"अजा एकादशी": अवतरणों में अंतर

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उसने राजा हरिश्चन्द्र को इस कार्य के लिए तैनात कर दिया। उनका कार्य था जो भी व्यक्ति अपने संबंधी का शव लेकर अंतिम संस्कार के लिए श्मशान में आए, हरिश्चन्द्र उससे 'कर' वसूल करके अंतिम संस्कार के लिए श्मशान में आए, हरिश्चन्द्र उससे 'कर' वसूल करके अंतिम संस्कार की स्वीकृति दें, अन्यथा संस्कार न करने दिया जाए। राजा हरिश्चन्द्र इसे अपना कर्तव्य समझकर विधिवत पालन करने लगे।
उसने राजा हरिश्चन्द्र को इस कार्य के लिए तैनात कर दिया। उनका कार्य था जो भी व्यक्ति अपने संबंधी का शव लेकर अंतिम संस्कार के लिए श्मशान में आए, हरिश्चन्द्र उससे 'कर' वसूल करके अंतिम संस्कार के लिए श्मशान में आए, हरिश्चन्द्र उससे 'कर' वसूल करके अंतिम संस्कार की स्वीकृति दें, अन्यथा संस्कार न करने दिया जाए। राजा हरिश्चन्द्र इसे अपना कर्तव्य समझकर विधिवत पालन करने लगे।


राजा हरिश्चन्द्र को अनेक बार अपनी परीक्षा देनी पड़ी। एक दिन राजा हरिश्चन्द्र का एकादशी का व्रत था। राजा हरिश्चन्द्र अर्द्धरात्रि में श्मशान में पहरा दे रहे थे। तभी वहां एक स्त्री अपने पुत्र का दाह संस्कार करने के लिए आई। वह इतनी निर्धन थी कि उसके पास शव को ढकने के लिए कफन तक न था। शव को ढकने के लिए उसने अपनी आधी साड़ी फाड़कर कफन बनाया था। राजा हरिश्चन्द्र ने उससे कर मांगा। परन्तु उस अवला के पास कफन तक के लिए तो पैसा था नहीं, फिर भला 'कर' अदा करने के लिए धन कहां से आता?  
राजा हरिश्चन्द्र को अनेक बार अपनी परीक्षा देनी पड़ी। एक दिन राजा हरिश्चन्द्र का एकादशी का व्रत था। राजा हरिश्चन्द्र अर्द्धरात्रि में श्मशान में पहरा दे रहे थे। तभी वहां एक स्त्री अपने पुत्र का दाह संस्कार करने के लिए आई। वह इतनी निर्धन थी कि उसके पास शव को ढकने के लिए कफ़न तक न था। शव को ढकने के लिए उसने अपनी आधी साड़ी फाड़कर कफ़न बनाया था। राजा हरिश्चन्द्र ने उससे कर मांगा। परन्तु उस अवला के पास कफ़न तक के लिए तो पैसा था नहीं, फिर भला 'कर' अदा करने के लिए धन कहां से आता?  
   
   
कर्तव्यनिष्ठ महाराज ने उसे शवदाह की आज्ञा नहीं दी। बेचारी स्त्री बिलख कर रोने लगी। एक तो पुत्र की मृत्यु का शोक, ऊपर से अंतिम संस्कार न होने पर शव की दुर्गति होने की आशंका।
कर्तव्यनिष्ठ महाराज ने उसे शवदाह की आज्ञा नहीं दी। बेचारी स्त्री बिलख कर रोने लगी। एक तो पुत्र की मृत्यु का शोक, ऊपर से अंतिम संस्कार न होने पर शव की दुर्गति होने की आशंका।

12:36, 29 अगस्त 2010 का अवतरण

व्रत और विधि

यह व्रत भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की एकादशी को किया जाता है। यह एकादशी का व्रत समस्त पापों और कष्टों को नष्ट करके हर प्रकार की सुख-समृद्धि प्रदान करता है। इस व्रत को करने से पूर्वजन्म की बाधाएं दूर हो जाती हैं। इस एकादशी को 'जया', 'कामिका' तथा अजा एकादशी कहते हैं। आज भगवान विष्णु के उपेन्द्र स्वरूप की पूजा-अराधना की जाती है तथा रात्रि जागरण किया जाता है।

कथा

एक बार राजा हरिश्चन्द्र ने अपना सारा राज्य दान में दे दिया। राजा ने जिस व्यक्ति को अपना राज्य दान में दिया था उसकी आकृति महर्षि विश्वामित्र से मिलती-जुलती थी। अगले दिन महर्षि उनके दरबार में पहुंचे। तब सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र ने स्वप्न में दिया अपना सारा राज्य उन्हें सौंप दिया। जब राजा दरबार से चलने लगे तभी विश्वामित्र ने राजा से पांच सौ स्वर्ण मुद्राएं मांगी।

राजा ने कहा- 'हे ॠषिवर! आप पांच सौ क्या, जितनी चाहें मुद्राएं ले सकते हैं।' विश्वामित्र ने कहा-'तुम भूल रहे हो राजन, राज्य के साथ राजकोष तो आप पहले ही दान कर चुके हैं। क्या दान की हुई वस्तु दक्षिणा में देना चाहते हो।'

