"दिल्ली उच्च न्यायालय": अवतरणों में अंतर

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सन [[1920]] में इस संख्या में दो और उप-न्यायाधीशों की अदालतों को शामिल किया गया। न्यायाधीशों की इस निर्धारित संख्या के साथ दिल्ली के न्यायालय लगातार अपना कार्य करते रहे तथा समय-समय पर अत्यधिक कार्यभार को कम करने के लिए कुछ अस्थाई उपाय भी अपनाए गए। सन [[1948]] में किराया नियंत्रण क़ानून को लागू करने के लिए उप-न्यायधीश के एक और पद का सृजन किया गया। इसके बाद [[1953]] में उप-न्यायाधीशों के छह अन्य अस्थाई न्यायालयों की स्थापना की गई। [[1959]] में उप-न्यायाधीशों की संख्या बढ़कर 21 हो गई। इस समय तक दिल्ली की न्यायिक व्यवस्था में एक ज़िला एंव सत्र न्यायाधीश तथा चार अतिरिक्त ज़िला एंव सत्र न्यायाधीश थे। दिल्ली उच्च न्यायालय की स्थापना से पूर्व सन [[1966]] तक [[दिल्ली]] के ज़िला एंव सत्र न्यायाधीश [[पंजाब उच्च न्यायालय]] के प्रशासनिक नियंत्रण में कार्यरत थे।
सन [[1920]] में इस संख्या में दो और उप-न्यायाधीशों की अदालतों को शामिल किया गया। न्यायाधीशों की इस निर्धारित संख्या के साथ दिल्ली के न्यायालय लगातार अपना कार्य करते रहे तथा समय-समय पर अत्यधिक कार्यभार को कम करने के लिए कुछ अस्थाई उपाय भी अपनाए गए। सन [[1948]] में किराया नियंत्रण क़ानून को लागू करने के लिए उप-न्यायधीश के एक और पद का सृजन किया गया। इसके बाद [[1953]] में उप-न्यायाधीशों के छह अन्य अस्थाई न्यायालयों की स्थापना की गई। [[1959]] में उप-न्यायाधीशों की संख्या बढ़कर 21 हो गई। इस समय तक दिल्ली की न्यायिक व्यवस्था में एक ज़िला एंव सत्र न्यायाधीश तथा चार अतिरिक्त ज़िला एंव सत्र न्यायाधीश थे। दिल्ली उच्च न्यायालय की स्थापना से पूर्व सन [[1966]] तक [[दिल्ली]] के ज़िला एंव सत्र न्यायाधीश [[पंजाब उच्च न्यायालय]] के प्रशासनिक नियंत्रण में कार्यरत थे।
====फ़ौजदारी न्यायालय====
====फ़ौजदारी न्यायालय====
दिल्ली जिला राजपत्र (1912) के अनुसार, अपराधिक न्याय के प्रशासन का पूरा उत्तरदायित्व जिला मैजिस्ट्रेट के ऊपर था। मुख्य दण्डाधिकारी तथा पुलिस अधीक्षक होने के नाते वह उसका कार्य अपराध से निपटना था। सन [[1910]] में फ़ौजदारी न्यायालय में पदासीन न्यायिक अधिकारियों की संख्या निम्न प्रकार थी-
दिल्ली ज़िला राजपत्र (1912) के अनुसार, अपराधिक न्याय के प्रशासन का पूरा उत्तरदायित्व ज़िला मैजिस्ट्रेट के ऊपर था। मुख्य दण्डाधिकारी तथा पुलिस अधीक्षक होने के नाते वह उसका कार्य अपराध से निपटना था। सन [[1910]] में फ़ौजदारी न्यायालय में पदासीन न्यायिक अधिकारियों की संख्या निम्न प्रकार थी-
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|+न्यायिक अधिकारी
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इनमें से एक प्रथम  श्रेणी मैजिस्ट्रेट को जिला मैजिस्ट्रेट की शक्तियाँ प्राप्त थीं, जिसके आधार पर वह गंभीर मुकदमों की सुनवाई करता था। इस व्यवस्था के द्वारा जिला मैजिस्ट्रेट तथा अन्य निम्न श्रेणी न्यायाधीश अवांछनिय दबाव से मुक्त हो जाते थे। इस व्यवस्था के अन्तर्गत सभी अवैतनिक मैजिस्ट्रेट होते थे, परन्तु दो को विशेष तौर पर दिल्ली में नियुक्त किया गया था, जहाँ वे पीठ बनाकर शहर में होने वाले छोटे-मोटे मुकदमों की मुख्य रूप से सुनवाई करते थे। इनमें से एक पीठ की स्थापना [[1912]] में रायसीना ([[नई दिल्ली]]) के लिए की गई थी जो साम्राज्यिक दिल्ली नगर समिति के सत्ता क्षेत्र के अन्तर्गत मुकदमों की सुनवाई करती थी। इस पीठ में एक [[हिन्दू]] तथा एक [[मुसलमान]] मैजिस्ट्रेट नियुक्त किया गया था, जिन्हें द्वितीय श्रेणी की शक्तियाँ प्राप्त थीं, जिनकी दिल्ली नगर समिति के क्षेत्र तक ही शक्तियां सीमित थीं। [[1921]] में एक नजफगढ़ पीठ की स्थापना हुई, इसमें दो मैजिस्ट्रेट  होते थे, जिन्हें तृतीय श्रेणी की शक्तियां प्राप्त थीं, जिन्हें वे अपने प्रान्त के भीतर प्रयोग कर सकते थे।
