गौतम जिन्हें 'अक्षपाद गौतम' के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त है, 'न्याय दर्शन' के प्रथम प्रवक्ता माने जाते हैं। इनकी पत्नी का नाम अहल्या और पुत्र तथा पुत्री के नाम क्रमश: शतानन्द व विजया थे। अक्षपाद गौतम ने 'न्याय दर्शन' का निर्माण तो शायद नहीं किया, पर यह कहा जा सकता है कि न्याय दर्शन का सूत्रबद्ध, व्यवस्थित रूप अक्षपाद के 'न्यायसूत्र' में ही पहली बार मिलता है। महर्षि गौतम परम तपस्वी एवं संयमी थे। महाराज वृद्धाश्व की पुत्री अहिल्या इनकी पत्नी थी, जो महर्षि के शाप से पाषाण बन गयी थी। त्रेता युग में भगवान श्रीराम की चरण-रज से अहिल्या का शापमोचन हुआ, जिससे वह पाषाण से पुन: ऋषि पत्नी बनी।
धनुर्धर तथा स्मृतिकार
महर्षि गौतम बाण विद्या में अत्यन्त निपुण थे। जब वे अपनी बाणविद्या का प्रदर्शन करते और बाण चलाते तो देवी अहिल्या बाणों को उठाकर लाती थी। एक बार वे देर से लौटीं। ज्येष्ठ की धूप में उनके चरण तप्त हो गये थे। विश्राम के लिये वे वृक्ष की छाया में बैठ गयी थीं। महर्षि ने सूर्य देवता पर रोष किया। सूर्य ने ब्राह्मण के वेष में महर्षि को छात्ता और पादत्राण (जूता) निवेदित किया। उष्णता निवारक ये दोनों उपकरण उसी समय से प्रचलित हुए। महर्षि गौतम न्यायशास्त्र के अतिरिक्त स्मृतिकार भी थे तथा उनका धनुर्वेद पर भी कोई ग्रन्थ था, ऐसा विद्वानों का मत है। उनके पुत्र शतानन्द निमि कुल के आचार्य थे। गौतम ने गंगा की आराधना करके पाप से मुक्ति प्राप्त की थी। गौतम तथा मुनियों को गंगा ने पूर्ण पतित्र किया था, जिससे वह 'गौतमी' कहलायीं। गौतमी नदी के किनारे त्र्यंबकम् शिवलिंग की स्थापना की गई, क्योंकि इसी शर्त पर वह वहाँ ठहरने के लिए तैयार हुई थीं।
न्याय दर्शन में गौतम
उपलब्ध न्याय दर्शन के आदि प्रवर्तक महर्षि गौतम हैं। यही 'अक्षपाद' नाम से भी प्रसिद्ध हैं। उन्होंने उपलब्ध न्यायसूत्रों का प्रणयन किया तथा इस आन्वीक्षिकी को क्रमबद्ध कर शास्त्र के रूप में प्रतिष्ठापित किया। न्यायवार्त्तिककार उद्योतकराचार्य ने इनको इस शास्त्र का कर्ता नहीं वक्ता कहा है-
यदक्षपाद: प्रवरो मुनीनां शमाय शास्त्रं जगतो जगाद।[1]
अत: वेद विद्या की तरह इस आन्वीक्षिकी को भी विश्वस्रष्टा का ही अनुग्रहदान मानना चाहिए। महर्षि अक्षपाद से पहले भी यह विद्या अवश्य रही होगी। इन्होंने तो सूत्रों में बाँधकर इसे सुव्यवस्थित, क्रमबद्ध एवं पूर्णांग करने का सफल प्रयास किया है। इससे शास्त्र का एक परिनिष्ठित स्वरूप प्रकाश में आया और चिन्तन की धारा अपनी गति एवं पद्धति से आगे की ओर उन्मुख होकर बढ़ने लगी। वात्स्यायन ने भी न्यायभाष्य के उपसंहार में कहा है कि ऋषि अक्षपाद को यह विद्या प्रतिभात हुई थी-
योऽक्षपादमृर्षि न्याय: प्रत्यभाद् वदतां वरम्।
