"प्रयोग:नवनीत6": अवतरणों में अंतर
नवनीत कुमार (वार्ता | योगदान) No edit summary |
नवनीत कुमार (वार्ता | योगदान) No edit summary |
||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
==अकबर का साम्राज्य विस्तार== | |||
[[चित्र:Humayun-Babur-Jahangir-Akbar.jpg|thumb|250px|right|[[हुमायूँ]], [[बाबर]], [[जहाँगीर]] और अकबर]] | |||
'''जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर''' [[भारत]] का महानतम मुग़ल शंहशाह बादशाह था। जिसने मुग़ल शक्ति का भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकांश हिस्सों में विस्तार किया। [[अकबर]] को अकबर-ऐ-आज़म, शहंशाह अकबर तथा महाबली शहंशाह के नाम से भी जाना जाता है। | |||
| | {| class="bharattable-green" border="1" style="margin:5px; float:right" | ||
| | |+ अकबर के कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य | ||
| | ! वर्ष | ||
| | ! कार्य | ||
| | |- | ||
| | | 1562 ई. | ||
| | |दास प्रथा का अन्त | ||
| | |- | ||
| | | 1562 ई. | ||
| | | अकबर की ‘हरमदल’ से मुक्ति | ||
| | |- | ||
| | | 1563 ई. | ||
| | | तीर्थ यात्रा कर समाप्त | ||
| | |- | ||
| | | 1564 ई. | ||
| | | [[जज़िया कर]] समाप्त | ||
| | |- | ||
| | | 1565 ई. | ||
| | | धर्म परिवर्तन पर पाबंदी | ||
| | |- | ||
| | | 1571 ई. | ||
| | | [[फ़तेहपुर सीकरी]] की स्थापना | ||
| | |- | ||
| | | 1571 ई. | ||
| | | राजधानी [[आगरा]] से फ़तेहपुर सीकरी स्थानान्तरित | ||
| | |- | ||
| 1575 ई. | |||
| इबादत खाने की स्थापना | |||
|- | |||
| 1578 ई. | |||
| | | इबादत खाने में सभी धर्मों का प्रवेश | ||
| | |- | ||
}} | | 1579 ई. | ||
| ‘मज़हर’ की घोषणा | |||
|- | |||
| 1582 ई. | |||
| ‘[[दीन-ए-इलाही]]’ की घोषणा | |||
|- | |||
| 1582 ई. | |||
| [[सूर्य]] पूजा व [[अग्नि]] पूजा का प्रचलन कराया | |||
|- | |||
| 1583 ई. | |||
| इलाही संवत् की स्थापना | |||
|} | |||
अकबर का साम्राज्य विस्तार दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता हैं-<br /> | |||
#उत्तर भारत की विजय और | |||
#दक्षिण भारत की विजय | |||
==उत्तर भारत की विजय== | |||
[[पानीपत युद्ध]] के बाद 1559 ई. में अकबर ने [[ग्वालियर]] पर, 1560 ई. में उसके सेनापति जमाल ख़ाँ ने [[जौनपुर]] पर तथा 1561 ई. में [[आसफ ख़ाँ]] ने [[चुनार क़िला|चुनार के क़िले]] पर अधिकार कर लिया। | |||
==मालवा विजय== | |||
यहाँ के शासक बाज बहादुर को 1561 ई. में अदहम ख़ाँ के नेतृत्व में मुग़ल सेना ने परास्त कर दिया। [[29 मार्च]], 1561 ई. को [[मालवा]] की राजधानी ‘सारंगपुर’ पर मुग़ल सेनाओं ने अधिकार कर लिया। अकबर ने अदहम ख़ाँ को वहाँ की सूबेदारी सौंपी। 1562 ई. में पीर मुहम्मद मालवा का सूबेदार बना। यह एक अत्याचारी प्रवृति का व्यक्ति था। बाज बहादुर ने दक्षिण के शासकों के सहयोग से पुनः मालवा पर अधिकार कर लिया। पीर मुहम्मद भागते समय [[नर्मदा नदी]] में डूब कर मर गया। इस बार अकबर ने अब्दुल्ला ख़ाँ उजबेग को बाज बहादुर को परास्त करने के लिए भेजा। बाज बहादुर ने पराजित होकर अकबर की अधीनता स्वीकार कर अकबर के दरबार में द्वि-हज़ारी मनसब प्राप्त किया। 1564 ई. में अकबर ने गोंडवाना विजय हेतु ‘आसफ ख़ाँ’ को भेजा। तत्कालीन गोंडवाना राज्य की शासिका व [[महोबा उत्तर प्रदेश|महोबा]] की चन्देल राजकुमारी ‘रानी [[दुर्गावती]]’, जो अपने अल्पायु पुत्र ‘वीरनारायण’ की संरक्षिका के रूप में शासन कर रही थी, ने आसफ ख़ाँ के नेतृत्व वाली मुग़ल सेना का डट कर मुकाबला किया। अन्ततः माँ और पुत्र दोनों वीरगति को प्राप्त हुए। 1564 ई. में गोंडवाना मुग़ल साम्राज्य के अधीन हो गया। | |||
==राजस्थान विजय== | |||
[[राजस्थान]] के [[राजपूत]] शासक अपने पराक्रम, आत्मम्मान एवं स्वतन्त्रता के लिए प्रसिद्ध थे। अकबर ने राजपूतों के प्रति विशेष नीति अपनाते हुए उन राजपूत शासकों से मित्रता एवं वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये, जिन्होंने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। किन्तु जिन्होंने अधीनता स्वीकार नहीं की, उनसे युद्ध के द्वारा अधीनता स्वीकार करवाने का प्रयत्न किया।<br /> | |||
*'''आमेर (जयपुर)''' - 1562 ई. में अकबर द्वारा [[अजमेर]] की शेख [[मुईनुद्दीन चिश्ती दरगाह|मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह]] की यात्रा के समय उसकी मुलाकात आमेर के शासक राजा [[भारमल]] से हुई। भारमल प्रथम राजपूत शासक था, जिसने स्वेच्छा से अकबर की अधीनता स्वीकार की। कालान्तर में भारमल या बिहारीमल की पुत्री से अकबर ने विवाह कर लिया, जिससे [[जहाँगीर]] पैदा हुआ। अकबर ने भारमल के पुत्र ([[दत्तक पुत्र|दत्तक]]) भगवानदास एवं पौत्र [[मानसिंह]] को उच्च मनसब प्रदान किया। | |||
