"सुदामा चरित -नरोत्तमदास": अवतरणों में अंतर

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सुदामाचरित (संपूर्ण)
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03:55, 8 सितम्बर 2012 का अवतरण


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सुदामा चरित -नरोत्तमदास
पूरा नाम नरोत्तमदास
जन्म सन 1493 (संवत- 1550)
जन्म भूमि वाड़ी, सीतापुर, उत्तर प्रदेश
मृत्यु अज्ञात
कर्म-क्षेत्र कवि
मुख्य रचनाएँ सुदामा चरित, ध्रुव-चरित
विषय सगुण भक्ति
भाषा अवधी, हिन्दी, ब्रजभाषा
नागरिकता भारतीय
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

सुदामाचरित (संपूर्ण)


0000 भाग-1 प्रेरक वार्तालाप 0000
(मंगलाचरण)
 
गनपति कृपानिधान विद्या वेद विवेक जुत।
छेहु मोहिं वरदान हर्ष सहित हरिगुन कहौ।।1।।


हरिचरित बहु भाई सेस दिनेस न कहि सकै।
प्रेम सहित चित लाइ सुनौ सुदामा की कथा।।2।।


विप्र सुदामा बसत हैं, सदा आपने धाम।
भीख माँगि भोजन करैं, हिये जपत हरि-नाम॥३॥


ताकी घरनी पतिव्रता, गहे वेद की रीति।
सलज सुशील, सुबुद्धि अति, पति सेवा सौं प्रीति॥४॥


कह्यौ सुदामा एक दिन, कृस्न हमारे मित्र।
करत रहति उपदेस गुरु, ऐसो परम विचित्र॥५॥



(सुदामा की पत्नी)
महादानि जिनके हितू, हैं हरि जदुकुल- चंद।
दे दारिद-सन्ताप ते, रहैं न क्यों निरद्वन्द।।6।।


(सुदामा)
कह्यौ सुदामा, बाम सुनु, बृथा और सब भोग।
सत्य भजन भगवान को, धर्म-सहित जग जोग।।7।।


(सुदामा की पत्नी)
लोचन-कमल, दुख मोचन तिलक भाल,
स्रवननि कुंडल, मुकुट धरे माथ हैं।
ओढ़े पीत बसन, गरे में बैजयंती माल,
संख-चक्र-गदा और पद्म लिये हाथ हैं।
विद्व नरोत्तम संदीपनि गुरु के पासए
तुम ही कहत हम पढ़े एक साथ हैं।
द्वारिका के गये हरि दारिद हरैंगे पियए
द्वारिका के नाथ वै अनाथन के नाथ हैं॥८॥


(सुदामा)
सिच्छक हौं सिगरे जग को तियए ताको कहाँ अब देति है सिच्छा।
जे तप कै परलोक सुधारतए संपति की तिनके नहि इच्छा॥
मेरे हिये हरि के पद पंकज, बार हजार लै देखि परिच्छा।
औरन को धन चाहिये बावरिए ब्राह्मन को धन केवल भिच्छा॥९॥



  (सुदामा की पत्नी)
दानी बडे तिहु लोकन में जग जीवत नाम सदा जिनकौ लै।
दीनन की सुधि लेत भली बिधि सिद्वि करौ पिय मेरो मतो लै।
दीनदयाल के द्वार न जात सो, और के द्वार पै दीन ह्वै बोलै।
श्री जदुनाथ के जाके हितू सो, तिहूँपन क्यों कन मॉगत डोलै।।10।।


(सुदामा)
छत्रिन के पन जुद्ध- जुवा सजि बाजि चढै गजराजन ही।
बैस के बानिज और कृसीपन, सुद्र को सेवन साजन ही।
बिप्रन के पन है जु यही, सुख सम्पति को कुछ काज नहीं।
कै पढिबो कै तपोधन है, कन मॉगत बॉभनै लाज नहीं।।11।।


(सुदामा की पत्नी)

