"भैरव नामक शिकारी, मृग, शूकर, साँप और गीदड़ की कहानी": अवतरणों में अंतर

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'''भैरव नामक शिकारी, मृग, शूकर और गीदड़ की कहानी''' [[हितोपदेश]] की प्रसिद्ध कहानियों में से एक है जिसके रचयिता [[नारायण पंडित]] हैं।
===4. भैरव नामक शिकारी, मृग, शूकर और गीदड़ की कहानी===
==कहानी==
 
<poem style="background:#fbf8df; padding:15px; border:1px solid #003333; border-radius:5px">
कल्याणकटक बस्ती में एक भैरव नामक व्याध (शिकारी) रहता था। वह एक दिन मृग को ढ़ूढ़ता- ढ़ूंढ़ता विंध्याचल की ओर गया, फिर मारे हुए मृग को ले कर जाते हुए उसने एक भयंकर शूकर को देखा। तब उस व्याध ने मृग को भूमि पर रख कर शूकर को बाण से मारा। शूकर ने भी भयंकर गर्जना करके उस व्याध के मुष्कदेश मे ऐसी टक्कर मारी कि, वह कटे पेड़ के समान ज़मीन पर गिर पड़ा।
कल्याणकटक बस्ती में एक भैरव नामक व्याध (शिकारी) रहता था। वह एक दिन मृग को ढ़ूढ़ता- ढ़ूंढ़ता विंध्याचल की ओर गया, फिर मारे हुए मृग को ले कर जाते हुए उसने एक भयंकर शूकर को देखा। तब उस व्याध ने मृग को भूमि पर रख कर शूकर को बाण से मारा। शूकर ने भी भयंकर गर्जना करके उस व्याध के मुष्कदेश मे ऐसी टक्कर मारी कि, वह कटे पेड़ के समान ज़मीन पर गिर पड़ा। क्योंकि जल, अग्नि, विष, शस्र, भूख, रोग और पहाड़ से गिरना इसमें से किसी- न- किसी बहाने को पा कर प्राणी प्राणों से छूटता है।  
 
उन दोनों के पैरों की रगड़ से एक सपं भी मर गया। इसके पीछे आहार को चाहने वाले दीर्घराव नामक गीदड़ ने घूमते घूमते उन मृग, व्याध, सपं और शूकर को मरे पड़े हुए देखा और विचारा कि आहा, आज तो मेरे लिए बड़ा भोजन तैयार है। अथवा, जैसे देहधारियों को अनायास दु:ख मिलते हैं वैसे ही सुख भी मिलते हैं, परंतु इसमें प्रारब्ध बलवान है, ऐसा मानता हूँ। जो कुछ हो, इनके माँसों से मेरे तीन महीने तो सुख से कटेंगे।
क्योंकि जल, अग्नि, विष, शस्र, भूख, रोग और पहाड़ से गिरना इसमें से किसी- न- किसी बहाने को पा कर प्राणी प्राणों से छूटता है।  
एक महीने को मनुष्य होगा, दो महीने को हरिण और शूकर होंगे और एक दिन को सपं होगा और आज धनुष की डोरी चाबनी चाहिये।फिर पहले भूख में यह स्वादरहित, धनुष में लगा हुआ तांत का बंधन खाउँ। यह कह कर वैसा करने पर तांत के बंधन के टूटते ही उछटे हुए धनुष से हृदय फट कर वह दीर्घराव मर गया। इसलिए कहा गया है, संचय नित्य करना चाहिये।
 
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उन दोनों के पैरों की रगड़ से एक सपं भी मर गया। इसके पीछे आहार को चाहने वाले दीर्घराव नामक गीदड़ ने घूमते घूमते उन मृग, व्याध, सपं और शूकर को मरे पड़े हुए देखा और विचारा कि आहा, आज तो मेरे लिए बड़ा भोजन तैयार है।
 
अथवा, जैसे देहधारियों को अनायास दु:ख मिलते हैं वैसे ही सुख भी मिलते हैं, परंतु इसमें प्रारब्ध बलवान है, ऐसा मानता हूँ। जो कुछ हो, इनके माँसों से मेरे तीन महीने तो सुख से कटेंगे।
 