*'''मेड़ता''' - यहाँ का शासक जयमल [[मेवाड़]] के राजा उदयसिंह का सामन्त था। मेड़ता पर आक्रमण के समय [[मुग़ल]] सेना का नेतृत्व सरफ़ुद्दीन कर रहा था। उसने जयमल एवं देवदास से मेड़ता को छीनकर 1562 ई. में मुग़लों के अधीन कर दिया। | |||
*'''मेवाड़''' - ‘[[मेवाड़]]’ राजस्थान का एक मात्र ऐसा राज्य था, जहाँ के राजपूत शासकों ने मुग़ल शासन का सदैव विरोध किया। अकबर का समकालीन मेवाड़ शासक सिसोदिया वंश का राणा उदयसिंह था, जिसने मुग़ल सम्राट अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की। अकबर ने मेवाड़ को अपने अधीन करने के लिए 1567 ई. में [[चित्तौड़]] के क़िले पर आक्रमण कर दिया। उदयसिंह क़िले की सुरक्षा का भार जयमल एवं फत्ता ([[फ़तेह सिंह]]) को सौंप कर समीप की पहाड़ियों में खो गया। इन दो वीरों ने बड़ी बहादुरी से मुग़ल सेना का मुकाबला किया अन्त में दोनों युद्ध क्षेत्र में वीरगति को प्राप्त हुए। अकबर ने क़िले पर अधिकार के बाद लगभग 30,000 [[राजपूत|राजपूतों]] का कत्ल करवा दिया। यह नरसंहार अकबर के नाम पर एक बड़े धब्बे के रूप में माना गया, जिसे मिटाने के लिए अकबर ने [[आगरा]] क़िले के दरवाज़े पर जयमल एवं फत्ता की वीरता की स्मृति में उनकी प्रस्तर मूर्तियाँ स्थापित करवायीं। 1568 ई. में मुग़ल सेना ने मेवाड़ की राजधानी एवं चित्तौड़ के क़िले पर अधिकार कर लिया। अकबर ने चित्तौड़ की विजय के स्मृतिस्वरूप वहाँ की महामाता मंदिर से विशाल झाड़फानूस [[अवशेष]] आगरा ले आया। | |||
*'''रणथंभौर विजय''' - [[रणथंभौर]] के शासक [[बूँदी]] के हाड़ा राजपूत सुरजन राय से अकबर ने 18 मार्च, 1569 ई. में दुर्ग को अपने क़ब्ज़े में ले लिया। | |||
*'''कालिंजर विजय''' - [[उत्तर प्रदेश]] के [[बांदा]] ज़िले में स्थित यह क़िला अभेद्य माना जाता था। इस पर [[रीवा]] के राजा रामचन्द्र का अधिकार था। मुग़ल सेना ने मजनू ख़ाँ के नेतृत्व में आक्रमण कर [[कालिंजर]] पर अधिकार कर लिया। राजा रामचन्द्र को [[इलाहाबाद]] के समीप एक जागीर दे दी गयी। | |||
1570 ई. में [[मारवाड़]] के शासक रामचन्द्र सेन, [[बीकानेर]] के शासक कल्याणमल एवं [[जैसलमेर]] के शासक रावल हरराय ने अकबर की अधीनता स्वीकार की। इस प्रकार 1570 ई. तक [[मेवाड़]] के कुछ भागों को छोड़कर शेष राजस्थान के शासकों ने मुग़ल अधीनता स्वीकार कर ली। अधीनता स्वीकार करने वाले राज्यों में कुछ अन्य थे- [[डूंगरपुर]], बांसवाड़ा एवं प्रतापगढ़। | |||
==गुजरात विजय (1572-73 ई.)== | |||
'''गुजरात एक समृद्ध, उन्नतिशील एवं व्यापारिक केन्द्र''' के रूप में प्रसिद्ध था। इसलिए अकबर इसे अपने अधिकार में करने हेतु उत्सुक था। [[सितम्बर]] 1572 ई. में अकबर ने स्वयं ही [[गुजरात]] को जीतने के लिए प्रस्थान किया। उस समय गुजरात का शासक मुजफ्फर ख़ाँ तृतीय था। लगभग डेढ़ महीने के संघर्ष के बाद [[26 फ़रवरी]], 1573 ई. तक अकबर ने [[सूरत]], [[अहमदाबाद]] एवं कैम्बे पर अधिकार कर लिया। अकबर ‘ख़ाने आजम’ मिर्ज़ा अजीज कोका को गुजरात का गर्वनर नियुक्त कर वापस आगरा आ गया, किन्तु उसके आगरा पहुँचते ही सूचना मिली कि, गुजरात में मुहम्मद हुसैन मिर्ज़ा ने विद्रोह कर दिया है। अतः तुरन्त ही अकबर ने गुजरात की ओर मुड़कर 2 सितम्बर, 1573 ई. को विद्रोह को कुचल दिया। अकबर के इस अभियान को स्म्थि ने ‘संसार के इतिहास का सर्वाधिक द्रुतगामी आक्रमण’ कहा है। इस प्रकार गुजरात अकबर के साम्राज्य का एक पक्का अंग बन गया। उसके वित्त तथा राजस्व का पुनर्सगंठन [[टोडरमल]] ने किया, जिसका कार्य उस प्रान्त में सिहाबुद्दीन अहमद ने 1573 ई. से 1584 ई. तक किया। गुजरात में ही अकबर सर्वप्रथम [[पुर्तग़ाली|पुर्तग़ालियों]] से मिला और यहीं पर उसने पहली बार [[समुद्र]] को देखा। [[गुजरात]] को जीतने के बाद अकबर ने पूरे [[उत्तर भारत]] में ‘करोड़ी’ नाम के एक अधिकारी की नियुक्ति की। इस अधिकारी को अपने क्षेत्र से एक करोड़ दाम वसूल करना होता था। ‘करोड़ी’ की सहायता के लिए ‘आमिल’ नियुक्त किये गए। ये क़ानूनगों द्वारा बताये गये आंकड़े की भी जाँच करते थे। वास्तविक उत्पादन, स्थानीय क़ीमतें, उत्पादकता आदि पर उनकी सूचना के आधार पर अकबर ने 1580 ई. में 'दहसाला' नाम की नवीन प्रणाली को प्रारम्भ किया। | |||
{{seealso|मुग़लकालीन राजस्व प्रणाली|मुग़लकालीन स्थापत्य एवं वास्तुकला}} | |||
==बिहार एवं बंगाल पर विजय (1574-1576 ई.)== | |||
