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'''ताराभौतिकी''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Astrophysics'') ज्योतिष विज्ञान का वह अंग है जिसके अंतर्गत खगोलीय पिंडो की रचना तथा उनके भौतिक लक्षणों का अध्ययन किया जाता है। प्रकृति के रहस्यों को समझने क उत्कट इच्छा से प्रेरित होकर मनुष्य ने आकाशीय पिंडो का अध्ययन प्रारंभ किया। उसने इनके विषय में जितनी सूचना केवल [[नेत्र|नेत्रों]] की सहायता से प्राप्त की जा सकती थी प्राप्त की; उदाहरणत:, वह [[पृथ्वी]] की दैनिक तथा वार्षिक गतियों और उनसे संबद्ध भौतिक घटनाओं, [[चंद्रमा]] की कलाओं तथा चांद्र मास, [[ग्रह|ग्रहों]] की गतियों आदि को समझने लगा। परंतु जब तक [[सूर्य]], चंद्रमा तथा ग्रहों को बिंब और [[तारा|तारों]] को प्रकाशबिंदु समझा जाता रहा, इनके विषय में अधिक न जाना जा सका।<ref name="aa">{{cite web |url= http://khoj.bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AD%E0%A5%8C%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A5%80|title= ताराभौतिकी|accessmonthday= 01 अगस्त|accessyear= 2015|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= भारतखोज|language= हिन्दी}}</ref>
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==ताराभौतिकी की रचना==  
==ताराभौतिकी की रचना==  

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ताराभौतिकी (अंग्रेज़ी: Astrophysics) ज्योतिष विज्ञान का वह अंग है जिसके अंतर्गत खगोलीय पिंडो की रचना तथा उनके भौतिक लक्षणों का अध्ययन किया जाता है। प्रकृति के रहस्यों को समझने क उत्कट इच्छा से प्रेरित होकर मनुष्य ने आकाशीय पिंडो का अध्ययन प्रारंभ किया। उसने इनके विषय में जितनी सूचना केवल नेत्रों की सहायता से प्राप्त की जा सकती थी प्राप्त की; उदाहरणत:, वह पृथ्वी की दैनिक तथा वार्षिक गतियों और उनसे संबद्ध भौतिक घटनाओं, चंद्रमा की कलाओं तथा चांद्र मास, ग्रहों की गतियों आदि को समझने लगा। परंतु जब तक सूर्य, चंद्रमा तथा ग्रहों को बिंब और तारों को प्रकाशबिंदु समझा जाता रहा, इनके विषय में अधिक न जाना जा सका।[1]

ताराभौतिकी की रचना

इटली के ज्योतिषी गैलिलीओं गैलिलि (सन्‌ 1564-1642) ने सन्‌ 1612 में आकाशमंडल के अध्ययन में पहली बार दूरदर्शी का प्रयोग किया; किंतु जब तक दूरदर्शी की रचना में समुचित उन्नति नहीं हुई, इसके उपयोग से भी ग्रहपृष्ठों के अध्ययन के अतिरिक्त कोई और विशेष महत्वपूर्ण सूचना न प्राप्त की जा सकी। ज्यों ज्यों दूरदर्शी की रचना में सुधार होता गया, ज्योतिष संबंधी अनुसंधान में उसकी उपयोगिता बढ़ती गई, परंतु ताराभौतिकी का प्रारंभ तो 11वीं शताब्दी के द्वितीय चतुर्थांश में हुआ, जब सूर्य तथा अन्य तारों के प्रकाश के अध्ययन में जर्मनी के भौतिकविद्, गुस्तैफ रॉबर्ट किर्खहॉफ (सन्‌ 1824-1887), द्वारा प्रतिपादित वर्णक्रमिकी [2] के सिद्धांतों का उपयोग प्रारंभ हुआ। इस साधन के विकास में फोटोग्राफी से अत्यंत सहायता मिली, क्योंकि इसकी सहायता से आलोकित वर्णक्रमपट्ट स्थायी रूप से तुलनात्मक अध्ययन के लिये उपलब्ध होने लगे। इसी प्रकार ज्योतिर्मिति [3] और वर्णक्रम की रेखाओं की तीव्रता नापने के साधनों ने वर्णक्रमिकी द्वारा किए गए अध्ययन में सहयोगी बनकर, खगोलीय पिंडों की भौतिक अवस्था के विषय में अमूल्य सूचना प्रदान की। [1]

