"प्रयोग:कविता बघेल": अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
No edit summary
No edit summary
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
{{सूचना बक्सा प्रसिद्ध व्यक्तित्व
'''सी. शंकरन नायर''' ([[अंग्रेज़ी]]:''C. Sankaran Nair'') जन्म: [[11 जुलाई]] [[1857]], मनकारा, पलक्काड के निकट, [[केरल]]; मृत्यु: [[24 अप्रैल]] [[1934]], [[मद्रास]] {वर्तमान [[चेन्नई]]), भारतीय न्यायविद् एवं राजनेता थे, जिन्होंने अपने स्वतंत्र विचारों और स्पष्टवादिता के बावजूद उच्च सरकारी पद हासिल किए, जो उस समय भारतीयों को मुश्किल से मिलते थे। उन्होंने एक साथ मोहनदास करमचंद्र गांधी के नेतृत्व में चरम भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन तथा ब्रिटिश भारत सरकार द्वारा इसे बलपूर्णक कुचले जाने, दोनों का विरोध किया था।
|चित्र=Blank-Image-2.jpg
==जन्म एवं शिक्षा==
|चित्र का नाम=वी. एस. श्रीनिवास शास्त्री
सी. शंकरन नायर का जन्म [[11 जुलाई]] [[1857]], मालाबार कोस्ट में हुआ था। इनकी प्रारंभिक शिक्षा पारंपरिक तरीके से घर में ही हुई थी और फिर वह मालाबार के स्कूल में जारी रही, कालीकट के प्रॉविन्शियल स्कूल से आर्ट्स की परीक्षा में वह प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुए। इसके बाद सी. शंकरन नायर ने मद्रास के प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। [[1877]] में उन्होंने [[कला]] की उपाधि प्राप्त की और दो साल बाद मद्रास लॉ कॉलेज से कानून की उपाधि हासिल की। [[1880]] में इन्होंने मद्रास हाईकोर्ट में वकील के तौर पर अपना पेशेवर जीवन शुरू किया।
|पूरा नाम=वालांगीमन शंकरनारायण श्रीनिवास शास्त्री
==वकील के रूप में==
|अन्य नाम=
शंकरन नायर को मद्रास प्रांत का सरकारी वकील [[1899]] में बनाया गया, एवं महाधिवक्ता [[1907]] में तथा मद्रास उच्च न्यायालय का न्यायाघीश [[1908]] में नियुक्त किया गया। [[1915]] तक वह इस पद पर रहे। इसी बीच साल [[1902]] में [[लॉर्ड कर्जन|वॉयसराय लॉर्ड कर्जन]] ने उन्हें सालिग यूनिवर्सिटी कमीशन का सचिव बनाया। अपने सबसे प्रसिद्ध फ़ैसले में उन्होंने हिंदू धर्म में धर्मातरण को उचित ठहराया तथा फ़ैसला दिया कि ऐसे धर्मांतरित लोग जाति बहिष्कृत नहीं हैं। कुछ सालों तक वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रतिनिधि रहे और इसके अमरावती अधिवेशन 1897 की अध्यक्षता की, उन्होंने 'द मद्रास रिव्यू' एवं 'द मद्रास लॉ' जर्नल की स्थापना और संपादन किया।
|जन्म=[[22 सितम्बर]], [[1869]]
==राट्रवादी==
|जन्म भूमि=[[तंजौर]], [[कर्नाटक]]
सी. शंकरन नायर के बारे में कोई शक नहीं था कि वह एक प्रखर राष्ट्रवादी थे। हालांकि, वह कट्टरपंथी राष्ट्रवादी नहीं थे जो दूसरों में क्या अच्छा है इसे देखकर अंधे हो जाए, इसलिए उन्होंने जहां एक तरफ ब्रिटिश संसदीय संस्थाएं, देशप्रेम और उद्योगों की सराहना की, वही दूसरी तरफ भारतीय अर्थव्यवस्था पर ब्रिटिश राज के दुष्प्रभावों को उजागर भी किया।
|मृत्यु=[[17 अप्रैल]], [[1946]]
==व्यक्तित्व==
|मृत्यु स्थान=[[मद्रास]]
सी. शंकरन नायर राजनीति में उदारवादी और नरमपंथी थे। सर शंकरन की मौजूदगी उतनी ही प्रभावशाली थी, जितनी उनकी योग्यता। अपने जीवनकाल में वह जिस भी क्षेत्र में गए, वहां उन्होंने ऊंचाईयों को छुआ। वह एक देशप्रेमी थे जो अपने लोगों की भलाई के लिए कार्य करता था। सामाजिक सुधारों में वह अपने समय से कहीं आगे थे और उनका योगदान काफी अहम था।
|अभिभावक=
==सेवा एवं सुधारक==
|पति/पत्नी=
