"कुम्भ परम्परा": अवतरणों में अंतर

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अंगैःष्च संहिताः सर्वे कलशे तु समाश्रिताः।।</poem></blockquote>
अंगैःष्च संहिताः सर्वे कलशे तु समाश्रिताः।।</poem></blockquote>


उपर्युक्त [[श्लोक]] का अर्थ है कि कलश के मुख में [[विष्णु]], कण्ठ में [[रुद्र]], मूल में [[ब्रह्मा]], मध्य में मातृगण, अन्तवस्था में समस्त [[सागर]], [[पृथ्वी]] में निहित सप्तद्वीप तथा चारों वेदों का समन्वयात्मक स्वरुप विद्यमान है। इस श्लोक के मध्य में मातृगणों के विद्यमान होने का उल्लेख है। मातृकाएँ सोलह होती हैं। [[चन्द्रमा]] की भी षोडश कलाएँ होती है। कुम्भ भगवान विष्णु का पर्याय भी कहा गया है। कुम्भ शब्द चुरादि गणीय कुभि आच्छादने धातु से निष्पन्न होता है। इसका अर्थ है- 'आच्छादन' या 'आवृत्त करना'। परमात्मा अपने ऐश्वर्य से समस्त विश्व को आवृत्त किये रहता है। इसीलिए वह कुम्भ है। इसे कंमु कान्तै धातु से जोड़ने पर अमृत प्राप्ति की कामना का बोध होता है। कुम्भ को पेट, गर्भाशय, ब्रह्मा, विष्णु की संज्ञा से अभिहित किया गया है। लोक में कुम्भ, अर्द्धकुम्भ पर्व के [[सूर्य]], चन्द्रमा तथा [[बृहस्पति ग्रह|बृहस्पति]] तीन ग्रह कारक कहे गये हैं। सूर्य आत्मा है, चन्द्रमा मन है और बृहस्पति ज्ञान है। [[आत्मा]] अजर, अमर, नित्य और शान्त है, मन चंचल, ज्ञान मुक्ति कारक है। आत्मा में मन का लय होना, बुद्वि का स्थिर होना, नित्य मुक्ति का हेतु हैं। ज्ञान की स्थिरता तभी सम्भव है, जब बुद्वि स्थिर हो। दैवी बुद्वि का कारक गुरू है। वृहस्पति का स्थिर राशियों वृष, सिंह, वृश्चिक एवं कुम्भ में होना ही बुद्वि का स्थैर्य है। चन्द्रमा का सूर्य से युक्त होना अथवा अस्त होना ही मन पर आत्मा का वर्चस्व है। आत्मा एवं मन का संयुक्त होना स्वकल्याण के पथ पर अग्रसर होना है। कुम्भ, अर्द्धकुम्भ को शरीर, पेट, [[समुद्र]], पृथ्वी, सूर्य, विष्णु के पर्यायों से सम्बद्ध किया गया है। समुद्र, नदी, कूप आदि सभी कुम्भ के प्रतीत हैं। वायु के आवरण से [[आकाश]], [[प्रकाश]] से समस्त लोकों को आवृत्त करने के कारण सूर्य नाना प्रकार की कोशिकाओं से तथा स्नायुतंत्रों से आवृत होता है, इसीलिए कुम्भ है। कुम्भ इच्छा है, कामवासना रूप को आवृत करने के कारण काम ब्रह्म है, चराचर को धारण करने, उसमें प्रविष्ट होने के कारण विष्णु स्वयं कुम्भ हैं।<ref name="ab">{{cite web |url=http://www.kumbhnews.com/2012/12/blog-post_7485.html |title=वैदिक काल से है कुंभ परम्परा|accessmonthday=09 जनवरी|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=[[हिन्दी]]}}</ref>
उपर्युक्त [[श्लोक]] का अर्थ है कि कलश के मुख में [[विष्णु]], कण्ठ में [[रुद्र]], मूल में [[ब्रह्मा]], मध्य में मातृगण, अन्तवस्था में समस्त [[सागर]], [[पृथ्वी]] में निहित सप्तद्वीप तथा चारों वेदों का समन्वयात्मक स्वरुप विद्यमान है। इस श्लोक के मध्य में मातृगणों के विद्यमान होने का उल्लेख है। मातृकाएँ सोलह होती हैं। [[चन्द्रमा]] की भी षोडश कलाएँ होती है। कुम्भ भगवान विष्णु का पर्याय भी कहा गया है। कुम्भ शब्द चुरादि गणीय कुभि आच्छादने धातु से निष्पन्न होता है। इसका अर्थ है- 'आच्छादन' या 'आवृत्त करना'। परमात्मा अपने ऐश्वर्य से समस्त विश्व को आवृत्त किये रहता है। इसीलिए वह कुम्भ है। इसे कंमु कान्तै धातु से जोड़ने पर अमृत प्राप्ति की कामना का बोध होता है। कुम्भ को पेट, गर्भाशय, ब्रह्मा, विष्णु की संज्ञा से अभिहित किया गया है। लोक में कुम्भ, अर्द्धकुम्भ पर्व के [[सूर्य]], चन्द्रमा तथा [[बृहस्पति ग्रह|बृहस्पति]] तीन ग्रह कारक कहे गये हैं। सूर्य आत्मा है, चन्द्रमा मन है और बृहस्पति ज्ञान है। [[आत्मा]] अजर, अमर, नित्य और शान्त है, मन चंचल, ज्ञान मुक्ति कारक है। आत्मा में मन का लय होना, बुद्वि का स्थिर होना, नित्य मुक्ति का हेतु हैं। ज्ञान की स्थिरता तभी सम्भव है, जब बुद्वि स्थिर हो। दैवी बुद्वि का कारक गुरू है। बृहस्पति का स्थिर राशियों वृष, सिंह, वृश्चिक एवं कुम्भ में होना ही बुद्वि का स्थैर्य है। चन्द्रमा का सूर्य से युक्त होना अथवा अस्त होना ही मन पर आत्मा का वर्चस्व है। आत्मा एवं मन का संयुक्त होना स्वकल्याण के पथ पर अग्रसर होना है। कुम्भ, अर्द्धकुम्भ को शरीर, पेट, [[समुद्र]], पृथ्वी, सूर्य, विष्णु के पर्यायों से सम्बद्ध किया गया है। समुद्र, नदी, कूप आदि सभी कुम्भ के प्रतीत हैं। वायु के आवरण से [[आकाश]], [[प्रकाश]] से समस्त लोकों को आवृत्त करने के कारण सूर्य नाना प्रकार की कोशिकाओं से तथा स्नायुतंत्रों से आवृत होता है, इसीलिए कुम्भ है। कुम्भ इच्छा है, कामवासना रूप को आवृत करने के कारण काम ब्रह्म है, चराचर को धारण करने, उसमें प्रविष्ट होने के कारण विष्णु स्वयं कुम्भ हैं।<ref name="ab">{{cite web |url=http://www.kumbhnews.com/2012/12/blog-post_7485.html |title=वैदिक काल से है कुंभ परम्परा|accessmonthday=09 जनवरी|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=[[हिन्दी]]}}</ref>
 