एक महीने को मनुष्य होगा, दो महीने को हरिण और शूकर होंगे और एक दिन को सपं होगा और आज धनुष की डोरी चाबनी चाहिये।
 
फिर पहले भूख में यह स्वादरहित, धनुष में लगा हुआ तांत का बंधन खाउँ। यह कह कर वैसा करने पर तांत के बंधन के टूटते ही उछटे हुए धनुष से हृदय फट कर वह दीर्घराव मर गया। इसलिए कहा गया है, संचय नित्य करना चाहिये।
<blockquote><span style="color: blue"><poem>
शास्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खा, यस्तु क्रियावान पुरुषः स विद्वान्।  
शास्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खा, यस्तु क्रियावान पुरुषः स विद्वान्।  
सुचिन्तितं चौषधमातुराणां, न नाममात्रेण करोत्यरोगम्।।
सुचिन्तितं चौषधमातुराणां, न नाममात्रेण करोत्यरोगम्।।
</poem></span></blockquote>
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शास्र पढ़ कर भी मूर्ख होते हैं, परंतु जो क्रिया में चतुर हैं, वहीं सच्चा पण्डित है, जैसे अच्छे प्रकार से निर्णय की हुई औषधि भी रोगियों को केवल नाममात्र से अच्छा नहीं कर देती है।
शास्र पढ़ कर भी मूर्ख होते हैं, परंतु जो क्रिया में चतुर हैं, वहीं सच्चा पण्डित है, जैसे अच्छे प्रकार से निर्णय की हुई औषधि भी रोगियों को केवल नाममात्र से अच्छा नहीं कर देती है। शास्र की विधि, पराक्रम से डरे हुए मनुष्य को कुछ गुण नहीं करती है, जैसे इस संसार में हाथ पर धरा हुआ भी दीपक अंधे को वस्तु नहीं दिखा सकती है। इस शेष दशा में शांति करनी चाहिये और इसे भी अधिक क्लेश तुमको नहीं मानना चाहिये। क्योंकि राजा, कुल की वधु, ब्राह्मण, मंत्री, स्तन, दंत, केश, नख और मनुष्य ये अपने स्थान से अलग हुए शोभा नहीं देते हैं। यह जान कर बुद्धिमान को अपना स्थान नहीं छोड़ना चाहिये। यह कायर पुरुष का वचन है।
 
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शास्र की विधि, पराक्रम से डरे हुए मनुष्य को कुछ गुण नहीं करती है, जैसे इस संसार में हाथ पर धरा हुआ भी दीपक अंधे को वस्तु नहीं दिखा सकती है।
 
इस शेष दशा में शांति करनी चाहिये और इसे भी अधिक क्लेश तुमको नहीं मानना चाहिये। क्योंकि राजा, कुल की वधु, ब्राह्मण, मंत्री, स्तन, दंत, केश, नख और मनुष्य ये अपने स्थान से अलग हुए शोभा नहीं देते हैं। यह जान कर बुद्धिमान को अपना स्थान नहीं छोड़ना चाहिये। यह कायर पुरुष का वचन है।
<blockquote><span style="color: blue"><poem>
स्थानमुत्सृज्य गच्छन्ति: सिंहा: सत्पुरुषा गजा:।  
स्थानमुत्सृज्य गच्छन्ति: सिंहा: सत्पुरुषा गजा:।  
तत्रैव निधनं यान्ति काका: कापुरुषा मृगा:।।
तत्रैव निधनं यान्ति काका: कापुरुषा मृगा:।।
</poem></span></blockquote>
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क्योंकि, सिंह, सज्जन पुरुष और हाथी ये स्थान को छोड़ कर जाते हैं और काक, कायर पुरुष और मृग ये वहाँ ही नाश होते हैं।
क्योंकि, सिंह, सज्जन पुरुष और हाथी ये स्थान को छोड़ कर जाते हैं और काक, कायर पुरुष और मृग ये वहाँ ही नाश होते हैं। वीर और उद्योगी पुरुषों को देश और विदेश क्या है ? अर्थात जैसा देश वैसा ही विदेश। वे तो जिस देश में रहते हैं, उसी को अपने बाहु के प्रताप से जीत लेते हैं। जैसे सिंह वन में दांत, नख, पूँछ के प्रहार करता हुआ फिरता है, उसी वन में (अपने बल से) मारे हुए हाथियों के रुधिर से अपने प्यास बुझाता है। और जैसे मैण्डक कूप के पास पानी के गड्ढ़े में और पक्षी भरे हुए सरोवर को आते हैं, वैसे ही सब संपत्तियाँ अपने आप उद्योगी पुरुष के पास आती हैं।
 
