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*महापुराण का पूर्वार्द्ध आदिपुराण तथा उत्तरपुराण उत्तर भाग है। उत्तरपुराण में द्वितीय तीर्थंकर श्री अजितनाथ से लेकर अन्तिम तीर्थंकर महावीर तक 23 तीर्थंकरों, भरत को छोड़कर शेष 11 चक्रवर्तियों, 9 बलभद्रों, 9 नारायणों और 9 प्रतिनारायणों का चरित्र चित्रण है। यह 43 वें पर्व के चौथे श्लोक से लेकर 47वें पर्व तक गुणभद्राचार्य के द्वारा रचित है। गुणभद्राचार्य ने प्रारम्भ में अपने गुरु जिनसेनाचार्य के प्रति जो श्रद्धा-सुमन प्रकट किये हैं वे बड़े मर्मस्पर्शी हैं। आठवें, सोलहवें, बाईसवें, तेईसवें और चौबीसवें तीर्थंकरों को छोड़कर अन्य तीर्थंकरों के चरित्र यद्यपि अत्यन्त संक्षेप में लिखे गये हैं, परन्तु वर्णन शैली की मधुरता से वह संक्षेप भी रुचिकर प्रतीत होता है। इस ग्रन्थ में न केवल पौराणिक कथानक ही है किन्तु कुछ ऐसे भी स्थल हैं, जिनमें सिद्धान्त की दृष्टि से सम्यग्दर्शनादि का और दार्शनिक दृष्टि से सृष्टि कर्तृत्व आदि विषयों का भी विशेष विवेचन हुआ है।  
*महापुराण का पूर्वार्द्ध आदिपुराण तथा उत्तरपुराण उत्तर भाग है। उत्तरपुराण में द्वितीय तीर्थंकर श्री अजितनाथ से लेकर अन्तिम तीर्थंकर महावीर तक 23 तीर्थंकरों, भरत को छोड़कर शेष 11 चक्रवर्तियों, 9 बलभद्रों, 9 नारायणों और 9 प्रतिनारायणों का चरित्र चित्रण है। यह 43 वें पर्व के चौथे श्लोक से लेकर 47वें पर्व तक गुणभद्राचार्य के द्वारा रचित है। गुणभद्राचार्य ने प्रारम्भ में अपने गुरु जिनसेनाचार्य के प्रति जो श्रद्धा-सुमन प्रकट किये हैं वे बड़े मर्मस्पर्शी हैं। आठवें, सोलहवें, बाईसवें, तेईसवें और चौबीसवें तीर्थंकरों को छोड़कर अन्य तीर्थंकरों के चरित्र यद्यपि अत्यन्त संक्षेप में लिखे गये हैं, परन्तु वर्णन शैली की मधुरता से वह संक्षेप भी रुचिकर प्रतीत होता है। इस ग्रन्थ में न केवल पौराणिक कथानक ही है किन्तु कुछ ऐसे भी स्थल हैं, जिनमें सिद्धान्त की दृष्टि से सम्यग्दर्शनादि का और दार्शनिक दृष्टि से सृष्टि कर्तृत्व आदि विषयों का भी विशेष विवेचन हुआ है।  
*उत्तरपुराण महापुराण का उत्तरार्ध है। यह जिनसेन के पट्टशिष्य गुण भद्राचार्य की प्रौढ़ रचना है। इसमें लगभग 9,500 श्लोक हैं जिनमें 23 तीर्थकरों तथा अन्य शलाकापुरुषों के चरित्र काव्यरीति में वर्णित हैं। स्पष्ट है, यह [[आदि पुराण]] की अपेक्षा विस्तार में नि:सदेह बहुत ही न्यून है, परंतु कला की दृष्टि से यह पुराण आदिपुराण का एक उपयुक्त पूरक माना जा सकता है। उत्तर पुराण की समाप्ति तिथि का पूरा परिचय नहीं मिलता, परंतु इसकी समाप्ति शक सं. 820 (898 ई.) से पहले अवश्य हो गई होगी, क्योंकि गुणभद्र के शिष्य लोकसेन के कथनानुसार उक्त [[संवत]] में इस ग्रंथ का पूजा महोत्सव निष्पन्न किया गया था। विद्वानों का अनुमान है कि महापुराण का यह पूजामहोत्सव लोकसेन ने अपने गुरु के स्वर्गवासी होने पर किया होगा। गुणभद्र बड़े ही विनीत तथा गुरुभक्त थे। काव्यकाला में वे अपने पूज्य गुरुदेव के सुयोग्य शिष्य थे। उत्तर पुराण की कथाओं में जीवंधर की कथा बड़ी प्रसिद्ध है जिसका वर्णन अनेक कवियों ने [[संस्कृत]] और [[तमिल भाषा|तमिल]] में काव्यरूप में किया है।
