"श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 8 श्लोक 34-40": अवतरणों में अंतर
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यों तो यह विदेहों की—जीवन्मुक्तों की नगरी है, परन्तु इसमें मैं ही सबसे मुर्ख और दुष्ट हूँ; क्योंकि अकेली मैं ही तो आत्मदानी, अविनाशी एवं परमप्रियतम परमात्मा को छोड़कर दूसरे पुरुष की अभिलाषा करती हूँ । मेरे ह्रदय में विराजमान प्रभु, समस्त प्राणियों के हितैषी, सुह्रद्, प्रियतम, स्वामी और आत्मा हैं। अब मैं अपने-आपको देकर इन्हें | यों तो यह विदेहों की—जीवन्मुक्तों की नगरी है, परन्तु इसमें मैं ही सबसे मुर्ख और दुष्ट हूँ; क्योंकि अकेली मैं ही तो आत्मदानी, अविनाशी एवं परमप्रियतम परमात्मा को छोड़कर दूसरे पुरुष की अभिलाषा करती हूँ । मेरे ह्रदय में विराजमान प्रभु, समस्त प्राणियों के हितैषी, सुह्रद्, प्रियतम, स्वामी और आत्मा हैं। अब मैं अपने-आपको देकर इन्हें ख़रीद लूँगी और इनके साथ वैसे ही विहार करुँगी, जैसे लक्ष्मीजी करती हैं । मेरे मूर्ख चित्त! तू बतला तो सही, जगत् के विषय भोगों ने और उनको देने वाले पुरुषों ने तुझे कितना सुख दिया है। अरे! वे तो स्वयं ही पैदा होते और मरते रहते हैं। मैं केवल अपनी ही बात नहीं कहती, केवल मनुष्यों की भी नहीं; क्या देवताओं ने भी भोगों एक द्वारा अपनी पत्नियों को सन्तुष्ट किया है ? वे बेचारे तो स्वयं काल के गाल में पड़े-पड़े कराह रहे हैं । अवश्य ही मेरे किसी शुभकर्म से विष्णु भगवान मुझ पर प्रसन्न हैं, तभी तो दुराशा से मुझे इस प्रकार वैराग्य हुआ है। अवश्य ही मेरा यह वैराग्य सुख देने वाला होगा । यदि मैं मन्दभागिनी होती हो मुझे ऐसे दुःख ही न उठाने पड़ते, जिनसे वैराग्य होता है। मनुष्य वैराग्य के द्वारा ही घर आदि के सब बन्धनों को काटकर शान्ति-लाभ करता है । अब मैं भगवान का यह उपकार आदरपूर्वक सिर झुककर स्वीकार करती हूँ और विषय भोगों की दुराशा छोड़कर उन्हीं जगदीश्वर की शरण ग्रहण करती हूँ । अब मुझे प्रारब्ध के अनुसार जो कुछ मिल जायगा उसी से निर्वाह कर लूँगी और बड़े सन्तोष तथा श्रद्धा के साथ रहूँगी। मैं अब किसी दूसरे पुरुष की ओर न ताककर अपने हृदयेश्वर, आत्मस्वरुप प्रभु के साथ ही विहार करुँगी । | ||
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13:21, 15 नवम्बर 2016 का अवतरण
एकादश स्कन्ध: अष्टमोऽध्यायः (8)
यों तो यह विदेहों की—जीवन्मुक्तों की नगरी है, परन्तु इसमें मैं ही सबसे मुर्ख और दुष्ट हूँ; क्योंकि अकेली मैं ही तो आत्मदानी, अविनाशी एवं परमप्रियतम परमात्मा को छोड़कर दूसरे पुरुष की अभिलाषा करती हूँ । मेरे ह्रदय में विराजमान प्रभु, समस्त प्राणियों के हितैषी, सुह्रद्, प्रियतम, स्वामी और आत्मा हैं। अब मैं अपने-आपको देकर इन्हें ख़रीद लूँगी और इनके साथ वैसे ही विहार करुँगी, जैसे लक्ष्मीजी करती हैं । मेरे मूर्ख चित्त! तू बतला तो सही, जगत् के विषय भोगों ने और उनको देने वाले पुरुषों ने तुझे कितना सुख दिया है। अरे! वे तो स्वयं ही पैदा होते और मरते रहते हैं। मैं केवल अपनी ही बात नहीं कहती, केवल मनुष्यों की भी नहीं; क्या देवताओं ने भी भोगों एक द्वारा अपनी पत्नियों को सन्तुष्ट किया है ? वे बेचारे तो स्वयं काल के गाल में पड़े-पड़े कराह रहे हैं । अवश्य ही मेरे किसी शुभकर्म से विष्णु भगवान मुझ पर प्रसन्न हैं, तभी तो दुराशा से मुझे इस प्रकार वैराग्य हुआ है। अवश्य ही मेरा यह वैराग्य सुख देने वाला होगा । यदि मैं मन्दभागिनी होती हो मुझे ऐसे दुःख ही न उठाने पड़ते, जिनसे वैराग्य होता है। मनुष्य वैराग्य के द्वारा ही घर आदि के सब बन्धनों को काटकर शान्ति-लाभ करता है । अब मैं भगवान का यह उपकार आदरपूर्वक सिर झुककर स्वीकार करती हूँ और विषय भोगों की दुराशा छोड़कर उन्हीं जगदीश्वर की शरण ग्रहण करती हूँ । अब मुझे प्रारब्ध के अनुसार जो कुछ मिल जायगा उसी से निर्वाह कर लूँगी और बड़े सन्तोष तथा श्रद्धा के साथ रहूँगी। मैं अब किसी दूसरे पुरुष की ओर न ताककर अपने हृदयेश्वर, आत्मस्वरुप प्रभु के साथ ही विहार करुँगी ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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