किर्खहॉफ सिद्धांत

जब कोई गैस जलाई जाती है तब, किर्खहॉफ के सिद्धांत के अनुसार, वह श्वेत प्रकाश का विकिरण न करके केवल विशेष वर्णों के प्रकाश का ही विकिरण करती है। इन वर्णों को गैस के लाक्षणिक वर्ण कहते हैं। इन वर्णों में कौन कौन से वर्ण प्रकट होंगे, यह उस भौतिक अवस्था में स्थित दीप्तिमान गैस में से यदि श्वेत प्रकाश गमन करे, तो श्वेत प्रकाश का वर्णक्रम संतत नहीं होता, वरन्‌ उसमें गैस के लाक्षणिक वर्ण अनुपस्थित होते हैं। इसके अतिरिक्त यदि श्वेत प्रकाश के उदगम का ताप गैस के ताप से ऊँचा हो, तो वर्णक्रमपट्ट में गैस के लाक्षणिक वर्णो के स्थान में काली रेखाएँ, जिन्हें फ्रौनहोफर [4] रेखाएँ कहते हैं, प्रकट होती हैं। इन काली रेखाओं के अध्ययन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि श्वेत प्रकाश किस किस गैस में गमन करके वर्णक्रमदर्शी तक पहुँचा है तथा उसके गैस परमाणु किस भौतिक अवस्था में हैं।

किर्खहॉफ ने इस सिद्धांत का प्रतिपादन प्रयोगों के आधार पर किया था। परंतु आगे चलकर परमाणु रचना के ज्ञान और क्वांटम सिद्धांत की सहायता से वर्णक्रमिकी के नियमों का प्रतिपादन सैद्धांतिक रूप से किया जा सका। उपर्युक्त कथन से यह स्पष्ट है कि ताराभौतिकी के अध्ययन में वर्णक्रमिकी के साधन की उपयोगिता की एक स्वाभाविक सीमा है। यह इसलिए कि वर्णक्रमदर्शी पदार्थ की भौतिक अवस्था के विषय में तभी सूचना दे सकता है जब यह पदार्थ दीप्तिमान गैस के रूप में हो। अत: इस साधन से यह नहीं जाना जा सकेगा कि प्रकाश के पथ में स्थित पिंडखंड किन पदार्थों के बने हुए हैं तथा उनकी भौतिक अवस्था क्या है। खगोलीय पिंडों से जो प्रकाश आता है वह उसके आंतरिक भागों में उत्पन्न होता है, फिर भी उन भागों की रचना के विषय में वर्णक्रमदर्शी की सहायता से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। वह तो केवल इन पिंडों को घेरे हुए गैस मंडल के विषय में ही सूचना देने में समर्थ है। फलत: इन पिंडों के आंतरिक भागों की रचना तथा भौतिक अवस्था के विषय में जानने के लिये वर्णक्रमिकी से भिन्न साधनों की आवश्यकता है। इन साधनों का वर्णन आगे किया जाएगा।

तारापिंड के प्रकार

अघ्ययन के साधनों के विचार से तारापिंड को दो मुख्य भागों में विभक्त किया जा सकता है-

  1. आंतरिक भाग
  2. गैसमंडल

वर्णक्रम के आधार पर तथ्य

वर्णक्रम के अध्ययन के आधार पर तारों के विषय में अनेक तथ्य ज्ञात किए जा चुके हैं, जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित है- 1. सूर्य तथा अन्य तारे दीप्तिमान गैस के विशाल गोलीय पिंड हैं, जिनके आंतरिक भागों के पृष्ठ का ताप, जिसे पृष्ठीय कहते हैं, सहस्रों अंशों तक होता है। पृष्ठ से ज्यों ज्यों तारे के केंद्र की ओर बढ़ें, ताप में वृद्धि होती जाती है; यहाँ तक कि केंद्रीय ताप कई लाख पाया जाता है।