[[बिहार]] एवं [[बंगाल]] पर सुलेमान कर्रानी अकबर की अधीनता में शासन करता था। कर्रानी की मृत्यु के बाद उसके पुत्र दाऊद ने अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी। अकबर ने मुनअम ख़ाँ के नेतृत्व में मुग़ल सेना को दाऊद को पराजित करने के लिए भेजा, साथ ही मुनअम ख़ाँ की सहायता हेतु खुद भी गया। 1574 ई. में दाऊद बिहार से बंगाल भाग गया। अकबर ने बंगाल विजय का सम्पूर्ण दायित्व मुनअम ख़ाँ को सौंप दिया और वापस [[फ़तेहपुर सीकरी]] आ गया। मुनअम ख़ाँ ने बंगाल पहुँचकर दाऊद को सुवर्ण रेखा नदी के पूर्वी किनारे पर स्थित ‘तुकराई’ नामक स्थान पर [[3 मार्च]], 1575 ई. को परास्त किया। दाऊद की मृत्यु जुलाई, 1576 ई.में हो गई। इस तरह से बंगाल एवं बिहार पर मुग़लों का अधिकार हो गया। | |||
==हल्दीघाटी का युद्ध (18 जून, 1576 ई.)== | |||
उदय सिंह की मृत्यु के बाद मेवाड़ का शासक [[महाराणा प्रताप]] हुआ। अकबर ने मेवाड़ को पूर्णरूप से जीतने के लिए [[अप्रैल]], 1576 ई. में आमेर के राजा [[मानसिंह]] एवं आसफ ख़ाँ के नेतृत्व में मुग़ल सेना को आक्रमण के लिए भेजा। दोनों सेनाओं के मध्य गोगुडा के निकट [[अरावली पर्वतश्रेणी|अरावली पहाड़ी]] की ‘हल्दी घाटी’ शाखा के मध्य हुआ। इस युद्ध में राणाप्रताप पराजित हुए। उनकी जान झाला के नायक की निःस्वार्थ भक्ति के कारण बच सकी, क्योंकि उसने अपने को राणा घोषित कर शाही दल के आक्रमण को अपने ऊपर ले लिया था। राणा ने चेतक पर सवार होकर पहाड़ियों की ओर भाग कर आश्रय लिया। यह अभियान भी मेवाड़ पर पूर्ण अधिकार के बिना ही समाप्त हो गया। 1597 ई. में [[राणा प्रताप]] की मृत्यु के बाद उनका पुत्र अमर सिंह उत्तराधिकारी हुआ। उसके शासन काल 1599 ई. में मानसिंह के नेतृत्व में एक बार फिर मुग़ल सेना ने आक्रमण किया। अमर सिंह की पराजय के बाद भी मेवाड़ अभियान अधूरा रहा, जिसे बाद में [[जहाँगीर]] ने पूरा किया। | |||
==काबुल विजय (1581 ई.)== | |||
मिर्ज़ा हकीम, जो रिश्ते में अकबर का सौतेला भाई था, ‘[[काबुल]]’ पर स्वतन्त्र शासक के रूप में शासन कर रहा था। सम्राट बनने की महत्वाकांक्षा में उसने [[पंजाब]] पर आक्रमण किया। उसके विद्रोह को कुचलने के लिए अकबर ने [[8 फ़रवरी]], 1581 ई. को एक बृहद सेना के साथ [[अफ़ग़ानिस्तान]] की ओर प्रस्थान किया। अकबर के आने का समाचार सुनकर मिर्ज़ा हाकिम काबुल की ओर वापस हो गया। [[10 अगस्त]] 1581 ई. को अकबर ने मिर्ज़ा की बहन बख्तुन्निसा बेगम को काबुल की सूबेदारी सौंपी। कालान्तर में अकबर ने काबुल को साम्राज्य में मिला कर मानसिंह को सूबेदार बनाया। | |||
==कश्मीर विजय (1585-1586 ई.)== | |||
{| class="bharattable-green" border="1" style="margin:5px; float:right" | |||
|+ अकबर द्वारा जीते गए राज्य | |||
! राज्य | |||
! शासक | |||
! वर्ष | |||
! मुग़ल सेनापति | |||
|- | |||
| [[मालवा]] | |||
| बाज बहादुर | |||
| 1561 ई. | |||
| अदमह ख़ाँ, पीर मुहम्मद | |||
|- | |||
| मालवा | |||
| - | |||
| 5262 ई. | |||
| अब्दुल्ला ख़ाँ | |||
|- | |||
| [[चुनार]] | |||
| - | |||
| 1561 ई. | |||
| [[आसफ़ ख़ाँ]] | |||
|- | |||
| गोंडवाना | |||
| वीरनारायण एवं दुर्गावती | |||
| 1564 ई. | |||
| आसफ़ ख़ाँ | |||
|- | |||
| [[आमेर]] | |||
| भारमल | |||
| 1562 ई. | |||
| स्वयं अधीनता स्वीकार की | |||
|- | |||
| [[मेड़ता]] | |||
| जयमल | |||
| 1562 ई. | |||
| सरफ़ुद्दीन | |||
|- | |||
| [[मेवाड़]] | |||
| [[राणा उदयसिंह|उदयसिंह]] | |||
| 1568 ई. | |||
| स्वयं अकबर | |||
|- | |||
| मेवाड़ | |||
| [[राणा प्रताप]] | |||
| 1576 ई. | |||
| [[मानसिंह]], आसफ़ ख़ाँ | |||
|- | |||
| [[रणथम्भौर]] | |||
| सुरजन हाड़ा | |||
| 1569 ई. | |||
| भगवानदास, अकबर | |||
|- | |||
| [[कालिंजर]] | |||
| रामचन्द्र | |||
| 1569 ई. | |||
| मजनू ख़ाँ काकशाह | |||
|- | |||
| [[मारवाड़]] | |||
| राव चन्द्रसेन | |||
| 1570 ई. | |||
| स्वेच्छा से अधीनता स्वीकार की | |||
|- | |||
| [[गुजरात]] | |||
| मुजफ़्फ़र ख़ाँ तृतीय | |||
| 1571 ई. | |||
| ख़ानकला, ख़ाने आजम | |||
|- | |||
| [[बिहार]]-[[बंगाल]] | |||
| दाऊद ख़ाँ | |||
| 1574-1576 | |||
| मुनअम ख़ाँ ख़ानख़ाना | |||
|- | |||
| [[काबुल]] | |||
| हकीम मिर्ज़ा | |||
| 1581 ई. | |||
| [[मानसिंह]] एवं अकबर | |||
|- | |||
| [[कश्मीर]] | |||
| यूसुफ़ व याकूब ख़ाँ | |||
| 1586 ई. | |||
| भगवानदास, [[कासिम ख़ाँ]] | |||
|- | |||
| [[सिंध]] | |||
| जानी बेग | |||
| 1591 ई. | |||