सी. शंकरन 1915 में शिक्षा सदस्य के रूप में वाएसरॉय की परिषद् में शामिल हुए। इस कार्यालय में उन्होंने बार-बार भारतीय संवैधानिक सुधारो का आग्रह किया और 'मॉंटेग्यू-चेम्सफ़ोर्ड योजना' ([[22 अप्रैल]] [[1918]] को अधिसूचित) का समर्थन किया, जिसके अनुसार, ब्रिटिश साम्राज्य के तहत [[भारत]] को धीरे-धीरे स्वशासन हासिल करना था। उन्होंने [[पंजाब]] में असंतोष दबाने के लिए लंबे समय तक फ़ौजी क़ानून का इस्तेमाल किए जाने के विरोध में [[1919]] में परिषद से त्यागपत्र दे दिया। [[1904]] में उनकी सेवाओं को देखते हुए उन्हें किंग एम्परर द्वारा कमांडर ऑफ इंडियन एम्पायर की उपाधि से नवाजा गया और साल [[1912]] में उन्हें नाइट की पदवी से सम्मानित किया गया।
|संतान=
==राजनीतिक जीवन==
|गुरु=
सी. शंकरन नायर भारत राज्य सचिव के सलाहकार [[लंदन]] में, [[1920]]-[[1921]] तथा भारतीय राज्य परिषद के सदस्य [[1925]] तक रहे। उन्होंने अखिल भारतीय समिति के अध्यक्ष के रूप में भी काम किया, जिसने [[1928]]-[[1929]] में भारतीय वैधानिक समस्याओं के बारे में, ख़ास कुछ न हासिल करते हुए, साइमन आयोग (भारतीय वैधानिक आयोग, जिसमें ब्रिटिश राजनीतिज्ञ थे) से भेंट की। अपनी पुस्तक गांधी ऐंड एनार्की (1922) में सी. शंकरन नायर नें गांधी के असहयोग आंदोलन तथा फ़ौजी क़ानून के तहत ब्रिटिश कार्यवाही की कड़ी आलोचना की। एक ब्रिटिश अदालत ने निर्णय दिया कि इस पुस्तक में [[1919]] के [[पंजाब]] विद्रोह के दौरान [[भारत]] के लेफ़्टिनेंट गवर्नर सर माइकल फ़्रांसिस ओ'डायर की मानहानि की गई है।
|कर्म भूमि=मद्रास
|कर्म-क्षेत्र=मद्रास
|मुख्य रचनाएँ=
|विषय=
|खोज=
|भाषा=
|शिक्षा=एम.ए
|विद्यालय=मद्रास प्रेसिडेन्सी
|पुरस्कार-उपाधि=
|प्रसिद्धि=सामाज सुधारक
|विशेष योगदान=
|नागरिकता=भारतीय
|संबंधित लेख=
|शीर्षक 1=
|पाठ 1=
|शीर्षक 2=
|पाठ 2=
|शीर्षक 3=
|पाठ 3=
|शीर्षक 4=
|पाठ 4=
|शीर्षक 5=
|पाठ 5=
|अन्य जानकारी= श्रीनिवास शास्त्री उदारवादी राजनीतिज्ञ और इंडियन लिबरल फ़ेडरेशन के संस्थापक थे, जिन्होंने [[भारत]] में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान देश-विदेश में कई महत्त्वपूर्ण पदों पर काम किये।
|बाहरी कड़ियाँ=
|अद्यतन=
}}
'''वी. एस. श्रीनिवास शास्त्री'''(अंग्रेज़ी: ''V. S. Srinivasa Sastri'') (जन्म: [[22 सितम्बर]], [[1869]], [[तंजौर]], [[कर्नाटक]]; मृत्यु: [[17 अप्रैल]], [[1946]], [[मद्रास]]<ref>{{cite web |url=http://www.vskgujarat.com/%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B6%E0%A4%AD%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4-%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8-%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%8D/ |title=श्री निवास शास्त्री |accessmonthday=17 नवम्बर |accessyear=2016 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=vskgujarat.com |language= हिन्दी}}</ref>) उदारवादी राजनीतिज्ञ और इंडियन लिबरल फ़ेडरेशन के संस्थापक थे, जिन्होंने [[भारत]] में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान देश-विदेश में कई महत्त्वपूर्ण पदों पर काम किये। इन्होंने अपनी जीवनवृत्ति स्कूल शिक्षक के रूप में आरंभ की, लेकिन सार्वजनिक मुद्दों में गहरी रुचि और अपनी वाकपटुता के कारण जल्द ही वह राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध हो गए।
==जीवन परिचय==
श्रीनिवास शास्त्री का पूरा नाम 'वालांगीमन शंकरनारायण श्रीनिवास शास्त्री' था। इनका जन्म ग्राम वालंगइमान (जिला तंजौर, कर्नाटक) में 22 सितम्बर, 1869, एक ग़रीब [[ब्राह्मण]] [[परिवार]] में हुआ था। यह ग्राम प्रसिद्ध तीर्थस्थल [[कुम्भकोणम]] के पास है, जहाँ हर 12 वर्ष बाद विशाल रथयात्रा निकाली जाती है। इनके पिता एक मन्दिर में पुजारी थे और इनकी माता जी भी अति धर्मनिष्ठ थीं। अतः इनका बचपन धार्मिक कथाएं एवं भजन सुनते हुए बीता। इसका इनके मन पर गहरा प्रभाव हुआ और इन संस्कारों का उनके भावी जीवन में बहुत उपयोग हुआ।
