"जगन्नाथ रथयात्रा": अवतरणों में अंतर
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[[चित्र:Jagannath-Rathyatra-2.jpg| | [[चित्र:Jagannath-Rathyatra-2.jpg|250px|thumb|जगन्नाथ रथयात्रा , [[उड़ीसा]]<br />Jagannath Rathyatra, Orissa]] | ||
<blockquote>"जहाँ सभी लोग मेरे नाम से प्रेरित हो एकत्रित होते हैं, मैं वहाँ पर विद्यमान होता हूँ"। .......भगवान श्रीकृष्ण</blockquote> | <blockquote>"जहाँ सभी लोग मेरे नाम से प्रेरित हो एकत्रित होते हैं, मैं वहाँ पर विद्यमान होता हूँ"। .......भगवान श्रीकृष्ण</blockquote> | ||
[[उड़ीसा]] प्रान्त में [[भुवनेश्वर]] से कुछ दूरी पर स्थित समुद्रतट के किनारे भगवान जगन्नाथ का यह मन्दिर अपनी भव्य एवं मनोहारी सन्दरता के कारण धर्म और आस्था का केन्द्र माना जाता है। जब भी समुद्री जहाज़ इस मार्ग से गुजरते हैं, इसका गुम्बद और फहराती धर्म पताका दूर से ही दृष्टिगोचर होती है। | [[उड़ीसा]] प्रान्त में [[भुवनेश्वर]] से कुछ दूरी पर स्थित समुद्रतट के किनारे भगवान जगन्नाथ का यह मन्दिर अपनी भव्य एवं मनोहारी सन्दरता के कारण धर्म और आस्था का केन्द्र माना जाता है। जब भी समुद्री जहाज़ इस मार्ग से गुजरते हैं, इसका गुम्बद और फहराती धर्म पताका दूर से ही दृष्टिगोचर होती है। |
09:54, 25 जुलाई 2010 का अवतरण
भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा — उड़ीसा का धार्मिक पर्व
"जहाँ सभी लोग मेरे नाम से प्रेरित हो एकत्रित होते हैं, मैं वहाँ पर विद्यमान होता हूँ"। .......भगवान श्रीकृष्ण
उड़ीसा प्रान्त में भुवनेश्वर से कुछ दूरी पर स्थित समुद्रतट के किनारे भगवान जगन्नाथ का यह मन्दिर अपनी भव्य एवं मनोहारी सन्दरता के कारण धर्म और आस्था का केन्द्र माना जाता है। जब भी समुद्री जहाज़ इस मार्ग से गुजरते हैं, इसका गुम्बद और फहराती धर्म पताका दूर से ही दृष्टिगोचर होती है।
दर्शन और इतिहास
वर्तमान में रथयात्रा में जगन्नाथ को दशावतारों के रूप में पूजा जाता है, उनमें विष्णु, कृष्ण और वामन और बुद्ध हैं। जगन्नाथ मंदिर में पूजा, आचार-व्यवहार, रीति-नीति और व्यवस्थाओं को शैव, वैष्णव, बौद्ध, जैन ने भी प्रभावित किया है। रथ का रूप श्रद्धा के रस से परिपूर्ण होता है। वह चलते समय शब्द करता है। उसमें धूप और अगरबत्ती की सुगंध होती है। इसे भक्तजनों का पवित्र स्पर्श प्राप्त होता है। रथ का निर्माण बुद्धि, चित्त और अहंकार से होता ,है ऐसे रथ रूपी शरीर में आत्मा रूपी भगवान जगन्नाथ विराजमान होते हैं। इस प्रकार रथयात्रा शरीर और आत्मा के मेल की ओर संकेत करता है और आत्मदृष्टि बनाए रखने की प्रेरणा देती है। रथयात्रा के समय रथ का संचालन आत्मा युक्त शरीर करता है जो जीवन यात्रा का प्रतीक है। यद्यपि शरीर में आत्मा होती है तो भी वह स्वयं संचालित नहीं होती, बल्कि उस माया संचालित करती है। इसी प्रकार भगवान जगन्नाथ के विराजमान होने पर भी रथ स्वयं नहीं चलता बल्कि उसे खींचने के लिए लोक-शक्ति की आवश्यकता होती है।
पुरी का मंदिर
पुरी के महान मन्दिर में तीन मूर्तियाँ हैं -
- भगवान जगन्नाथ,
- बलभद्र व
