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12:37, 7 अगस्त 2010 का अवतरण

  • एक बार राजा जनक ने अपनी यौगिक क्रियाओं से स्थूल शरीर का त्याग कर दिया। स्वर्गलोक से एक विमान उनकी आत्मा को लेने के लिए आया। देव लोक के रास्ते से जनक कालपुरी पहुंचे जहां बहुत से पापी लोग विभिन्न नरकों से प्रताड़ित किये जा रहे थे । उन लोगों ने जब जनक को छूकर जाती हुई हवा में सांस ली तो उन्हें अपनी प्रताड़नाओं का शमन होता अनुभव हुआ और नरक की अग्नि का ताप शीतलता में बदलने लगा। जब जनक वहां से जाने लगे तब नरक के वासियों ने उनसे रुकने की प्रार्थना की। जनक सोचने लगे-'यदि ये नरकवासी मेरी उपस्थिति से कुछ आराम अनुभव करते हैं तो मैं इसी कालपुरी में रहूंगा- यही मेरा स्वर्ग होगा।'
  • ऐसा सोचते हुए वे वहीं रूक गये तब काल विभिन्न प्रकार के पापियों को उनके कर्मानुसार दंड देने के विचार से वहां पहुंचे और जनक को वहां देखकर उन्होंने पूछा-'आप यहाँ नरक में क्या कर रहे हैं?'
  • जनक ने अपने ठहरने का कारण बताते हुए कहा कि वे वहां से तभी प्रस्थान करेंगे जब काल उन सबको मुक्त कर देगा। काल ने प्रत्येक पापी के विषय में बताया कि उसे क्यों प्रताड़ित किया जा रहा है। जनक ने काल से उनकी प्रताड़ना से मुक्ति की युक्ति पूछी। काल ने कहा-'तुम्हारे कुछ पुण्य इनको दे दें तो इनकी मुक्ति हो सकती है।' जनक ने अपने पुण्य उनके प्रति दे दिये। उनके मुक्त होने के बाद जनक ने काल से पूछा-'मैंने कौन सा पाप किया था कि मुझे यहाँ आना पड़ा?'
  • काल ने कहा-'हे राजन! संसार में किसी भी व्यक्ति के तुम्हारे जितने पुण्य नहीं हैं, पर एक छोटा-सा पाप तुमने किया था। एक बार एक गाय को घास खाने से रोकने के कारण तुम्हें यहाँ आना पड़ा। अब पाप का फल पा चुके सो तुम स्वर्ग जा सकते हो।' विदेह (जनक) ने काल को प्रणाम कर स्वर्ग के लिए प्रस्थान किया।[1]
  • इसी कारण जनक को विदेह कहा जाता है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पद्म पुराण, 30-39।

सम्बंधित लिंक

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