न्यायसूत्रों के परिसीमन से भी ज्ञात होता है कि इस शास्त्र की पृष्ठभूमि में अवश्य ही चिरकाल की गवेषणा तथा अनेक विशिष्ट नैय्यायिकों का योगदान रहा होगा। अन्यथा न्यायसूत्र इतने परिष्कृत एवं परिपूर्ण नहीं रहते। चतुर्थ अध्याय में सूत्रकार ने प्रावादुकों के मतों का उठाकर संयुक्तिक खण्डन किया है तथा अपने सिद्धान्तों की प्रतिष्ठा की है। इससे प्रतीत होता है कि उनके समक्ष अनेक दार्शनिकों के विचार अवश्य उपलब्ध थे। महाभारत में भी इसकी पुष्टि देखी जाती है। वहाँ कहा गया है कि न्यायदर्शन अनेक हैं। उनमें से हेतु, आगम और सदाचार के अनुकूल न्यायशास्त्र पारिग्राह्य है-
न्यायतन्त्राण्यनेकानि तैस्तैरुक्तानि वादिभि:।
हेत्वागमसदाचरैर्यद् युक्तं तत्प्रगृह्यताम्॥[2]
महाभारत में उल्लेख
महाभारत के अध्ययन से विदित होता है कि गौतमीय न्याय दर्शन के सिद्धान्त उस समय के विद्वत्समाज में अधिक प्रचलित थे। उस समय के प्रमुख राष्ट्रहित चिन्तक देवर्षि नारद को पंचाव्यवयुक्त न्यायवाक्य का ज्ञाता कहा गया है। यद्यपि न्याय का दशावयववाद भी कभी प्रसिद्ध रहा होगा, जो परवर्तीकाल में किसी एक देशीय नैय्यायिक की परम्परा में सुरक्षित रहा, किन्तु महर्षि गौतम को वह मान्य नहीं था। अत: उसका उल्लेख एवं खण्डन 'न्यायभाष्य' में देखा जाता है। महाभारत में इस दशावयववाद का संकेत नहीं मिलता है। साथ ही महाभारत में अनेक स्थलों पर पंचावयव न्यायवाक्य का उल्लेख हुआ है। शान्तिपर्व में महर्षि व्यास ने युधिष्ठिर को उपदेश देते हुए कहा है कि प्रत्यक्ष आदि प्रमाण तथा प्रतिज्ञा आदि पञ्चावयव न्यायवाक्य प्रमेय की सिद्धि के लिए प्रयोजनीय है। ये अनेक वर्गों की सिद्धि के साधन हैं। इनमें भी प्रत्यक्ष और अनुमान निर्णय के प्रमुख आधार के रूप में स्वीकृत हैं।
प्रत्यक्षमनुमानं च उपमानं तथागम:।
प्रतिज्ञा चैव हेतुश्च दृष्टान्तोपनयौ तथा।
उक्तं निगमनं तेषां प्रमेयञ्च प्रयोजनम्।
एतानि साधनान्याहुर्वहुवर्गप्रसिद्धये॥
प्रत्यक्षमनुमानं च सर्वेषां योनिरिष्यते।[3]
आदिपर्व में वर्णित है कि कण्व ऋषि के आश्रम में अनेक नैयायिक रहा रकते थे, जो न्यायतत्त्वों के कार्यकारणभाव, कथासम्बन्धी स्थापना, आक्षेप और सिद्धान्त आदि के ज्ञाता थे।[4] युधिष्ठिर के अश्वमेध यज्ञ में नैय्यायिकगण उपस्थित थे, जो परस्पर विजय की इच्छा रखते थे।
तस्मिन् यज्ञे प्रवृत्ते तु वाग्मिनो हेतुवादिन:।
हेतुवादान् बहूनाहु: परस्परजिगीषव:॥[5]
न्याय दर्शन मोक्षावस्था में धर्म तथा अधर्म आदि आत्मविशेष गुणों का उपरम स्वीकार करता है। इसका संकेत महाभारत में मिलता है-
अपुण्यपुण्योपरमे यं पुनर्भवनिर्भया:।
शान्ता: सन्न्यासिनो यान्ति तस्मै मोक्षात्मने नम:॥ [6]
न्यायभाष्य के हेय, हान, उपाय और अधिगन्तव्य रूप चार प्रसिद्ध अर्थतत्त्व महाभारत में स्पष्टत: निर्दिष्ट हैं-
दु:खं विद्यादुपादानादभिमानाच्च वर्धते।
त्यागात्तेभ्यो निरोध: स्यात् निरोधज्ञो विमुच्यते॥[7]
महाराज युधिष्ठिर को राजधर्म का उपदेश देते समय पितामह भीष्म ने कहा है कि प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान तथा आगम रूप न्यायदर्शन के प्रसिद्ध प्रमाणों से परीक्षित कर अपने तथा पराये की पहचान रखना आवश्यक है।