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वीर और उद्योगी पुरुषों को देश और विदेश क्या है ? अर्थात जैसा देश वैसा ही विदेश। वे तो जिस देश में रहते हैं, उसी को अपने बाहु के प्रताप से जीत लेते हैं। जैसे सिंह वन में दांत, नख, पूँछ के प्रहार करता हुआ फिरता है, उसी वन में (अपने बल से) मारे हुए हाथियों के रुधिर से अपने प्यास बुझाता है।
 
और जैसे मैण्डक कूप के पास पानी के गड्ढ़े में और पक्षी भरे हुए सरोवर को आते हैं, वैसे ही सब संपत्तियाँ अपने आप उद्योगी पुरुष के पास आती हैं।
<blockquote><span style="color: blue"><poem>
सुखमापतितं सेव्यं दु:खमापतितं तथा।  
सुखमापतितं सेव्यं दु:खमापतितं तथा।  
चक्रवत् परिवर्तन्ते दु:खानि च सुखानि च।।
चक्रवत् परिवर्तन्ते दु:खानि च सुखानि च।।
</poem></span></blockquote>
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और आए हुए सुख और दु:ख को भोगना चाहिये। क्योंकि सुख और दु:ख पहिये की तरह घुमते हैं (यानि सुख के बाद दुख और दुख के बाद सुख आता जाता है।)
और आए हुए सुख और दु:ख को भोगना चाहिये। क्योंकि सुख और दु:ख पहिये की तरह घुमते हैं (यानि सुख के बाद दुख और दुख के बाद सुख आता जाता है।) और दूसरे- उत्साही तथा आलस्यहीन, कार्य की रीति को जानने वाला, द्यूतक्रीड़ा आदि व्यसन से रहित, शूर, उपकार को मानने वाला और पक्की मित्रता वाला ऐसे पुरुष के पास रहने के लिए लक्ष्मी आप ही जाती है।
 
और दूसरे- उत्साही तथा आलस्यहीन, कार्य की रीति को जानने वाला, द्यूतक्रीड़ा आदि व्यसन से रहित, शूर, उपकार को मानने वाला और पक्की मित्रता वाला ऐसे पुरुष के पास रहने के लिए लक्ष्मी आप ही जाती है।
 




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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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==बाहरी कड़ियाँ==
==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
 
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__NOTOC__

14:27, 9 अक्टूबर 2014 का अवतरण

भैरव नामक शिकारी, मृग, शूकर और गीदड़ की कहानी हितोपदेश की प्रसिद्ध कहानियों में से एक है जिसके रचयिता नारायण पंडित हैं।