- उनकी बहन सुभद्रा की।
ये सभी मूर्तियाँ काष्ठ की बनी हुई हैं।
पौराणिक कथा
पौराणिक कथा के अनुसार, इन मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा राजा इन्द्रद्युम्न ने मंत्रोच्चारण व विधि - विधान से की थी। महाराज इन्द्रद्युम्न मालवा की राजधानी अवन्ति से अपना राज–पाट चलाते थे। भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा प्रत्येक वर्ष आषाढ़ मास में शुक्ल द्वितीया को होती है। यह एक विस्तृत समारोह है। जिसमें भारत के विभिन्न भागों से आए लोग सहभागी होते हैं। दस दिन तक यह पर्व मनाया जाता है। इस यात्रा को 'गुण्डीय यात्रा' भी कहा जाता है। गुण्डीच का मन्दिर भी है।
नारद जी को वरदान
जगन्नाथ जी की रथयात्रा में श्रीकृष्ण के साथ राधा या रुक्मिणी के स्थान पर बलराम और सुभद्रा होते हैं। इस सम्बंध में कथा इस प्रकार है - एक बार द्वारिका में श्रीकृष्ण रुक्मिणी आदि राजमहिषियों के साथ शयन करते हुए निद्रा में राधे-राधे बोल पड़े। महारानियों को आश्चर्य हुआ। सुबह जागने पर श्रीकृष्ण ने अपना मनोभाव प्रकट नहीं किया। रुक्मिणी ने रानियों से बात की कि वृंदावन में राधा नाम की गोपकुमारी है जिसको प्रभु हम सबकी इतनी सेवा, निष्ठा और भक्ति के बाद भी नहीं भूल पाये है। राधा की श्रीकृष्ण के साथ रासलीलाओं के विषय में माता रोहिणी को ज्ञान होगा। अत: उनसे सभी महारानियों ने अनुनय-विनय की, कि वह इस विषय में बतायें। पहले तो माता रोहिणी ने इंकार किया किंतु महारानियों के अति आग्रह पर उन्होंने कहा कि ठीक है, पहले सुभद्रा को पहरे पर बिठा दो, कोई भी अंदर न आ पाए, चाहे वह बलराम या श्रीकृष्ण ही क्यों न हों। माता रोहिणी ने जैसे ही कथा कहना शुरू किया, अचानक श्रीकृष्ण और बलराम महल की ओर आते हुए दिखाई दिए। सुभद्रा ने उन्हें द्वार पर ही रोक लिया, किंतु श्रीकृष्ण और राधा की रासलीला की कथा श्रीकृष्ण और बलराम दोनो को ही सुनाई दी। उसको सुनकर श्रीकृष्ण और बलराम अद्भुत प्रेमरस का अनुभव करने लगे, सुभद्रा भी भावविह्वल हो गयी। अचानक नारद के आने से वे पूर्ववत हो गए। नारद ने श्री भगवान से प्रार्थना की कि- 'हे प्रभु आपके जिस 'महाभाव' में लीन मूर्तिस्थ रूप के मैंने दर्शन किए हैं, वह सामान्यजन के हेतु पृथ्वी पर सदैव सुशोभित रहे। प्रभु ने तथास्तु कहा।
रथयात्रा का प्रारंभ
कथा हैं कि राजा इंद्रद्युम्न सपरिवार नीलांचल सागर, उड़ीसा के पास रहते थे। राजा को समुद्र में एक विशालकाय काष्ठ दिखायी दिया। राजा के उससे भगवान विष्णु की मूर्ति का निर्माण कराने का निश्चय किया। वृद्ध बढ़ई के रूप में विश्वकर्मा जी स्वयं प्रस्तुत हुए। उन्होंने मूर्ति बनाने के लिए शर्त रखी कि मैं जहाँ मूर्ति बनाऊँगा वहाँ मूर्ति के पूर्ण होने तक कोई नहीं आएगा। राजा ने इस शर्त को मान लिया। वर्तमान में जहाँ श्रीजगन्नाथ जी का मंदिर है, उसी के पास वह एक घर में मूर्ति निर्माण में लग गए। राजा के परिजनों को ज्ञात न था कि वृद्ध बढ़ई कौन है। कई दिन तक घर का द्वार बंद रहा। महारानी ने सोचा कि बढ़ई बिना खाए-पिये कैसे काम करेगा। महारानी ने महाराजा को अपनी शंका बतायी। महाराजा के द्वार खुलवाने पर वह वृद्ध बढ़ई कहीं नहीं मिला किन्तु उसके द्वारा अर्द्धनिर्मित श्री जगन्नाथ, सुभद्रा तथा बलराम की काष्ठ मूर्तियाँ वहाँ पर मिल गयी।