प्रत्यक्षेणानुमानेन तथोपम्यागमैरपि।
परीक्ष्यास्ते महाराज स्वे परे चैव नित्यश:॥[8]
इससे प्रतीत होता है कि न्यायविद्या चिरकाल से ही दृढ़मूल की तरह विशाल और वैविध्यपूर्ण रही है, जो वेद, पुराण, स्मृति तथा महाभारत आदि प्राचीन ग्रन्थों में विकीर्ण है। न्यायसूत्रकार महर्षि गौतम के समक्ष सुदृढ आधारशिला की तरह न्याय दर्शन के अनेक प्रसिद्ध सिद्धान्त उपलब्ध थे। इनमें से युक्तिसंगत सिद्धान्तों का चयन कर उसे शास्त्र रूप में प्रतिष्ठित करने के श्रेयस का लाभ इन्होंने किया। फलस्वरूप आज हम लोगों को पूर्णांग, सुव्यवस्थित और क्रमबद्ध न्यायदर्शन उपलब्ध है।
न्यायसूत्र के रचयिता
चरक संहिता के विमान स्थान में संभाषा विधि की चर्चा आती है, और उसमें वादमार्ग ज्ञान के लिए जानने लायक़ तत्वों की जो सूची मिलती है, वही सूची गौतम के सोलह पदार्थों के लिए आधारभूत थी, ऐसा तर्क किया जा सकता है। सतीश चन्द्र विद्याभूषण के मत में 'चरकसंहिता' में मिलने वाला न्याय दर्शन मेधातिथि गौतम द्वारा प्रतिपादित न्याय दर्शन है। उनके मत में अक्षपाद से पहले न्याय दर्शन के रचयिता, मेधातिथि गौतम हुए थे, जिनका उल्लेख महाभारत, भासकृत प्रतिभानाटक जैसे ग्रन्थों में मिलता है। विद्याभूषण के अनुसार अक्षपाद गौतम ने ही न्याय दर्शन को वह रूप दिया, जिस रूप में न्याय दर्शन आज उपलब्ध है। आधुनिक पंडित कहने लगे हैं कि न्यायसूत्र का कोई एक कर्ता नहीं है, बल्कि न्यायसूत्र कई भागों में विकसित हुआ, जिनमें से पहले कुछ की रचना ईसा पूर्व है। आज न्यायसूत्र का जो रूप दिखाई देता है, उसका पूर्ण रूप दूसरी सदी में सम्पन्न हुआ। जी. ओबर हैमर का कहना है कि न्यायसूत्र के पहले और आखिरी (पांचवें) अध्याय का काल बहुत ही प्राचीन है। उसके मत में तीसरे और चौथे अध्याय किसी दूसरी कृति से लिए गए थे, और चौथी सदी के बाद वे बाकी अध्यायों के साथ जोड़ दिये गए।
न्याय दर्शन के पदार्थ
एक बात निश्चित है कि अक्षपाद के नाम से प्रचलित न्यायसूत्र न केवल प्राचीन नैयायिकों के लिए, बल्कि नव्य नैयायिकों के लिए भी एक प्रमाणभूत ग्रन्थ रहा। यद्यपि न्याय दर्शन एक परिवर्तनशील दर्शन प्रतीत होता है, तथापि हर एक नैयायिक अक्षपाद गौतम को आप्त (यथार्थवक्ता) के रूप में देखता है और उनके वचनों को कभी अपनी मती के तो कभी प्रचलित न्याय परम्परा के अनुसार स्पष्टीकरण और समर्थन करने का प्रयास करना है। गौतम के न्याय दर्शन का प्रधान प्रतिपाद्य विषय प्रमाण और बाद है। इसीलिए गौतम का न्याय दर्शन मुख्यत: प्रणालीशास्त्र है। उसे मूलत: सत्ता शास्त्र कहना कठिन है। गौतम इस बात का ध्यान भी ज़रूर रखते हैं कि प्रमाण और वाद तत्वज्ञान के साधनमात्र हैं। 'पदार्थों' का अच्छी तरह से ज्ञान होने से मनुष्य मोक्ष के लायक़ बन सकता है, और 'पदार्थों' के ज्ञान के लिए प्रमाण और वाद साधन हैं, जिनका ज्ञान न्याय दर्शन का प्रमुख क्षेत्र है।
