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[[कबीर]] निर्गुण सन्त काव्यधारा के ऐसे शब्द-साधक हैं जिन्होंने अपने युग की धार्मिक, सामाजिक एंव राजनीतिक व्यवस्था से टकराकर अद्भुत शक्ति प्राप्त की। पारम्परिक सांस्कृतिक प्रवाह में सम्मिलित प्रदूषित तत्वों को छानकर उसे मध्यकाल के लिए ही आस्वादनीय नहीं, बल्कि आधुनिक जनमानस के लिए भी उपयोगी बना दिया। भारतीय धर्म साधना में निडर तथा अकुंठित व्यक्तित्व विरले है। पंडितों, मौलवियों, योगियों आदि से लोहा लेकर कबीर ने जन साधारण के स्वानुभूतिजन्य विचारों और भावों की मूल्यवत्ता स्थापित की। कबीर की वाणी संत-कंठ से निसृत होकर साधकों, अनुयायियों एंव लोक जीवन मे स्थान एंव | [[कबीर]] निर्गुण सन्त काव्यधारा के ऐसे शब्द-साधक हैं जिन्होंने अपने युग की धार्मिक, सामाजिक एंव राजनीतिक व्यवस्था से टकराकर अद्भुत शक्ति प्राप्त की। पारम्परिक सांस्कृतिक प्रवाह में सम्मिलित प्रदूषित तत्वों को छानकर उसे मध्यकाल के लिए ही आस्वादनीय नहीं, बल्कि आधुनिक जनमानस के लिए भी उपयोगी बना दिया। भारतीय धर्म साधना में निडर तथा अकुंठित व्यक्तित्व विरले है। पंडितों, मौलवियों, योगियों आदि से लोहा लेकर कबीर ने जन साधारण के स्वानुभूतिजन्य विचारों और भावों की मूल्यवत्ता स्थापित की। कबीर की वाणी संत-कंठ से निसृत होकर साधकों, अनुयायियों एंव लोक जीवन मे स्थान एंव रुचि भेद के अनुसार विविध रूपों में परिणित हो गयी। इसलिए कबीर की वाणी के प्रामाणिक पाठ निर्धारण की जटिल समस्या खड़ी हो गयी। [[कबीर पंथ]] में [[बीजक]] की श्रेष्ठता मान्य है, विद्वानों ने ग्रंथावलियों को महत्व दिया है। सामान्य जन के लिए लोक में व्याप्त '''कबीर वाणी''' ग्राह्र है। | ||
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अतः तीनों परम्परओं में से किसी को भी त्यागना उचित नहीं है। फलतः कबीर की रचनाओं का समग्र रूप तीनों के समाहार से ही संभव है। प्रस्तुत ग्रंथावली का संपादन इसी दृष्टि से किया गया है। इसमें अपनी इच्छित दिशा में आवश्यकता से अधिक खींचकर पाठकीय सोच को कुंठित करने की चेष्टा नहीं की गयी है। कबीर-वाणी के प्रामाणिक एवं समग्र पाठ से तथा उसमें निहित विचारों, भावों एवं समग्र पाठ की दृष्टि से तथा उनमें निहित विचारों, भावों एंव अनुभूतियों को उद्घाटित करने की दृष्टि से यह कृति निश्चित ही उपादेय सिद्ध होगी।<ref>{{cite web |url=http://pustak.org/bs/home.php?bookid=2293|title=कबीर ग्रंथावली|accessmonthday= 28 नवम्बर|accessyear=2011|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिंदी}}</ref> | अतः तीनों परम्परओं में से किसी को भी त्यागना उचित नहीं है। फलतः कबीर की रचनाओं का समग्र रूप तीनों के समाहार से ही संभव है। प्रस्तुत ग्रंथावली का संपादन इसी दृष्टि से किया गया है। इसमें अपनी इच्छित दिशा में आवश्यकता से अधिक खींचकर पाठकीय सोच को कुंठित करने की चेष्टा नहीं की गयी है। कबीर-वाणी के प्रामाणिक एवं समग्र पाठ से तथा उसमें निहित विचारों, भावों एवं समग्र पाठ की दृष्टि से तथा उनमें निहित विचारों, भावों एंव अनुभूतियों को उद्घाटित करने की दृष्टि से यह कृति निश्चित ही उपादेय सिद्ध होगी।<ref>{{cite web |url=http://pustak.org/bs/home.php?bookid=2293|title=कबीर ग्रंथावली|accessmonthday= 28 नवम्बर|accessyear=2011|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिंदी}}</ref> |
07:49, 3 जनवरी 2016 का अवतरण
कबीर ग्रंथावली
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लेखक | रामकिशोर शर्मा |
मूल शीर्षक | कबीर ग्रंथावली |
प्रकाशक | लोकभारती प्रकाशन |
ISBN | 81-8031-000-0 |
देश | भारत |
पृष्ठ: | 688 |
भाषा | हिन्दी |
विषय | जीवनी और व्याख्या |
प्रकार | व्यक्तित्व, साहित्य, जीवनी |
कबीर निर्गुण सन्त काव्यधारा के ऐसे शब्द-साधक हैं जिन्होंने अपने युग की धार्मिक, सामाजिक एंव राजनीतिक व्यवस्था से टकराकर अद्भुत शक्ति प्राप्त की। पारम्परिक सांस्कृतिक प्रवाह में सम्मिलित प्रदूषित तत्वों को छानकर उसे मध्यकाल के लिए ही आस्वादनीय नहीं, बल्कि आधुनिक जनमानस के लिए भी उपयोगी बना दिया। भारतीय धर्म साधना में निडर तथा अकुंठित व्यक्तित्व विरले है। पंडितों, मौलवियों, योगियों आदि से लोहा लेकर कबीर ने जन साधारण के स्वानुभूतिजन्य विचारों और भावों की मूल्यवत्ता स्थापित की। कबीर की वाणी संत-कंठ से निसृत होकर साधकों, अनुयायियों एंव लोक जीवन मे स्थान एंव रुचि भेद के अनुसार विविध रूपों में परिणित हो गयी। इसलिए कबीर की वाणी के प्रामाणिक पाठ निर्धारण की जटिल समस्या खड़ी हो गयी। कबीर पंथ में बीजक की श्रेष्ठता मान्य है, विद्वानों ने ग्रंथावलियों को महत्व दिया है। सामान्य जन के लिए लोक में व्याप्त कबीर वाणी ग्राह्र है।
