"प्रयोग:कविता बघेल": अवतरणों में अंतर

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{{सूचना बक्सा स्वतन्त्रता सेनानी
'''श्वेतकेतु''' की कथा [[उपनिषद]] में मूलत: आती है। एक तत्वज्ञानी आचार्य जिनका उल्लेख शतपथ ब्राह्मण, छान्दोग्य, वृहदारण्यक आदि उपनिषदों में मिलता है। कौशीतकि उपनिषद के अनुसार ये [[गौतम ऋषि]] के वंशज और [[आरुणि]] के पुत्र थे। छांदोग्य में इसको उद्दालक आरुणि का पुत्र बताया गया है। ये [[पांचाल]] देश के निवासी थे और विदेहराज जनक की सभा में भी गए थे। अद्वैत वेदांत के महावाक्य 'तत्वमसि' क, जिसका उल्लेख छांदोग्य उपनिषद में है, उपदेश इन्हें अपने पिता से मिला था। इसके एक प्रश्न के उत्तर में पिता ने कहा था- "तुम एवं इस सृष्टि की सारी चराचर वस्तुएं एक है एवं इन सारी वस्तुओं का तू ही है (तत्त्वमसि)।"
|चित्र=Blankimage.jpg
इन्होंने एक बार ब्राह्मणों के साथ दुर्व्यवहार किया जिससे इनके पिता ने इनका परित्याग कर दिया था। 
|चित्र का नाम=बाबा राघवदास
==समाज सुधारक==
|पूरा नाम=बाबा राघवदास
श्वेतकेतु का समय पाणिनी से पहले माना जाता है। ये देश के प्रथम समाज सुधारक थे। समाज कल्याण की दृष्टि से इन्होंने अनेक नियमों की स्थापना की। एक [[महाभारत]] में आए उल्लेख के अनुसार एक [[ब्राह्मण]] ने इनकी माता का हरण कर लिया था। इसी पर श्वेतेकेतु ने पुरुषों के लिए एक पत्नी व्रत और महिलाओं के लिए प्रतिव्रत का नियम बनाया और परस्त्री गमन पर रोक लगाई।  इन्होंने यह नियम प्रचारित किया कि पति को छोड़कर पर पुरुष के पास जानेवाली स्त्री तथा अपनी पत्नी को छोड़कर दूसरी स्त्री से संबंध कर लेनेवाला पुरुष दोनों ही भ्रूणहत्या के अपराधी माने जाएँ। इनकी कथा महाभारत के आदिपर्व में है और उनके द्वारा प्रचारित यह नियम धर्मशास्त्र में अब तक मान्य है। एक बार अतिथि सत्कार में उद्दालक ने अपनी पत्नी को भी अर्पित कर दिया। इस दूषित प्रथा का विरोध श्वेतकेतु ने किया। वास्तव में कुछ पर्वतीय [[आरण्यक]] लोगों में आदिम जीवन के कुछ अवशेष कहीं-कहीं अब भी चले आ रहे थे, जिनके अनुसार स्त्रियाँ अपने पति के अतिरिक्त अन्य पुरुषों के साथ भी सम्बन्ध कर सकती थीं। इस प्रथा को श्वेतकेतु ने बन्द कराया।  इनका [[विवाह]] देवल श्रषि की कन्या सुवर्चला के साथ हुआ था और अष्टावक्र इनके मामा थे।
|अन्य नाम=राघवेन्द्र
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'''बाबा राघवदास''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Baba Raghavdas'', जन्म: [[2 दिसंबर]], [[1886]], [[महाराष्ट्र]]; मृत्यु: [[15 जनवरी]], [[1958]], [[जबलपुर]]) [[उत्तर प्रदेश]] के प्रसिद्ध जनसेवक तथा संत थे।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=भारतीय चरित कोश|लेखक=लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय'|अनुवादक=|आलोचक=|प्रकाशक=शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली|संकलन= |संपादन=|पृष्ठ संख्या=528|url=}}</ref>ये [[हिन्दी]] के प्रचारक भी थे और इस काम के लिए इन्होंने बरहज आश्रम में राष्ट्र भाषा विद्यालय खोला। बाबा राघवदास ने [[स्वतंत्रता संग्राम]] में भी भाग लिया और इस दौरान इन्हें कई बार जेल की सजाएं भोगी।
==जन्म एवं परिचय==
बाबा राघवदास का जन्म 12 दिसम्बर 1886 को [[पुणे]] (महाराष्ट्र) में एक संभ्रान्त [[ब्राह्मण]] [[परिवार]] में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री शेशप्पा और माता का नाम श्रीमती गीता था। इनके पिता एक नामी व्यवसायी थे। इनके बचपन का नाम राघवेन्द्र था। इन्हें बचपन में ही अपने परिवार से सदा के लिए अलग होना पड़ा क्योंकि [[1891]] के प्लेग में 5 वर्ष के आयु में ही इन्हें छोड़ कर शेष परिवार के अन्य सभी सदस्यों की मृत्यु हो गई थी। आरंभ के कुछ दो वर्ष इन्होंने अपनी विवाहित बहनों की ससुराल में बिताएं  और वहीं थोड़ी-बहुत शिक्षा पाई। इसी बीच ये [[1913]] में 17 वर्ष की अवस्था में एक सिद्ध गुरु की खोज में संत-साहित्य के संपर्क में आए और वैराग्य की भावना लेकर गुरु की खोज में निकल पड़े। ये [[प्रयाग]], [[काशी]] आदि तीर्थों में विचरण करते हुए [[गाजीपुर]] ([[उत्तर प्रदेश]] का एक जनपद) पहुँचे जहाँ इनकी भेंट मौनीबाबा नामक एक संत से हुई। मौनीबाबा ने बाबा राघवदास को हिन्दी सिखाई। गाजीपुर में कुछ समय बिताने के बाद ये बरहज (देवरिया जनपद की एक तहसील) पहुँचे और वहाँ वे एक प्रसिद्ध संत योगीराज अनन्त महाप्रभु से दीक्षा लेकर उनके शिष्य बन गए। और यहीं से बाबा राघवदास के लोगसेवक जीवन का आरंभ हुआ।
 