गौतम के न्याय दर्शन के सोलह पदार्थ इस प्रकार हैं- प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धांत, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति, निग्रह स्थान।
अध्याय संख्या
गौतम के न्यायसूत्र के पांच अध्याय हैं। पहले अध्याय में गौतम ने सोलह पदार्थों की सूची देते हुए उनके लक्षण तथा कुछ स्थूल प्रकार दिए हैं। दूसरे अध्याय में गौतम ने संशय और प्रमाण की विशेष परीक्षा की है। तीसरे और चौथे अध्याय में प्रमेयों का विशेष विवेचन किया है। पांचवें अध्याय में गौतम ने जाति और निग्रह स्थान का सविस्तार वर्गीकरण किया है। इससे मालूम होता है कि यद्यपि गौतम ने सोलह पदार्थों का लक्षण तथा वर्गीकरण किया है, तथापि प्रमाण, प्रमेय तथा संशय, इन तीन पदार्थों को उन्होंने विशेष परीक्षा की है। प्रमेयों का विवेचन गौतम ने बड़े विस्तार से किया है और यह करते समय समकालीन सत्ताशास्त्रीय सिद्धांतों की चर्चा भी गौतम ने की है। इस विवेचन में जिन मतों का खंडन मिलता है, उसमें चार्वाकों का देहात्मक, सांख्यों का परिणामवाद, अभावकारणवाद[9], ईश्वर कारणवाद 'सब कुछ अनित्य है' अभ्युपगम[10], 'सब कुछ नित्य है' यह अभ्युपगम, जो ब्रह्मवाद के नजदीक आता है, 'सब कुछ पृथक् है' यह अभ्युपगम, जो 'सब कुछ स्वलक्षण है' इस बौद्धमत से सामर्थ्य रखता है, इत्यादि बहुत से सिद्धांत हैं। इसमें यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि बौद्ध दर्शन में पाये जाने वाले अनेक विचार गौतम ने पूर्वपक्ष के रूप में प्रस्तुत किए हैं। गौतम ने मिथ्या ज्ञान की निवृत्ति और अपवर्ग में जो कारण-कार्य संबंध बताया है[11] वह बुद्ध के प्रतीत्यसमुत्पाद के सिद्धांत का आंशिक अनुकरण मालूम होती है। इस सब निर्देशों से प्रतीत होता है कि अक्षपाद गौतम बुद्ध के पश्चातवर्ती थे और अंशत: बौद्ध विचारों से प्रभावित थे।
ईश्वरकारणवाद का खंडन
परम्परा में माना गया है कि गौतम ने अभाव से भाव की उत्पत्ति होने का जो सिद्धांत पूर्वपक्ष के रूप में लिया है, वह बौद्धों का शून्यवाद है। गौतम की प्रमेय परीक्षा में और एक बात पर प्रकाश पड़ता है। परम्परा में माना जाता है कि न्याय दर्शन शुरू से ईश्वरनिष्ठ दर्शन है। लेकिन इस प्रमेय परीक्षा में गौतम ईश्वरकारणवाद का खंडन करते हुए नज़र आते हैं। टीकाकारों ने इस ईश्वर खंडन का स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि गौतम ने वेदान्तियों के इस सिद्धांत का खंडन किया है कि ईश्वर जगत् का उपादान करण है। लेकिन ईश्वर जगत् का निमित्त कारण है, इस मत का गौतम ने समर्थन ही किया है। पर जिस सूत्र का आधार ये टीकाकार लेते हैं, उसका अर्थ निमित्त कारण ईश्वर के अनुकूल लगाना और प्रकृत संदर्भ में उसकी संतोषजनक उत्पत्ति देना कठिन है। गौतम ईश्वरवादी नहीं थे, यह सिद्ध करने के लिए दूसरा भी आधार मिलता है। गौतम के मत में अपवर्ग प्राप्ति के लिए जिन पदार्थों का ज्ञान आवश्यक था, उन पदार्थों का समावेश गौतम ने 'प्रमेय' तत्त्व में किया था। उन प्रमेयों की सूची में पहला ही प्रमेय आत्मा