आँख

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आँख एवं उसकी आन्तरिक संरचना

आँख (अंग्रेज़ी:Eye) अधिकांश जीव जंतुओं के शरीर का आवश्यक अंग हैं। इस लेख में मानव शरीर से संबंधित उल्लेख है। आँख या नेत्रों के द्वारा हमें वस्तु का 'दृष्टिज्ञान' होता है। दृष्टि वह संवेदन है, जिस पर मनुष्य सर्वाधिक निर्भर करता है। दृष्टि एक जटिल प्रक्रिया है, जिसमें प्रकाश किरणों के प्रति संवेदिता, स्वरूप, दूरी, रंग आदि सभी का प्रत्यक्ष ज्ञान समाहित है। आँखें अत्यंत जटिल ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, जो दायीं-बायीं दोनों ओर एक-एक नेत्र कोटरीय गुहा में स्थित रहती है। ये लगभग गोलाकार होती हैं तथा इनका व्यास लगभग एक इंच (2.5 सेंटीमीटर) होता है। इन्हें नेत्रगोलक कहा जाता है। नेत्र कोटरीय गुहा शंक्वाकार होती है। इसके सबसे गहरे भाग में एक गोल छिद्र (फोरामेन) होता है, जिसमें से होकर द्वितीय कपालीय तन्त्रिका (ऑप्टिक तन्त्रिका) का मार्ग बनता है। नेत्र के ऊपर व नीचे दो पलकें होती हैं। ये नेत्र की धूल के कणों से सुरक्षा करती हैं। नेत्र में ग्रन्थियाँ होती हैं। जिनके द्वारा पलक और आँख सदैव नम बनी रहती हैं। इस गुहा की छट फ्रन्टल अस्थि से, फर्श मैक्ज़िला से, लेटरल भित्तियाँ कपोलास्थि तथा स्फीनॉइड अस्थि से बनती हैं और मीडियल भित्ति लैक्राइमल, मैक्ज़िला, इथमॉइल एवं स्फीनॉइड अस्थियाँ मिलकर बनाती हैं। इसी गुहा में नेत्रगोलक वसीय ऊतकों में अन्त:स्थापित एवं सुरक्षित रहता है।

आँख की संरचना

नेत्र गोलक की भित्ति का निर्माण ऊतकों की निम्न तीन परतों से मिलकर हुआ होता है-

  1. बाह्म तन्तुम परत
  2. अभिमध्य वाहिकामयी
  3. आन्तरिक तन्त्रिकामयी परत

बाह्म तन्तुम परत

यह आँख की बाह्य, सफ़ेद व अपारदर्शक परत होती है। इसके उभरे हुए भाग को कार्निया कहते हैं। इस भाग में बाहर की ओर एक बहुत पतली झिल्ली होती है। जिसे कन्जंक्टाइवा कहते हैं। इसके पिछले भाग से दृष्टि तन्त्रिका निकलती है। जिसका सम्बन्ध मस्तिष्क की दृक पालियों से होता है। बाह्य पटल से ही नेत्रगोलक को घुमाने वाली पेशियाँ सम्बन्धित होती हैं।

नेत्रगोलक में यह सबसे बाहर की सहारा देने वाली परत है, जो मुख्यतः दृढ़, तंतुमय संयोगी ऊतक की मोटी मेम्ब्रेन से निर्मित होती है। इसमें श्वेत पटल या स्क्लेरा एवं स्वच्छमण्डल या कॉर्निया का समावेश रहता है।

  • श्वेतपटल (स्क्लेरा)

नेत्रगोलक के पिछले भाग की अपारदर्शी, दृढ़ तंतु ऊतकों की श्वेत परत होती है। इससे नेत्रगोलक का 5/6 पिछला भाग ही ढँका रहता है। इसकी बाह्य सतह सफ़ेद रहती है और आँख का सफ़ेद भाग बनाती है, जिस पर आँख को घुमाने वाली सभी पेशियाँ जुड़ी रहती हैं। यह नेत्रगोलक की आंतरिक कोमल परतों की रक्षा करती है तथा उसकी आकृति को स्थिर बनाए रखती है।

  • स्वच्छमण्डल (कॉर्निया)