==प्रचलित कथाएँ==
गंगा जी का नाम लेने मात्र से ही समस्त पापों का विनाश हो जाता है। दर्शन करने पर कल्याण होता है, स्नान और जलपान करने पर मनुष्य की सात पीढ़ियों का उद्धार हो जाता है-
कुम्भ पर्व [[वैदिक काल]] से ही [[भारतीय संस्कृति]] का अभिन्न हिस्सा रहा है। इसकी मान्यता के सन्दर्भ में तीन कथाएँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं-
<blockquote><poem>न गंगा सदृशं तीर्थं न देवः केशवात्परः।
#[[दुर्वासा ऋषि|महर्षि दुर्वासा]] की कथा
ब्राह्यणेभ्यः परं नास्ति एवमाह पितामहः।।
#कद्रू-[[विनता]] की कथा 
यत्र गंगा महाराज स देशस्तत् तपोवनम्।
#[[समुद्र मंथन]] की कथा
सिद्धिक्षेत्रं तज्ज्ञेयः गंगातीर समाश्रिम्।।</poem></blockquote>
====प्रथम कथा====
प्रथम कथा देवराज [[इन्द्र]] से सम्बन्धित है, जिसमें दुर्वासा द्वारा दी गई दिव्यमाला का अपमान हुआ। इन्द्र ने उस माला को अपने [[हाथी]] [[ऐरावत]] के मस्तक पर रख दिया और ऐरावत ने उसे पैरों तले कुचल दिया। दुर्वासा ऋषि ने इसके परिणामस्वरुप भयंकर शाप दिया जिसके कारण संसार में दुर्भिक्ष पड़ गया। अनावृष्टि और दुर्भिक्ष से प्रजा में त्राहि-त्राहि मच गई। तत्पश्चात [[नारायण]] ने समुद्र मंथन की प्रक्रिया द्वारा [[लक्ष्मी]] को प्रकट किया। उनकी कृपा से वृष्टि हुई और कृषकों का कष्ट दूर हुआ। अमृत पान से वंचित असुरों ने कुम्भ को नागलोक में छिपा दिया। [[गरुड़]] ने वहाँ से उसका उद्धार किया और उसे [[क्षीरसागर]] तक पहुँचने से पूर्व जिन स्थानों पर कलश को रखा, वे ही स्थल 'कुम्भ पर्व' के तीर्थस्थल बन गये।
====द्वितीय कथा====
इस कथा के अनुसार [[कश्यप|महर्षि कश्यप]] की दो पत्नियों कद्रू और विनता के मध्य सूर्य के अश्वों का वर्ण [[काला रंग|काला]] है या [[सफेद रंग|सफेद]], इस विवाद को लेकर यह शर्त रखी गई की जो हारेगी वह दासी बनकर रहेगी। इस शर्त के परिणामस्वरुप विनता के हार जाने के कारण उसे दासी बन कर रहना पड़ा। उस दासीत्व से तभी मुक्ति मिल सकती थी, जब नागलोक में छिपाये गये कुम्भ को कश्यप मुनि की पत्नी कद्रू के पास लाया जाय। उस अमृत कलश को लाने हेतु और अपनी [[माँ]] को दासीत्व से मुक्त कराने के लिये पक्षीराज गरुड़ ने संकल्प किया। नागलोक से वासुकि से संरक्षित उस अमृत-कलश को जब गरुड़ [[उत्तराखंड]] से [[गंधमादन पर्वत]] पर कश्यप मुनि के पास ले जा रहे थे तो वासुकि द्वारा [[इन्द्र]] को सूचित किया गया और उन्होंने चार बार आक्रमण किया। इन्द्र के द्वारा चार जगहों पर रोके जाने के कारण जो अमृत-कलश की बूँदे वहाँ पर छलकीं उसके कारण वहाँ कुम्भ पर्व की परम्परा प्रारम्भ हुई। गरुड़ ने उस अमृत-कुम्भ के अन्ततः अपनी माँ के दासीत्व से मुक्त कराने के लिये कश्यप मुनि के पास तक पहुँचाने का पूर्ण प्रयत्न किया और सफल हुए।
====तृतीय कथा====