है। गौतम ने आत्मा का जो विवरण दिया है, उससे स्पष्ट है कि गौतम का उल्लिखित आत्मा 'जीवात्मा' ही था। गौतम की प्रमेय सूची में 'परमात्मा' का कोई स्थान नहीं है। अगर गौतम ईश्वरवादी होते तो उन्होंने प्रमेयों की सूची में ईश्वर को विशेष स्थान दिया होता। भासर्वज्ञ नामक पश्चातवर्ती नैयायिक के 'न्यायसार' में हम देख सकते हैं कि वहाँ ईश्वर ही सबसे अधिक महत्त्व रखने वाला प्रमेय माना गया है।
तत्वज्ञान की प्राप्ति
गौतम के अनुसार तत्वज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रमाणों का सहारा लेना आवश्यक है तथा तत्वज्ञान का संरक्षण तथा संवर्धन करने के लिए वाद पद्धति का सहाय्य ज़रूरी है। गौतम कहते हैं कि जिस प्रकार बगीचे को पशुओं से तथा चोरों से बचाने के लिए उसकी सीमाओं पर कांटें बिखेरने पड़ते हैं, उसी प्रकार अल्प, वितण्डा आदि वाद प्रकारों का बुरे होते हुए भी तत्वनिश्चय का रक्षण करने के लिए इस्तेमाल करना पड़ता है। नैयायिकों को चाहिए कि वे उनका इस्तेमाल जब कभी ज़रूरत हो करें।
यथार्थ ज्ञान के साधन
गौतम के अनुसार प्रमाण, यथार्थ ज्ञान के चार साधन हैं-
- प्रत्यक्ष प्रमाण
- अनुमान प्रमाण
- उपमान प्रमाण
- शब्द प्रमाण
प्रत्यक्ष प्रमाण
इन्द्रियों का विषय के साथ संबंध होने पर जो ज्ञान मिलता है, जो शब्दात्मक नहीं होता, तथा जो बाद में खंडित या बाधित न होने वाला निश्चयात्मक ज्ञान होता है, वही प्रत्यक्ष है। गौतम ने, प्रमा-यथार्थ अनुभव और प्रमाण, उस यथार्थ अनुभव का कारण याने साधन, इनमें अन्तर नहीं किया, इसीलिए उन्होंने प्रत्यक्ष प्रमाण को ही प्रत्यक्ष प्रमाण कर दिया है। पश्चातवर्ती नैयायिकों ने प्रमा और प्रमाण में होने वाला अन्तर स्पष्ट किया। जयंतभट्ट ने अपनी 'न्यायमंजरी' में दिखाया है कि प्रत्यक्ष प्रमाण के इस गौतमकृत लक्षण में 'खंडित न होने वाला निश्चयात्मक ज्ञान'[12] यह वर्णन सब प्रमाणों को समान रूप से लागू होता है।
अनुमान प्रमाण
प्रत्यक्ष के बाद गौतम ने अनुमान का वर्णन किया है। गौतम ने अनुमान का 'लक्षण' नहीं दिया। अनुमान 'प्रत्यक्षपूर्वक' ज्ञान है। लेकिन प्रत्यक्षपूर्वकत्व तो उपमान और शब्द प्रमाण में भी समान है। इसलिए गौतम के किये हुए अनुमान के वर्गीकरण के आधार पर अनुमान का अन्य प्रमाणों से भेद करने की कोशिश न्यायसूत्र के टीकाकारों ने की है। गौतम के अनुसार अनुमान तीन प्रकार का है- पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट। इस वर्गीकरण का निश्चित अर्थ बताने में वास्त्यायन, उद्योतकर आदि असफल रहे हैं। लेकिन सांख्यकारिका की गौडपादकृत टीका तथा दिङनागपूर्व बौद्ध तर्कग्रन्थों में पाये जाने वाले उल्लेखों के आधार पर हम इस वर्गीकरण का अर्थ स्थूल रूप में इस प्रकार बता सकते हैं-
- जिसमें पूर्वकालीन उदाहरणों के आधार पर वर्तमानकालीन या भविष्यकालीन साध्य सिद्ध किया जाता है, वह पूर्ववत् अनुमान है। जैसे कि आसमान में बादल घिरे हुए देखकर हम अनुमान लगाते हैं कि अब बारिश होगी। या धूम और अग्नि का हमेशा साथ रहना हमने देखा है, इससे हम वर्तमान में देखे गए धूम के बारे में अनुमान लगाते हैं कि यह धूम भी किसी अग्नि से उत्पन्न हुआ है।