| [[रहीम|अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना]] | |||
|- | |||
| [[उड़ीसा]] | |||
| निसार ख़ाँ | |||
| 1590-1591 ई. | |||
| [[मानसिंह]] | |||
|- | |||
| [[बलूचिस्तान]] | |||
| पन्नी अफ़ग़ान | |||
| 1595 ई. | |||
| मीर मासूम | |||
|- | |||
| [[कंधार]] | |||
| मुजफ़्फ़र हुसैन मिर्ज़ा | |||
| 1595 ई. | |||
| शाहबेग | |||
|- | |||
| [[ख़ानदेश]] | |||
| अली ख़ाँ | |||
| 1591 ई. | |||
| स्वेच्छा से अधीनता स्वीकार की | |||
|- | |||
| [[दौलताबाद]] | |||
| [[चाँदबीबी]] | |||
| 1599 ई. | |||
| मुराद, [[रहीम]], [[अबुल फ़ज़ल]] एवं अकबर | |||
|- | |||
| [[अहमदनगर]] | |||
| बहादुरशाह, चाँदबीबी | |||
| 1600 ई. | |||
| - | |||
|- | |||
| [[असीरगढ़]] | |||
| मीरन बहादुर | |||
| 1601 ई. | |||
| अकबर (अन्तिम अभियान) | |||
|} | |||
अकबर ने [[कश्मीर]] पर अधिकार करने के लिए भगवान दास एवं कासिम ख़ाँ के नेतृत्व में मुग़ल सेना को भेजा। मुग़ल सेना ने थोड़े से संघर्ष के बाद यहाँ के शासक ‘युसुफ ख़ाँ’ को बन्दी बना लिया। बाद में युसुफ ख़ाँ के लड़के ‘याकूब’ ने संघर्ष की शुरुआत की, किन्तु [[श्रीनगर]] में हुए विद्रोह के कारण उसे मुग़ल सेना के समक्ष आत्समर्पण करना पड़ा। 1586 ई. में कश्मीर का विलय मुग़ल साम्राज्य में हो गया। | |||
==सिंध विजय (1591 ई.)== | |||
अकबर ने [[रहीम|अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना]] को [[सिंध]] को जीतने का दायित्व सौंपा। 1591 ई. में सिंध के शासक जानीबेग एवं ख़ानख़ाना के मध्य कड़ा संघर्ष हुआ। अन्ततः सिंध पर मुग़लों का अधिकार हो गया। | |||
==उड़ीसा विजय (1590-1592 ई.)== | |||
1590 ई. में राजा [[मानसिंह]] के नेतृत्व में मुग़ल सेना ने [[उड़ीसा]] के शासक निसार ख़ाँ पर आक्रमण कर आत्मसमर्पण के लिए विवश किया, परन्तु अन्तिम रूप से उड़ीसा को 1592 ई. में मुग़ल साम्राज्य के अधीन किया गया। | |||
==बलूचिस्तान विजय (1595 ई.)== | |||
मीर मासूम के नेतृत्व में मुग़ल सेनाओं ने 1595 ई. में [[बलूचिस्तान]] पर आक्रमण कर वहाँ के [[अफ़ग़ान|अफ़ग़ानों]] को हराकर उसे मुग़ल साम्राज्य में मिला लिया। | |||
==कंधार विजय (1595 ई.)== | |||
[[बैरम ख़ाँ]] के संरक्षण काल 1556-1560 ई. में [[कंधार]] मुग़लों के हाथ से निकल गया था। कंधार का सूबेदार मुजफ्फर हुसैन मिर्ज़ा कंधार को स्वेच्छा से मुग़ल सरदार शाहबेग को सौंपकर स्वयं अकबर का [[मनसबदार]] बन गया। इस तरह अकबर [[मेवाड़]] के अतिरिक्त सम्पूर्ण उत्तरी [[भारत]] पर अधिकार करने में सफल हुआ। | |||
==अकबर की दक्षिण विजय== | |||
'''[[बहमनी राज्य]] के विखण्डन के उपरान्त बने''' राज्यों [[ख़ानदेश]], [[अहमदनगर]], [[बीजापुर]] एवं [[गोलकुण्डा]] को अकबर ने अपने अधीन करने के लिए 1591 ई. में एक दूतमण्डल को दक्षिण की ओर भेजा। मुग़ल सीमा के सर्वाधिक नज़दीक होने के कारण ‘ख़ानदेश’ ने मुग़ल अधिपत्य को स्वीकार कर लिया। ‘ख़ानदेश’ को [[दक्षिण भारत]] का ‘प्रवेश द्वार’ भी माना जाता है। | |||
==अहमदनगर विजय== | |||
1593 ई. में अकबर ने अहमदनगर पर आक्रमण हेतु अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना एवं मुराद को दक्षिण भेजा। 1594 ई. में यहाँ के शासक बुरहानुलमुल्क की मृत्यु के कारण अहमदनगर के क़िले का दायित्व [[बीजापुर]] के शासक [[अली आदिलशाह प्रथम]] की विधवा [[चाँदबीबी]] पर आ गया। चाँदबीबी ने इब्राहिम के अल्पायु पुत्र बहादुरशाह को सुल्तान घोषित किया एवं स्वयं उसकी संरक्षिका बन गई। 1595 ई. में मुग़ल आक्रमण का इसने लगभग 4 महीने तक डटकर सामना किया। अन्ततः दोनों पक्षों में 1596 ई. में समझौता हो गया। समझौते के अनुसार [[बरार]] मुग़लों को सौंप दिया गया एवं बुरहानुलमुल्क के पौत्र बहादुरशाह को अहमदनगर के शासक के रूप में मान्यता प्रदान कर दी गई। इसी युद्ध के दौरान मुग़ल सर्वप्रथम [[मराठा|मराठों]] के सम्पर्क में आये। कुछ दिन बाद चाँदबीबी ने अपने को अहमदनगर प्रशासन से अलग कर दिया। वहाँ के सरदारों ने संधि का उल्लंघन करते हुए बरार को पुनः प्राप्त करना चाहा। अकबर ने [[अबुल फ़ज़ल]] के साथ मुराद को अहमदनगर पर आक्रमण के लिए भेजा। 1597 ई. में मुराद की मृत्यु हो जाने के कारण [[अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना|अब्दुर्रहीम ख़ानखाना]] एवं [[शहज़ादा दानियाल]] को आक्रमण के लिए भेजा। अकबर ने भी दक्षिण की ओर प्रस्थान किया। मुग़ल सेना ने 1599 ई. में [[दौलताबाद]] एवं 1600 ई. में अहमदनगर क़िले पर अधिकार कर लिया। चाँदबीबी ने आत्महत्या कर ली। | |||