2. प्रत्येक तारे का आंतरिक भाग गैसमंडल से घिरा हुआ है। इन गैसमंडलों में जो तत्व पहचाने गए है वे सब पृथ्वी पर भी पाए जाते हैं। इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि यहाँ पर पृथ्वी पर पाए जानेवाले तत्वों से भिन्न अन्य तत्व नहीं होंगे। वास्तव में तारों के वर्णक्रम में ऐसी फ्रौनहोफर रेखाएँ पाई जाती हैं जो पृथ्वी पर पाए जानेवाले किसी भी तत्व की रेखाओं से भिन्न हैं। तारों के गैस मंडल में मुख्य रूप से हाइड्रोजन, हीलियम, कार्बन, लोहा आदि उपस्थित होते हैं। भारतीय ज्योतिषी, मेघनाद साहा, ने सन्‌ 1922 में अपने प्रसिद्ध ऊष्माअयनन सूत्र का प्रतिपादन किया, जिसकी सहायता से वर्णक्रम पट्टी का वास्तविक तथ्य समझा जा सकता है। इंग्लैंड के प्रसिद्ध ज्योतिषी एडिंगटन के शब्दों में साहा सूत्र, दूरदर्शी के पश्चात्‌, ज्योतिष में सबसे अधिक महत्वपूर्ण आविष्कार है।

3. तारे के सतत वर्णक्रम के अध्ययन से उसका प्रभावी [5] ताप निश्चित किया जाता है। अन्वेषण में यह कल्पना की जाती है कि तारा एक आदर्श कृष्ण पिंड [6] है, जिसका तात्पर्य यह है कि उसका पृष्ठ इस प्रकार संगठित है कि वह उन सब विकिरणों का, जो उस पर निपात करते हैं, पूर्ण रूप से अवशोषण कर लेता है। किर्खहॉफ और बैलफुर और स्टुअर्ट [7] ने यह सिद्ध किया है कि यदि पिंड की ऊर्जा में परिवर्तन न हो, तो प्रत्येक वर्ण में उसके विकिरण और अवशोषण की मात्राएँ एक विशेष अनुपात में होती हैं। कृष्ण शब्द का पिंड के दृश्य रंग से कोई संबंध नहीं है। ऐसे पिंड के सैद्धांतिक, अथवा प्रयोगात्मक, अध्ययन ने यह सिद्ध किया है कि विशेष ताप पर प्रत्येक वर्ण की तीव्रता [8] निश्चित होती है। प्लांक ने ऊष्मागतिकी के आधार पर एक सूत्र का प्रतिपादन किया है, जो यह बताता है कि ऊष्मा गतिकीय साम्य [9] की अवस्था में आदर्श कृष्ण पिंड के अमुक वर्ण के विकिरण की अमुक तीव्रता होती है। ऊपर दिया रेखाचित्र तरंगदैर्ध्य [10] और विकिरण की तीव्रता में संबंध बताता है।

पिंड के दिए हुए ताप के लिये वक्र और तरंगदैर्ध्य के अक्ष के मध्य में सीमित क्षेत्रफल उस संपुर्ण ऊर्जा को निश्चित करता है जिसका विकिरण तारा आकाश में प्रति क्षण कर रहा है। इन वक्रों से यह भी स्पष्ट है कि पिंड के ताप में परिवर्तन के साथ ही साथ महत्तम तीव्रता के तरंगदैर्ध्य में भी परिवर्तन हो जाता है। वस्तुत: ज्यों ज्यों पिंड के ताप में वृद्धि होती जाती है, महत्तम तीव्रता का तरंगदैर्ध्य घटता जाता है, अर्थात्‌ वह वर्णक्रम में दृश्य भाग की ओर हटता जाता है।