बाह्य तंतुमयी परत का अग्र पारदर्शी भाग होता है, जो नेत्रगोलक के अग्र उभरे भाग पर स्थित रहता है। कॉर्निया नेत्रगोलक का सामने वाला 1/6 भाग बनाता है। इसमें रक्तवाहिकाओं का पूर्णतया अभाव रहता है। प्रकाश किरणें कॉर्निया से होकर रेटिना पर पहुँचती हैं।

स्क्लेरा एवं कॉर्निया निरंतरता में रहते हैं। बाह्य तंतुमयी परत नेत्रगोलक को, पिछले भाग को छोड़कर जहाँ स्क्लेरा में एक छोटा-सा छिद्र होता है जिसमें से होकर ऑप्टिक तन्त्रिका के तंतु नेत्रगोलक से मस्तिष्क में पहुँचते हैं, पूर्णतया ढँके रहती है।

अभिमध्य वाहिकामयी

यह संयोजी ऊतक का बना पतला स्तर होता है। इसमें वर्णक कोशिकाएँ तथा रुधिर कोशिकाओं का जाल पाया जाता है। यह कार्निया से पीछे एक रंगीन गोल पर्दा बनाता है। जिसे उपतारा या आइरिस कहते हैं। इसके मध्य भाग में एक छिद्र होता है जिसे तारा कहते हैं। यह भाग नेत्र पर पड़ने वाले प्रकाश का नियमन करता है। है।

यह नेत्रगोलक की बीच की परत होती है, जिसमें अनेकों रक्त वाहिकाएँ रहती हैं। इसमें रंजितपटल या कोरॉइड, रोमक पिण्ड या सिलियरी बॉडी तथा उपतारा या आइरिस का समावेश होता है।

इस परत का रंग पिगमेंटों के कारण गहरे रंग का होता है जो आँख के भीतरी कक्ष को जिसमें प्रकाश की किरणें रेटिना पर प्रतिबिम्ब बनाती हैं, पूर्णतः अन्धकारमय बनाने में सहायक होती हैं। वाहिकामयी परत का पिछला 2/3 भाग एक पतली मेम्ब्रेन का बना होता है, जिसे रंजितपटल या कोरॉइड कहते हैं, स्क्लेरा एवं रेटिना के बीच रक्त वाहिकाओं एवं संयोजी ऊतक की परत होती है। यह (कोरॉइड) गहरे-भूरे रंग का होता है तथा रेटिना की रक्त पूर्ति करती है।

वाहिकामयी परत आगे की ओर के भाग में मोटी होकर सिलियरी बॉडी बनाती है, जिसमें पेशीय एवं ग्रंथिल ऊतक रहते हैं। सिलियरी पेशियाँ लेंस की आकृति नियंत्रित करती हैं तथा आवश्यकतानुसार दूर या समीप की प्रकाश की किरणों को केन्द्रित करने में सहायता करती हैं। इन्हें समायोजन की पेशियाँ कहते हैं। सिलियरी ग्रंथियाँ पानी जैसा द्रव स्त्रावित करती हैं जिसे 'नेत्रोद' या एक्वीयस ह्यूमर कहते है, यह आँख में लेंस तथा कॉर्निया के बीच के स्थान में भरा रहता है तथा आइरिस एवं कॉर्निया के बीच के कोण में स्थित छोटे-छोटे छिद्रों के माध्यम से शिराओं में जाता है।

कोरॉइड का अग्र प्रसारण एक पतली पेशीय परत के रूप में होता है जिसे उपतारा या आइरिस कहते हैं। यह नेत्रगोलक का रंगीन भाग है जिसे कॉर्निया से होकर देखा जा सकता है। यह कॉर्निया और लेंस के मध्य स्थित रहता है तथा इस स्थान को एंटीरियल एवं पोस्टीरियल चैम्बर्स में विभाजित करता है। कॉर्निया एवं आइरिस के बीच का स्थान एंटीरियल चेम्बर (अग्रज कक्ष) तथा आइरिस एवं लेंस के बीच का स्थान पोस्टीरियल चैम्बर (पश्चज कक्ष) होता है। आइरिस में वृत्ताकार एवं विकीर्ण तंतुओं के रूप में पेशीय ऊतक रहते हैं, वत्ताकार तंतु पुतली को संकुचित करते हैं और विकीर्ण तंतु इसे विस्फारित (फैलाते) करते हैं।