==लोगसेवक जीवन==
बाबा राघवदास हर संकट में लोगों की सहायता के लिए तत्पर रहते थे। इनका जीवन समाज कल्याण के लिए समर्पित था। ये समाज और लोगो के लिए जिया करते थे। "राजाओं, नवाबों के वंश खत्म हो गए और उन्हें कोई जानता भी नहीं, ऋषि, संतों ने नि:स्वार्थ सेवा की। उन्हें लोग आज भी याद करते हैं।" इसी कड़ी के महामानव थे बाबा राघवदास। ये शरीर से भले ही न हों पर हमारे बीच अपनी कृतियों से आज भी मौजूद हैं। ये [[हिन्दी]] के प्रचारक थे और इस काम के लिए बरहज आश्रम में राष्ट्र भाषा विद्यालय खोला। बाबा राघवदास देवरियाई जनता के कितने प्रिय थे, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि [[1948]] के एम.एल.ए. ([[विधायक]]) के चुनाव में इन्होंने प्रख्यात शिक्षाविद्ध, समाज सुधारक एवं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी [[आचार्य नरेन्द्र देव]] को पराजित किया। बाबा राघवदास ने अपना सारा जीवन जनता की सेवा में समर्पित कर दिया। इन्होंने कई सारे समाजसेवी संस्थानों की स्थापना की और बहुत सारे समाजसेवी कार्यों की अगुआई भी। [[रेल परिवहन|रेल]] यात्रियों को सुविधा दिलाने के लिए बाबा राघवदास ने बड़े प्रयत्न किए और अनेक बार सत्याग्रह भी किया था। [[भूदान आंदोलन]] में ये [[विनोबा भावे|विनोबा]] के साथ गांव-गांव घूमते रहे।
 
==स्वतंत्रता संग्राम में सम्मिलित==
बाबा राघवदास ने स्वतंत्रता संग्राम में भी भाग लिया। जब ये [[1921]] में [[गाँधीजी]] से मिले तो ये स्वतंत्र [[भारत]] का सपना साकार करने के लिए स्वतंत्रता संग्राम में कूद गए तथा साथ ही साथ जनसेवा भी करते रहे। गांधी जी के हर रचनात्मक कार्य में ये अग्रणी थे। 1921 में अपनी [[गोरखपुर]] यात्रा में गांधी जी ने इन्हें 'बाबा राघवदास' कह कर संबोधित किया था। तब से यही इनका नाम हो गया। गांधी जी ने कहा था- "यदि बाबा राघवदास जैसे कुछ संत मुझे और मिल जाएं तो भारत को स्वतंत्र कराना सरल हो जाएगा।" [[स्वतंत्रता संग्राम]] के दौरान इन्हें कई बार जेल की हवा भी खानी पड़ी पर ये कभी विचलित न होते हुए पूर्ण निष्ठा के साथ अपना कर्म करते रहे। [[1931]] में गाँधीजी के [[नमक सत्याग्रह]] को सफल बनाने के लिए राघवबाबा ने क्षेत्र में कई स्थानों पर जनसभाएँ की और जनता को सचेत किया।
==निधन==
[[15 जनवरी]], [[1958]] को [[जबलपुर]] के निकट आयोजित सर्वोदय सम्मेलन के अवसर पर बाबा राघवदास का देहांत हो गया। इनकी स्मृति में पूर्वी उत्तर प्रदेश में अनेक शिक्षा संस्थाओं का नाम उनके नाम पर रखा गया है, जैसे-   
 