तृतीय कथानुसार [[देवासुर संग्राम]] में चैदह [[रत्न|रत्नों]] में अमृत-कलश निकलने पर [[धन्वन्तरि]] द्वारा [[देवता|देवताओं]] को देने, [[विष्णु]] द्वारा मोहिनी रुप धारण करके देवताओं को अमृत पान कराने, [[राहु]] द्वारा अमृत पान करने, इन्द्र-पुत्र [[जयंत|जयन्त]] द्वारा अमृत-कुम्भ छीनकर भागने, जैसी कथाओं से सम्बद्ध है। उसकी रक्षा का भार [[सूर्य देव|सूर्य]], [[चन्द्र देव|चन्द्र]], [[बृहस्पति ऋषि|बृहस्पति]] और [[शनि देव|शनि]] को सौंपा गया था। जयन्त द्वारा ले जाये जाते हुए उस अमृत-कुम्भ को चार स्थलों पर रखने और उन-उन स्थलों पर अमृत की बूँदे गिरने के कारण कुम्भपर्व मनाये जाने की परम्परा प्रारम्भ हुई। अमृत-कुम्भ की उक्त कथाओं में यही तीसरी कथा ही सबसे प्रमुख मानी गई है।<ref name="ab"/>
<blockquote><poem>पृथिव्यां कुम्भयोगस्य चतुर्धा भेद उच्यते।
चतुःस्थले च पतनाद् सुधा कुम्भस्य भूतले।।
विष्णु द्वारे तीर्थराजेऽवन्त्यां गोदावरी तटे।
सुधा बिन्दु विनिक्षेपाद् कुम्भपर्वेति विश्रुतम्।।</poem></blockquote>
==शास्त्रीय मान्यताओं द्वारा अभिप्राय==
==शास्त्रीय मान्यताओं द्वारा अभिप्राय==
[[भारतीय संस्कृति]] में धार्मिक आस्था और विश्वास का सर्वोत्तम पर्व [[कुम्भ मेला]], महापर्व के रुप में न केवल [[भारत]] भूमि अपितु समूचे विश्व में सुविख्यात माना जाता है। यही एक ऐसा महापर्व है, जिसमें भारत के कुम्भ प्रधान पवित्र तीर्थस्थलों में पूरे विश्व से श्रद्धालु [[भक्त]] पधारकर यहाँ पर एक साथ पूरे देश की समन्वित [[संस्कृति]], विश्व बन्धुत्व की सद्भावना और जन सामान्य की अपार आस्था का अवलोकन करते हैं। शास्त्रीय मान्यताओं के अनुसार कुम्भ के अनेक अभिप्राय प्रतिपादित किये गये हैं-
[[भारतीय संस्कृति]] में धार्मिक आस्था और विश्वास का सर्वोत्तम पर्व [[कुम्भ मेला]], महापर्व के रुप में न केवल [[भारत]] भूमि अपितु समूचे विश्व में सुविख्यात माना जाता है। यही एक ऐसा महापर्व है, जिसमें भारत के कुम्भ प्रधान पवित्र तीर्थस्थलों में पूरे विश्व से श्रद्धालु [[भक्त]] पधारकर यहाँ पर एक साथ पूरे देश की समन्वित [[संस्कृति]], विश्व बन्धुत्व की सद्भावना और जन सामान्य की अपार आस्था का अवलोकन करते हैं। शास्त्रीय मान्यताओं के अनुसार कुम्भ के अनेक अभिप्राय प्रतिपादित किये गये हैं-
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इसका तात्पर्य यह है कि राशि में सूर्य, चन्द्र, बृहस्पति के स्थित होने पर यह अमृत-कुम्भ रूपी चन्द्र पृथ्वी पर [[हरिद्वार]], [[प्रयाग]], [[उज्जैन]] और [[नासिक]] जैसे कुम्भ प्रधान तीर्थस्थलों में अपने शुभ प्रभाव रूपी अमृत की वृष्टि करता है। उसी की पिपासा में उक्त स्थलों पर दिक्-दिगन्त से [[साधु]], [[सन्त]], महात्मा, [[भक्त]] और श्रद्वालु जन एकत्रित होकर पुण्य अर्जित करने हेतु इस महापर्व का संकीर्तन करते हैं।