आइरिस के मध्य में एक गोलाकार छिद्र रहता है। जिसे पुतली या प्यूपिल कहा जाता है, इसमें आप अपने परावर्तित प्रतिबिम्ब को एक छोटी-सी डॉल के समान देखते हैं। पुतली का परिणाम प्रकाश की तीव्रता के अनुसार घटता-बढ़ता रहता है। तेज़ रोशनी को आँख में प्रतिष्ट होने से रोकने के लिए तीव्र प्रकाश के प्रभाव से यह संकुचित हो जाती है तथा कम (मन्द) प्रकाश में विस्फारित यानि फैल जाती है ताकि अधिक से अधिक प्रकाश (रोशनी) रेटिना तक पहुँच सके।

आँख की आन्तरिक संरचना

आन्तरिक तन्त्रिकामयी परत

यह नेत्र की सबसे अन्दर की महत्त्वपूर्ण परत होती है। इसी पर किसी भी वस्तु का प्रतिबिम्ब बनता है। दृष्टि पटल पर दृष्टि तन्त्रिका कोशिकाओं का जाल पाया जाता है। दृष्टि तन्त्रिका नेत्र में जिस स्थान से प्रतिष्ट होती है, वहाँ प्रतिबिम्ब नहीं बनता है। इस स्थान को अन्ध बिन्दु कहते हैं। इसी के समीप ही पीत बिन्दु पाया जाता है, जिस पर वस्तु का सर्वाधिक स्पष्ट प्रतिबिम्ब बनता है। दृष्टि पटल आगे की ओर एक उभयोत्तल ताल बनाता है, जिसके द्वारा प्रकाश किरणें वस्तु से परावर्तित होकर आँख के अन्दर जाती हैं। ताल के दोनों सिरों पर सिलियरी पेशियाँ स्थित होती हैं। इनके द्वारा लेन्स का आकार घटाया या बढ़ाया जाता है। इस शक्ति को नेत्र की संमजन क्षमता कहते हैं। कार्निया तथा लेन्स के मध्य जलकोश स्थित होता है, जिसमें नेत्रोद द्रव तथा अन्तःपटल और लेन्स के मध्य बड़ा जेलीकोश पाया जाता है, जिसमें काचाभ द्रव भरा रहता है।

नेत्रगोलक के सबसे भीतर की परत को दृष्टिपटल या रेटिना कहा जाता है, जो तन्त्रिका कोशिकाओं एवं तन्त्रिका कोशिकाओं एवं तन्त्रिका तंतुओं की अनेकों परतों से बना होता है और नेत्र के पोस्टीरियल चैम्बर में अवस्थित होता है। इसके एक ओर कोरॉइड है और यह उससे सटा हुआ-सा रहता है। दूसरी ओर नेत्रकाचाभ द्रव भरा रहता है। सिलियरी बॉडी के ठीक पीछे इसका अंत हो जाता है। यह अण्डाकार होता है। रेटिना में एक मोटी एवं एक पतली परत होती है। मोटी परत तन्त्रिका ऊतक की होती है जिसे न्यूरोरेटिना कहा जाता है, यह आप्टिक तन्त्रिका से जोड़ती है। इसके पीछे वर्णक युक्त उपकला की एक पतली परत होती है, जो कोरॉइड से संलग्न करती है और रेटिना के पीछे से रिफ्लेक्शन को रोकती है। न्यूरोरेटिना में लम्बी छड़ के आकार की कोशिकाएँ-रॉड्स एवं शंकु के आकार की कोशिकाएँ-कोंस रहती हैं जो अपने भीतर विद्यमान प्रकाश सुग्राही पिगमेंटों के कारण प्रकाश के प्रति अति संवेदनशील होते हैं। इनके अतिरिक्त न्यूरोरेटिना में बहुत सी अन्य तन्त्रिकाकोशिकाएँ (न्यूरोंस) भी रहते हैं। प्रत्येक आँख में लगभग 125 मिलियन रॉड्स एवं 7 मिलियन कोंस होती हैं, जिनके कार्य अलग-अलग होते हैं। अधिकांश कोंस रेटिना के मध्य में लेंस के ठीक पीछे के क्षेत्र, जिसे पीत बिन्दु या मैक्यूला ल्यूटिला कहते हैं, में अवस्थित रहते हैं। मैक्यूला ल्यूटिला के केन्द्र में एक छोटा-सा गड्ढ़ा रहता है, इसे गर्तिका अथवा केन्द्रीय गर्तिका या फोबिया सेंट्रेलिस कहते हैं, रेटिना के शेष भाग जिसे परिसरीय रेटिना कहते हैं में रॉड्स एवं कुछ कोंस अवस्थित रहते हैं। मैक्यूला ल्यूटिया रेटिना का वह स्थान है जहाँ पर सर्वाधिक स्पष्ट विम्ब बनता है। कोंस रंग-बोध कराते हैं। जबकि रॉड्स काली-सफ़ेद छायाओं का बोध कराते है, इनके ही माध्यम से हम क्षीण प्रकाश में भी वस्तुओं को देख पाते हैं।