आदर्श कृष्ण पिंड के लिये प्लांक नियम के अनुसार ताप और महत्तम तीव्रता के तरंगदैर्ध्य के संबंध को प्रकट करने वाला सूत्र सरलता से ज्ञात कर लिया जाता है। अत: तारे के प्रभावी ताप को निश्चित करने के लिये पहले उसके वर्णक्रम के अध्ययन से महत्तम तीव्रता के विकिरण का तरंगदैर्ध्य ज्ञात किया जाता है। तारे का प्रभावी ताप वास्तव में उस आदर्श कृष्ण पिंड का ताप है जिसके विकिरण की महत्तम तीव्रता उसी तरंगदैर्ध्य में है जिसमें तारे की।[1]

4. तारों के वर्णक्रम लेखों में बड़ी भिन्नता पाई जाती है, परंतु फिर भी यदि मुख्य मुख्य फ्रौनहोफर रेखाओं पर ही ध्यान दें तो इन वर्णक्रमपट्टों को कुछ वर्गों को कुछ वर्गों में बाँटा जा सकता है। गत शताब्दी में अनेक ज्योतिषियों ने तारों का वर्णक्रम के विचार से वर्गीकरण करने का प्रयत्न किया, परंतु प्रचलित वर्गीकरण वर्तमान शताब्दी के प्रथम वर्षो में हारवर्ड वेधशाला में प्रोफेसर मिकरिंग, श्रीमती फलेमिंग तथा कुमारी केनन द्वारा किया गया था। इस वर्गीकरण में कुछ अक्षरों का प्रयोग किया गया है, जिनके वरण का सुविधा के अतिरिक्त और कोई विशेष वैज्ञानिक आधार नहीं है। इस वर्गीकरण के मुख्य वर्ग ओ (O), ब (B), ए (A), फ (F), ग (G), क (K) तथा म (M) से चिह्नित किए जाते हैं सुविधा के लिये इनमें से प्रत्येक वर्ग दस उपवर्गों में विभाजित किया जाता है। व्यवहार में तारे के वर्ग का निश्चय उसके वर्णक्रमपट्ट की प्रमुख अवशोषण रेखाओं अथवा फ्रौनहोफर रेखाओं की तीव्रता के आधार पर किया जाता है, जो ताप एवं दाब दोनों पर निर्भर करती हैं। अत: वर्गीकरण में ताप एवं दाब का प्रभाव इस प्रकार विचार मे लिया जाता है कि अधिकांश तारे दो मुख्य श्रेणियों में विभाजित किए जा सकें : (1) विशाल (giant) तारे , (2) वामन (dwarf) तारे, और तब प्रत्येक श्रेणी में अवशोषण रेखाओं की तीव्रताएँ इतने नियमानुसार बदलती हैं कि दी हुई तीव्रताओं के लिये तारे के वर्ग का, फलत: उसके प्रभावी ताप का, निश्चय अनन्य रूप से किया जा सकता है। दिये हुए वर्ग के विशाल तारे का ताप उसी वर्ग के वामन तारे के ताप की अपेक्षा कम होता है। सूर्य वामन श्रेणी का सदस्य है।[1]

निम्नांकित सारणी में इन वर्गों से संगत वामन श्रेणी के तारों के लिये प्रभावी ताप एवं वर्णक्रमपट्ट की विशेताएँ दी गई है:

वर्ग ताप (परमताप अंशों में) रंग वर्णपट्ट की विशेषता
ओ७ (O7) 28750 नील हाइड्रोजन आयनिक हीलियम
बo (Bo) 21390 नील हाइड्रोजन, हीलियम
ब5 (B5) 14490 श्वेत हाइड्रोजन, हीलियम
अ0 (A0) 10520 श्वेत हाइड्रोजन, आयनिक धातुएँ
अ5 (A5) 8390 श्वेत हाइड्रोजन, आयनिक धातुएँ
फ0 (F0) 7300 तृणपीत आयनिक धातुएँ
फ5(F5) 6210 तृणपीत आयनिक धातुएँ
ग0 (G0) 5750 पीत आयनिक एवं आयनिक धातुएँ
ग5 (G5) 5160 पीत आयनिक एवं आयनिक धातुएँ
क0 (K0) 4650 नारंगी आयनिक धातुएँ
क5 (K5) 4050 नारंगी आयनिक धातुएँ
म0 (M0) 3890 रक्त परमाणु
म5 (M5) 3735 रक्त परमाणु