{{दाँयाबक्सा|पाठ=सभी धर्मों के सार संग्रह के रूप में अकबर ने 1582 ई. में [[दीन-ए-इलाही]] (तौहीद-ए-इलाही) या दैवी एकेश्वरवाद नामक धर्म का प्रवर्तन किया तथा उसे राजकीय धर्म घोषित कर दिया। इस धर्म का प्रधान [[पुरोहित]] [[अबुल फ़ज़ल]] था।|विचारक=}} | |||
==असीरगढ़ विजय== | |||
ख़ानदेश की राजधानी [[बुरहानपुर]] पर स्वयं अकबर ने 1599 ई. में आक्रमण किया। इस समय वहाँ का शासक मीरन बहादुर था। उसने अपने को [[असीरगढ़]] के क़िले में सुरक्षित कर लिया। अकबर ने असीरगढ़ के क़िले का घेराव कर उसके दरवाज़े को ‘सोने की चाभी’ से खोला अर्थात अकबर ने दिल खोलकर ख़ानदेश के अधिकारियों को रुपये बांटे और उन्हें कपटपूर्वक अपनी ओर मिला लिया। [[21 दिसम्बर]], 1600 ई. को मीरन बहादुर ने अकबर के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया, परन्तु अकबर ने अन्तिम रूप से इस [[दुर्ग]] को अपने क़ब्ज़े में 6 जनवरी 1601 ई. को किया। असीरगढ़ की विजय अकबर की अन्तिम विजय थी। मीरन बहादुर को बन्दी बना कर [[ग्वालियर]] के क़िले में क़ैद कर लिया गया। 4000 अशर्फ़ियाँ उसके वार्षिक निर्वाह के लिए निश्चित की गयीं। इन विजयों के पश्चात् अकबर ने दक्षिण के सम्राट की उपाधि धारण की। | |||
अकबर ने [[बरार]], [[अहमदनगर]] एवं [[ख़ानदेश]] की सूबेदारी शाहज़ादा दानियाल को प्रदान कर दी। [[बीजापुर]] एवं [[गोलकुण्डा]] पर अकबर अधिकार नहीं कर सका। इस तरह अकबर का साम्राज्य [[कंधार]] एवं [[काबुल]] से लेकर [[बंगाल]] तक और [[कश्मीर]] से लेकर [[बरार]] तक फैला था। |
07:32, 12 जून 2016 का अवतरण
अकबर का साम्राज्य विस्तार
जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर भारत का महानतम मुग़ल शंहशाह बादशाह था। जिसने मुग़ल शक्ति का भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकांश हिस्सों में विस्तार किया। अकबर को अकबर-ऐ-आज़म, शहंशाह अकबर तथा महाबली शहंशाह के नाम से भी जाना जाता है।
वर्ष | कार्य |
---|---|
1562 ई. | दास प्रथा का अन्त |
1562 ई. | अकबर की ‘हरमदल’ से मुक्ति |
1563 ई. | तीर्थ यात्रा कर समाप्त |
1564 ई. | जज़िया कर समाप्त |
1565 ई. | धर्म परिवर्तन पर पाबंदी |
1571 ई. | फ़तेहपुर सीकरी की स्थापना |
1571 ई. | राजधानी आगरा से फ़तेहपुर सीकरी स्थानान्तरित |
1575 ई. | इबादत खाने की स्थापना |
1578 ई. | इबादत खाने में सभी धर्मों का प्रवेश |
1579 ई. | ‘मज़हर’ की घोषणा |
1582 ई. | ‘दीन-ए-इलाही’ की घोषणा |
1582 ई. | सूर्य पूजा व अग्नि पूजा का प्रचलन कराया |
1583 ई. | इलाही संवत् की स्थापना |
अकबर का साम्राज्य विस्तार दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता हैं-
- उत्तर भारत की विजय और
- दक्षिण भारत की विजय
उत्तर भारत की विजय
पानीपत युद्ध के बाद 1559 ई. में अकबर ने ग्वालियर पर, 1560 ई. में उसके सेनापति जमाल ख़ाँ ने जौनपुर पर तथा 1561 ई. में आसफ ख़ाँ ने चुनार के क़िले पर अधिकार कर लिया।
मालवा विजय
यहाँ के शासक बाज बहादुर को 1561 ई. में अदहम ख़ाँ के नेतृत्व में मुग़ल सेना ने परास्त कर दिया। 29 मार्च, 1561 ई. को मालवा की राजधानी ‘सारंगपुर’ पर मुग़ल सेनाओं ने अधिकार कर लिया। अकबर ने अदहम ख़ाँ को वहाँ की सूबेदारी सौंपी। 1562 ई. में पीर मुहम्मद मालवा का सूबेदार बना। यह एक अत्याचारी प्रवृति का व्यक्ति था। बाज बहादुर ने दक्षिण के शासकों के सहयोग से पुनः मालवा पर अधिकार कर लिया। पीर मुहम्मद भागते समय नर्मदा नदी में डूब कर मर गया। इस बार अकबर ने अब्दुल्ला ख़ाँ उजबेग को बाज बहादुर को परास्त करने के लिए भेजा। बाज बहादुर ने पराजित होकर अकबर की अधीनता स्वीकार कर अकबर के दरबार में द्वि-हज़ारी मनसब प्राप्त किया। 1564 ई. में अकबर ने गोंडवाना विजय हेतु ‘आसफ ख़ाँ’ को भेजा। तत्कालीन गोंडवाना राज्य की शासिका व महोबा की चन्देल राजकुमारी ‘रानी दुर्गावती’, जो अपने अल्पायु पुत्र ‘वीरनारायण’ की संरक्षिका के रूप में शासन कर रही थी, ने आसफ ख़ाँ के नेतृत्व वाली मुग़ल सेना का डट कर मुकाबला किया। अन्ततः माँ और पुत्र दोनों वीरगति को प्राप्त हुए। 1564 ई. में गोंडवाना मुग़ल साम्राज्य के अधीन हो गया।
राजस्थान विजय
राजस्थान के राजपूत शासक अपने पराक्रम, आत्मम्मान एवं स्वतन्त्रता के लिए प्रसिद्ध थे। अकबर ने राजपूतों के प्रति विशेष नीति अपनाते हुए उन राजपूत शासकों से मित्रता एवं वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये, जिन्होंने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। किन्तु जिन्होंने अधीनता स्वीकार नहीं की, उनसे युद्ध के द्वारा अधीनता स्वीकार करवाने का प्रयत्न किया।