बाबा राघवदास मेडिकल कॉलेज, गोरखपुर
 
बाबा राघवदास इण्टर कॉलेज, देवरिया।
 
बाबा राघवदास स्नात्कोत्तर महाविद्यालय, बरहज।
 
 
 
 
 
 
 
 
 
{{सूचना बक्सा साहित्यकार
|चित्र=Rajendralal-Mitra.png
|चित्र का नाम=राजेन्द्रलाल मित्रा
|पूरा नाम=राजेन्द्रलाल मित्रा
|अन्य नाम=
|जन्म=[[16 फ़रवरी]], 1822
|जन्म भूमि=[[कोलकाता]]
|मृत्यु=[[27 जुलाई]], [[1891]]
|मृत्यु स्थान=
|अभिभावक=
|पालक माता-पिता=
|पति/पत्नी=
|संतान=
|कर्म भूमि=
|कर्म-क्षेत्र=
|मुख्य रचनाएँ=उड़ीसा का पुरातत्व, बोध गया, शाक्य मुनि।
|विषय=
|भाषा=
|विद्यालय=
|शिक्षा=
|पुरस्कार-उपाधि='रायबहादुर' और 'राजा' [[1888]]
|प्रसिद्धि=
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|पाठ 2=
|अन्य जानकारी=राजेन्द्रलाल मित्रा अपनी कार्यवाही जीवन की पूरी अवधि में भारतीय वांङ्मय की खोज और उसे पाठकों के लिए उपलब्ध कराने में लगे रहे।
|बाहरी कड़ियाँ=
|अद्यतन=
}}
'''राजेन्द्रलाल मित्रा''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Rajendralal Mitra'' ,जन्म: [[16 फ़रवरी]], 1822, [[कोलकाता]]; मृत्यु: [[27 जुलाई]], [[1891]]) भारत विद्या से संबंधित विषयों के प्रख्मात विद्वान थे।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=भारतीय चरित कोश|लेखक=लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय'|अनुवादक=|आलोचक=|प्रकाशक=शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली|संकलन= |संपादन=|पृष्ठ संख्या=714|url=}}</ref>इन्होंने [[संस्कृत]], [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]], [[बंगला भाषा|बंगला]] और [[अंग्रेजी भाषा|अंग्रेजी]] भाषाओं में दक्षता-प्राप्त की थी। इन्होंने अनेक ग्रंथ एवं रचनाओं का संपादन किया है। राजेन्द्रलाल मित्रा 25 वर्ष तक 'वाड़िया इंस्टीट्यूट' के निदेशक रहे हैं।
==जन्म एवं शिक्षा==
राजा राजेन्द्रलाल मित्रा का जन्म 16 फरवरी, 1822 ई. में कोलकाता में हुआ था। इनकी शिक्षा में बड़ी बाधाएं आईं। 15 वर्ष की उम्र में मेडिकल कॉलेज में भर्ती हुए। वहां चार वर्ष की पढ़ाई में अपनी योग्यता से बड़ी ख्याति अर्जित की, पर कुछ कारणों से डिग्री नहीं ले सके। फिर इन्होंने कानून की पढ़ाई आरंभ की, पर पर्चे आउट हो जाने की सूचना से यहां भी परीक्षा नहीं हो सकी। लेकिन अपने अध्यवसाय से इन्होंने [[संस्कृत]], [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]], [[बंगला भाषा|बंगला]] और [[अंग्रेजी भाषा|अंग्रेजी]] भाषाओं में दक्षता-प्राप्त की और 1849 में प्रसिद्ध संस्था 'एशियाटिक सोसायटी' के सहायक मंत्री बन गए। यहां पर पुस्तकों और पांड्डलिपियों का भंडार इनके अध्ययन के लिए खुल गया। 10 वर्ष सोसायटी में रहने के बाद 25 वर्ष तक वे 'वाड़िया इंस्टीट्यूट' के निदेशक रहे। फिर भी सोसायटी से इनका संपर्क बना रहा।
==लेखन कार्य==
राजेन्द्रलाल मित्रा अपनी कार्यवाही जीवन की पूरी अवधि में भारतीय वांङ्मय की खोज और उसे पाठकों के लिए उपलब्ध कराने में लगे रहे। इन्होंने सोसायटी पांड्डलिपियों की सूचियां प्रकाशित कीं और विभिन्न विषयों के मानक ग्रंथों की रचना की। इनके कुछ उल्लेखनीय ग्रंथ हैं-
 