तब राजा को भूल का एहसास हुआ। फिर उन्होंने पत्नी तथा पुत्र को बेचकर स्वर्ण मुद्राएं जुटाईं तो सही परन्तु वे भी पूरी न हो सकीं। तब मुद्राएं पूरी करने के लिए उन्होंने स्वयं को बेच दिया। राजा हरिश्चन्द्र ने जिसके पास स्वयं को बेचा वह जाति से डोम था। वह श्मशान का स्वामी होने के नाते, मृतकों के संबंधियों से 'कर' लेकर उन्हें शवदाह की स्वीकृति देता था।

उसने राजा हरिश्चन्द्र को इस कार्य के लिए तैनात कर दिया। उनका कार्य था जो भी व्यक्ति अपने संबंधी का शव लेकर अंतिम संस्कार के लिए श्मशान में आए, हरिश्चन्द्र उससे 'कर' वसूल करके अंतिम संस्कार के लिए श्मशान में आए, हरिश्चन्द्र उससे 'कर' वसूल करके अंतिम संस्कार की स्वीकृति दें, अन्यथा संस्कार न करने दिया जाए। राजा हरिश्चन्द्र इसे अपना कर्तव्य समझकर विधिवत पालन करने लगे।

राजा हरिश्चन्द्र को अनेक बार अपनी परीक्षा देनी पड़ी। एक दिन राजा हरिश्चन्द्र का एकादशी का व्रत था। राजा हरिश्चन्द्र अर्द्धरात्रि में श्मशान में पहरा दे रहे थे। तभी वहां एक स्त्री अपने पुत्र का दाह संस्कार करने के लिए आई। वह इतनी निर्धन थी कि उसके पास शव को ढकने के लिए कफ़न तक न था। शव को ढकने के लिए उसने अपनी आधी साड़ी फाड़कर कफ़न बनाया था। राजा हरिश्चन्द्र ने उससे कर मांगा। परन्तु उस अवला के पास कफ़न तक के लिए तो पैसा था नहीं, फिर भला 'कर' अदा करने के लिए धन कहां से आता?

कर्तव्यनिष्ठ महाराज ने उसे शवदाह की आज्ञा नहीं दी। बेचारी स्त्री बिलख कर रोने लगी। एक तो पुत्र की मृत्यु का शोक, ऊपर से अंतिम संस्कार न होने पर शव की दुर्गति होने की आशंका।

उसी समय आकाश में घने काले-काले बादल मंडराने लगे। पानी बरसने लगा। बिजली चमकने लगी। बिजली के प्रकाश में राजा ने जब उस स्त्री को देखा, तो वह चौंक उठे। वह उनकी पत्नी तारामती थी और मृतक बालक था उनका इकलौता पुत्र रोहिताश्व। जिसका सांप के काटने से असमय ही देहान्त हो गया था।

पत्नी तथा पुत्र की इस दीन दशा को देखकर महाराज विचलित हो उठे। उस दिन एकादशी थी और महाराज ने सारा दिन उपवास रखा था। दूसरे परिवार की यह दुर्दशा देखकर उनकी आंखों में आंसू आ गए। वह भरे हुए नेत्रों से आकाश की ओर देखने लगे। मानो कह रहे हों- 'हे ईश्वर! अभी और क्या-क्या दिखाओगे?'

परन्तु यह तो उनके परिक्षा की घड़ी थी। उन्होंने भारी मन से अनजान बनकर उस स्त्री से कहा- 'देवी! जिस सत्य की रक्षा के लिए हम लोगों ने राजभवन का त्याग किया, स्वयं को बेचा, उस सत्य की रक्षा के लिए अगर मैं इस कष्ट की घड़ी में न रह पाया तो कर्तव्यच्युत होऊंगा। यद्यपि इस समय तुम्हारी दशा अत्यन्त दयनीय है तथापि तुम मेरी सहायता करके मेरी तपस्या की रक्षा करो। 'कर' लिए बिना मैं तुम्हें पुत्र के अंतिम संस्कार की अनुमति नहीं दे सकता।'

रानी ने सुनकर अपना धैर्य नहीं खोया और जैसे ही शरीर पर लिपटी हुई आधी साड़ी में से आधी फाड़कर 'कर' के रूप में देने के लिए हरिश्चन्द्र की ओर बढ़ाई तो तत्काल प्रभु प्रकट होकर बोले- 'हरिश्चन्द्र! तुमने सत्य को जीवन में धारण करने का उच्चतम आदर्श स्थापित करके आचरण की सिद्धि का परिचय दिया है। तुम्हारी कर्त्तव्यनिष्ठा धन्य है, तुम इतिहास में अमर रहोगे।'

राजा हरिश्चन्द्र ने प्रभु को प्रणाम करके आशीर्वाद मांगते हुए कहा- 'भगवन! यदि आप वास्तव में मेरी कर्त्तव्यनिष्ठा और सत्याचरण से प्रसन्न हैं तो इस दुखिया स्त्री के पुत्र को जीवन दान दीजिए।'

और फिर देखते ही देखते ईश्वर की कृपा से रोहिताश्व जीवित हो उठा। भगवान के आदेश से विश्वामित्र जी ने भी उनका सारा राज्य वापस लौटा दिया।

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