- जिसमें वर्तमान वस्तु स्थिति का ही एकदेश देखकर उसके अवशिष्ट देश के सम्बन्ध में अनुमान किया जाता है, वह शेषवत् अनुमान है। जैसे कि समुद्र की एक बूँद चखकर समुद्र का सारा पानी खारा है, ऐसा अनुमान।
- जिस अनुमान में दिये जाने वाले प्रत्यक्ष दृष्ट उदाहरण साध्य के साक्षात् उदाहरण नहीं है, साध्य की जाति के नहीं हैं, बल्कि साध्य के सदृश हैं, वह अनुमान सामान्य यानी सादृश्य पर आधारित होने के कारण सामान्यतोदृष्ट कहलाता है, बल्कि साध्य का दर्शन सादृश्य के माध्यम से ही हो सकता है। जैसे कि चंद्र की गति हम प्रत्यक्षत: नहीं देख सकते, लेकिन चंद्र अपना स्थान बदलता है, इतना हम देख सकते हैं। इस स्थानान्तरण से हम अनुमान लगाते हैं कि चंद्र ज़रूर गतिमान है। उसी प्रकार ज्ञानेन्द्रियों का प्रत्यक्ष ज्ञान हमें कभी नहीं होता है, बल्कि दूसरे क्रियासाधकों के साथ सादृश्य जानकर ज्ञान साधन के रूप में हम सिर्फ़ उनका अनुमान ही कर सकते हैं।
उपमान प्रमाण
तीसरा उपमान प्रमाण है। उपमान किसी अप्रसिद्ध वस्तु की ऐसी जानकारी है, जो प्रसिद्ध वस्तु के साथ उसका साधर्म्य जानकर होती है। जैसे हमें अगर गवय नामक प्राणी की जानकारी न हो और हमें किसी सत्य वक्ता ने बताया हो कि गवय बैल होता है, तो उसके बताए हुए सादृश्य के आधार पर हम गवय को पहचान सकते हैं। चौथा शब्द प्रमाण है, जो आप्त (यथार्थवक्ता) का वचन है।
शब्द प्रमाण
आत्मा, शरीर, इन्द्रिय, (पंच ज्ञानेन्द्रिय), अर्थ (रूपरसगन्धस्पर्शशब्द) बुद्धि (ज्ञान), मनस, प्रवृत्ति, दोष, प्रेत्यभाव (मरणोत्तर अस्तित्व) फल, दु:ख और अपवर्ग (मोक्ष) यह बारह प्रमेय हैं। इनके स्वरूप का ज्ञान अपवर्ग के लिए उपयोगी है। गौतम मानते हैं कि अपवर्ग के लिए सर्वप्रथम मिथ्या ज्ञान का नाश होना चाहिए। उसी से काम, क्रोधादि दोषों का नाश हो सकता है। उससे कर्म के प्रति प्रवृत्ति का नाश होगा तथा प्रवृत्ति नाश से ही पुनर्जन्म श्रृंखला खंडित होगी। पुनर्जन्म श्रृंखला खंडित होने से ही दु:ख का नाश होगा और दु:ख नाश ही अपवर्ग का स्वरूप है। इसीलिए यह स्वाभाविक ही है कि दु:ख, जन्म (प्रत्यभाव), प्रवृत्ति, दोष, ज्ञान तथा अपवर्ग और इनके आश्रयभूत द्रव्य आत्मा, शरीर, इन्द्रिए, अर्थ और मनस के स्वरूप के बारे में मिथ्या ज्ञान नष्ट हो, क्योंकि यथार्थ ज्ञान होना अपवर्ग के लिए अत्यावश्यक है। इस प्रकार गौतम के प्रमेयों की सूची उनके द्वारा प्रतिपादित मोक्ष मार्ग से ताल्लुक रखती है।
जब किसी वस्तु में किसी अन्य वस्तु के अनेक समान धर्म दिखाई देते हैं, जैसे- खम्भे में ऊँचाई, कालापान आदि जो किसी मनुष्य में भी दिखाई देते हैं, लेकिन जिनके आधार पर भेद किया जा सके, ऐसे विशेष धर्म स्पष्ट नहीं दिखाई देते, तब संशय पैदा होता है, जैसे- खम्भे के बारे में यह खम्भा है, ऐसा निश्चय न हो, बल्कि खम्भापन और मनुष्यत्व इन दोनों विशेष धर्मों का स्मरण हो, तब दोनों विशेष धर्मों में से कौन-सा विशेष धर्म है, आगे आने वाली वस्तु खम्भा है या मनुष्य, ऐसा संशय हो सकता है। न्याय दर्शन में संशय का बड़ा महत्व है। प्राचन नैयायिकों ने कहा है कि संशय ही न्याय का द्वार है।