इसका तात्पर्य यह है कि राशि में सूर्य, चन्द्र, बृहस्पति के स्थित होने पर यह अमृत-कुम्भ रूपी चन्द्र पृथ्वी पर [[हरिद्वार]], [[प्रयाग]], [[उज्जैन]] और [[नासिक]] जैसे कुम्भ प्रधान तीर्थस्थलों में अपने शुभ प्रभाव रूपी अमृत की वृष्टि करता है। उसी की पिपासा में उक्त स्थलों पर दिक्-दिगन्त से [[साधु]], [[सन्त]], महात्मा, [[भक्त]] और श्रद्वालु जन एकत्रित होकर पुण्य अर्जित करने हेतु इस महापर्व का संकीर्तन करते हैं।
==अन्य पौराणिक तथ्य==
[[हरिद्वार]], तीर्थराज [[प्रयाग]], [[उज्जैन]] और [[नासिक]] इन चार प्रमुख स्थलों पर अमृत-कुम्भ से छलकी हुई बूँदों के कारण कुम्भ जैसे महापर्व को मनाये जाने की परम्परा का उल्लेख मिलता है।
<blockquote><poem>तस्यत्कुम्भात्समुत्क्षिप्त सुधाबिन्दुर्महीतले।
यत्रयत्रात्यतत्तत्र कुम्भपर्व प्रकल्पितम्।।</poem></blockquote>
अमृत-कुम्भ की रक्षा में संलग्न चन्द्रमा ने अमृत को गिरने से बचाया, सूर्य ने घड़े को टूटने से, बृहस्पति ने दैत्यों द्वारा छीनने से और शनि ने कहीं जयन्त अकेले ही सम्पूर्ण अमृत पान न कर ले। इस तरह से उस कुम्भ की रक्षा की।
<blockquote><poem>चन्द्रः प्रस्रवणाद् रक्षा सूर्योविस्फोटना दधौ।
दैत्येभ्यष्च गुरु रक्षा सौरि देवेन्द्रजात् भयात्।।</poem></blockquote>
हरिद्वार में कुम्भ राशि का बृहस्पति हो, और मेष में सूर्य संक्रान्ति हो तो यह कुम्भ का महापर्व माना जाता है-
<blockquote><poem>कुम्भ राशि गते जीवे यद्विदने मेषगो रविः।
हरिद्वारे कृतं स्नानं पुनरावृत्ति वर्जनम्।।</poem></blockquote>
शास्त्रीय मान्यताओं के अनुसार विद्वानों का मत है कि सनातन, सनक, सनन्दन ओैर सनत्कुमार जैसे महागणों की मण्डली बारह वर्षो के बाद हरिद्वार आदि तीर्थो में पधारा करती है जिसके दर्षन हेतु साधु, सन्त, महात्मा और श्रद्धालु सामान्य भक्तजन भी उपस्थित होने लगे। योग साधना करने वाले योगियों की अवधि भी बारह वर्षो की बतायी गयी है। इन्ही वर्षों के फलस्वरुप कुम्भ जैसे पर्व का समागम होता है-
<blockquote><poem>देवानां द्वादशैर्भिमत्र्यैद्वादशवत्सरैः।
जायन्ते कुम्भ पर्वाणि तथा द्वादश संख्यया।।</poem></blockquote>
गंगा जी का नाम लेने मात्र से ही समस्त पापों का विनाश हो जाता है। दर्शन करने पर कल्याण होता है, स्नान और जलपान करने पर मनुष्य की सात पीढ़ियों का उद्धार हो जाता है-
<blockquote><poem>न गंगा सदृशं तीर्थं न देवः केशवात्परः।
ब्राह्यणेभ्यः परं नास्ति एवमाह पितामहः।।
यत्र गंगा महाराज स देशस्तत् तपोवनम्।
सिद्धिक्षेत्रं तज्ज्ञेयः गंगातीर समाश्रिम्।।</poem></blockquote>
आध्यात्मिक दृष्टि से कुम्भ महापर्व का महत्व ज्योतिषशास्त्र में अत्यन्त विस्तृत है। भारतीय ज्योतिषशास्त्र में बृहस्पति को ज्ञान का, सूर्य को [[आत्मा]] का और चन्द्रमा को मन का प्रतीक माना गया है। मन, आत्मा तथा ज्ञान इन तीनों की अनुकूल स्थिति वस्तुतः लौकिक और पारलौकिक दोनों दृष्टियों से महत्व रखती है। चार स्थलों पर लगने वाले कुम्भ की तिथि इन विशिष्ट ग्रहों सूर्य, चन्द्र और बृहस्पति की स्थिति विशेष होने पर ही सम्भव होती है।