- आमेर (जयपुर) - 1562 ई. में अकबर द्वारा अजमेर की शेख मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह की यात्रा के समय उसकी मुलाकात आमेर के शासक राजा भारमल से हुई। भारमल प्रथम राजपूत शासक था, जिसने स्वेच्छा से अकबर की अधीनता स्वीकार की। कालान्तर में भारमल या बिहारीमल की पुत्री से अकबर ने विवाह कर लिया, जिससे जहाँगीर पैदा हुआ। अकबर ने भारमल के पुत्र (दत्तक) भगवानदास एवं पौत्र मानसिंह को उच्च मनसब प्रदान किया।
- मेड़ता - यहाँ का शासक जयमल मेवाड़ के राजा उदयसिंह का सामन्त था। मेड़ता पर आक्रमण के समय मुग़ल सेना का नेतृत्व सरफ़ुद्दीन कर रहा था। उसने जयमल एवं देवदास से मेड़ता को छीनकर 1562 ई. में मुग़लों के अधीन कर दिया।
- मेवाड़ - ‘मेवाड़’ राजस्थान का एक मात्र ऐसा राज्य था, जहाँ के राजपूत शासकों ने मुग़ल शासन का सदैव विरोध किया। अकबर का समकालीन मेवाड़ शासक सिसोदिया वंश का राणा उदयसिंह था, जिसने मुग़ल सम्राट अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की। अकबर ने मेवाड़ को अपने अधीन करने के लिए 1567 ई. में चित्तौड़ के क़िले पर आक्रमण कर दिया। उदयसिंह क़िले की सुरक्षा का भार जयमल एवं फत्ता (फ़तेह सिंह) को सौंप कर समीप की पहाड़ियों में खो गया। इन दो वीरों ने बड़ी बहादुरी से मुग़ल सेना का मुकाबला किया अन्त में दोनों युद्ध क्षेत्र में वीरगति को प्राप्त हुए। अकबर ने क़िले पर अधिकार के बाद लगभग 30,000 राजपूतों का कत्ल करवा दिया। यह नरसंहार अकबर के नाम पर एक बड़े धब्बे के रूप में माना गया, जिसे मिटाने के लिए अकबर ने आगरा क़िले के दरवाज़े पर जयमल एवं फत्ता की वीरता की स्मृति में उनकी प्रस्तर मूर्तियाँ स्थापित करवायीं। 1568 ई. में मुग़ल सेना ने मेवाड़ की राजधानी एवं चित्तौड़ के क़िले पर अधिकार कर लिया। अकबर ने चित्तौड़ की विजय के स्मृतिस्वरूप वहाँ की महामाता मंदिर से विशाल झाड़फानूस अवशेष आगरा ले आया।
- रणथंभौर विजय - रणथंभौर के शासक बूँदी के हाड़ा राजपूत सुरजन राय से अकबर ने 18 मार्च, 1569 ई. में दुर्ग को अपने क़ब्ज़े में ले लिया।
- कालिंजर विजय - उत्तर प्रदेश के बांदा ज़िले में स्थित यह क़िला अभेद्य माना जाता था। इस पर रीवा के राजा रामचन्द्र का अधिकार था। मुग़ल सेना ने मजनू ख़ाँ के नेतृत्व में आक्रमण कर कालिंजर पर अधिकार कर लिया। राजा रामचन्द्र को इलाहाबाद के समीप एक जागीर दे दी गयी।
1570 ई. में मारवाड़ के शासक रामचन्द्र सेन, बीकानेर के शासक कल्याणमल एवं जैसलमेर के शासक रावल हरराय ने अकबर की अधीनता स्वीकार की। इस प्रकार 1570 ई. तक मेवाड़ के कुछ भागों को छोड़कर शेष राजस्थान के शासकों ने मुग़ल अधीनता स्वीकार कर ली। अधीनता स्वीकार करने वाले राज्यों में कुछ अन्य थे- डूंगरपुर, बांसवाड़ा एवं प्रतापगढ़।
गुजरात विजय (1572-73 ई.)
गुजरात एक समृद्ध, उन्नतिशील एवं व्यापारिक केन्द्र के रूप में प्रसिद्ध था। इसलिए अकबर इसे अपने अधिकार में करने हेतु उत्सुक था। सितम्बर 1572 ई. में अकबर ने स्वयं ही गुजरात को जीतने के लिए प्रस्थान किया। उस समय गुजरात का शासक मुजफ्फर ख़ाँ तृतीय था। लगभग डेढ़ महीने के संघर्ष के बाद 26 फ़रवरी, 1573 ई. तक अकबर ने सूरत, अहमदाबाद एवं कैम्बे पर अधिकार कर लिया। अकबर ‘ख़ाने आजम’ मिर्ज़ा अजीज कोका को गुजरात का गर्वनर नियुक्त कर वापस आगरा आ गया, किन्तु उसके आगरा पहुँचते ही सूचना मिली कि, गुजरात में मुहम्मद हुसैन मिर्ज़ा ने विद्रोह कर दिया है। अतः तुरन्त ही अकबर ने गुजरात की ओर मुड़कर 2 सितम्बर, 1573 ई. को विद्रोह को कुचल दिया। अकबर के इस अभियान को स्म्थि ने ‘संसार के इतिहास का सर्वाधिक द्रुतगामी आक्रमण’ कहा है। इस प्रकार गुजरात अकबर के साम्राज्य का एक पक्का अंग बन गया। उसके वित्त तथा राजस्व का पुनर्सगंठन टोडरमल ने किया, जिसका कार्य उस प्रान्त में सिहाबुद्दीन अहमद ने 1573 ई. से 1584 ई. तक किया। गुजरात में ही अकबर सर्वप्रथम पुर्तग़ालियों से मिला और यहीं पर उसने पहली बार समुद्र को देखा। गुजरात को जीतने के बाद अकबर ने पूरे उत्तर भारत में ‘करोड़ी’ नाम के एक अधिकारी की नियुक्ति की। इस अधिकारी को अपने क्षेत्र से एक करोड़ दाम वसूल करना होता था। ‘करोड़ी’ की सहायता के लिए ‘आमिल’ नियुक्त किये गए। ये क़ानूनगों द्वारा बताये गये आंकड़े की भी जाँच करते थे। वास्तविक उत्पादन, स्थानीय क़ीमतें, उत्पादकता आदि पर उनकी सूचना के आधार पर अकबर ने 1580 ई. में 'दहसाला' नाम की नवीन प्रणाली को प्रारम्भ किया। इन्हें भी देखें: मुग़लकालीन राजस्व प्रणाली एवं मुग़लकालीन स्थापत्य एवं वास्तुकला
बिहार एवं बंगाल पर विजय (1574-1576 ई.)