कोदोंए सवाँ जुरितो भरि पेटए तौ चाहति ना दधि दूध मठौती।
सीत बितीतत जौ सिसियातहिंए हौं हठती पै तुम्हें न हठौती॥
जो जनती न हितू हरि सों तुम्हेंए काहे को द्वारिका पेलि पठौती।
या घर ते न गयौ कबहूँ पियए टूटो तवा अरु फूटी कठौती।।12।।


(सुदामा)
छाँड़ि सबै जक तोहि लगी बकए आठहु जाम यहै झक ठानी।
जातहि दैहैंए लदाय लढ़ा भरिए लैहैं लदाय यहै जिय जानी॥
पाँउ कहाँ ते अटारि अटाए जिनको विधि दीन्हि है टूटि सी छानी।
जो पै दरिद्र लिखो है ललाट तौए काहु पै मेटि न जात अयानी॥१३॥


(सुदामा की पत्नी)
पूरन पैज करी प्रह्लाद की , खम्भ सों बॉध्यो कपता जिहि बेरे।
द्रौपदि ध्यान धरयो जब हीं, तबहीं पट कोटि लगे चहूॅ फेरे।
ग्राह ते छूटि गयो पिय, याहिं सो है निहचै जिय मेरे।
ऐसे दरिद्र हजार हरैं वे, कृपानिधि लोवन कोर के हेरे।।14।।


(सुदामा)
चक्कवे चौंकि रहे चकि से, जहॉ भूले से भूप मितेक गिनाऊॅ।
देव गंधर्व और किन्नर -जच्छ से,सॉझ लौं ठाढे रहैं जिहि ठाऊॅ।।15।।


(सुदामा की पत्नी)
भूले से भूप अनेक खरे रहैं , ठाढै रहै तिमि चक्कवे भारी।
छेव गन्धर्व ओ किन्नर जच्छ से, रोके जे लोकन के अधिकारी।
अन्तरजामी ते आपुही जानिहैं, मानो यहै सिखि आजु हमारी।
द्वारिका नाथ के द्वार गए, सबतें पहिले सुधि लैहें तिहारी।।16।।


(सुदामा)
दीन दयाल को ऐसोई द्वार है, दीनन की सुधि लेत सदाई।
द्रोपदी तैं, गज तैं, प्रह्लाद तैं, जानि परी न विलम्ब लगाई।
याहि ते भावति मो मन दीनता, जो निवहै निबही जस आई।
जौ ब्रजराज सौ प्रीति नहीं, केहि काज सुरेसहु की ठकुराई।।17।।


(सुदामा की पत्नी)
फाटे पट, टूटी छानि भीख मॉगि -मॉगि खाय,
बिना जग्य बिमुख रहत देव - पित्रई।
वे हैं दीनबन्धु दुखी देखि कै दयालु ह्वै हैं,
दे हैं कुछ जौ सौ हौं जानत अगत्रई।
द्वारिका लौ जात पिय! एतौ अरसात तुम,
कहे कौ लजात कौन-सी विचित्रई।
जौ पै सब जन्म या दरिद्र ही सतायौ तोपै,
कौन काज आइहै, कृपानिधि की मित्रई।।18।।


(सुदामा)
तैं तो कही नीकी सुनु बात ही की यह,
रीति मित्रई की नित प्रीति सरसाइए।
मित्र के मिलते मित्र धाइए परसपर,
मित्र क जौ जेंइए तौ आपहू जेवाइए।
वे हैं महाराज जोरि बैठत समाज भूप,
तहॉ यहि रूपज ाइ कहा सकुचाइए।
सुख-दुख के दिन तौ काटे ही बनैगे भूलि,
बिपति परे पैद्वार मित्र के न जाइये।।19।।

 
(सुदामा की पत्नी)
विप्र के भगत हरि जगत विदित बंधुए
लेत सब ही की सुधि ऐसे महादानि हैं।
पढ़े एक चटसार कही तुम कैयो बारए
लोचन अपार वै तुम्हैं न पहिचानि हैं।
एक दीनबंधु कृपासिंधु फेरि गुरुबंधुए
तुम सम कौन दीन जाकौ जिय जानि हैं।
नाम लेते चौगुनीए गये तें द्वार सौगुनी सोए
देखत सहस्त्र गुनी प्रीति प्रभु मानिहैं॥२०॥