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06:51, 9 जनवरी 2013 का अवतरण

कुम्भ परम्परा भारतवर्ष में वैदिक काल से चली आ रही है। कुम्भ पर्व एक अमृत स्नान और अमृतपान की बेला है। इसी समय गंगा की पावन धारा में अमृत का सतत प्रवाह होता है। इसी समय कुम्भ स्नान का संयोग भी बनता है। यह पर्व भारतीय जनमानस की पर्व चेतना की विराटता का द्योतक है। विशेषकर उत्तराखंड की भूमि पर तीर्थ नगरी हरिद्वार का कुम्भ तो महाकुम्भ कहा जाता है। भारतीय संस्कृति की जीवन्तता का प्रमाण प्रत्येक 12 वर्ष में यहाँ आयोजित होता है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में गंगा नदी के किनारे बसा इलाहाबाद भारत का पवित्र और लोकप्रिय तीर्थस्थल है। इस शहर का उल्लेख भारत के धार्मिक ग्रन्थों में भी मिलता है। वेद, पुराण, रामायण और महाभारत में इस स्थान को 'प्रयाग' कहा गया है। गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों का यहाँ संगम होता है, इसलिए हिन्दुओं के लिए इस शहर का विशेष महत्त्व है।

कुम्भ शब्द की मीमांसा

'कुम्भ' शब्द की मीमांसा पांच ज्ञानेन्द्रिय, पांच कर्मेन्द्रिय, एक चित्त और एक मन से की गई है। इन द्वादश इन्द्रियों पर विजय पाने से ही घट कुम्भ अर्थात् शरीर का कल्याण होता है। विवेक एवं अविवेक देवासुर संग्राम को जन्म देता है। इनके पूर्ण नियन्त्रण से ही घट में अमृत का प्रादुर्भाव होता है।[1] महाभारत के इस श्लोक से देव-दानव युद्ध तथा अमृत एवं गंगाजल के सामंजस्य को प्रतिष्ठित किया गया है-

यथा सुरानां अमृतं प्रवीलां जलं स्वधा।
सुधा यथा च नागानां तथा गंगा जलं नृणाम्।

अथर्ववेद के अनुसार ब्रह्मा ने मनुष्य को ऐहिक की आमुष्मिक सुख देने वाले कुम्भ को प्रदान किया। ये कुम्भ पर्व हरिद्वारादि स्थलों पर प्रतिष्ठित हुए। पृथ्वी को ऐश्वर्य सम्पन्न बनाने वाले ऋषियों का कुम्भ से तात्पर्य है पुरूषार्थ-चतुष्टय अर्थात् धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्ति कराना। कुम्भ पर्व के अवसर पर पतित पावनी भगवती भागीरथी (गंगा) के जल में स्नान करने से एक हजार अश्वमेध यज्ञ, सौ वाजपेय यज्ञ, एक लाख भूमि की परिक्रमा करने से जो पुण्य-फल प्राप्त होता है, वह एक बार ही कुम्भ-स्नान करने से प्राप्त होता है-

अश्वमेध सहस्राणि वाजपेय शतानि च।
लक्षप्रदक्षिणा भूमेः कुम्भस्नानेन तत् फलम्।।

सृष्टि का प्रतीक

भारतीय संस्कृति में कुम्भ सृष्टि का प्रतीक माना गया है, जैसे कुम्हकार पंच तत्वों से कुम्भ की रचना करता है, उसी प्रकार ब्रह्मा भी पंच तत्वों से इस सृष्टि की सर्जना करते हैं। कुम्भ के विषय में कहा गया है-

कलशस्य मुखे विष्णुः कण्ठे रुदो समाहितः।
मूले तत्र स्थितो ब्रह्मा मध्ये मातृगणाः स्मृताः।।
कुक्षौ तु सागराः सर्वे सप्तद्वीप वसुंधरा।
ऋग्वेदोऽथ यजुर्वेदो सामवेदो अथर्ववः।।
अंगैःष्च संहिताः सर्वे कलशे तु समाश्रिताः।।