इनमें से एक प्रथम  श्रेणी मैजिस्ट्रेट को ज़िला मैजिस्ट्रेट की शक्तियाँ प्राप्त थीं, जिसके आधार पर वह गंभीर मुकदमों की सुनवाई करता था। इस व्यवस्था के द्वारा ज़िला मैजिस्ट्रेट तथा अन्य निम्न श्रेणी न्यायाधीश अवांछनिय दबाव से मुक्त हो जाते थे। इस व्यवस्था के अन्तर्गत सभी अवैतनिक मैजिस्ट्रेट होते थे, परन्तु दो को विशेष तौर पर दिल्ली में नियुक्त किया गया था, जहाँ वे पीठ बनाकर शहर में होने वाले छोटे-मोटे मुकदमों की मुख्य रूप से सुनवाई करते थे। इनमें से एक पीठ की स्थापना [[1912]] में रायसीना ([[नई दिल्ली]]) के लिए की गई थी जो साम्राज्यिक दिल्ली नगर समिति के सत्ता क्षेत्र के अन्तर्गत मुकदमों की सुनवाई करती थी। इस पीठ में एक [[हिन्दू]] तथा एक [[मुसलमान]] मैजिस्ट्रेट नियुक्त किया गया था, जिन्हें द्वितीय श्रेणी की शक्तियाँ प्राप्त थीं, जिनकी दिल्ली नगर समिति के क्षेत्र तक ही शक्तियां सीमित थीं। [[1921]] में एक नजफगढ़ पीठ की स्थापना हुई, इसमें दो मैजिस्ट्रेट  होते थे, जिन्हें तृतीय श्रेणी की शक्तियां प्राप्त थीं, जिन्हें वे अपने प्रान्त के भीतर प्रयोग कर सकते थे। [[1926]] में दिल्ली के अंदर दो प्रथम श्रेणी मैजिस्ट्रेट तथा एक द्वितीय श्रेणी अवैतनिक मैजिस्ट्रेट कार्यरत थे। [[1951]] से [[1961]] के बीच संघ शासित प्रदेश दिल्ली के फौजदारी न्यायालयों की तुलनात्मक पद संख्या इस प्रक्रार थी-
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|+फौजदारी न्यायालयों की तुलनात्मक पद संख्या
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! पद का नाम
! संख्या 1951
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| ज़िला मैजिस्ट्रेट || 01 || 01
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| अतिरिक्त ज़िला || मैजिस्ट्रेट | 01 || 03
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| वैतनिक  मैजिस्ट्रेट || 13 || 24
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| अवैतनिक  मैजिस्ट्रेट || 11 || 27
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[[अक्टूबर]], [[1969]] में दिल्ली के अंदर अवैतनिक मैजिस्ट्रेटों की व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया। वर्ष [[1972]] में [[दिल्ली]] की न्यायिक व्यवस्था में न्यायाधीशों की पद संख्या इस प्रकार थी-
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|+1972 में न्यायाधीशों की पद संख्या
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! पद
! संख्या
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| ज़िला मैजिस्ट्रेट || 01
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| अतिरिक्त ज़िला  मैजिस्ट्रेट || 03
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| उप-खंडीय मैजिस्ट्रेट || 12
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==कार्यपालिका तथा न्यायपालिका का विभाजन==
[[अक्टूबर]] [[1969]] में संघ प्रदेश/कार्यपालिका व न्यायपालिका का विभाजन अधिनियम 1969 में उल्लेखित प्रावधानों के आधार पर संघ शासित प्रदेश दिल्ली की न्यायपालिका और कार्यपालिका का विभाजन हो गया। इस अधिनियम के अन्तर्गत दो तरह के फौजदारी न्यायालयों, पहला सत्र न्यायालय तथा दूसरा-दण्डाधिकारी के न्यायालय,  की स्थापना का प्रावधान किया गया। इसके साथ ही न्यायिक मैजिस्ट्रेटों की भी दो श्रेणियाँ तय कर दी गई। पहली श्रेणी में मुख्य न्यायिक मैजिस्ट्रेट तथा प्रथम तथा द्वितीय श्रेणी के न्यायिक मैजिस्ट्रेट शामिल थे, जबकि दूसरी श्रेणी में कार्यकारी मैजिस्ट्रटों के सभी पद शामिल थे, जैसे- ज़िला मैजिस्ट्रेट, उप-खंडीय मैजिस्ट्रेट, प्रथम और द्वितीय श्रेणी के मैजिस्ट्रेट तथा विशिष्ठ कार्यकारी मैजिस्ट्रेट इत्यादि। न्यायपालिका तथा कार्यपालिका के विभाजन से पहले दिल्ली की समस्त न्यायिक प्रणाली ज़िला मैजिस्ट्रेट के प्रत्यक्ष नियंत्रण में कार्य करती थी। नई व्यवस्था के अन्तर्गत न्यायिक मैजिस्ट्रेट के पद पर [[उच्च न्यायालय]] का प्रत्यक्ष नियंत्रण स्थापित हो गया। अब मुख्य न्यायिक मैजिस्ट्रेट अपनी अधिकतर शक्तियों का प्रयोग दंड संहिता के अंतर्गत करने जो कि इस कानून सहिंता का प्रयोग ज़िला मैजिस्ट्रेट किया करता था। विभाजन की योजना को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए, दंड प्रक्रिया संहिता 1898 की धारा 5 (1969 के अधिनियम 19 के द्वारा संशोधित) ने सुगमता के लिए न्यायिक मैजिस्ट्रेट और कार्यकारी मैजिस्ट्रेट के कार्य क्षेत्र का भी स्पष्ट विभाजन कर दिया। अब न्यायिक मैजिस्ट्रेट केवल उन मामलों की सुनवाई करते थे, जिसमें गवाही का मूल्यांकन किये जाने की बात होती थी या न्यायालय द्वारा सुनाए गए किसी ऐसे फैसले की विधिवत् अभिव्यक्ति करनी होती थी, जिसमें किसी दोषी को बिना दण्ड या जुर्माना किए छोड़ दिया जाता था या अन्वेषण, जांच-पड़ताल या सुनवाई के दौरान उसे कैद करके बंदीगृह में रखा गया हो, या उसे किसी मामले में किसी दूसरे न्यायालय में भेजने का फैसला लेना हो। परन्तु यदि किसी भी बिंदू पर कोई कार्यवाही प्रशासनिक या कार्यपालिका से जुड़ी होती थी, जैसे- लाइसैंस जारी करना, किसी अभियोजन की स्वीकृति देना या उससे वापस लेना इत्यादि कार्य कार्यपालक मैजिस्ट्रेट के कार्यक्षेत्र में  आते थे।