(सुदामा)
प्रीति में चूक नहीं उनके हरि, मो मिलिहैं उठि कंठ लगाइ कै।
द्वार गये कुछ दैहै पै दैहैं , वे द्वारिकानाथ जू है सब लाइके।
जे विधि बीत गये पन द्वै, अब तो पहुॅचो बिरधपान आइ कै।
जीवन शेष अहै दिन केतिक , होहूॅ हरी सो कनावडो जाइ कै।।21।।


(सुदामा की पत्नी)
हूजै कनावडों बार हजार लौं, जौ हितू दीनदयालु से पाइए।
तीनहु लोक के ठाकुर जे, तिनके दरबार न जात लजाइए।
मेरी कही जिय में धरि कै पिय, भूलि न और प्रसंग चलाइए।
और के द्वार सो काज कहा पिय, द्वारिकानाथ के द्वारे सिधारिए।।22।।


(सुदामा)
द्वारिका जाहु जू द्वारिका जाहु जूए आठहु जाम यहै झक तेरे।
जौ न कहौ करिये तो बड़ौ दुखए जैये कहाँ अपनी गति हेरे॥
द्वार खरे प्रभु के छरिया तहँए भूपति जान न पावत नेरे।
पाँच सुपारि तै देखु बिचार कैए भेंट को चारि न चाउर मेरे॥२३॥


यह सुनि कै तब ब्राह्मनीए गई परोसी पास।
पाव सेर चाउर लियेए आई सहित हुलास॥२४॥


सिद्धि करी गनपति सुमिरिए बाँधि दुपटिया खूँट।
माँगत खात चले तहाँए मारग वाली बूट॥२५॥

भाग-1 समाप्त




0000 भाग-2 सुदामा का द्वारिका गमन 0000

(सुदामा)
तीन दिवस चलि विप्र के, दूखि उठे जब पॉय।
एक ठौर सोए कहॅू, घास पयार बिछाय।।26।।


अन्तरयामी आपु हरि, जानि भगत की पीर।
सोवत लै ठाढौ कियो, नदी गोमती तीर।।27।।


इतै गोमती दरस तें, अति प्रसन्न भौ चित।
बिप्र तहॉ असनान करि, कीन्हो नित्त निमित्त।।28।।


भाल तिलक घसि कै दियो, गही सुमिरनी हाथ,
देखि दिव्य द्वारावती, भयो अनाथ सनाथ।।29।।


दीठि चकचौंधि गई देखत सुबर्नमईए
एक तें सरस एक द्वारिका के भौन हैं।
पूछे बिन कोऊ कहूँ काहू सों न करे बातए
देवता से बैठे सब साधि.साधि मौन हैं।
देखत सुदामा धाय पौरजन गहे पाँयए
कृपा करि कहौ विप्र कहाँ कीन्हौ गौन हैं।
धीरज अधीर के हरन पर पीर केए
बताओ बलवीर के महल यहाँ कौन हैंघ्॥३०॥

 
दीन जानि काहू पुरूस, कर गहि लीन्हों आय।
दीन द्वार ठाढो कियो, दीनदयाल के जाय।।31।।


द्वारपाल द्विज जानि कै, कीन्हीं दण्ड प्रनाम।
विप्र कृपा करि भाषिये, सकुल आपनो नाम।।32।।


नाम सुदामा, कृस्न हम, पढे. एकई साथ।
कुल पाँडे वृजराज सुति, सकल जानि हैं गाथ।।33।।


द्वारपाल चलि तहँ गयो, जहाँ कृस्न यदुराय।
हाथ जोडि. ठाढो भयो, बोल्यो सीस नवाय।।34।।


श्रीकृष्ण का द्वारपालद् सुदामा से)

सीस पगा न झगा तन में प्रभुए जानै को आहि बसै केहि ग्रामा।
धोति फटी.सी लटी दुपटी अरुए पाँय उपानह की नहिं सामा॥
द्वार खड्यो द्विज दुर्बल एकए रह्यौ चकिसौं वसुधा अभिरामा।
पूछत दीन दयाल को धामए बतावत आपनो नाम सुदामा।।35।।