आगे चलकर अविशिष्ट अवलोकित तारों को वर्गीकरण में सम्मिलित करने के लिये इस वर्गीकरण के प्रारंभ में वर्ग व (W) और अंत में न (N), र (R) तथा स (S) वर्गों का योग कर दिया फलत: प्रचलित वर्गीकरण इस प्रकार है:

5. वर्णक्रमिकी [11] के साधन ने यह भी प्रकट किया कि बहुत से तारे, जो बड़े से बड़े दूरदर्शी द्वारा लिए गए फोटोग्राफों में अकेले दिखाई देते हैं, वास्तव में दो तारे हैं, जो अपने गुरुत्वकेंद्र[12] की परिक्रमा करते रहते हैं। इन तारों को वर्णक्रमदर्शीय युग्मक तारे (spectroscopic binaries) कहते हैं।

6. चुंबकीय क्षेत्र में स्थित दीप्तिमान गैस की वर्णक्रम रेखाएँ साधारण दशा में विकीरित रेखाओं की अपेक्षा अधिक विस्तृत होती हैं तथा प्रत्येक दो में और कभी कभी अधिक उपरेखाओं में खंडित हो जाती है। इसे जेमान प्रभाव कहते हैं। बैबकाक ने कुछ तारों के वर्णक्रमपट्टों में इस प्रभाव को विद्यमान पाया, जिसके आधार पर उसने यह निष्कर्ष निकाला कि इन तारों में सूर्य की भाँति चुंबकीय क्षेत्र विद्यमान है।

7. तारों के बीच के स्थान में संपूर्ण रूप से पदार्थ का अभाव नहीं है। वहाँ अत्यंत विसरित [13] धूलि तथा पिंडखंड विद्यमान हैं। उदाहरणार्थ, आकाशगंगा में सूर्य के समीप प्रति घन सेंमी० में माध्यत: एक हाइड्रोजन परमाणु प्रति घन सेंमी० और प्रति घन किमी० में 10-5 सेंमी० अर्धव्यास के लगभग 25 पिंडखंड पाए जाते हैं। इस प्रकार इस स्थान में स्थित पदार्थ का घनत्व लगभग 3*10-24 ग्राम प्रति घन सेंमी० है। तारों के गैसमंडल में भी पदार्थ का घनत्व लगभग इतना ही होता है। यह कथन आकाशगंगा के अन्य भागों के विषय में सत्य नहीं है। अब यह निश्चित रूप से ज्ञात है कि प्रत्येक नीहारिका के भिन्न भिन्न भागों में घनत्व भिन्न है। तारे के भीतर के पदार्थ की प्रवृत्ति गैस के घने मेघों के रूप में विद्यमान होने की पाई जाती है। इन मेघों का पुंज तारों के पुंज, और कभी कभी विशाल तारामंडल के पुंज, के समान होता है। यह मेघ अपने पीछे स्थित तारों के प्रकाश का अवशोषण ही नहीं, वरन्‌ उसका प्रकीर्णन भी करते हैं, जिससे तारे का प्रकाश रक्त वर्ण का आभासित होने लगता है; उदाहरणार्थ, पृथ्वी के वायुमंडल के अणु संध्या समय सूर्य के प्रकाश का प्रकीर्णन कर सूर्य को रक्त वर्ण प्रदान करते हैं। इस प्रकीर्णन की मात्रा के अध्ययन से ही तारे के भीतर के पदार्थ में विद्यमान पिंडखंडों के माध्यपरिमाण का निश्चय किया जाता है।