*उत्तरपुराण महापुराण का उत्तरार्ध है। यह जिनसेन के पट्टशिष्य गुण भद्राचार्य की प्रौढ़ रचना है। इसमें लगभग 9,500 श्लोक हैं जिनमें 23 तीर्थकरों तथा अन्य शलाकापुरुषों के चरित्र काव्यरीति में वर्णित हैं। स्पष्ट है, यह [[आदि पुराण]] की अपेक्षा विस्तार में नि:सदेह बहुत ही न्यून है, परंतु कला की दृष्टि से यह पुराण आदिपुराण का एक उपयुक्त पूरक माना जा सकता है। उत्तर पुराण की समाप्ति तिथि का पूरा परिचय नहीं मिलता, परंतु इसकी समाप्ति शक सं. 820 (898 ई.) से पहले अवश्य हो गई होगी, क्योंकि गुणभद्र के शिष्य लोकसेन के कथनानुसार उक्त [[संवत]] में इस ग्रंथ का पूजा महोत्सव निष्पन्न किया गया था। विद्वानों का अनुमान है कि महापुराण का यह पूजामहोत्सव लोकसेन ने अपने गुरु के स्वर्गवासी होने पर किया होगा। गुणभद्र बड़े ही विनीत तथा गुरुभक्त थे। काव्यकाला में वे अपने पूज्य गुरुदेव के सुयोग्य शिष्य थे। उत्तर पुराण की कथाओं में जीवंधर की कथा बड़ी प्रसिद्ध है जिसका वर्णन अनेक कवियों ने [[संस्कृत]] और [[तमिल भाषा|तमिल]] में काव्यरूप में किया है।
*इसकी रचना वङ्कापुर में हुई थी। यह वंकापुर स्व0 पं. भुजबली शास्त्री के उल्लेखानुसार [[पूना]], [[बेंगळूरू]] रेलवे लाइन में हरिहर स्टेशन के समीप वर्ली हावेरी रेलवे जंक्शन से 15 मील पर धारवाड़ ज़िले में है। वहाँ शक संवत् 819 में गुणभद्राचार्य ने इसे पूरा किया था। आदिपुराण में जिनसेनाचार्य ने 67 और उत्तरपुराण में गुणभद्राचार्य ने 16 संस्कृत छन्दों का प्रयोग किया है। 32 अक्षर वाले अनुष्टुप् श्लोक की अपेक्षा आदि पुराण और उत्तर पुराण का ग्रन्थ परिमाण बीस हज़ार के लगभग है। उत्तरपुराण की प्रस्तावना में इसका परिमाण स्पष्ट किया है।  
*इसकी रचना वङ्कापुर में हुई थी। यह वंकापुर स्व0 पं. भुजबली शास्त्री के उल्लेखानुसार [[पूना]], [[बेंगळूरू]] रेलवे लाइन में हरिहर स्टेशन के समीप वर्ली हावेरी रेलवे जंक्शन से 15 मील पर धारवाड़ ज़िले में है। वहाँ शक संवत् 819 में गुणभद्राचार्य ने इसे पूरा किया था। आदिपुराण में जिनसेनाचार्य ने 67 और उत्तरपुराण में गुणभद्राचार्य ने 16 संस्कृत छन्दों का प्रयोग किया है। 32 अक्षर वाले [[अनुष्टुप छन्द|अनुष्टुप श्लोक]] की अपेक्षा आदि पुराण और उत्तर पुराण का ग्रन्थ परिमाण बीस हज़ार के लगभग है। उत्तरपुराण की प्रस्तावना में इसका परिमाण स्पष्ट किया है।  
*शलाकापुरुषों के सिवाय उत्तर पुराण में लोकप्रिय जीवन्धर स्वामी का भी चरित्र दिया गया है। अन्त में उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल का वर्णन एवं महावीर स्वामी की शिष्य-परम्परा का भी वर्णन विशेष ज्ञातव्य है।  
*शलाकापुरुषों के सिवाय उत्तर पुराण में लोकप्रिय जीवन्धर स्वामी का भी चरित्र दिया गया है। अन्त में उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल का वर्णन एवं महावीर स्वामी की शिष्य-परम्परा का भी वर्णन विशेष ज्ञातव्य है।  
*उत्तरपुराण के भी सुसम्पादित एवं सानुवाद तीन संस्करण भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली से प्रकाशित हो चुके हैं। इसके भी संपादक और अनुवादक डा. (पं.) पन्न्लाल साहित्याचार्य सागर है, जो स्वयं इस लेख के लेखक हैं।  
*उत्तरपुराण के भी सुसम्पादित एवं सानुवाद तीन संस्करण भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली से प्रकाशित हो चुके हैं। इसके भी संपादक और अनुवादक डा. (पं.) पन्न्लाल साहित्याचार्य सागर है, जो स्वयं इस लेख के लेखक हैं।  
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11:58, 7 मई 2013 का अवतरण