बोल्यौ द्वारपाल सुदामा नाम पाँड़े सुनिए
छाँड़े राज.काज ऐसे जी की गति जानै कोघ्
द्वारिका के नाथ हाथ जोरि धाय गहे पाँयए
भेंटत लपटाय करि ऐसे दुख सानै कोघ्
नैन दोऊ जल भरि पूछत कुसल हरिए
बिप्र बोल्यौं विपदा में मोहि पहिचाने कोघ्
जैसी तुम करौ तैसी करै को कृपा के सिंधुए
ऐसी प्रीति दीनबंधु! दीनन सौ माने कोघ्प्प् ३६प्प्


लोचन पूरि रहे जल सों, प्रभु दूरिते देखत ही दुख मेट्यो।
सोच भयो सुुरनायक के कलपद्रुम के हित माँझ सखेट्यो।
कम्प कुबेर हियो सरस्यो, परसे पग जात सुमेरू ससेट्यो।
रंक ते राउ भयो तबहीं, जबहीं भरि अंक रमापति भेट्यो।।37।।


भेंटि भली विधि विप्र सों, कर गहिं त्रिभुवन राय।
अन्तःपुर माँ लै गए, जहाँ न दूजो जाय।।38।।


मनि मंडित चौकी कनक, ता ऊपर बैठाय।
पानी धर्यो परात में, पग धोवन को लाय।।39।।


राजरमनि सोरह सहस, सब सेवकन सनीति।
आठो पटरानी भई चितै चकित यह प्रीति।40।।


जिनके चरनन को सलिल, हरत गत सन्ताप।
पाँय सुदामा विप्र के धोवत , ते हरि आप।।41।।


ऐसे बेहाल बेवाइन सों पगए कंटक.जाल लगे पुनि जोये।
हाय! महादुख पायो सखा तुमए आये इतै न किते दिन खोये॥
देखि सुदामा की दीन दसाए करुना करिके करुनानिधि रोये।
पानी परात को हाथ छुयो नहिंए नैनन के जल सौं पग धोये॥ प्प्४२प्प्


धोइ चरन पट-पीत सों, पोंछत भे जदुराय।
सतिभामा सों यों कह्यो, करो रसोई जाय।।43।।


तन्दुल तिय दीन्हें हुते, आगे धरियो जाय।
देखि राज -सम्पति विभव, दै नहिं सकत लजाय।।44।।


अन्तरजामी आपु हरि, जानि भगत की रीति।
सुहृद सुदामा विप्र सों, प्रगट जनाई प्रीति।।45।।


(प्रभु श्री कृष्ण सुदामा से)

कछु भाभी हमको दियौए सो तुम काहे न देत।
चाँपि पोटरी काँख मेंए रहे कहौ केहि हेत॥प्प् ४६प्प्



आगे चना गुरु.मातु दिये तए लिये तुम चाबि हमें नहिं दीने।
श्याम कह्यौ मुसुकाय सुदामा सोंए चोरि कि बानि में हौ जू प्रवीने॥
पोटरि काँख में चाँपि रहे तुमए खोलत नाहिं सुधा.रस भीने।
पाछिलि बानि अजौं न तजी तुमए तैसइ भाभी के तंदुल कीने॥ प्प्४७प्प्
 

छोरत सकुचत गॉठरी, चितवत हरि की ओर।
जीरन पट फटि छुटि पर्यो, बिथिर गये तेहि ठोर।।48।।


एक मुठी हरि भरि लई, लीन्हीं मुख में डारि।
चबत चबाउ करन लगे, चतुरानन त्रिपुरारि।।४९।।


कांपि उठी कमला मन सोचति, मोसोंकह हरि को मन औंको।
ऋद्धि कॅपी, सबसिद्धि कॅपी, नव निद्धि कॅपी बम्हना यह धौं को।।
सोच भयो सुर-नायक के, जब दूसरि बार लिया भरि झोंको।
मेरू डर्यो बकसै जनि मोहिं, कुबेर चबावत चाउर चौंको।।50।।