सिद्धांत के प्रकार
जिस उद्देश्य से कोई प्राणी प्रवृत्त होता है, वह प्रयोजन है। जिसके बारे में सामान्य जन तथा परीक्षक दोनों की सहमति होती है, वह दृष्टांत कहलाता है। सिद्धांत चार प्रकार का होता है-
- सर्वतंत्र - यह सब शास्त्रकारों को मान्य है।
- प्रतितंत्र - यह थोड़े ही शास्त्रकारों को मान्य है।
- अधिकरण- जिसके आधार पर दूसरे सिद्धांत सिद्ध किए जाते हैं।
- अभ्युपगम - जो किसी दूसरे सिद्धांत की सिद्धि के लिए थोड़ी देर के लिए स्वीकृत किया जाता है।
न्याय में अवयव एक विशेष तत्व है। अवयव का अर्थ है, अनुमान के घटक, जब कोई व्यक्ति किसी हेतु पर आधारित अनुमान का प्रयोग करता है, तब उसे एक विशिष्ट आकार में ही प्रस्तुत करना चाहिए, ऐसा तार्किक मानते हैं। वह उचित आकार क्या है, इसके बारे में दार्शनिकों में मतभेद हैं। गौतम के और बाद में हुए वैशेषिकों के अनुसार यह आकार पांच घटकों स बनता है- प्रतिज्ञा (साध्य का कथन), हेतु (हेतु या साधन का कथन), दृष्टांत (उदाहरण), उपनय (दृष्टांत और साध्य में अपेक्षित साधर्म्य या वैधर्म्य का प्रदर्शनश) और निगमन (निष्कर्ष का प्रतिपादन)। कारणोत्पत्ति के (कार्यकारण भाव के) आधार पर तत्व निश्चिति की दिशा में जो विचार किया जाता है वह विचार तर्क है। पक्ष और प्रतिपक्ष का विचार करते हुए जो पदार्थ का निश्चय किया जाता है, वही निर्णय है।
संभाषा का वर्गीकरण
चरकसंहिता में संभाषा का (चर्चा, बहस) वर्गीकरण दो प्रकारों में किया गया था-
- संधायसंभाषा - जब दो वादी एक दूसरे का पराभव करने की और खुद विजय पाने की इच्छा नहीं रखते हैं, बल्कि ज्ञान पाने के लिए चर्चा करते हैं, तब वह चर्चा संधायसंभाषा कहलाती है।
- विगृह्यसंभाषा - जब बहस में प्रतिपक्ष को पराजित करने की इच्छा रहती है, तब वह बहस विगृह्यसंभाषा कहलाती है।
गौतम ने न्यायसूत्र में संधायसंभाषा का ही उल्लेख 'वाद' नाम से किया तथा जिसे चरक ने विगृह्यसंभाषा कहा, उसी का वर्गीकरण जल्प और वितण्डा में किया। जल्प और वितण्डा में अन्तर यह है कि जल्प करने वाला अपना पक्ष स्थापन करते हुए प्रतिपक्ष का खंडन करने का प्रयास करता है। वितण्डा करने वाला भी प्रतिपक्ष का खंडन करने का यत्न ज़रूर करता है, लेकिन अपना कोई पक्ष स्थापित नहीं करता। पाश्चात्य दर्शनों में जिसे संशयवाद (स्केप्टिसिज़्म) के नाम से जाना जाता है, उसका व्यवहार वितण्डा का अनुपम उदाहरण है।
हेत्वाभास
अनुमानों में जो हेतु पेश किया जाता है, वह सदोष हो तो उसे हेत्वाभास कहते हैं। गौतम ने पांच हेत्वाभासों का निर्देश किया है। बाद में उन हेत्वाभासों का अर्थ बदला, नाम और संख्या वही क़ायम रखी गयी। वाद, जल्प और वितण्डा, तीनों प्रकार की बहस में हेत्वाभास संभव है। जब वादी प्रतिवादी के बोलने का दूसरा ही अर्थ लगाकर प्रतिवादी के बोलने में बाधा डालता है, तब उसे छल कहा जाता है। गौतम ने उसके तीन प्रकार बताए हैं।