;शिक्षा
श्रीनिवास शास्त्री शिक्षा के प्रति अत्यधिक अनुराग होने के कारण वे कुम्भकोणम के ‘नेटिव हाईस्कूल’ में पढ़ने के लिए पैदल ही जाते थे। [[1884]] में मैट्रिक करने के बाद उन्होंने मद्रास प्रेसिडेन्सी से एफ.ए किया और फिर मायावरम् नगर पालिका विद्यालय में पढ़ाने लगे। इस दौरान छात्रों में लोकप्रियता और अनूठी शिक्षण शैली के कारण इनकी उन्नति होती गयी और ये सलेम म्यूनिसिपल कॉलेज में उपप्राचार्य हो गये। इसके बाद श्रीनिवास शास्त्री मद्रास के पचइप्पा कॉलेज में भी रहे। इन्होंने अपनी जीवनवृत्ति स्कूल शिक्षक के रूप में आरंभ की, लेकिन सार्वजनिक मुद्दों में गहरी रुचि और अपनी वाकपटुता के कारण जल्द ही वह राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध हो गए।
==राजनीतिक क्षेत्र==
राजनीतिक क्षेत्र में श्रीनिवास शास्त्री ने [[गोपालकृष्ण गोखले]] को अपना गुरू माना था। उनके प्रति अत्यधिक श्रद्धा को इन्होंने अनेक लेखों तथा ‘माई मास्टर गोखले’ नामक पुस्तक में व्यक्त किया है। इनकी शुरु से ही जीवन की सामाजिक समस्याओं में अभिरुचि थी, इसी कारण गोपालकृष्ण गोखले द्वारा संस्थापित 'सर्वेट्स ऑव इंडिया सोसायटी' नामक संस्था के वह [[1907]] में सदस्य बना दिय गए। संस्था के उद्देश्यों की पूर्ति में श्रीनिवास शास्त्री की लगन देखकर गोपालकृष्ण गोखले ने इस संस्था की अध्यक्षता के लिए अपने बाद इन्हीं को चुना। [[1915]] में इस संस्था के अध्यक्ष बने. श्रीनिवास मद्रास [[विधान परिषद]] के सदस्य थे तथा [[1916]] में उन्हें केंद्रीय विधायिका के लिए चुना गया।<br />
श्रीनिवास शास्त्री ने [[1919]] के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट का स्वागत किया, जिसके द्वारा पहली बार भारतीय मतदाताओं के प्रति उत्तरदायी प्रांतीय सरकारों पर भारतीय मंत्री कुछ हद तक नियंत्रण कर सकते थे। सुधार के तहत स्थापित राज्य की नई परिषद में निर्वाचित होने के बाद उन्होंनें पाया कि वह दिनोदिन सदन में छाई राष्ट्रवादी [[कांग्रेस]] पार्टी से असहमत होते जा रहे हैं। कांग्रेस सुधारो में सहयोग करने से इनकार करती थी और सविनय अवज्ञा के तरीक़ो को तरजीह देती थी। इसलिये श्रीनिवास शास्त्री ने [[1922]] में कांग्रेस पार्टी को छोड़कर 'इंडियन लिबरल फ़ेडरेशन' की स्थापना की, जिसके वह अध्यक्ष बने।
==समाज सुधारक==
श्रीनिवास शास्त्री समाज सुधारक थे। इसलिये सरकार ने उन्हें [[1922]] में [[ऑस्ट्रेलिया]], न्यूज़ीलैंड और कनाडा की यात्रा पर भेजा, जो उन देशों में रहने वाले भारतीयों की दशा को सुधारने का एक प्रयास था। [[1926]] में उन्हें इसी कार्य के लिए [[दक्षिण अफ़्रीका]] भेजा गया और [[1927]] में उन्हें वहां का एजेंट-जनरल नियुक्त किया गया। भारतीय सरकार ने उन्हें मलाया में भारतीय मज़दूरों की दशा पर रिपोर्ट देने के लिए भी नियुक्त किया। [[1930]]-[[1931]] के दौरान उन्होंने [[भारत]] में संवैधानिक सुधारों के प्रस्तावों पर चर्चा के लिए [[लंदन]] में आयोजित [[गोलमेज़ सम्मेलन|गोलमेज़ सम्मेलनों]] में सक्रिय भागेदारी की। [[1935]] -[[1940]] के दौरान वह [[मद्रास]] में [[अन्नामलाई विश्वविद्यालय]] के कुलपति पद पर भी रहे।
==मृत्यु==
देश एवं विदेश में बसे भारतीयों की सेवा को समर्पित श्रीनिवास शास्त्री का 76 वर्ष की आयु में [[17 अप्रैल]], [[1946]] को [[मद्रास]] में देहांत हुआ।
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
==संदर्भ==
{{समाज सुधारक}}
[[Category:प्रसिद्ध व्यक्तित्व]]
[[Category:समाज सुधारक]][[Category:राजनीतिज्ञ]][[Category:प्रसिद्ध व्यक्तित्व कोश]][[Category:चरित कोश]][[Category:समाज कोश]][[Category:इतिहास कोश]]
__INDEX__