राजा और रानी दुखी हो गये, उसी क्षण दोनों को आकाशवाणी सुनायी दी - 'दु:खी मत होओ, हम इसी रूप में रहना चाहते हैं मूर्तियों को द्रव्य आदि से पवित्र कर स्थापित करवा दो।'
आज भी वे अपूर्ण और अस्पष्ट मूर्तियाँ पुरुषोत्तम 'पुरी की रथयात्रा' और मंदिर में सुशोभित व प्रतिष्ठित हैं। सुभद्रा के द्वारिका भ्रमण की इच्छा पूर्ण करने के उद्देश्य से श्रीकृष्ण व बलराम ने अलग रथों में बैठकर रथयात्रा करवाई थी। सुभद्रा की नगर भ्रमण की स्मृति में यह रथयात्रा पुरी में हर वर्ष होती है।
रथ का निर्माण
भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा के लिए रथों का निर्माण लकड़ियों से होता है। इसमें कोई भी कील या काँटा, किसी भी धातु का नहीं लगाया जाता। यह एक धार्मिक कार्य है। जो पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ता रहा है। रथों का निर्माण अक्षय तृतीया से 'वनजगा' महोत्सव से प्रारम्भ होता है तथा लकड़ियाँ चुनने का कार्य इसके पूर्व बसन्त पंचमी से शुरू हो जाता है। पुराने रथों की लकड़ियाँ भक्तजन श्रद्धापूर्वक ख़रीद लेते हैं और अपने–अपने घरों की खिड़कियाँ, दरवाज़े आदि बनवाने में इनका उपयोग करते हैं।
अधिकमास में उत्सव
जिस वर्ष आषाढ़ मास में अधिकमास होता है, उस वर्ष रथयात्रा–उत्सव के साथ एक नया महोत्सव और भी होता है, जिसे 'नवकलेवर उत्सव' कहते हैं। इस उत्सव पर भगवान जगन्नाथ अपना पुराना कलेवर त्यागकर नया कलेवर धारण करते हैं। अर्थात लकड़ियों की नयी मूर्तियाँ बनाई जाती हैं तथा पुरानी मूर्तियों को मन्दिर परिसर में ही कोयली वैकुण्ठ नामक स्थान पर भू - समाधि दे दी जाती है।
धार्मिक उत्सव की तैयारियाँ
- पुरी में रथयात्रा के लिए बलदेव, श्रीकृष्ण व सुभद्रा के लिए अलग–अलग तीन रथ बनाये जाते हैं।
- बलभद्र के रथ को पालध्वज व उसका रंग लाल एवं हरा, सुभद्रा के रथ को दर्पदलन और उसका रंग एवं नीला तथा भगवान जगन्नाथ के रथ को नन्दीघोष कहते हैं। इसका रंग लाल व पीला होता है।
- रथयात्रा में सबसे आगे बलभद्र जी का रथ, उसके बाद बीच में सुभद्रा जी का रथ तथा सबसे पीछे भगवान जगन्नाथ जी का रथ होता है।
- आषाढ़ की शुक्ल द्वितीय को तीनों रथों को सिंहद्वार पर लाया जाता है। स्नान व वस्त्र पहनाने के बाद प्रतिमाओं को अपने–अपने रथ में रखा जाता है। इसे 'पहोन्द्रि महोत्सव' कहते हैं।
- जब रथ तैयार हो जाते हैं, तब पुरी के राजा एक पालकी में आकर इनकी प्रार्थना करते हैं तथा प्रतीकात्मक रूप से रथ मण्डप को झाड़ु से साफ़ करते हैं। इसे 'छर पहनरा' कहते हैं।
- अब सर्वाधिक प्रतीक्षित व शुभ घड़ी आती है। ढोल, नगाड़ों, तुरही तथा शंखध्वनि के बीच भक्तगण इन रथों को खींचते हैं।
- इस पवित्र धार्मिक कार्य के लिए दूर–दूर से लोग प्रत्येक वर्ष पुरी में आते हैं। भव्य रथ घुमावदार मार्ग पर आगे बढ़ते हैं तथा गुण्डीच मन्दिर के पास रुकते हैं।
- ये रथ यहाँ पर सात दिन तक रहते हैं। यहाँ पर सुरक्षा व्यवस्था काफ़ी चुस्त व दुरुस्त रखी जाती है।