उपर्युक्त श्लोक का अर्थ है कि कलश के मुख में विष्णु, कण्ठ में रुद्र, मूल में ब्रह्मा, मध्य में मातृगण, अन्तवस्था में समस्त सागर, पृथ्वी में निहित सप्तद्वीप तथा चारों वेदों का समन्वयात्मक स्वरुप विद्यमान है। इस श्लोक के मध्य में मातृगणों के विद्यमान होने का उल्लेख है। मातृकाएँ सोलह होती हैं। चन्द्रमा की भी षोडश कलाएँ होती है। कुम्भ भगवान विष्णु का पर्याय भी कहा गया है। कुम्भ शब्द चुरादि गणीय कुभि आच्छादने धातु से निष्पन्न होता है। इसका अर्थ है- 'आच्छादन' या 'आवृत्त करना'। परमात्मा अपने ऐश्वर्य से समस्त विश्व को आवृत्त किये रहता है। इसीलिए वह कुम्भ है। इसे कंमु कान्तै धातु से जोड़ने पर अमृत प्राप्ति की कामना का बोध होता है। कुम्भ को पेट, गर्भाशय, ब्रह्मा, विष्णु की संज्ञा से अभिहित किया गया है। लोक में कुम्भ, अर्द्धकुम्भ पर्व के सूर्य, चन्द्रमा तथा बृहस्पति तीन ग्रह कारक कहे गये हैं। सूर्य आत्मा है, चन्द्रमा मन है और बृहस्पति ज्ञान है। आत्मा अजर, अमर, नित्य और शान्त है, मन चंचल, ज्ञान मुक्ति कारक है। आत्मा में मन का लय होना, बुद्वि का स्थिर होना, नित्य मुक्ति का हेतु हैं। ज्ञान की स्थिरता तभी सम्भव है, जब बुद्वि स्थिर हो। दैवी बुद्वि का कारक गुरू है। बृहस्पति का स्थिर राशियों वृष, सिंह, वृश्चिक एवं कुम्भ में होना ही बुद्वि का स्थैर्य है। चन्द्रमा का सूर्य से युक्त होना अथवा अस्त होना ही मन पर आत्मा का वर्चस्व है। आत्मा एवं मन का संयुक्त होना स्वकल्याण के पथ पर अग्रसर होना है। कुम्भ, अर्द्धकुम्भ को शरीर, पेट, समुद्र, पृथ्वी, सूर्य, विष्णु के पर्यायों से सम्बद्ध किया गया है। समुद्र, नदी, कूप आदि सभी कुम्भ के प्रतीत हैं। वायु के आवरण से आकाश, प्रकाश से समस्त लोकों को आवृत्त करने के कारण सूर्य नाना प्रकार की कोशिकाओं से तथा स्नायुतंत्रों से आवृत होता है, इसीलिए कुम्भ है। कुम्भ इच्छा है, कामवासना रूप को आवृत करने के कारण काम ब्रह्म है, चराचर को धारण करने, उसमें प्रविष्ट होने के कारण विष्णु स्वयं कुम्भ हैं।[1]

प्रचलित कथाएँ

कुम्भ पर्व वैदिक काल से ही भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहा है। इसकी मान्यता के सन्दर्भ में तीन कथाएँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं-

  1. महर्षि दुर्वासा की कथा
  2. कद्रू-विनता की कथा 
  3. समुद्र मंथन की कथा

प्रथम कथा

प्रथम कथा देवराज इन्द्र से सम्बन्धित है, जिसमें दुर्वासा द्वारा दी गई दिव्यमाला का अपमान हुआ। इन्द्र ने उस माला को अपने हाथी ऐरावत के मस्तक पर रख दिया और ऐरावत ने उसे पैरों तले कुचल दिया। दुर्वासा ऋषि ने इसके परिणामस्वरुप भयंकर शाप दिया जिसके कारण संसार में दुर्भिक्ष पड़ गया। अनावृष्टि और दुर्भिक्ष से प्रजा में त्राहि-त्राहि मच गई। तत्पश्चात नारायण ने समुद्र मंथन की प्रक्रिया द्वारा लक्ष्मी को प्रकट किया। उनकी कृपा से वृष्टि हुई और कृषकों का कष्ट दूर हुआ। अमृत पान से वंचित असुरों ने कुम्भ को नागलोक में छिपा दिया। गरुड़ ने वहाँ से उसका उद्धार किया और उसे क्षीरसागर तक पहुँचने से पूर्व जिन स्थानों पर कलश को रखा, वे ही स्थल 'कुम्भ पर्व' के तीर्थस्थल बन गये।

द्वितीय कथा

इस कथा के अनुसार महर्षि कश्यप की दो पत्नियों कद्रू और विनता के मध्य सूर्य के अश्वों का वर्ण काला है या सफेद, इस विवाद को लेकर यह शर्त रखी गई की जो हारेगी वह दासी बनकर रहेगी। इस शर्त के परिणामस्वरुप विनता के हार जाने के कारण उसे दासी बन कर रहना पड़ा। उस दासीत्व से तभी मुक्ति मिल सकती थी, जब नागलोक में छिपाये गये कुम्भ को कश्यप मुनि की पत्नी कद्रू के पास लाया जाय। उस अमृत कलश को लाने हेतु और अपनी माँ को दासीत्व से मुक्त कराने के लिये पक्षीराज गरुड़ ने संकल्प किया। नागलोक से वासुकि से संरक्षित उस अमृत-कलश को जब गरुड़ उत्तराखंड से गंधमादन पर्वत पर कश्यप मुनि के पास ले जा रहे थे तो वासुकि द्वारा इन्द्र को सूचित किया गया और उन्होंने चार बार आक्रमण किया। इन्द्र के द्वारा चार जगहों पर रोके जाने के कारण जो अमृत-कलश की बूँदे वहाँ पर छलकीं उसके कारण वहाँ कुम्भ पर्व की परम्परा प्रारम्भ हुई। गरुड़ ने उस अमृत-कुम्भ के अन्ततः अपनी माँ के दासीत्व से मुक्त कराने के लिये कश्यप मुनि के पास तक पहुँचाने का पूर्ण प्रयत्न किया और सफल हुए।