मैक्यूला ल्यूटिया के नाम वाले भाग की ओर लगभग 3 मिली. की दूरी पर से ऑप्टिक तन्त्रिका नेत्र गोलक से बाहर निकलती है, वह छोटा-सा स्थान दृष्टि-चक्रिका या ऑप्टिक डिस्क कहलाता है और चूँकि यह प्रकाश के प्रति असंवेदनशील होता है इसलिए इसे अन्ध बिन्दु पर बिम्ब न बनने का कारण यह है कि इस स्थान पर रॉड्स एवं कोंस का पूर्णतः अभाव रहता हैं।

राड्स एवं कोंस दृष्टि के वास्तविक संग्राहक अंग होते हैं तथा प्रकाश जो उन पर पहुँचता है, आवेग उत्पन्न करता है, जिनका संचारण ऑप्टिक तन्त्रिका के द्वारा मस्तिष्क के दृष्टि केन्द्र में होता है, जहाँ रॉड्स एवं कोंस दृष्टि के वास्तविक संग्राहक अंग होते हैं। दृष्टि-प्रभाव उत्पन्न होते हैं।

नेत्रगोलक की गुहाएँ

नेत्रगोलक को तीन गुहाओं में विभक्त किया गया है। कॉर्निया एवं आइरिस के बीच के क्षेत्र को अग्र कक्ष या एंटीरियल चैम्बर तथा आइरिस एवं लेंस के बीच के क्षेत्र को पश्च कक्ष या पोस्टीरियल चैम्बर कहा जाता है। दोनों कक्षों में पारदर्शी, पतला, जलीय तरल भरा रहता है जिसे नेत्रोद या एक्वीयस ह्यूमर कहते हैं नेत्रगोलक के भीतर का दाब एक-सा यानि स्थिर बनाए रखना इसी के ऊपर निर्भर करता है। यह लेंस तथा कॉर्निया को आवश्यक पोषक जैसे ऑक्सीजन, ग्लूकोज़ एवं अमीनो-एसिड्स की आपूर्ति करता है, जिनमें पोषण के लिए रक्त वाहिकाएँ नहीं होती हैं। नेत्रोद का उत्पादन सिलियरी बॉडी की केशिकाओं द्वारा होता है। यह पोस्टीरियर चैम्बर से होकर गुजरता हुआ एंटीरियर चैम्बर में पहुँचता है और कॉर्निया के आधार पर स्थित स्क्लेरल वीनस साइनस, जिसे श्लेमन की नलिका भी कहते है, में फैल जाता है।

नेत्रगोलक की तीसरी और सबसे बड़ी गुहा को नेत्रकाचाभ या विट्रीयस चैम्बर कहा जाता है, जो नेत्रगोलक के लगभग 80% भाग में होती है। यह लेंस के पीछे के सम्पूर्ण स्थान को भरती है। इस चैम्बर में रंगहीन पारदर्शी जैली के समान पदार्थ भरा होता है जिसे नेत्रकाचाभ द्रव या विट्रीयस ह्यूमर कहते हैं, जो वास्तव में संयोजी ऊतक का रूपांतरण होता है। इसका कार्य बाह्य दबाव के कारण नेत्रगोलक को बाहर निकलने से रोकना होता है। इसमें कोलेजन एवं हायलूरोनिक एसिड के अतिरिक्त अन्य संघटन नेत्रोद के समान ही होते हैं। नेत्रकाचाभ द्रव का उत्पादन सिलियरी बॉडी द्वारा होता है। यह लेंस एवं रेटिना के लिए पोषक की आपूर्ति करता है।

