराय बाध्य नहीं था, किन्तु व्यवहार में कुछ गैर सरकारी सदस्य 'उच्च श्रेणी के भारतीय' थे। इस परिषद का कार्य क्षेत्र क़ानून निर्माण तक ही सीमित था।
- इस अधिनियम की व्यवस्था के अनुसार बम्बई एवं मद्रास प्रान्तों को विधि निर्माण एवं उनमें संशोधन का अधिकार पुनः प्रदान कर दिया गया, किन्तु इनके द्वारा निर्मित क़ानून तभी वैध माने जाते थे, जब उन्हें वायसराय वैध ठहराता था।
- वायसराय को प्रान्तों में विधान परिषद की स्थापना का अधिकार तथा लेफ़्टीनेन्ट गवर्नर की नियुक्ति का अधिकार प्राप्त हो गया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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