तृतीय कथा

तृतीय कथानुसार देवासुर संग्राम में चैदह रत्नों में अमृत-कलश निकलने पर धन्वन्तरि द्वारा देवताओं को देने, विष्णु द्वारा मोहिनी रुप धारण करके देवताओं को अमृत पान कराने, राहु द्वारा अमृत पान करने, इन्द्र-पुत्र जयन्त द्वारा अमृत-कुम्भ छीनकर भागने, जैसी कथाओं से सम्बद्ध है। उसकी रक्षा का भार सूर्य, चन्द्र, बृहस्पति और शनि को सौंपा गया था। जयन्त द्वारा ले जाये जाते हुए उस अमृत-कुम्भ को चार स्थलों पर रखने और उन-उन स्थलों पर अमृत की बूँदे गिरने के कारण कुम्भपर्व मनाये जाने की परम्परा प्रारम्भ हुई। अमृत-कुम्भ की उक्त कथाओं में यही तीसरी कथा ही सबसे प्रमुख मानी गई है।[1]

पृथिव्यां कुम्भयोगस्य चतुर्धा भेद उच्यते।
चतुःस्थले च पतनाद् सुधा कुम्भस्य भूतले।।
विष्णु द्वारे तीर्थराजेऽवन्त्यां गोदावरी तटे।
सुधा बिन्दु विनिक्षेपाद् कुम्भपर्वेति विश्रुतम्।।

शास्त्रीय मान्यताओं द्वारा अभिप्राय

भारतीय संस्कृति में धार्मिक आस्था और विश्वास का सर्वोत्तम पर्व कुम्भ मेला, महापर्व के रुप में न केवल भारत भूमि अपितु समूचे विश्व में सुविख्यात माना जाता है। यही एक ऐसा महापर्व है, जिसमें भारत के कुम्भ प्रधान पवित्र तीर्थस्थलों में पूरे विश्व से श्रद्धालु भक्त पधारकर यहाँ पर एक साथ पूरे देश की समन्वित संस्कृति, विश्व बन्धुत्व की सद्भावना और जन सामान्य की अपार आस्था का अवलोकन करते हैं। शास्त्रीय मान्यताओं के अनुसार कुम्भ के अनेक अभिप्राय प्रतिपादित किये गये हैं-

शाब्दिक व्युत्पत्ति के आधार पर तात्पर्य

शाब्दिक व्युत्पत्ति के आधार पर कुम्भ से अभिप्राय है- 'कुं भूमिं कुत्सितं वा उम्भति पूरयत', कुम्भ का अर्थ है घड़ा, जलपात्र या करवा। कुभि पूरणे धातु से निष्पन्न कुम्भ शब्द का तात्पर्य- 'कुम्भयति अमृतेन पूरयति सकल क्षुत् पिपासादि द्वन्द्वजातम् निर्वंतयति इति कुम्भः', अर्थात जो अमृतमय जल से पूर्ण करता है, जो क्षुत् पिपासादि अनेक द्वन्द्वों से निवृत्त करता है, उसे कुम्भ कहते हैं। यह पर्व मनुष्य की सांसारिक बाधाओं को दूर करता हुआ, उसके जीवन-घट को ज्ञानामृत से परिपूर्ण कर देता है। इसीलिये इसे कुम्भ नाम से अभिहित किया गया है। कुम्भ- 'कुत्सितं उम्भयति दूरयति जगाद्धितायेति कुम्भः' जगत् कल्याण के लिए दुष्प्रवृत्तियों को ज्ञानामृत द्वारा दूर करने वाला यह पर्व कुम्भ कहलाता है। कुं- 'पृथ्वीम् भागयति दीपयति तेजोवर्द्धनेनेति कुम्भः', समस्त पृथ्वी को अपने प्रभाव से प्रकाशित करने वाले पर्व को कुम्भ कहा जाता है।[1]

ज्योतिश शास्त्र में अर्थ

ज्योतिश शास्त्र में कुम्भ शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। पहला तो ग्यारहवीं राशि को कुम्भ नाम से जाना जाता है और दूसरा चन्द्रमा को सूर्य के साथ एक ही राशि में स्थित होने पर 'कुम्भ' या 'घट' कहा गया है। 'सिद्धान्त शिरोमणि' नामक ग्रन्थ में भास्कराचार्य ने चन्द्रमा को घट रूप में अभिहीत किया है-

तरणि किरण संगादेवपीयूषपिण्डो, दिनकर दिशि चन्द्रश्चन्द्रिकाभिश्चकास्ति।
तदितरदिशि बालाकुन्तलश्यामलश्री, घट इव निज मूर्तिच्छाययेवातपस्थः।।