12:10, 18 नवम्बर 2016 का अवतरण

सी. शंकरन नायर (अंग्रेज़ी:C. Sankaran Nair) जन्म: 11 जुलाई 1857, मनकारा, पलक्काड के निकट, केरल; मृत्यु: 24 अप्रैल 1934, मद्रास {वर्तमान चेन्नई), भारतीय न्यायविद् एवं राजनेता थे, जिन्होंने अपने स्वतंत्र विचारों और स्पष्टवादिता के बावजूद उच्च सरकारी पद हासिल किए, जो उस समय भारतीयों को मुश्किल से मिलते थे। उन्होंने एक साथ मोहनदास करमचंद्र गांधी के नेतृत्व में चरम भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन तथा ब्रिटिश भारत सरकार द्वारा इसे बलपूर्णक कुचले जाने, दोनों का विरोध किया था।

जन्म एवं शिक्षा

सी. शंकरन नायर का जन्म 11 जुलाई 1857, मालाबार कोस्ट में हुआ था। इनकी प्रारंभिक शिक्षा पारंपरिक तरीके से घर में ही हुई थी और फिर वह मालाबार के स्कूल में जारी रही, कालीकट के प्रॉविन्शियल स्कूल से आर्ट्स की परीक्षा में वह प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुए। इसके बाद सी. शंकरन नायर ने मद्रास के प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। 1877 में उन्होंने कला की उपाधि प्राप्त की और दो साल बाद मद्रास लॉ कॉलेज से कानून की उपाधि हासिल की। 1880 में इन्होंने मद्रास हाईकोर्ट में वकील के तौर पर अपना पेशेवर जीवन शुरू किया।