संक्षेप में कहें तो कार्यपालक मैजिस्ट्रेट का कार्य कानून और व्यवस्था बनाए रखने और अपराध की रोकथाम के उपायों को लागू करने से संबंधित था, जबकि आई.पी.सी. विशेष तथा साधारण कानूनों की सुनवाई न्यायिक मैजिस्ट्रेट करता था। नई दंड प्रक्रिया संहिता 1973 (1974 के अधिनियम संख्या 2) [[1 अप्रैल]], [[1974]] से लागू हुई। इस संहिता के अन्तर्गत मैजिस्ट्रेट के पद की दो भिन्न श्रेणियां तय कर दी गईं, पहला- न्यायिक मैजिस्ट्रेट तथा दूसरा- कार्यपालक मैजिस्ट्रेट। जिस शहर की आबादी दस लाख से अधिक होगी, उसे महानगर की संज्ञा दी जा सकती थी। 1 अप्रैल, 1974 को दंड प्रक्रिया संहिता 1973 के अनुच्छेद 8 (1) के अन्तर्गत गृह मंत्रालय, [[नई दिल्ली]] द्वारा जारी एक अधिसूचना संख्या 155, [[28 मार्च]], 1974 के द्वारा दिल्ली को महानगरीय क्षेत्र घोषित कर दिया गया, जो [[भारत]] का गजट (अतिरिक्त) भाग 2, धारा 3 (2) में प्रकाशित हुई थी। परिणामतः न्यायिक मैजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी तथा न्यायिक मैजिस्ट्रेट द्वितीय श्रेणी पद समाप्त कर दिया गया। दिल्ली में कार्यरत सभी न्यायिक मैजिस्ट्रेटों को महानगर दण्डाधिकारी की शक्ति प्रदान की गई। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 16 के अन्तर्गत महानगर दण्डाधिकारियों के न्यायालयों की स्थापना की गई। मुख्य महानगर दण्डाधिकारी (ए.सी.एम.एम.) की स्थापना संहिता को धारा 17 के अन्तर्गत की गई तथा धारा 18 के अन्तर्गत विशेष महानगरीय दण्डाधिकारियों (स्पेशल मैजिस्ट्रेटों) के न्यायालयों की स्थापना का प्रावधान था। दंड प्रक्रिया संहिता के अन्तर्गत महानगर दण्डाधिकारियों के उपरोक्त पदों के अतिरिक्त गठित पद कार्यपालक मैजिस्ट्रेटों के थे। इन कार्यपालक मैजिस्ट्रेटों को प्रदान की गई शक्तियाँ महानगर दण्डाधिकारियों की शक्तियों से भिन्न थीं। मुख्य महानगर दण्डाधिकारी, अतिरिक्त मुख्य महानगर दण्डाधिकारी तथा महानगर दण्डाधिकारी ज़िला एवं सत्र न्यायाधीश के अधीनस्थ हैं, जबकि कार्यपालक मैजिस्ट्रेटों को ज़िला मैजिस्ट्रेट के अधीनस्थ रखा गया है।