बिहार एवं बंगाल पर सुलेमान कर्रानी अकबर की अधीनता में शासन करता था। कर्रानी की मृत्यु के बाद उसके पुत्र दाऊद ने अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी। अकबर ने मुनअम ख़ाँ के नेतृत्व में मुग़ल सेना को दाऊद को पराजित करने के लिए भेजा, साथ ही मुनअम ख़ाँ की सहायता हेतु खुद भी गया। 1574 ई. में दाऊद बिहार से बंगाल भाग गया। अकबर ने बंगाल विजय का सम्पूर्ण दायित्व मुनअम ख़ाँ को सौंप दिया और वापस फ़तेहपुर सीकरी आ गया। मुनअम ख़ाँ ने बंगाल पहुँचकर दाऊद को सुवर्ण रेखा नदी के पूर्वी किनारे पर स्थित ‘तुकराई’ नामक स्थान पर 3 मार्च, 1575 ई. को परास्त किया। दाऊद की मृत्यु जुलाई, 1576 ई.में हो गई। इस तरह से बंगाल एवं बिहार पर मुग़लों का अधिकार हो गया।
हल्दीघाटी का युद्ध (18 जून, 1576 ई.)
उदय सिंह की मृत्यु के बाद मेवाड़ का शासक महाराणा प्रताप हुआ। अकबर ने मेवाड़ को पूर्णरूप से जीतने के लिए अप्रैल, 1576 ई. में आमेर के राजा मानसिंह एवं आसफ ख़ाँ के नेतृत्व में मुग़ल सेना को आक्रमण के लिए भेजा। दोनों सेनाओं के मध्य गोगुडा के निकट अरावली पहाड़ी की ‘हल्दी घाटी’ शाखा के मध्य हुआ। इस युद्ध में राणाप्रताप पराजित हुए। उनकी जान झाला के नायक की निःस्वार्थ भक्ति के कारण बच सकी, क्योंकि उसने अपने को राणा घोषित कर शाही दल के आक्रमण को अपने ऊपर ले लिया था। राणा ने चेतक पर सवार होकर पहाड़ियों की ओर भाग कर आश्रय लिया। यह अभियान भी मेवाड़ पर पूर्ण अधिकार के बिना ही समाप्त हो गया। 1597 ई. में राणा प्रताप की मृत्यु के बाद उनका पुत्र अमर सिंह उत्तराधिकारी हुआ। उसके शासन काल 1599 ई. में मानसिंह के नेतृत्व में एक बार फिर मुग़ल सेना ने आक्रमण किया। अमर सिंह की पराजय के बाद भी मेवाड़ अभियान अधूरा रहा, जिसे बाद में जहाँगीर ने पूरा किया।
काबुल विजय (1581 ई.)
मिर्ज़ा हकीम, जो रिश्ते में अकबर का सौतेला भाई था, ‘काबुल’ पर स्वतन्त्र शासक के रूप में शासन कर रहा था। सम्राट बनने की महत्वाकांक्षा में उसने पंजाब पर आक्रमण किया। उसके विद्रोह को कुचलने के लिए अकबर ने 8 फ़रवरी, 1581 ई. को एक बृहद सेना के साथ अफ़ग़ानिस्तान की ओर प्रस्थान किया। अकबर के आने का समाचार सुनकर मिर्ज़ा हाकिम काबुल की ओर वापस हो गया। 10 अगस्त 1581 ई. को अकबर ने मिर्ज़ा की बहन बख्तुन्निसा बेगम को काबुल की सूबेदारी सौंपी। कालान्तर में अकबर ने काबुल को साम्राज्य में मिला कर मानसिंह को सूबेदार बनाया।
कश्मीर विजय (1585-1586 ई.)
राज्य | शासक | वर्ष | मुग़ल सेनापति |
---|---|---|---|
मालवा | बाज बहादुर | 1561 ई. | अदमह ख़ाँ, पीर मुहम्मद |
मालवा | - | 5262 ई. | अब्दुल्ला ख़ाँ |
चुनार | - | 1561 ई. | आसफ़ ख़ाँ |
गोंडवाना | वीरनारायण एवं दुर्गावती | 1564 ई. | आसफ़ ख़ाँ |
आमेर | भारमल | 1562 ई. | स्वयं अधीनता स्वीकार की |
मेड़ता | जयमल | 1562 ई. | सरफ़ुद्दीन |
मेवाड़ | उदयसिंह | 1568 ई. | स्वयं अकबर |
मेवाड़ | राणा प्रताप | 1576 ई. | मानसिंह, आसफ़ ख़ाँ |
रणथम्भौर | सुरजन हाड़ा | 1569 ई. | भगवानदास, अकबर |
कालिंजर | रामचन्द्र | 1569 ई. | मजनू ख़ाँ काकशाह |
मारवाड़ | राव चन्द्रसेन | 1570 ई. | स्वेच्छा से अधीनता स्वीकार की |
गुजरात | मुजफ़्फ़र ख़ाँ तृतीय | 1571 ई. | ख़ानकला, ख़ाने आजम |
बिहार-बंगाल | दाऊद ख़ाँ | 1574-1576 | मुनअम ख़ाँ ख़ानख़ाना |
काबुल | हकीम मिर्ज़ा | 1581 ई. | मानसिंह एवं अकबर |
कश्मीर | यूसुफ़ व याकूब ख़ाँ | 1586 ई. | भगवानदास, कासिम ख़ाँ |
सिंध | जानी बेग | 1591 ई. | अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना |
उड़ीसा | निसार ख़ाँ | 1590-1591 ई. | मानसिंह |
बलूचिस्तान | पन्नी अफ़ग़ान | 1595 ई. | मीर मासूम |
कंधार | मुजफ़्फ़र हुसैन मिर्ज़ा | 1595 ई. | शाहबेग |
ख़ानदेश | अली ख़ाँ | 1591 ई. | स्वेच्छा से अधीनता स्वीकार की |
दौलताबाद | चाँदबीबी | 1599 ई. | मुराद, रहीम, अबुल फ़ज़ल एवं अकबर |
अहमदनगर | बहादुरशाह, चाँदबीबी | 1600 ई. | - |
असीरगढ़ | मीरन बहादुर | 1601 ई. | अकबर (अन्तिम अभियान) |
अकबर ने कश्मीर पर अधिकार करने के लिए भगवान दास एवं कासिम ख़ाँ के नेतृत्व में मुग़ल सेना को भेजा। मुग़ल सेना ने थोड़े से संघर्ष के बाद यहाँ के शासक ‘युसुफ ख़ाँ’ को बन्दी बना लिया। बाद में युसुफ ख़ाँ के लड़के ‘याकूब’ ने संघर्ष की शुरुआत की, किन्तु श्रीनगर में हुए विद्रोह के कारण उसे मुग़ल सेना के समक्ष आत्समर्पण करना पड़ा। 1586 ई. में कश्मीर का विलय मुग़ल साम्राज्य में हो गया।
सिंध विजय (1591 ई.)