  • महापुराण का पूर्वार्द्ध आदिपुराण तथा उत्तरपुराण उत्तर भाग है। उत्तरपुराण में द्वितीय तीर्थंकर श्री अजितनाथ से लेकर अन्तिम तीर्थंकर महावीर तक 23 तीर्थंकरों, भरत को छोड़कर शेष 11 चक्रवर्तियों, 9 बलभद्रों, 9 नारायणों और 9 प्रतिनारायणों का चरित्र चित्रण है। यह 43 वें पर्व के चौथे श्लोक से लेकर 47वें पर्व तक गुणभद्राचार्य के द्वारा रचित है। गुणभद्राचार्य ने प्रारम्भ में अपने गुरु जिनसेनाचार्य के प्रति जो श्रद्धा-सुमन प्रकट किये हैं वे बड़े मर्मस्पर्शी हैं। आठवें, सोलहवें, बाईसवें, तेईसवें और चौबीसवें तीर्थंकरों को छोड़कर अन्य तीर्थंकरों के चरित्र यद्यपि अत्यन्त संक्षेप में लिखे गये हैं, परन्तु वर्णन शैली की मधुरता से वह संक्षेप भी रुचिकर प्रतीत होता है। इस ग्रन्थ में न केवल पौराणिक कथानक ही है किन्तु कुछ ऐसे भी स्थल हैं, जिनमें सिद्धान्त की दृष्टि से सम्यग्दर्शनादि का और दार्शनिक दृष्टि से सृष्टि कर्तृत्व आदि विषयों का भी विशेष विवेचन हुआ है।
  • उत्तरपुराण महापुराण का उत्तरार्ध है। यह जिनसेन के पट्टशिष्य गुण भद्राचार्य की प्रौढ़ रचना है। इसमें लगभग 9,500 श्लोक हैं जिनमें 23 तीर्थकरों तथा अन्य शलाकापुरुषों के चरित्र काव्यरीति में वर्णित हैं। स्पष्ट है, यह आदि पुराण की अपेक्षा विस्तार में नि:सदेह बहुत ही न्यून है, परंतु कला की दृष्टि से यह पुराण आदिपुराण का एक उपयुक्त पूरक माना जा सकता है। उत्तर पुराण की समाप्ति तिथि का पूरा परिचय नहीं मिलता, परंतु इसकी समाप्ति शक सं. 820 (898 ई.) से पहले अवश्य हो गई होगी, क्योंकि गुणभद्र के शिष्य लोकसेन के कथनानुसार उक्त संवत में इस ग्रंथ का पूजा महोत्सव निष्पन्न किया गया था। विद्वानों का अनुमान है कि महापुराण का यह पूजामहोत्सव लोकसेन ने अपने गुरु के स्वर्गवासी होने पर किया होगा। गुणभद्र बड़े ही विनीत तथा गुरुभक्त थे। काव्यकाला में वे अपने पूज्य गुरुदेव के सुयोग्य शिष्य थे। उत्तर पुराण की कथाओं में जीवंधर की कथा बड़ी प्रसिद्ध है जिसका वर्णन अनेक कवियों ने संस्कृत और तमिल में काव्यरूप में किया है।
  • इसकी रचना वङ्कापुर में हुई थी। यह वंकापुर स्व0 पं. भुजबली शास्त्री के उल्लेखानुसार पूना, बेंगळूरू रेलवे लाइन में हरिहर स्टेशन के समीप वर्ली हावेरी रेलवे जंक्शन से 15 मील पर धारवाड़ ज़िले में है। वहाँ शक संवत् 819 में गुणभद्राचार्य ने इसे पूरा किया था। आदिपुराण में जिनसेनाचार्य ने 67 और उत्तरपुराण में गुणभद्राचार्य ने 16 संस्कृत छन्दों का प्रयोग किया है। 32 अक्षर वाले अनुष्टुप श्लोक की अपेक्षा आदि पुराण और उत्तर पुराण का ग्रन्थ परिमाण बीस हज़ार के लगभग है। उत्तरपुराण की प्रस्तावना में इसका परिमाण स्पष्ट किया है।
  • शलाकापुरुषों के सिवाय उत्तर पुराण में लोकप्रिय जीवन्धर स्वामी का भी चरित्र दिया गया है। अन्त में उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल का वर्णन एवं महावीर स्वामी की शिष्य-परम्परा का भी वर्णन विशेष ज्ञातव्य है।
  • उत्तरपुराण के भी सुसम्पादित एवं सानुवाद तीन संस्करण भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली से प्रकाशित हो चुके हैं। इसके भी संपादक और अनुवादक डा. (पं.) पन्न्लाल साहित्याचार्य सागर है, जो स्वयं इस लेख के लेखक हैं।


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