"श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 23 श्लोक 13-25": अवतरणों में अंतर
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एकादश स्कन्ध: त्रयोविंशोऽध्यायः (23)
धन के नाश से उसके ह्रदय में बड़ी जलन हुई। उसका मन खेद से भर गया। आँसुओं के कारण गला रूँध गया। परन्तु इस तरह चिन्ता करते-करते ही उसके मन में संसार के प्रति महान् दुःखबुद्धि और उत्कट वैराग्य का उदय हो गया ।
अब वह ब्राम्हण मन-ही-मन कहने लगा—‘हाय! हाय!! बड़े खेद की बात है, मैंने इतने दिनों तक अपने को व्यर्थ ही इस प्रकार सताया। जिस धन के लिये मैंने सरतोड़ परिश्रम किया, वह न तो धर्म कर्म में लगा और न मेरे सुख भोग के ही काम आया । प्रायः देखा जाता है कि कृपण पुरुषों को धन से कभी सुख नहीं मिलता। इस लोक में तो वे धन कमाने और रक्षा की चिन्ता से जलते रहते हैं और मरने पर धर्म न करने के कारण नरक में जाते हैं । जैसे थोडा-सा भी क्रोढ़ सर्वांगसुन्दर स्वरुप को बिगाड़ देता है, वैसे ही तनिक-सा भी लोभ यशस्वियों के शुद्ध यश और गुणियों के प्रशंसनीय गुणों पर पानी फेर देता है । धन कमाने में, कमा लेने पर उसको बढ़ाने, रखने एवं खर्च करने में तथा उसके नाश और उपभोग में—जहाँ देखो वहीं निरन्तर परिश्रम, भय, चिन्ता और भ्रम का ही सामना करना पड़ता है । चोरी, हिंसा, झूठ बोलना, दम्भ, काम, क्रोध, गर्व, अहंकार, भेदबुद्धि, वैर, अविश्वास, स्पर्द्धा, लम्पटता, जुआ और शराब—ये पन्द्रह अनर्थ मनुष्यों में धन के कारण ही माने गये हैं। इसलिये कल्याणकामी पुरुष को चाहिये कि स्वार्थ एवं परमार्थ के विरोधी अर्थानामधारी अनर्थ को दूर से छोड़ दे । भाई-बन्धु, स्त्री-पुत्र, माता-पिता, सगे-सम्बन्धी—जो स्नेहबन्धन से बँधकर बिलकुल एक हुए रहते हैं—सब-के-सब कौड़ी के कारण इतने फट जाते हैं कि तुरंत एक-दूसरे के शत्रु बन जाते हैं । ये लोग थोड़े-से धन के लिये भी क्षुब्ध और क्रुद्ध हो जाते हैं। बात-की-बात में सौहार्द-सम्बन्ध छोड़ देते हैं, लाग-डांट रखने लगते हैं और एकाएक प्राण लेने-देने पर उतारू हो जाते हैं। यहाँ तक कि एक-दूसरे का सर्वनाश कर डालते हैं । देवताओं के भी प्रार्थनीय मनुष्य-जन्म को और उसमें भी श्रेष्ठ ब्राम्हण-शरीर प्राप्त करके जो उसका अनादर करते हैं और अपने सच्चे स्वार्थ-परमार्थ का नाश करते है, वे अशुभ गति को प्राप्त होते हैं । यह मनुष्य-शरीर मोक्ष और स्वर्ग का द्वार है, इसको पाकर भी ऐसा कौन बुद्धिमान मनुष्य है जो अनर्थों के धाम धन के चक्कर में फँसा रहे । जो मनुष्य देवता, ऋषि, पितर, प्राणी, जाति-भाई, कुटुम्बी और धन के दूसरे भागीदारों को उनका देकर सन्तुष्ट नहीं रखता और न स्वयं ही उसका उपभोग करता है, वह यक्ष के समान धन की रखवाली करने वाला कृपण तो अवश्य ही अधोगति को प्राप्त होता है । मैं अपने कर्तव्य से च्युत हो गया हूँ। मैंने प्रमाद में अपनी आयु, धन और बल-पौरुष खो दिये। विवेकी लोग जिन साधनों से मोक्ष तक प्राप्त कर लेते हैं, उन्हीं को मैंने धन इकठ्ठा करने की व्यर्थ चेष्टा में खो दिया। अब बुढ़ापे में मैं कौन-सा साधन करूँगा ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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