जाति का अर्थ
जाति का अर्थ है आक्षेप, जो साधर्म्य या वैधर्म्य के आधार पर उपस्थित किया जाता है। जब वादी की युक्ति का खंडन किसी समर्थ प्रतियुक्ति से करना प्रतिवादी के लिए संभव नहीं होता, तब प्रतिवादी साधर्म्याश्रित या वैधर्म्याश्रित आक्षेप का प्रयोग करता है। यह आक्षेप समर्थ नहीं होता, लेकिन समर्थ आक्षेप का आधार होता है। इसलिए बाद में इसे दूषणाभास नाम मिला। चरकसंहिता में 'उत्तर' नाम का तत्व उल्लिखित है, जो जाति के सदृश है। लेकिन वाद पद्धति में महत्त्व रखने वाले इस जाति तन्त्र का विस्तृत विचार पहले गौतम ने ही प्रस्तुत किया, ऐसा मालूम पड़ता है। गौतम ने जाति के चौबीस प्रकारों का निर्देश किया है। इससे बाद में हमेशा प्रयुक्त की जाने वाली युक्तियों का गौतम ने कितनी गहराई से अध्ययन किया था, यह भी स्पष्ट दिखाई देता है। अरस्तु की 'सोफ़िस्टिकल रेफ़्युटेशंस' में जो तत्व है, वही जाति का मूल तत्व दीखता है। गौतम ने समकालीन सोफ़िस्टों का अध्ययन ही नहीं किया, बल्कि किसी एक हद तक (अच्छे उद्देश्यों से प्रेरित) सोफ़िज्म का प्रस्ताव भी किया था।
निग्रह स्थान
जब कोई वादी अपना पक्ष सफलता के साथ सिद्ध करता है तथा प्रतिपक्ष का दोष स्पष्टता के साथ दिया जाता है, तब प्रतिपक्ष पराभूत होता है। वही प्रतिपक्ष के पराभव का स्थल है, जिसे गौतम ने निग्रह स्थान कहा। जाति और निग्रह स्थान के प्रकारों का विशद विवेचन गौतम ने पांचवें अध्याय में किया है। गौतम के पहले जो न्याय दर्शन प्रवृत्त हुआ था, उसे आन्वीक्षिकी कहा जाता है। आन्वीक्षिकी के अर्थ दो हैं- हेतुविद्या और आत्मविद्या। ऐसा लगता है कि गौतम से पहले न्याय का स्वरूप प्रमाणविद्या तथा वादविद्या ही था। न्याय की कोई अपनी सत्ताशास्त्रीय भूमिका नहीं थी। यद्यपि गौतम का न्याय दर्शन भी प्रस्तुत रूप से प्रमाणविद्या तथा वादविद्या ही था तथापि गौतम ने प्रमेय पदार्थ का सविस्तार विचार करते हए 'आत्मा' को न्याय दर्शन का एक विचार्य विषय बनाकर उसका प्रतिपादन किया। इस प्रकार गौतम का न्याय दर्शन हेतु विद्या और आत्म विद्या इन दोनों अर्थों में आन्वीक्षिकी सिद्ध हुआ।
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टीका टिप्पणी
- ↑ न्यायवार्त्तिक का मङ्गलाचरण।
- ↑ महाभारत शान्तिपर्व 210.22
- ↑ शान्तिपर्व महाभारत 24.11-14
- ↑ महाभारत, आदिपर्व 71.42-45
- ↑ आश्वमेधिकपर्व 85.57
- ↑ शान्तिपर्व महाभारत 47.36
- ↑ शान्तिपर्व महाभारत 241.19
- ↑ शान्तिपर्व महाभारत 56.41
- ↑ जिसका वर्गीकरण बौद्धों के शून्यवाद के साथ किया जाता है
- ↑ जो कि बौद्धों का माना जा सकता है
- ↑ (न्यायसूत्र 1.12)
- ↑ अव्यभिचारी, व्यवसायात्मक ज्ञानम्
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