हूल हियरा मैं सब काननि परी है टेर,
भेंटत सुदामै स्याम चाबि न अघातहीं।
कहै नरात्तम रिद्धि सिद्धिन में सोर भयो,
डाढी थरहरक और सोचें कमला तहीं।
नाकलोक नागलोक ओक ओक थोकथोक,
ठाढे थारहरै मुचा सूखे सब गात ही।
हाल्यो पर्यो थोकन में लाल्यो पर्यो,
चाल्यो पर्यो चौकन में, चाउर चबात ही।।51।।


भौन भरो पकवान मिठाइन, लोग कहैं निधि हैं सुखमा के।
सँाझ सबेरे पिता अभिलाखत , दाख न चाखत सिंधु छमा के।
बँाभन एक कोऊ दुखिया सेर-पावैक चाउर लायो समाँ के।
प््रीति की रीति कहा कहिये, तेहि बैठि चबात हैं कन्त रमा के।।52।।


मूठी तीसरी भरत ही, रूकुमनि पकरी बाँह।
ऐसी तुम्हैं कहा भई, सम्पति की अनचाह।।53।।


कह्यो रूकुमिनी कान मैं , यह धौ कौन मिलाप।
कहत सुदामहिं आपसों, होत सुदामा आप।।54।।


यहि कौतुक के समय में , कही सेवकनि आय।
भई रसोई सिद्ध प्रभु, भोजन करिये आय।।55।।


थ्वप्र सुदामहिं न्हृाय कर, धोती पहरि बनाय।
सन्ध्या करि मध्यान्ह की, चौका बैठे जाय।।56।।


रूपे के रूचिर धार पायस सहित सिता,
सोभा सब जीती जिन सरद के चन्द की।
दूसरे परोसा भात सोधों सुरभी को घृत,
फूले फूले फुलका प्रफुल्ल दुति मन्द की।
पपर-मुंगौरी - बरी व्यंजन अनेक भँाति,
देवता बिलोकि छवि देवकी के नन्द की।
या विधि सुदामा जू को आछे कैं जँवाएँ प्रभु,
पाछै केै पछ्यावरि परोसी आनि कन्द की।।57।।


दाहिने वबद पढैं चतुरानन, सामुहें ध्यान महेस धर्यो है।
बाएँ दोऊ कर जोरि सुसेवक, देवन साथ सुरेश खर्यो है।
 एतेई बीच अनेक लिये धन, पायन आय कुबेर पर्यो है।
छेखि विभौ अपनो सपनो, बपुरो वह बाभन चौंकि पर्यो है।।58।।


सात दिवस यहि विधि रहे, दिन आदर भाव।
चित्त चल्यौ घर चलन कौं, ताकर सुनौं बनाव।।59।।


देनो हुतौ सो दै चुकेए बिप्र न जानी गाथ।
चलती बेर गोपाल जूए कछू न दीन्हौं हाथ॥प्प् ६०प्प्


वह पुलकनि वह उठ मिलनिए वह आदर की भाँति।
यह पठवनि गोपाल कीए कछू ना जानी जाति॥प्प्६१प्प्


घर.घर कर ओड़त फिरेए तनक दही के काज।
कहा भयौ जो अब भयौए हरि को राज.समाज॥प्प्६२प्प्


हौं कब इत आवत हुतौए वाही पठ्यौ ठेलि।
कहिहौं धनि सौं जाइकैए अब धन धरौ सकेलि॥प्प्६३प्प्


बालापन के मित्र हैं, कहा देउँ मैं सराप।
जैसी हरि हमको दियौ, तैसों पइहैं आप।।64।।


नौगुन धारी छगुन सों, तिगुने मध्ये में आप।
लायो चापल चौगुनी, आठौं गुननि गँवाय।।65।।