ग्रंथावली का संपादन
अतः तीनों परम्परओं में से किसी को भी त्यागना उचित नहीं है। फलतः कबीर की रचनाओं का समग्र रूप तीनों के समाहार से ही संभव है। प्रस्तुत ग्रंथावली का संपादन इसी दृष्टि से किया गया है। इसमें अपनी इच्छित दिशा में आवश्यकता से अधिक खींचकर पाठकीय सोच को कुंठित करने की चेष्टा नहीं की गयी है। कबीर-वाणी के प्रामाणिक एवं समग्र पाठ से तथा उसमें निहित विचारों, भावों एवं समग्र पाठ की दृष्टि से तथा उनमें निहित विचारों, भावों एंव अनुभूतियों को उद्घाटित करने की दृष्टि से यह कृति निश्चित ही उपादेय सिद्ध होगी।[1]
रामकिशोर शर्मा का कथन
जो व्यक्ति काल के विरुद्ध खड़ा होता है उसे चतुर्दिक से आघात सहने पड़ते हैं, सम्पूर्ण अस्तित्व को मिटा देने वाले आघातों से जब वह अक्षत शेष रह जाता है तो जनमानस इस अनुमान से उसकी ओर दौड़ पड़ता है कि उसमें कुछ असाधारण अवश्य है। उसके विषय में तरह-तरह की किंवदन्ती बनने लगती हैं। निरन्तर वह असाधारण होता जाता है, यहाँ तक कि उसे ईश्वरीय अवतार भी मान लिया जाता है। कबीर कुछ इसी तरह के व्यक्ति हैं, जो गौतम बुद्ध, महावीर आदि की तरह राजघराने की शक्ति सम्पन्नता तथा वैभव की पृष्ठभूमि नहीं रखते थे, एक नितान्त उपेक्षित तिरस्कृत परिवार की पृष्ठभूमि से उठकर धार्मिक व्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध अपनी जान को जोखिम में डालकर खड़े हो गए। उन्होंने जो कुछ किया ईश्वर के आदेश से ही किया। उनकी साधना, आत्मा, परमात्मा एवं जीवन की विविध अनुभूतियाँ कवित्वमय वाणी में जब उद्घोषित होने लगीं तो उनके सम्पर्क में रहने वाले संतों, श्रद्धालु, शिष्यों तथा जनता ने उन्हें उपयोगी समझकर अपने मस्तिष्क में अंकित कर लिया, कुछ ने उन्हें आगे पीछे लिपि बद्ध भी किया। जैसे पहाड़ी घाटी में तेज आवाज़ से चिल्लाने पर कुछ देर तक वाणी की प्रतिध्वनि गूँजती रहती है, उसी तरह महान् रचनाकार की वाणी जनता के हृदय-गुहा में ध्वनित, प्रतिध्वनित होती है, यह सिलसिला शताब्दियों तक चलता रहता है। बड़ा रचनाकार सिर्फ रचना नहीं बल्कि रचनात्मक क्षमता को उत्तेजित भी करता है। उसके पाठक और श्रोता उसकी रचना में अपनी रचना को भी मिलाने का प्रयत्न करते हैं या बड़े रचनाकार को प्रमाण (आप्त) मानकर अपनी रचना को उसके नाम की मुहर से प्रचारित, प्रसारित करने का दुस्साहस भी करते हैं।
मुझे श्याम सुन्दर दास की ग्रंथावली कतिपय कारणों से अधिक प्रामाणिक लगती है, हिन्दी जगत में उसकी स्वीकृत भी अपेक्षाकृत अधिक है। वैज्ञानिक पाठ निर्धारण में सबसे अधिक उपेक्षा लोक मानस में प्रतिष्ठित कबीर के पाठों की हुई है। लोक में कबीर की जो वाणी मौखिक परम्परा से चली आ रही है उसको शत-प्रतिशत शुद्ध तो नहीं माना जा सकता किन्तु उसकी मूल चेतना में कबीर की चेतना मौजूद है उसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। डॉ.माता प्रसाद गुप्त, श्यामसुन्दर दास, डॉ.रामकुमार वर्मा, डॉ.पारसनाथ तिवारी, जयदेव सिंह, डॉ.शुकदेव सिंह आदि अनेक विद्वानों द्वारा संपादित कबीर के पाठ को हिन्दी के विद्वान तथा प्रबुद्ध पाठक प्रामाणिक मानकर स्वीकार करते हैं। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर के परिशिष्ट में जो 'कबीर वाणी' को संकलित किया है उसमें लोक परम्परा भी अनुस्यूत है। मैंने ‘कबीर ग्रंथावली’ का संपादन उपर्युक्त ग्रंथों के आधार पर किया है। इसमें इस बात पर विशेष ध्यान रहा कि कोई भी परम्परा पूरी तरह उपेक्षित न रहे।[2]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कबीर ग्रंथावली (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 28 नवम्बर, 2011।
- ↑ कबीर ग्रंथावली (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 28 नवम्बर, 2011।
बाहरी कड़ियाँ
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