छांदोग्य उपनिषद
 
तैत्तरीय ब्राह्मण' और 'आरण्यक
 
गोपथ ब्राह्मण
 
ऐतरेय आरण्यक
 
पातंजलि का योगसूत्र
 
अग्निपुराण
 
वायुपुराण
 
बौद्ध ग्रंथ ललित विस्तार
 
अष्टसहसिक
 
उड़ीसा का पुरातत्व
 
बोध गया
 
शाक्य मुनि
 
====सम्पादन कार्य====
राजेन्द्रलाल मित्रा अनेक संस्थाओं के सम्मानित सदस्य थे। [[1885]] में ये 'एशियाटिक सोसायटी' के सध्यक्ष रहे। [[1886]] की कोलकाता कांग्रेस में इन्होंने अपने विचार प्रकट किए थे। 'विविधार्थ' और 'रहस्य संदर्भ' नामक पत्रों का संपादन किया।
==इतिहासवेत्ता==
राजेन्द्रलाल मित्रा निष्ठावान बुद्धिजीवी और सच्चे अर्थों में इतिहास वेत्ता थे। इनका कहना था कि- "यदि राष्ट्रप्रेम का यह अर्थ लिया जाए कि हमारे अतीत का अच्छा या बुरा जो कुछ है, उससे हमें प्रेम करना चाहिए, तो ऐसी राष्ट्रभक्ति को मैं दूर से ही प्रणम करता हूँ।" इनकी योग्यता के कारण सरकार ने पहले उन्हें 'रायबहादुर' और [[1888]] में 'राजा' की उपाधि दे कर सम्मानित किया था।
==मृत्यु==
राजेन्द्रलाल मित्रा का निधन [[27 जुलाई]], [[1891]] को हुआ।

12:01, 7 दिसम्बर 2016 का अवतरण

श्वेतकेतु की कथा उपनिषद में मूलत: आती है। एक तत्वज्ञानी आचार्य जिनका उल्लेख शतपथ ब्राह्मण, छान्दोग्य, वृहदारण्यक आदि उपनिषदों में मिलता है। कौशीतकि उपनिषद के अनुसार ये गौतम ऋषि के वंशज और आरुणि के पुत्र थे। छांदोग्य में इसको उद्दालक आरुणि का पुत्र बताया गया है। ये पांचाल देश के निवासी थे और विदेहराज जनक की सभा में भी गए थे। अद्वैत वेदांत के महावाक्य 'तत्वमसि' क, जिसका उल्लेख छांदोग्य उपनिषद में है, उपदेश इन्हें अपने पिता से मिला था। इसके एक प्रश्न के उत्तर में पिता ने कहा था- "तुम एवं इस सृष्टि की सारी चराचर वस्तुएं एक है एवं इन सारी वस्तुओं का तू ही है (तत्त्वमसि)।" इन्होंने एक बार ब्राह्मणों के साथ दुर्व्यवहार किया जिससे इनके पिता ने इनका परित्याग कर दिया था।

समाज सुधारक

श्वेतकेतु का समय पाणिनी से पहले माना जाता है। ये देश के प्रथम समाज सुधारक थे। समाज कल्याण की दृष्टि से इन्होंने अनेक नियमों की स्थापना की। एक महाभारत में आए उल्लेख के अनुसार एक ब्राह्मण ने इनकी माता का हरण कर लिया था। इसी पर श्वेतेकेतु ने पुरुषों के लिए एक पत्नी व्रत और महिलाओं के लिए प्रतिव्रत का नियम बनाया और परस्त्री गमन पर रोक लगाई। इन्होंने यह नियम प्रचारित किया कि पति को छोड़कर पर पुरुष के पास जानेवाली स्त्री तथा अपनी पत्नी को छोड़कर दूसरी स्त्री से संबंध कर लेनेवाला पुरुष दोनों ही भ्रूणहत्या के अपराधी माने जाएँ। इनकी कथा महाभारत के आदिपर्व में है और उनके द्वारा प्रचारित यह नियम धर्मशास्त्र में अब तक मान्य है। एक बार अतिथि सत्कार में उद्दालक ने अपनी पत्नी को भी अर्पित कर दिया। इस दूषित प्रथा का विरोध श्वेतकेतु ने किया। वास्तव में कुछ पर्वतीय आरण्यक लोगों में आदिम जीवन के कुछ अवशेष कहीं-कहीं अब भी चले आ रहे थे, जिनके अनुसार स्त्रियाँ अपने पति के अतिरिक्त अन्य पुरुषों के साथ भी सम्बन्ध कर सकती थीं। इस प्रथा को श्वेतकेतु ने बन्द कराया। इनका विवाह देवल श्रषि की कन्या सुवर्चला के साथ हुआ था और अष्टावक्र इनके मामा थे।