- रथयात्रा का विभिन्न टेलीविजन चैनलों के द्वारा सीधा प्रसारण भी किया जाता है।
- सारा शहर श्रद्धालु भक्तगणों से खचाखच भर जाता है। भगवान जगन्नाथ की इस यात्रा में शायद ही कोई ऐसा हो, जो कि सम्मिलित न होता हो।
मुख्य मन्दिर की ओर पुर्नयात्रा
- आषाढ़ की दसवीं तिथि को रथों की मुख्य मन्दिर की ओर पुर्नयात्रा प्रारम्भ होती है। इसे 'बहुदा यात्रा' कहते हैं।
- सभी रथों को मन्दिर के ठीक सामने लाया जाता है। परन्तु प्रतिमाएँ अभी एक दिन तक रथ में ही रहती हैं।
- आगामी दिन एकादशी होती है, इस दिन जब मन्दिर के द्वार देव–देवियों के लिए खोल दिए जाते हैं, तब इनका श्रृंगार विभिन्न आभूषणों व शुद्ध स्वर्ण से किया जाता है।
- इस धार्मिक कार्य को 'सुनबेसा' कहा जाता है।
रथ यात्रा का भव्य समापन
आस–पास के दर्शकों के मनोरंजन के लिए, प्रतिमाओं की वापसी यात्रा के मध्य एक हास्यपूर्ण दृश्य किया जाता है। मुख्य जगन्नाथ मन्दिर के अन्दर एक छोटा 'महालक्ष्मी मन्दिर' भी है। ऐसा दिखाया जाता है कि भगवती लक्ष्मी इसलिए क्रुद्ध हैं, क्योंकि उन्हें यात्रा में नहीं ले जाया गया। वे भगवान पर कटाक्ष करती हैं। प्रभु उन्हें मनाने का प्रयास करते हैं व कहते हैं कि देवी को सम्भवतः उनके भाई बलभद्र के साथ बैठना शोभा नहीं देता। पुजारी व देवदासियाँ इसे लोकगीतों में प्रस्तुत करते हैं। क्रुद्ध देवी मन्दिर को अन्दर से बन्द कर लेती हैं। परन्तु शीघ्र ही पंडितों का गीत उन्हें प्रसन्न कर देता है। जब मन्दिर के द्वार खोल दिए जाते हैं तथा सभी लोग अन्दर प्रवेश करते हैं। इसी के साथ इस दिन की भगवान जगन्नाथ की यह अत्यन्त अदभुत व अनूठी यात्रा हर्षोल्लास से सम्पन्न हो जाती है।
सामुदायिक पर्व
रथयात्रा एक सामूदायिक पर्व है। घरों में कोई भी पूजा इस अवसर पर नहीं होती है तथा न ही कोई उपवास रखा जाता है।
महाप्रसाद
मन्दिर की रसोई में एक विशेष कक्ष रखा जाता है, जहाँ पर महाप्रसाद तैयार किया जाता है। इस महाप्रसाद में अरहर की दाल, चावल, साग, दही व खीर जैसे व्यंजन होते हैं। इसका एक भाग प्रभु का समर्पित करने के लिए रखा जाता है तथा इसे कदली पत्रों पर रखकर भक्तगणों को बहुत कम दाम में बेच दिया जाता है। जगन्नाथ मन्दिर को प्रेम से संसार का सबसे बड़ा होटल कहा जाता है। मन्दिर की रसोई में प्रतिदिन बहत्तर क्विंटल चावल पकाने का स्थान है। इतने चावल एक लाख लोगों के लिए पर्याप्त हैं। चार सौ रसोइए इस कार्य के लिए रखे जाते हैं।
अन्य क्षेत्रों में रथयात्रा महोत्सव
- ब्रिटिश व मुग़ल काल से पूर्व पुरी के राजा के अधीन उड़ीसा के कई अन्य ज़मींदार भी थे। इन सभी ज़मींदारों ने अपने–अपने अधिकार क्षेत्रों में भी कई जगन्नाथ मन्दिर बनवाए। लेकिन पुरी मन्दिर सभी मन्दिरों के लिए उदाहरण ही रहा। सभी मन्दिरों में रथयात्राएँ छोटे स्तर पर होती थीं। इस प्रकार उड़ीसा व इसकी सीमा से बाहर भी कई रथयात्राओं का आयोजन किया जाता है।
- रथ का मेला वृन्दावन, उत्तर प्रदेश में भी आयोजित किया जाता है।
सम्बंधित लिंक
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