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07:18, 31 मई 2017 का अवतरण

दिल्ली उच्च न्यायालय (अंग्रेज़ी: Delhi High Court) दिल्ली राज्य का न्यायालय है। इस न्यायालय की स्थापना 31 अक्टूबर, सन 1966 में की गई थी। अन्य राज्यों की तरह दिल्ली का अपना पृथक उच्च न्यायालय है।

स्थापना

31 अक्टूबर, सन 1966 में इस उच्च न्यायालय को चार न्यायाधीशों के साथ स्थापित किया गया था। उन चार मुख्य न्यायाधीशों के नाम इस प्रकार हैं-

  1. के.एस. हेगड़े
  2. आई.डी दुआ
  3. एच.आर. खन्ना
  4. एस. के. कपूर

इतिहास

दिल्ली ज़िला न्यायालय का इतिहास

भारत के तत्कालीन गवर्नर-जनरल द्वारा 17 सितम्बर, 1912 को जारी की गई प्रोकलेमेशन संख्या 911 के अन्तर्गत दिल्ली को विशेष वैधानिक क्षेत्र के रूप में मान्यता दी गई। इस नोटिफिकेशन के द्वारा दिल्ली पर भारत के गवर्नर-जनरल का प्रत्यक्ष प्रभुत्व स्थापित हो गया तथा इसके प्रबंधन का उतरदायित्व भी गवर्नर-जनरल के हाथ में आ गया। इस नोटिफिकेशन के जारी होने के बाद मि. विलियम मैलकोम हैले, सी.आई.ई., आई.सी.एस. को दिल्ली का पहला आयुक्त नियुक्त किया गया। इसके साथ ही साथ दिल्ली में स्थापित क़ानूनों को लागू करने के लिए दिल्ली विधि अधिनियम, 1912 का निर्माण किया गया। 22 फ़रवरी, 1915 को यमुना के दूसरी तरफ़ का क्षेत्र[1] को भी दिल्ली के नए सीमा क्षेत्र के भीतर शामिल किया गया।