और कहा कहिए दसा, कंचन ही के धाम।
निपट कठिन हरि को हियों, मोको दियो न दाम।।66।।


बहु भंडार रतनन भरे, कौन करे अब रोष।
लाग आपने भाग को, काको दीजै दोस।।67।।


इमि सोचत सोचत झींखत , आयो निज पुर तीर।
दीठि परी इक बार ही, अय गयन्द की भीर।।68।।


हरि दरसन से दूरि दुख भयो, गये निज देस।
गैतम ऋषि को नाउॅ लै, कीन्होे नगर प्रवेस।।69।।

भाग-2 समाप्त


0000 भाग-3 पुनः ग्रह आगमन 000

(सुदामा ) -
वैसेइ राज.समाज बनेए गज.बाजि घनेए मन संभ्रम छायौ।
वैसेइ कंचन के सब धाम हैंए द्वारिके के महिलों फिरि आयौ।
भौन बिलोकिबे को मन लोचत सोचत ही सब गाँव मँझायौ।
पूछत पाँड़े फिरैं सबसों पर झोपरी को कहूँ खोज न पायौ॥प्प्७०प्प्



देवनगर कै जच्छपुर, हौं भटक्यो कित आय।
नाम कहा यहि नगर को, सौ न कहौ समुझाय।।
सेा न कहौ समुझाय, नगरवासी तुम कैसे।
 पथिक जहॉ झंखहि तहॉ के लोग अनैसे।
लोग अनैसे नाहिं, लखौ द्विजदेव नगर कै।
कृपा करी हरि देव, दियौ है देवनगर कै।।71।।


सुन्दर महल मनि-मानिक जटित अति,
सुबरन सूरज प्रकास मानां दे रह्यो।
देखत सुदामा को नगर के लोग धाए,
भरै अकुलाय जोई सोई पगै छूवै रह्यो।
बॉभनीं कै भूसन विविध बिधि देखि कह्यो,
जहों हौं निकासो सो तमासो जग ज्वै रह्यो।
ऐसी उसा फिरी जब द्वारिका दरस पायो,
द्वारिका के सरिस सुदामापुर ह्वै रह्यो।।72।।


 
कनक.दंड कर में लियेए द्वारपाल हैं द्वार।
जाय दिखायौ सबनि लैंए या है महल तुम्हार॥प्प्७३प्प्


कह्यो सुदामा हॅसत हौ, ह्वै करि परम प्रवीन।
कुटी दिखावहु मोहिं वह , जहॉ बॉभनी दीन।।74।।


द्वारपाल सों तिन कही, कही पठवहु यह गाथ।
आये बिप्र महाबली, देखहु होहु सनाथ।।75।।


सुनत चली आनत्द युत, सब सखियन लै संग।
किंकिनी नूपुर दुन्दुभि, मनहु काम चतुरंग।।76।।


(सुदामा की पत्नी) -
कही बॉभनी आइ कै, यहै कन्त निज गेह।
श्री जदुपति तिहुॅ लोक में, कीन्ह प्रगट निजु नेह।।77।।


(सुदामा ) -
हमैं कन्त तुम जति कहो, बोलौ बचन सॅभारि।
इन्हैं कुटी मेरी हुती, दीन बापुरी नारि।।78।।


(सुदामा की पत्नी) -
मैं तो नारि तिहारियै, सुधि सॅभारिये कन्त।
प्रभुता सुन्दरता सबै, दई रूक्मिणी कन्त।।79।।


(सुदामा ) -
टूटी सी मड़ैया मेरी परी हुती याही ठौरए
तामैं परो दुख काटौं कहाँ हेम.धाम री।
जेवर.जराऊ तुम साजे प्रति अंग.अंगए
सखी सोहै संग वह छूछी हुती छाम री।
तुम तो पटंबर री ओढ़े किनारीदारए
सारी जरतारी वह ओढ़े कारी कामरी।
मेरी वा पंडाइन तिहारी अनुहार ही पैए
विपदा सताई वह पाई कहाँ पामरीघ्प्प्८०प्प्


