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{{सूचना बक्सा स्वतन्त्रता सेनानी
'''बलुसु संबमूर्ति''' (अंग्रेज़ी:''Bulusu Sambamurti'', जन्म: [[4 मार्च]], [[1886]] गोदावरी ज़िला, [[आंध्र प्रदेश]]; मृत्यु: [[2 फरवरी]] [[1958]]) आन्ध्र प्रदेश के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी, वकील और नेता थे।  
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'''बाबा रामचंद्र''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Baba Ramchandra'', जन्म: [[1875]] [[ग्वालियर]], [[मध्यप्रदेश]]; मृत्यु: [[1950]]) [[भारत]] के प्रसिद्ध किसान नेता तथा स्वतंत्रता सेनानी थे।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=भारतीय चरित कोश|लेखक=लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय'|अनुवादक=|आलोचक=|प्रकाशक=शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली|संकलन= |संपादन=|पृष्ठ संख्या=529|url=}}</ref>
==परिचय==
==परिचय==
बाबा रामचंद्र का जन्म [[1875]] में [[ग्वालियर]] के एक गरीब [[ब्राह्मण]] [[परिवार]] में हुआ था। इनका जीवन बड़ा घटना प्रधान रहा था। इन्हें औपचारिक शिक्षा का अवसर नहीं मिला, किंतु '[[रामचरित मानस]]' का इन्होंने अध्ययन किया।
आन्ध्रप्रदेश के प्रमुख स्वाधीनता सेनानी बलुसु संबमूर्ति का जन्म 4 मार्च, 1886 ई. में हुआ था। शिक्षा पूरी करने के बाद वे बारीसाल में वकालत करने लगे।
==कार्य क्षेत्र==
==क्रांतिकारी जीवन==
बाबा रामचंद्र अपने यौवनकाल में शर्तबंद कुली बन कर फिजी पहुंचे। ये अपने [[रामायण |रामायण ज्ञान]] और भाषण देने की क्षमता के कारण वहां बसे हुए भारतीयों में शीघ्र ही लोगप्रिय हो गए। [[अंग्रेज]] जो भारतीयों को कुली बनाकर ले गए थे, उन पर बड़े अत्याचार करते थे। बाबा रामचंद्र ने इसके विरोध में आवाज उठाई और लोगों को संगठित किया। इस पर उन्हें [[1918]] में भारत वापस भेज दिया गया।
बलुसु संबमूर्ति एक क्रांतिकारी नेता थे। 1920 में उन्होंने गांधी जी के आह्वान पर अपनी वकालत छोड़ दी और आंदोलन में सम्मिलित हो गए। इसके बाद का इनका जीवन बहुत संघर्ष में बीता। फिर ये [[एनी बीसेंट]] की [[होमरूल लीग]] के सदस्य बने। ये अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी और उसकी कार्यसमिति के भी सदस्य थे। [[1923]] की काकीनाड़ा [[कांग्रेस]] की स्वागत समिति का काम उन्होंने ऐसी स्थितियों में किया जब उनके एकमात्र पुत्र का सप्तास-भर पहले देहांत हो चुका था। [[साइमन कमीशन]] के बहिष्कार और [[नमक सत्याग्रह]] में भी ये गिरफ्तार हुए। [[नागपुर]] के झंडा [[सत्याग्रह]] में भी इन्होंने अपने दल के साथ भाग लिया था तथा [[1931]] के आंदोलन में तिरंगे झंड़े का अभिवादन करते समय बलुसु संबमूर्ति पर पुलिस के डंडों की इतनी मार पड़ी कि वे लहू-लुहान हो गए। इसके बाद ये [[1937]] में मद्रास असेम्बली के सदस्य और [[विधान सभा]] के अध्यक्ष चुने गए, जब [[राजगोपालाचारी]] उस समय [[मद्रास]] के [[मुख्यमंत्री]] थे। बलुसु संबमूर्ति ने [[1942]] के 'भारत छोडो आंदोलन' में भी भाग लिया और जेल की सजा भोगी। इसके बाद ये मद्रास चले गये और वही बस गए थे।
 