तारों का आंतरिक संघटन

जैसा पहले लिखा जा चुका है, तारों के आंतरिक संघटन को जानने का कोई भौतिक साधन उपलब्ध नहीं है। अत: इस संघटन का अध्ययन करने के लिये गणितीय साधनों का उपयोग करना पड़ता है। अवलोकित सामग्री तथा भौतिक सिद्धांतों के अनुकूल तारों के आंतरिक भाग के सरल प्रतिरूप (मॉडल) की कल्पना की जाती है और फिर इस प्रतिरूप के भौतिक लक्ष्‌ण गणित की रीति से निश्चित किए होते हैं। यदि ये लक्षण तारों के आलोकित लक्षणों के समान हों, तो यह निष्कर्ष निकलता है कि तारे के आंतरिक भाग में भी वैसी ही भौतिक अवस्थाएँ विद्यमान हैं जैसी प्रतिरूप में। ऐसे कितने ही प्रतिरूपों का अध्ययन किया गया है। इसके फलस्वरूप तारों के आंतरिक भाग के संघटन के विषय में समुचित ज्ञान प्राप्त किया जा सका हैं।

कुछ प्रकार के तारों का पुंज और उनके अर्धव्यास ज्ञात हैं। इसके अतिरिक्त प्रत्येक तारे का यह आवश्यक लक्षण है कि वह सतत आकाश में सब ओर ऊर्जा का विकिरण करता रहता है। ऊर्जा के विकिरण की दर, जिसे तारे की ज्योति [14] कहते हैं, तारे का उतना ही महत्वपूर्ण लक्षण है जितने उसके पुंज और अर्धव्यास। यदि तारों के पुंज और उनते अर्धव्यासों का रेखाचित्र खींचा जाए, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि तारे लगभग तीन भागों में विभाजित किए जा सकते हैं। तारों के पुंज और ज्योतिषयों का रेखाचित्र भी इस कथन का समर्थन करता है। अधिकांश तारों के लिये उनकी ज्योति पुंज के लगभग 3.5 घात के अनुसार विचरण करती है। इन तारों के समूह को मुख्य श्रेणी कहते हैं। जो तारे इस श्रेणी से भिन्न हैं, वे दो प्रकार के होते हैं :

  1. श्वेत वामन [15]
  2. ट्रंपलर तारे

ट्रंपलर तारों की ज्योति उनके पुंज के अनुपात में विचरण करती है। यदि एक ही पुंज की मुख्य श्रेणी के तारों और श्वेत-वामन की ज्योतियों ओर अर्धव्यासों की तुलना करें, तो यह पाया जाता है कि श्वेत वातन मुख्य श्रेणी के तारे की अपेक्षा बहुत कम ज्येतिष्मान्‌ होता है और उसका अर्धव्यास भी बहुत कम होता है। अत: श्वेत वामन का पदार्थ अत्यंत घन होना चाहिए। द्वितीय-लुब्धक (सीरियम-बी) श्वेत-वामन श्रेणी का प्रतिनिधि माना जाता है। इसका माध्य घनत्व लगभग 6.8*104 ग्राम प्रति घन सेंमी० है। यही यहीं, यदि एक ही प्रभावी ताप के मुख्य श्रेणी के तारों और श्वेत वामन की ज्योतियों की तुलना करें, तो श्वेत वामन मुख्य श्रेणी के तारे की अपेक्षा बहुत ही कम ज्येतिष्मान होता है। ये भिन्नताएँ तारों के आंतरिक संघटन की भिन्नता की द्योतक हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संदर्भ ग्रंथ - लोरेंस एच० ऐलर : ऐस्ट्रोफिजिक्स भाग 1, 2; ऐस्ट्रोफिजकल जर्नल 1953-58।

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 ताराभौतिकी (हिन्दी) भारतखोज। अभिगमन तिथि: 01 अगस्त, 2015।
  2. spectroscopy
  3. फोटोमिटरी, Photometry
  4. Fraunhofer
  5. effective
  6. black body
  7. B. Stewart
  8. intensity
  9. thermodynamic equilibrium
  10. wave length
  11. Spectroscopy
  12. centre of gravity
  13. diffused
  14. luninosity
  15. white dwarfs

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