"धीरजु मन कीन्हा प्रभु": अवतरणों में अंतर

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फिर उसने मन में धीरज धरकर प्रभु को पहचाना और रघुनाथ की कृपा से भक्ति प्राप्त की। तब अत्यंत निर्मल वाणी से उसने (इस प्रकार) स्तुति प्रारंभ की - हे ज्ञान से जानने योग्य रघुनाथ! आपकी जय हो! मैं (सहज ही) अपवित्र स्त्री हूँ, और हे प्रभो! आप जगत को पवित्र करनेवाले, भक्तों को सुख देनेवाले और रावण के शत्रु हैं। हे कमलनयन! हे संसार (जन्म-मृत्यु) के भय से छुड़ानेवाले! मैं आपकी शरण आई हूँ, (मेरी) रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए।
फिर उसने मन में धीरज धरकर प्रभु को पहचाना और रघुनाथ की कृपा से भक्ति प्राप्त की। तब अत्यंत निर्मल वाणी से उसने (इस प्रकार) स्तुति प्रारंभ की - हे ज्ञान से जानने योग्य रघुनाथ! आपकी जय हो! मैं (सहज ही) अपवित्र स्त्री हूँ, और हे प्रभो! आप जगत् को पवित्र करनेवाले, भक्तों को सुख देनेवाले और रावण के शत्रु हैं। हे कमलनयन! हे संसार (जन्म-मृत्यु) के भय से छुड़ानेवाले! मैं आपकी शरण आई हूँ, (मेरी) रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए।


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14:00, 30 जून 2017 के समय का अवतरण

धीरजु मन कीन्हा प्रभु
रामचरितमानस
रामचरितमानस
कवि गोस्वामी तुलसीदास
मूल शीर्षक रामचरितमानस
मुख्य पात्र राम, सीता, लक्ष्मण, हनुमान, रावण आदि
प्रकाशक गीता प्रेस गोरखपुर
भाषा अवधी भाषा
शैली सोरठा, चौपाई, छंद और दोहा
संबंधित लेख दोहावली, कवितावली, गीतावली, विनय पत्रिका, हनुमान चालीसा
काण्ड बालकाण्ड
छन्द

धीरजु मन कीन्हा प्रभु कहुँ चीन्हा रघुपति कृपाँ भगति पाई।
अति निर्मल बानी अस्तुति ठानी ग्यानगम्य जय रघुराई॥
मैं नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदायी।
राजीव बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि सरनहिं आई॥

भावार्थ-

फिर उसने मन में धीरज धरकर प्रभु को पहचाना और रघुनाथ की कृपा से भक्ति प्राप्त की। तब अत्यंत निर्मल वाणी से उसने (इस प्रकार) स्तुति प्रारंभ की - हे ज्ञान से जानने योग्य रघुनाथ! आपकी जय हो! मैं (सहज ही) अपवित्र स्त्री हूँ, और हे प्रभो! आप जगत् को पवित्र करनेवाले, भक्तों को सुख देनेवाले और रावण के शत्रु हैं। हे कमलनयन! हे संसार (जन्म-मृत्यु) के भय से छुड़ानेवाले! मैं आपकी शरण आई हूँ, (मेरी) रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए।


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धीरजु मन कीन्हा प्रभु
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छन्द- शब्द 'चद्' धातु से बना है जिसका अर्थ है 'आह्लादित करना', 'खुश करना'। यह आह्लाद वर्ण या मात्रा की नियमित संख्या के विन्याय से उत्पन्न होता है। इस प्रकार, छंद की परिभाषा होगी 'वर्णों या मात्राओं के नियमित संख्या के विन्यास से यदि आह्लाद पैदा हो, तो उसे छंद कहते हैं'। छंद का सर्वप्रथम उल्लेख 'ऋग्वेद' में मिलता है। जिस प्रकार गद्य का नियामक व्याकरण है, उसी प्रकार पद्य का छंद शास्त्र है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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