अकबर ने अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना को सिंध को जीतने का दायित्व सौंपा। 1591 ई. में सिंध के शासक जानीबेग एवं ख़ानख़ाना के मध्य कड़ा संघर्ष हुआ। अन्ततः सिंध पर मुग़लों का अधिकार हो गया।
उड़ीसा विजय (1590-1592 ई.)
1590 ई. में राजा मानसिंह के नेतृत्व में मुग़ल सेना ने उड़ीसा के शासक निसार ख़ाँ पर आक्रमण कर आत्मसमर्पण के लिए विवश किया, परन्तु अन्तिम रूप से उड़ीसा को 1592 ई. में मुग़ल साम्राज्य के अधीन किया गया।
बलूचिस्तान विजय (1595 ई.)
मीर मासूम के नेतृत्व में मुग़ल सेनाओं ने 1595 ई. में बलूचिस्तान पर आक्रमण कर वहाँ के अफ़ग़ानों को हराकर उसे मुग़ल साम्राज्य में मिला लिया।
कंधार विजय (1595 ई.)
बैरम ख़ाँ के संरक्षण काल 1556-1560 ई. में कंधार मुग़लों के हाथ से निकल गया था। कंधार का सूबेदार मुजफ्फर हुसैन मिर्ज़ा कंधार को स्वेच्छा से मुग़ल सरदार शाहबेग को सौंपकर स्वयं अकबर का मनसबदार बन गया। इस तरह अकबर मेवाड़ के अतिरिक्त सम्पूर्ण उत्तरी भारत पर अधिकार करने में सफल हुआ।
अकबर की दक्षिण विजय
बहमनी राज्य के विखण्डन के उपरान्त बने राज्यों ख़ानदेश, अहमदनगर, बीजापुर एवं गोलकुण्डा को अकबर ने अपने अधीन करने के लिए 1591 ई. में एक दूतमण्डल को दक्षिण की ओर भेजा। मुग़ल सीमा के सर्वाधिक नज़दीक होने के कारण ‘ख़ानदेश’ ने मुग़ल अधिपत्य को स्वीकार कर लिया। ‘ख़ानदेश’ को दक्षिण भारत का ‘प्रवेश द्वार’ भी माना जाता है।
अहमदनगर विजय
1593 ई. में अकबर ने अहमदनगर पर आक्रमण हेतु अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना एवं मुराद को दक्षिण भेजा। 1594 ई. में यहाँ के शासक बुरहानुलमुल्क की मृत्यु के कारण अहमदनगर के क़िले का दायित्व बीजापुर के शासक अली आदिलशाह प्रथम की विधवा चाँदबीबी पर आ गया। चाँदबीबी ने इब्राहिम के अल्पायु पुत्र बहादुरशाह को सुल्तान घोषित किया एवं स्वयं उसकी संरक्षिका बन गई। 1595 ई. में मुग़ल आक्रमण का इसने लगभग 4 महीने तक डटकर सामना किया। अन्ततः दोनों पक्षों में 1596 ई. में समझौता हो गया। समझौते के अनुसार बरार मुग़लों को सौंप दिया गया एवं बुरहानुलमुल्क के पौत्र बहादुरशाह को अहमदनगर के शासक के रूप में मान्यता प्रदान कर दी गई। इसी युद्ध के दौरान मुग़ल सर्वप्रथम मराठों के सम्पर्क में आये। कुछ दिन बाद चाँदबीबी ने अपने को अहमदनगर प्रशासन से अलग कर दिया। वहाँ के सरदारों ने संधि का उल्लंघन करते हुए बरार को पुनः प्राप्त करना चाहा। अकबर ने अबुल फ़ज़ल के साथ मुराद को अहमदनगर पर आक्रमण के लिए भेजा। 1597 ई. में मुराद की मृत्यु हो जाने के कारण अब्दुर्रहीम ख़ानखाना एवं शहज़ादा दानियाल को आक्रमण के लिए भेजा। अकबर ने भी दक्षिण की ओर प्रस्थान किया। मुग़ल सेना ने 1599 ई. में दौलताबाद एवं 1600 ई. में अहमदनगर क़िले पर अधिकार कर लिया। चाँदबीबी ने आत्महत्या कर ली।
सभी धर्मों के सार संग्रह के रूप में अकबर ने 1582 ई. में दीन-ए-इलाही (तौहीद-ए-इलाही) या दैवी एकेश्वरवाद नामक धर्म का प्रवर्तन किया तथा उसे राजकीय धर्म घोषित कर दिया। इस धर्म का प्रधान पुरोहित अबुल फ़ज़ल था।
|
असीरगढ़ विजय
ख़ानदेश की राजधानी बुरहानपुर पर स्वयं अकबर ने 1599 ई. में आक्रमण किया। इस समय वहाँ का शासक मीरन बहादुर था। उसने अपने को असीरगढ़ के क़िले में सुरक्षित कर लिया। अकबर ने असीरगढ़ के क़िले का घेराव कर उसके दरवाज़े को ‘सोने की चाभी’ से खोला अर्थात अकबर ने दिल खोलकर ख़ानदेश के अधिकारियों को रुपये बांटे और उन्हें कपटपूर्वक अपनी ओर मिला लिया। 21 दिसम्बर, 1600 ई. को मीरन बहादुर ने अकबर के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया, परन्तु अकबर ने अन्तिम रूप से इस दुर्ग को अपने क़ब्ज़े में 6 जनवरी 1601 ई. को किया। असीरगढ़ की विजय अकबर की अन्तिम विजय थी। मीरन बहादुर को बन्दी बना कर ग्वालियर के क़िले में क़ैद कर लिया गया। 4000 अशर्फ़ियाँ उसके वार्षिक निर्वाह के लिए निश्चित की गयीं। इन विजयों के पश्चात् अकबर ने दक्षिण के सम्राट की उपाधि धारण की।
अकबर ने बरार, अहमदनगर एवं ख़ानदेश की सूबेदारी शाहज़ादा दानियाल को प्रदान कर दी। बीजापुर एवं गोलकुण्डा पर अकबर अधिकार नहीं कर सका। इस तरह अकबर का साम्राज्य कंधार एवं काबुल से लेकर बंगाल तक और कश्मीर से लेकर बरार तक फैला था।