कहानी

कल्याणकटक बस्ती में एक भैरव नामक व्याध (शिकारी) रहता था। वह एक दिन मृग को ढ़ूढ़ता- ढ़ूंढ़ता विंध्याचल की ओर गया, फिर मारे हुए मृग को ले कर जाते हुए उसने एक भयंकर शूकर को देखा। तब उस व्याध ने मृग को भूमि पर रख कर शूकर को बाण से मारा। शूकर ने भी भयंकर गर्जना करके उस व्याध के मुष्कदेश मे ऐसी टक्कर मारी कि, वह कटे पेड़ के समान ज़मीन पर गिर पड़ा। क्योंकि जल, अग्नि, विष, शस्र, भूख, रोग और पहाड़ से गिरना इसमें से किसी- न- किसी बहाने को पा कर प्राणी प्राणों से छूटता है।
उन दोनों के पैरों की रगड़ से एक सपं भी मर गया। इसके पीछे आहार को चाहने वाले दीर्घराव नामक गीदड़ ने घूमते घूमते उन मृग, व्याध, सपं और शूकर को मरे पड़े हुए देखा और विचारा कि आहा, आज तो मेरे लिए बड़ा भोजन तैयार है। अथवा, जैसे देहधारियों को अनायास दु:ख मिलते हैं वैसे ही सुख भी मिलते हैं, परंतु इसमें प्रारब्ध बलवान है, ऐसा मानता हूँ। जो कुछ हो, इनके माँसों से मेरे तीन महीने तो सुख से कटेंगे।
एक महीने को मनुष्य होगा, दो महीने को हरिण और शूकर होंगे और एक दिन को सपं होगा और आज धनुष की डोरी चाबनी चाहिये।फिर पहले भूख में यह स्वादरहित, धनुष में लगा हुआ तांत का बंधन खाउँ। यह कह कर वैसा करने पर तांत के बंधन के टूटते ही उछटे हुए धनुष से हृदय फट कर वह दीर्घराव मर गया। इसलिए कहा गया है, संचय नित्य करना चाहिये।

शास्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खा, यस्तु क्रियावान पुरुषः स विद्वान्।
सुचिन्तितं चौषधमातुराणां, न नाममात्रेण करोत्यरोगम्।।

शास्र पढ़ कर भी मूर्ख होते हैं, परंतु जो क्रिया में चतुर हैं, वहीं सच्चा पण्डित है, जैसे अच्छे प्रकार से निर्णय की हुई औषधि भी रोगियों को केवल नाममात्र से अच्छा नहीं कर देती है। शास्र की विधि, पराक्रम से डरे हुए मनुष्य को कुछ गुण नहीं करती है, जैसे इस संसार में हाथ पर धरा हुआ भी दीपक अंधे को वस्तु नहीं दिखा सकती है। इस शेष दशा में शांति करनी चाहिये और इसे भी अधिक क्लेश तुमको नहीं मानना चाहिये। क्योंकि राजा, कुल की वधु, ब्राह्मण, मंत्री, स्तन, दंत, केश, नख और मनुष्य ये अपने स्थान से अलग हुए शोभा नहीं देते हैं। यह जान कर बुद्धिमान को अपना स्थान नहीं छोड़ना चाहिये। यह कायर पुरुष का वचन है।

स्थानमुत्सृज्य गच्छन्ति: सिंहा: सत्पुरुषा गजा:।
तत्रैव निधनं यान्ति काका: कापुरुषा मृगा:।।

क्योंकि, सिंह, सज्जन पुरुष और हाथी ये स्थान को छोड़ कर जाते हैं और काक, कायर पुरुष और मृग ये वहाँ ही नाश होते हैं। वीर और उद्योगी पुरुषों को देश और विदेश क्या है ? अर्थात जैसा देश वैसा ही विदेश। वे तो जिस देश में रहते हैं, उसी को अपने बाहु के प्रताप से जीत लेते हैं। जैसे सिंह वन में दांत, नख, पूँछ के प्रहार करता हुआ फिरता है, उसी वन में (अपने बल से) मारे हुए हाथियों के रुधिर से अपने प्यास बुझाता है। और जैसे मैण्डक कूप के पास पानी के गड्ढ़े में और पक्षी भरे हुए सरोवर को आते हैं, वैसे ही सब संपत्तियाँ अपने आप उद्योगी पुरुष के पास आती हैं।

सुखमापतितं सेव्यं दु:खमापतितं तथा।
चक्रवत् परिवर्तन्ते दु:खानि च सुखानि च।।

और आए हुए सुख और दु:ख को भोगना चाहिये। क्योंकि सुख और दु:ख पहिये की तरह घुमते हैं (यानि सुख के बाद दुख और दुख के बाद सुख आता जाता है।) और दूसरे- उत्साही तथा आलस्यहीन, कार्य की रीति को जानने वाला, द्यूतक्रीड़ा आदि व्यसन से रहित, शूर, उपकार को मानने वाला और पक्की मित्रता वाला ऐसे पुरुष के पास रहने के लिए लक्ष्मी आप ही जाती है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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