दीवानी न्यायालय

सन 1913 में दिल्ली की न्यायिक व्यवस्था का आकार इस प्रकार था-

  1. एक ज़िला एवं सत्र न्यायाधीश
  2. एक वरिष्ठ उप-न्यायाधीश
  3. एक न्यायाधीश, लघुवाद न्यायालय
  4. एक रजिस्ट्रार, लघुवाद न्यायालय
  5. तीन उप-न्यायाधीश


सन 1920 में इस संख्या में दो और उप-न्यायाधीशों की अदालतों को शामिल किया गया। न्यायाधीशों की इस निर्धारित संख्या के साथ दिल्ली के न्यायालय लगातार अपना कार्य करते रहे तथा समय-समय पर अत्यधिक कार्यभार को कम करने के लिए कुछ अस्थाई उपाय भी अपनाए गए। सन 1948 में किराया नियंत्रण क़ानून को लागू करने के लिए उप-न्यायधीश के एक और पद का सृजन किया गया। इसके बाद 1953 में उप-न्यायाधीशों के छह अन्य अस्थाई न्यायालयों की स्थापना की गई। 1959 में उप-न्यायाधीशों की संख्या बढ़कर 21 हो गई। इस समय तक दिल्ली की न्यायिक व्यवस्था में एक ज़िला एंव सत्र न्यायाधीश तथा चार अतिरिक्त ज़िला एंव सत्र न्यायाधीश थे। दिल्ली उच्च न्यायालय की स्थापना से पूर्व सन 1966 तक दिल्ली के ज़िला एंव सत्र न्यायाधीश पंजाब उच्च न्यायालय के प्रशासनिक नियंत्रण में कार्यरत थे।

फ़ौजदारी न्यायालय

दिल्ली ज़िला राजपत्र (1912) के अनुसार, अपराधिक न्याय के प्रशासन का पूरा उत्तरदायित्व ज़िला मैजिस्ट्रेट के ऊपर था। मुख्य दण्डाधिकारी तथा पुलिस अधीक्षक होने के नाते वह उसका कार्य अपराध से निपटना था। सन 1910 में फ़ौजदारी न्यायालय में पदासीन न्यायिक अधिकारियों की संख्या निम्न प्रकार थी-

न्यायिक अधिकारी
मजिस्ट्रेट की श्रेषी वैतनिक अवैतनिक
प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट 08 11
द्वितीय श्रेणी मजिस्ट्रेट 04 14
तृतीय श्रेणी मजिस्ट्रेट 03 01

इनमें से एक प्रथम श्रेणी मैजिस्ट्रेट को ज़िला मैजिस्ट्रेट की शक्तियाँ प्राप्त थीं, जिसके आधार पर वह गंभीर मुकदमों की सुनवाई करता था। इस व्यवस्था के द्वारा ज़िला मैजिस्ट्रेट तथा अन्य निम्न श्रेणी न्यायाधीश अवांछनिय दबाव से मुक्त हो जाते थे। इस व्यवस्था के अन्तर्गत सभी अवैतनिक मैजिस्ट्रेट होते थे, परन्तु दो को विशेष तौर पर दिल्ली में नियुक्त किया गया था, जहाँ वे पीठ बनाकर शहर में होने वाले छोटे-मोटे मुकदमों की मुख्य रूप से सुनवाई करते थे। इनमें से एक पीठ की स्थापना 1912 में रायसीना (नई दिल्ली) के लिए की गई थी जो साम्राज्यिक दिल्ली नगर समिति के सत्ता क्षेत्र के अन्तर्गत मुकदमों की सुनवाई करती थी। इस पीठ में एक हिन्दू तथा एक मुसलमान मैजिस्ट्रेट नियुक्त किया गया था, जिन्हें द्वितीय श्रेणी की शक्तियाँ प्राप्त थीं, जिनकी दिल्ली नगर समिति के क्षेत्र तक ही शक्तियां सीमित थीं। 1921 में एक नजफगढ़ पीठ की स्थापना हुई, इसमें दो मैजिस्ट्रेट होते थे, जिन्हें तृतीय श्रेणी की शक्तियां प्राप्त थीं, जिन्हें वे अपने प्रान्त के भीतर प्रयोग कर सकते थे। 1926 में दिल्ली के अंदर दो प्रथम श्रेणी मैजिस्ट्रेट तथा एक द्वितीय श्रेणी अवैतनिक मैजिस्ट्रेट कार्यरत थे। 1951 से 1961 के बीच संघ शासित प्रदेश दिल्ली के फौजदारी न्यायालयों की तुलनात्मक पद संख्या इस प्रक्रार थी-