उपर्युक्त में चन्द्रमा को अमृत पिण्ड के रूप में अभिहित किया गया है। जब चन्द्रमा रूपी अमृत पिण्ड सूर्य के सामने की दिशा अर्थात सूर्य से सातवें घर में स्थित होता है, तब वह ज्योतिष्मान होता हुआ किरणों से उद्भासित होता है, किन्तु जब वह सूर्य के साथ स्थित हो जाता है तो ज्योतिरहित काले घट के रूप मे दृष्टिगत होता है। अमृत पिण्ड की यह घटवत स्थिति ही बृहस्पति के शुभ प्रभावों से प्रभावित होकर कुम्भ पर्व का योग उपस्थित करती है। स्मृति ग्रन्थों में भी कहा गया है-

सूर्येन्दुगरूसंयोगस्तद्राराशौ यत्र वत्सरे।
सुधाकुम्भप्लवे भूमौ कुम्भो अतिनान्यथा।।

इसका तात्पर्य यह है कि राशि में सूर्य, चन्द्र, बृहस्पति के स्थित होने पर यह अमृत-कुम्भ रूपी चन्द्र पृथ्वी पर हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक जैसे कुम्भ प्रधान तीर्थस्थलों में अपने शुभ प्रभाव रूपी अमृत की वृष्टि करता है। उसी की पिपासा में उक्त स्थलों पर दिक्-दिगन्त से साधु, सन्त, महात्मा, भक्त और श्रद्वालु जन एकत्रित होकर पुण्य अर्जित करने हेतु इस महापर्व का संकीर्तन करते हैं।

अन्य पौराणिक तथ्य

हरिद्वार, तीर्थराज प्रयाग, उज्जैन और नासिक इन चार प्रमुख स्थलों पर अमृत-कुम्भ से छलकी हुई बूँदों के कारण कुम्भ जैसे महापर्व को मनाये जाने की परम्परा का उल्लेख मिलता है।

तस्यत्कुम्भात्समुत्क्षिप्त सुधाबिन्दुर्महीतले।
यत्रयत्रात्यतत्तत्र कुम्भपर्व प्रकल्पितम्।।

अमृत-कुम्भ की रक्षा में संलग्न चन्द्रमा ने अमृत को गिरने से बचाया, सूर्य ने घड़े को टूटने से, बृहस्पति ने दैत्यों द्वारा छीनने से और शनि ने कहीं जयन्त अकेले ही सम्पूर्ण अमृत पान न कर ले। इस तरह से उस कुम्भ की रक्षा की।

चन्द्रः प्रस्रवणाद् रक्षा सूर्योविस्फोटना दधौ।
दैत्येभ्यष्च गुरु रक्षा सौरि देवेन्द्रजात् भयात्।।

हरिद्वार में कुम्भ राशि का बृहस्पति हो, और मेष में सूर्य संक्रान्ति हो तो यह कुम्भ का महापर्व माना जाता है-

कुम्भ राशि गते जीवे यद्विदने मेषगो रविः।
हरिद्वारे कृतं स्नानं पुनरावृत्ति वर्जनम्।।

शास्त्रीय मान्यताओं के अनुसार विद्वानों का मत है कि सनातन, सनक, सनन्दन ओैर सनत्कुमार जैसे महागणों की मण्डली बारह वर्षो के बाद हरिद्वार आदि तीर्थो में पधारा करती है जिसके दर्षन हेतु साधु, सन्त, महात्मा और श्रद्धालु सामान्य भक्तजन भी उपस्थित होने लगे। योग साधना करने वाले योगियों की अवधि भी बारह वर्षो की बतायी गयी है। इन्ही वर्षों के फलस्वरुप कुम्भ जैसे पर्व का समागम होता है-

देवानां द्वादशैर्भिमत्र्यैद्वादशवत्सरैः।
जायन्ते कुम्भ पर्वाणि तथा द्वादश संख्यया।।

गंगा जी का नाम लेने मात्र से ही समस्त पापों का विनाश हो जाता है। दर्शन करने पर कल्याण होता है, स्नान और जलपान करने पर मनुष्य की सात पीढ़ियों का उद्धार हो जाता है-

न गंगा सदृशं तीर्थं न देवः केशवात्परः।
ब्राह्यणेभ्यः परं नास्ति एवमाह पितामहः।।
यत्र गंगा महाराज स देशस्तत् तपोवनम्।
सिद्धिक्षेत्रं तज्ज्ञेयः गंगातीर समाश्रिम्।।

आध्यात्मिक दृष्टि से कुम्भ महापर्व का महत्व ज्योतिषशास्त्र में अत्यन्त विस्तृत है। भारतीय ज्योतिषशास्त्र में बृहस्पति को ज्ञान का, सूर्य को आत्मा का और चन्द्रमा को मन का प्रतीक माना गया है। मन, आत्मा तथा ज्ञान इन तीनों की अनुकूल स्थिति वस्तुतः लौकिक और पारलौकिक दोनों दृष्टियों से महत्व रखती है। चार स्थलों पर लगने वाले कुम्भ की तिथि इन विशिष्ट ग्रहों सूर्य, चन्द्र और बृहस्पति की स्थिति विशेष होने पर ही सम्भव होती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 वैदिक काल से है कुंभ परम्परा (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 09 जनवरी, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

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