==निधन==
बाबा रामचंद्र ने [[भारत]] आने पर पहले [[उत्तर प्रदेश]] में [[जौनपुर]] को फिर [[प्रतापगढ़ ज़िला|प्रतापगढ़]] और [[रायबरेली]] को अपना कार्य क्षेत्र बनाया। ये गांव-गांव घूमकर किसानों को विदेशी सरकार के अत्याचारों के विरुद्ध संगठित करते थे। रामायण की कथा के नाम पर वहा लोगो की भीड़ एकत्र होती और बाबा रामचंद्र 'जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, से नृप अवसर नरक अधिकारी' कह कर ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध वातावरण का माहौल बनाते। जिससे इनकी सभाओं में हजारों की भीड़ जमा होती और ये अपनी ऊंची आवाज में लोगों तक अपनी बात पहुंचाने में समर्थ होते थे। एक बार ये किसानों की भीड़ लेकर [[इलाहाबाद]] में [[जवाहरलाल नेहरू]] के पास पहुंचे और उन्हें गांवों में जाकर किसानों की दशा देखने के लिए प्रेरित किया। नेहरू जी ने अपनी आत्मकथा में इसका उल्लेख किया है।
बलुसु संबमूर्ति का 2 फरवरी 1958 को 71 साल की उम्र में मद्रास में निधन हो गया था।
==मृत्यु==
बाबा रामचंद्र ने [[कांग्रेस]] के हर आंदोलन भाग लिया और जेल भी गए। [[1942]] के भारत छोड़ो आंदोलन में वे नैनी जेल में बंद किये गये। 1950 में इनका देहांत हो गया।

11:40, 22 नवम्बर 2016 का अवतरण

बलुसु संबमूर्ति (अंग्रेज़ी:Bulusu Sambamurti, जन्म: 4 मार्च, 1886 गोदावरी ज़िला, आंध्र प्रदेश; मृत्यु: 2 फरवरी 1958) आन्ध्र प्रदेश के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी, वकील और नेता थे।

परिचय

आन्ध्रप्रदेश के प्रमुख स्वाधीनता सेनानी बलुसु संबमूर्ति का जन्म 4 मार्च, 1886 ई. में हुआ था। शिक्षा पूरी करने के बाद वे बारीसाल में वकालत करने लगे।

क्रांतिकारी जीवन

बलुसु संबमूर्ति एक क्रांतिकारी नेता थे। 1920 में उन्होंने गांधी जी के आह्वान पर अपनी वकालत छोड़ दी और आंदोलन में सम्मिलित हो गए। इसके बाद का इनका जीवन बहुत संघर्ष में बीता। फिर ये एनी बीसेंट की होमरूल लीग के सदस्य बने। ये अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी और उसकी कार्यसमिति के भी सदस्य थे। 1923 की काकीनाड़ा कांग्रेस की स्वागत समिति का काम उन्होंने ऐसी स्थितियों में किया जब उनके एकमात्र पुत्र का सप्तास-भर पहले देहांत हो चुका था। साइमन कमीशन के बहिष्कार और नमक सत्याग्रह में भी ये गिरफ्तार हुए। नागपुर के झंडा सत्याग्रह में भी इन्होंने अपने दल के साथ भाग लिया था तथा 1931 के आंदोलन में तिरंगे झंड़े का अभिवादन करते समय बलुसु संबमूर्ति पर पुलिस के डंडों की इतनी मार पड़ी कि वे लहू-लुहान हो गए। इसके बाद ये 1937 में मद्रास असेम्बली के सदस्य और विधान सभा के अध्यक्ष चुने गए, जब राजगोपालाचारी उस समय मद्रास के मुख्यमंत्री थे। बलुसु संबमूर्ति ने 1942 के 'भारत छोडो आंदोलन' में भी भाग लिया और जेल की सजा भोगी। इसके बाद ये मद्रास चले गये और वही बस गए थे।

निधन

बलुसु संबमूर्ति का 2 फरवरी 1958 को 71 साल की उम्र में मद्रास में निधन हो गया था।