फौजदारी न्यायालयों की तुलनात्मक पद संख्या
पद का नाम संख्या 1951 संख्या 1961
ज़िला मैजिस्ट्रेट 01 01
अतिरिक्त ज़िला 01 03
वैतनिक मैजिस्ट्रेट 13 24
अवैतनिक मैजिस्ट्रेट 11 27

अक्टूबर, 1969 में दिल्ली के अंदर अवैतनिक मैजिस्ट्रेटों की व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया। वर्ष 1972 में दिल्ली की न्यायिक व्यवस्था में न्यायाधीशों की पद संख्या इस प्रकार थी-

1972 में न्यायाधीशों की पद संख्या
पद संख्या
ज़िला मैजिस्ट्रेट 01
अतिरिक्त ज़िला मैजिस्ट्रेट 03
उप-खंडीय मैजिस्ट्रेट 12

कार्यपालिका तथा न्यायपालिका का विभाजन

अक्टूबर 1969 में संघ प्रदेश/कार्यपालिका व न्यायपालिका का विभाजन अधिनियम 1969 में उल्लेखित प्रावधानों के आधार पर संघ शासित प्रदेश दिल्ली की न्यायपालिका और कार्यपालिका का विभाजन हो गया। इस अधिनियम के अन्तर्गत दो तरह के फौजदारी न्यायालयों, पहला सत्र न्यायालय तथा दूसरा-दण्डाधिकारी के न्यायालय, की स्थापना का प्रावधान किया गया। इसके साथ ही न्यायिक मैजिस्ट्रेटों की भी दो श्रेणियाँ तय कर दी गई। पहली श्रेणी में मुख्य न्यायिक मैजिस्ट्रेट तथा प्रथम तथा द्वितीय श्रेणी के न्यायिक मैजिस्ट्रेट शामिल थे, जबकि दूसरी श्रेणी में कार्यकारी मैजिस्ट्रटों के सभी पद शामिल थे, जैसे- ज़िला मैजिस्ट्रेट, उप-खंडीय मैजिस्ट्रेट, प्रथम और द्वितीय श्रेणी के मैजिस्ट्रेट तथा विशिष्ठ कार्यकारी मैजिस्ट्रेट इत्यादि। न्यायपालिका तथा कार्यपालिका के विभाजन से पहले दिल्ली की समस्त न्यायिक प्रणाली ज़िला मैजिस्ट्रेट के प्रत्यक्ष नियंत्रण में कार्य करती थी। नई व्यवस्था के अन्तर्गत न्यायिक मैजिस्ट्रेट के पद पर उच्च न्यायालय का प्रत्यक्ष नियंत्रण स्थापित हो गया। अब मुख्य न्यायिक मैजिस्ट्रेट अपनी अधिकतर शक्तियों का प्रयोग दंड संहिता के अंतर्गत करने जो कि इस कानून सहिंता का प्रयोग ज़िला मैजिस्ट्रेट किया करता था। विभाजन की योजना को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए, दंड प्रक्रिया संहिता 1898 की धारा 5 (1969 के अधिनियम 19 के द्वारा संशोधित) ने सुगमता के लिए न्यायिक मैजिस्ट्रेट और कार्यकारी मैजिस्ट्रेट के कार्य क्षेत्र का भी स्पष्ट विभाजन कर दिया। अब न्यायिक मैजिस्ट्रेट केवल उन मामलों की सुनवाई करते थे, जिसमें गवाही का मूल्यांकन किये जाने की बात होती थी या न्यायालय द्वारा सुनाए गए किसी ऐसे फैसले की विधिवत् अभिव्यक्ति करनी होती थी, जिसमें किसी दोषी को बिना दण्ड या जुर्माना किए छोड़ दिया जाता था या अन्वेषण, जांच-पड़ताल या सुनवाई के दौरान उसे कैद करके बंदीगृह में रखा गया हो, या उसे किसी मामले में किसी दूसरे न्यायालय में भेजने का फैसला लेना हो। परन्तु यदि किसी भी बिंदू पर कोई कार्यवाही प्रशासनिक या कार्यपालिका से जुड़ी होती थी, जैसे- लाइसैंस जारी करना, किसी अभियोजन की स्वीकृति देना या उससे वापस लेना इत्यादि कार्य कार्यपालक मैजिस्ट्रेट के कार्यक्षेत्र में आते थे।