ठाडी पंडिताइन कहत मंजु भावन सों,
प्यारे परौं पाइन तिहारोई यह घरू है।
आये चलि हरौं श्रम कीन्हों तुम भूरि दुःख,
दारिद गमायो यों हॅसत गह्यो करू है।
रिद्धि सिद्धि दासी करि दीन्हीं अविनासी कृस्न,
पूरन प्रकासी , कामधेनु कोटि बरू है।
चलो पति भूलो मति दीन्हों सुख जदुपति,
सम्पति सो लीजिये समेत सुरूतरू है।।81।।



समझायो पुनि कन्त को, मुदित गई लै गेह।
अन्हवायो तुरतहिं उबटि, सुचि सुगन्ध मलि देह।।82।।


पूज्यो अधिक सनेह सों, सिंहासन बैठाय।
सुचि सुगन्ध अम्बर रचे, बर भूसन पहिराय।।83।।


सीतल जल अॅचवाइ कै, पानदान धरि पान।
धर्यो आय आगे तुरत, छवि रवि प्रभा समान।।84।।


झरहिं चौंर चहुॅ ओर तें, रम्भादिक सब नारि।
प्तिव्रता अति प्रेम सों, ठाढी करै बयारि।।85।।

स्वेत छत्र की छॉह, राज मैं शक्र समान।
बहन गज रथ तुरंग वर, अरू अनेक सुभ यान।।86।।
भाग-3 समाप्त


0000 भाग-4 कृष्ण महिमा गान 0000

(सुदामा ) -
कामधेनु सुरतरू सहित, दीन्हीं सब बलवीर।
जानि पीर गुरू बन्धु जन, हरि हरि लीन्हीं पीर।।87।।


विविध भॉति सेवा करी,.सुधा पियायो बाम।
अति विनीत मृदु वचन कहि, सब पुरो मन काम।।88।।


लै आयसु, प्रिय स्नान करि, सुचि सुगन्ध सब लाइ।
पूजी गौरि सोहाग हित, प्रीति सहित सुख पाइ।।89।।


षट्रस विविध प्रकार के, भोजन रचे बनाय।
कंचन थार मंगाइ कै, रचि रचि धरे बनाय।।90।।


कंचन चौकी डारि कै, दासी परम सुजानि।
रतन जटित भाजन कनक , भरि गंगोदक आनि।।91।।


घट कंचन को रतनयुत, सुचि सुगन्धि जल पूरि।
रच्छाधान समेत कै, जल प्रकास भरपूरि।।92।।


रतन जटित पीढा कनक, आन्यो जेंवन काम।
मरकत-मनि चौकी धरी, कछुक दूरि छबि धाम।।93।।


चौकी लई मॅगाय कै, पग धोवन के काज।
मनि-पादुका पवित्र अति, धरी विविध विधि साज।।94।।


चलि भोजन अब कीजिये, कह्यो दास मृदु भाखि।
कृस्न कृस्न सानन्द कहि, धन्य भरी हरि साखि।।95।।


बसन उतारे जाइ कै, धोवत चरन-सरोज।
चौकी पै छबि देत यौं, जनु तनु धरे मनोज।।96।।


पहिरि पादुका बिप्र बर, पीढा बैठे जाय।
रति ते अति छवि- आगरी, पति सो हँसि मुसकाय।।97।।


बिबिध भाँति भोजन धरे, व्यंजन चारि प्रकार।
जोरी पछिओरी सकल, प्रथम कहे नहिं पार।।98।।


हरिहिं समर्पो कन्त अब, कहो मन्द हँसि वाम।
करि घंटा को नाद त्यों, हरि सपर्पि लै नाम।।99।।


अगिनि जेंवाय विधान सों, वैस्यदेव करि नेम।
बली काढि जेंवन लगे, करत पवन तिय प्रेम।।100।।


बार बार पूछति प्रिया, लीजै जो रूचि होइ।
कृस्न- कृपा पूरन सबै, अबै परोसौं सोइ।।101।।


जेंइ चुके, अँचवन लगे, करन हेतु विश्राम।
रतन जटित पलका-कनक, बुनो सो रेशम दाम।।102।।


ललित बिछौना, बिरचि कै, पाँयत कसि कै डोरि।
राखे बसन सुसेवकनि, रूचिर अतर सों बोरि।।103।।