वकील के रूप में

शंकरन नायर को मद्रास प्रांत का सरकारी वकील 1899 में बनाया गया, एवं महाधिवक्ता 1907 में तथा मद्रास उच्च न्यायालय का न्यायाघीश 1908 में नियुक्त किया गया। 1915 तक वह इस पद पर रहे। इसी बीच साल 1902 में वॉयसराय लॉर्ड कर्जन ने उन्हें सालिग यूनिवर्सिटी कमीशन का सचिव बनाया। अपने सबसे प्रसिद्ध फ़ैसले में उन्होंने हिंदू धर्म में धर्मातरण को उचित ठहराया तथा फ़ैसला दिया कि ऐसे धर्मांतरित लोग जाति बहिष्कृत नहीं हैं। कुछ सालों तक वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रतिनिधि रहे और इसके अमरावती अधिवेशन 1897 की अध्यक्षता की, उन्होंने 'द मद्रास रिव्यू' एवं 'द मद्रास लॉ' जर्नल की स्थापना और संपादन किया।

राट्रवादी

सी. शंकरन नायर के बारे में कोई शक नहीं था कि वह एक प्रखर राष्ट्रवादी थे। हालांकि, वह कट्टरपंथी राष्ट्रवादी नहीं थे जो दूसरों में क्या अच्छा है इसे देखकर अंधे हो जाए, इसलिए उन्होंने जहां एक तरफ ब्रिटिश संसदीय संस्थाएं, देशप्रेम और उद्योगों की सराहना की, वही दूसरी तरफ भारतीय अर्थव्यवस्था पर ब्रिटिश राज के दुष्प्रभावों को उजागर भी किया।

व्यक्तित्व

सी. शंकरन नायर राजनीति में उदारवादी और नरमपंथी थे। सर शंकरन की मौजूदगी उतनी ही प्रभावशाली थी, जितनी उनकी योग्यता। अपने जीवनकाल में वह जिस भी क्षेत्र में गए, वहां उन्होंने ऊंचाईयों को छुआ। वह एक देशप्रेमी थे जो अपने लोगों की भलाई के लिए कार्य करता था। सामाजिक सुधारों में वह अपने समय से कहीं आगे थे और उनका योगदान काफी अहम था।

सेवा एवं सुधारक

सी. शंकरन 1915 में शिक्षा सदस्य के रूप में वाएसरॉय की परिषद् में शामिल हुए। इस कार्यालय में उन्होंने बार-बार भारतीय संवैधानिक सुधारो का आग्रह किया और 'मॉंटेग्यू-चेम्सफ़ोर्ड योजना' (22 अप्रैल 1918 को अधिसूचित) का समर्थन किया, जिसके अनुसार, ब्रिटिश साम्राज्य के तहत भारत को धीरे-धीरे स्वशासन हासिल करना था। उन्होंने पंजाब में असंतोष दबाने के लिए लंबे समय तक फ़ौजी क़ानून का इस्तेमाल किए जाने के विरोध में 1919 में परिषद से त्यागपत्र दे दिया। 1904 में उनकी सेवाओं को देखते हुए उन्हें किंग एम्परर द्वारा कमांडर ऑफ इंडियन एम्पायर की उपाधि से नवाजा गया और साल 1912 में उन्हें नाइट की पदवी से सम्मानित किया गया।

राजनीतिक जीवन

सी. शंकरन नायर भारत राज्य सचिव के सलाहकार लंदन में, 1920-1921 तथा भारतीय राज्य परिषद के सदस्य 1925 तक रहे। उन्होंने अखिल भारतीय समिति के अध्यक्ष के रूप में भी काम किया, जिसने 1928-1929 में भारतीय वैधानिक समस्याओं के बारे में, ख़ास कुछ न हासिल करते हुए, साइमन आयोग (भारतीय वैधानिक आयोग, जिसमें ब्रिटिश राजनीतिज्ञ थे) से भेंट की। अपनी पुस्तक गांधी ऐंड एनार्की (1922) में सी. शंकरन नायर नें गांधी के असहयोग आंदोलन तथा फ़ौजी क़ानून के तहत ब्रिटिश कार्यवाही की कड़ी आलोचना की। एक ब्रिटिश अदालत ने निर्णय दिया कि इस पुस्तक में 1919 के पंजाब विद्रोह के दौरान भारत के लेफ़्टिनेंट गवर्नर सर माइकल फ़्रांसिस ओ'डायर की मानहानि की गई है।