संक्षेप में कहें तो कार्यपालक मैजिस्ट्रेट का कार्य कानून और व्यवस्था बनाए रखने और अपराध की रोकथाम के उपायों को लागू करने से संबंधित था, जबकि आई.पी.सी. विशेष तथा साधारण कानूनों की सुनवाई न्यायिक मैजिस्ट्रेट करता था। नई दंड प्रक्रिया संहिता 1973 (1974 के अधिनियम संख्या 2) 1 अप्रैल, 1974 से लागू हुई। इस संहिता के अन्तर्गत मैजिस्ट्रेट के पद की दो भिन्न श्रेणियां तय कर दी गईं, पहला- न्यायिक मैजिस्ट्रेट तथा दूसरा- कार्यपालक मैजिस्ट्रेट। जिस शहर की आबादी दस लाख से अधिक होगी, उसे महानगर की संज्ञा दी जा सकती थी। 1 अप्रैल, 1974 को दंड प्रक्रिया संहिता 1973 के अनुच्छेद 8 (1) के अन्तर्गत गृह मंत्रालय, नई दिल्ली द्वारा जारी एक अधिसूचना संख्या 155, 28 मार्च, 1974 के द्वारा दिल्ली को महानगरीय क्षेत्र घोषित कर दिया गया, जो भारत का गजट (अतिरिक्त) भाग 2, धारा 3 (2) में प्रकाशित हुई थी। परिणामतः न्यायिक मैजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी तथा न्यायिक मैजिस्ट्रेट द्वितीय श्रेणी पद समाप्त कर दिया गया। दिल्ली में कार्यरत सभी न्यायिक मैजिस्ट्रेटों को महानगर दण्डाधिकारी की शक्ति प्रदान की गई। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 16 के अन्तर्गत महानगर दण्डाधिकारियों के न्यायालयों की स्थापना की गई। मुख्य महानगर दण्डाधिकारी (ए.सी.एम.एम.) की स्थापना संहिता को धारा 17 के अन्तर्गत की गई तथा धारा 18 के अन्तर्गत विशेष महानगरीय दण्डाधिकारियों (स्पेशल मैजिस्ट्रेटों) के न्यायालयों की स्थापना का प्रावधान था। दंड प्रक्रिया संहिता के अन्तर्गत महानगर दण्डाधिकारियों के उपरोक्त पदों के अतिरिक्त गठित पद कार्यपालक मैजिस्ट्रेटों के थे। इन कार्यपालक मैजिस्ट्रेटों को प्रदान की गई शक्तियाँ महानगर दण्डाधिकारियों की शक्तियों से भिन्न थीं। मुख्य महानगर दण्डाधिकारी, अतिरिक्त मुख्य महानगर दण्डाधिकारी तथा महानगर दण्डाधिकारी ज़िला एवं सत्र न्यायाधीश के अधीनस्थ हैं, जबकि कार्यपालक मैजिस्ट्रेटों को ज़िला मैजिस्ट्रेट के अधीनस्थ रखा गया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जिसे आज यमुना पार के नाम से जाना जाता है।

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