पानदान नेरे धर्यो भरि, बीरा छवि-धाम।
चरन धोय पौढन लगे, करन हेतु विश्राम।।104।।


कोउ चँवर कोउ बीजना, कोउ सेवत पद चारू।
अति विचित्र भूषन सजे, गज मोतिन के हारू।।105।।


करि सिंगार पिय पै गई, पान खाति मुसुकाति।
कहौ कथा सब आदि तें, किमि दीन्हों सौगाति।।106।।


कही कथा सब आदि ते, राह चले की पीर।
सेावत जिमि ठाढो कियो, नदी गोमती तीर।।107।।


गये द्वार जिहि भाँति सों, सो सब करी बखानि।
कहि न जाय मुख लाल सों, कृस्न मिले जिमि आनि।।108।।


करि गहि भीतर लै गए, जहाँ सकल रनिवास।
पग धोवन को आपुही, बैठे रमानिवास।।109।।


देखि चरन मेरे चल्यो, प्रभु नयनन तें बारि।
ताही सों धोये चरन, देखि चकित नर-नारि।।110।।


बहुरि कही श्री कृस्न जिमि, तन्दुल लीन्हें आप।
भेंटे हृदय लगाय कै, मेटे भ्रम सन्ताप।।111।।


बहुरि कही जेवनार सब, जिमि कीन्हीं बहु भाँति।
बरनि कहाँ लगि को कहै, सब व्यंजन की पाँति।।112।।


जादिन अधिक सनेह सों, सपन दिखायो मोहिं।
सेा देख्यो परतच्छ ही,सपन न निसफल होहिं।।113।।


बरनि कथा वहि विधि सबै, कह्ययो आपनो मोह।
वृथा कृपानिधि भगत-हितु-चिदानन्द सन्दोह।।114।।


साजे सब साज-,बाजि गज राजत हैं,
विविध रूचिर रथ पालकी बहल है।
रतनजटित सुभ सिंहासन बैठिबे को,
चौक कामधेनु कल्पतरूहू लहलहैं।
देखि देखि भूषण वसन-दासि दासन के,
सुख पाकसासन के लागत सहल है।
सम्पति सुदामा जू को कहाँ लौं दई है प्रभु,
कहाँ लौं गिनाऊँ जहाँ कंचन महल है।।115।।


अगनित गज वाजि रथ पालकी समाज,
ब्रजराज महाराज राजन-समाज के।
बानिक विविध बने मंदिर कनक सोहैं,
मानिक जरे से मन मोहें देवतान के।
हिरा लाल ललित झरोखन में झलकत,
किमि किमि झूमर झुलत मुकतान के।
जानी नहिं विपति सुदामा जू की कहाँ गई,
देखिये विधान जदुराय के सुदान के।।116।।


कहूँ सपनेहूँ सुबरन के महल होते,
पौरि मनि मण्डित कलस कब धरते।
रतन जटित सिंहासन पर बैठिबे को,
कब ये खबास खरे मौपे चौंर ढरते।
देखि राजसामा निज बामा सों सुदामा कह्यो,
कब ये भण्डार मेरे रतनन भरते।
जो पै पतिवरता न देती उपदेश तू तो,
एती कृपा द्वारिकेस मो पैं कब करते।।117।।


पहरि उठे अम्बर रूचिर सिंहासन पर आय।
बैठे प्रभुता निरखि कै, सुर-पति रह्यो लजाई।।118।।


कै वह टूटि.सि छानि हती कहाँए कंचन के सब धाम सुहावत।
कै पग में पनही न हती कहँए लै गजराजहु ठाढ़े महावत॥
भूमि कठोर पै रात कटै कहाँए कोमल सेज पै नींद न आवत।
कैं जुरतो नहिं कोदो सवाँ प्रभुए के परताप तै दाख न भावत॥ प्प्११९प्प्।।119।।


धन्य धन्य जदुवंश - मनि, दीनन पै अनुकूल।
धन्य सुदामा सहित तिय, कहि बरसहिं सुर फूल।।120।।

 समाप्त


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