लेंस

लेंस नेत्रगोलक में आइरिस के एकदम पीछे स्थित रहता है। यह पारदर्शी, दृढ़ किंतु लचीली, वृत्ताकार द्विउत्तल रचना है, जिसमें रक्त वाहिकाएँ होती हैं। यह एक पारदर्शक, लचीले कैप्सूल में बन्द रहता है तथा ससपेंसरी लिगामेंट्स द्वारा सिलियरी बॉडी से जुड़ा होता है। ये ससपेंसरी लिगामेंट्स लेंस को स्थिति में बनाये रखते हैं और इन्हीं के माध्यम से सिलियरी पेशियाँ लेंस पर खिंचाव डालती हैं और दूर या समीप की वस्तुओं के देखने के लिये लेंस की आकृति को परिवर्तित करती हैं। ससपेंसरी लिगामेंट्स के शिथिलन से लेंस दोनों ओर उठ जाता है अर्थात् लेंस की उत्तलता बढ़ जाती है तथा इनके तनाव से लेंस की उत्तलता कम हो जाती है और वह चपटा-सा हो जाता है। ऐसी क्रिया विभिन्न दूरियों की दृश्य वस्तुओं के अनुसार स्वतः होती है, जिसे नेत्रों का समायोजन कहते हैं।

आँखों की सहायक संरचनाएँ

आँख की आन्तरिक संरचना

आँखें अत्यंत नाज़ुक अंग हैं जो सहायक संरचनाओं के द्वारा सुरक्षित रहती हैं, ये रचनाएँ निम्नलिखित हैं-

  • नेत्रगुहा
  • भौंहे
  • पलकें
  • नेत्रश्लेष्मला या कॅन्जंक्टाइवा
  • अश्रुप्रवाही उपकरण
  • नेत्र पेशियाँ

भौंहे

फ्रंटल अस्थि के आर्बिटल प्रवर्ध के ऊपर स्थित त्वचा पर तिरछेपन के साथ उगे छोटे, बालों को भौंहे कहा जाता है। इनका प्रमुख कार्य सुरक्षा है। ये माथे पर आने वाले पसीने को आँखों में आने से रोकते हैं तथा अत्यधिक धूप से बचाते हैं।

पलकें

ये प्रत्येक आँख के सामने ऊपर एवं नीचे पतली त्वचा से आच्छदित अवकाशी ऊतक की दो गतिशील तहें होती हैं। इन दोनों में से ऊपर वाली पलकें अधिक बड़ी एवं अधिक गतिशील रहती है। ऊपर एवं नीचे वाली पलकों के संगम स्थल को कैंथाइ कहा जाता है। नाक की ओर के भीतर कैंथस को मीडियल कैंथस और कान की ओर के बाहरी कैंथस को लेटरल कैंथस कहा जाता है। पलकों को चार परतों में विभिक्त किया जा सकता है।

  1. त्वचीय परत, जिसमें बरौनियाँ होती हैं।
  2. पेशीय जिसमें आर्बिकुलैरिस ऑक्यूलाइ पेशी रहती है जो पलक को आँख के ऊपर गिराती है।
  3. तंतुमयी संयोजी ऊतक की परत जिसमें बहुत-सी त्वग्वसीय ग्रंथियाँ होती हैं, जो मीबोमियन ग्रंथियाँ कहलाती हैं। इनसे स्रावित होने वाला तैलीय पदार्थ दोनों पलकों को आपस नें चिपकने से बचाता है।
  4. सबसे अन्दर की परत एक पतली गुलाबी मेम्ब्रेन से आस्तरित होती है, जिसे कनजंक्टाइवा कहा जाता है। पलकें धूल एवं अन्य बाह्य वस्तुओं के आँखों में प्रवेश रोकने के अतिरिक्त आँखों में अत्यधिक तीव्र प्रकाश को एकाएक प्रवेश करने से रोकती हैं। पलकों के प्रत्येक कुछ सेकण्डों पर झपकते रहने से ग्रंथिल स्त्राव (आँसू) नेत्रगोलक पर फैल जाते हैं। जिससे कॉर्निया तर बनी रहती है। निद्रा के दौरान बन्द पलकें स्त्रावों के वाष्पीकरण होने से रोकती हैं। जब कोई वस्तु आँख के पास आती है, तो प्रतिवर्ती क्रिया में पलकें स्वतः बन्द हो जाती हैं।

बरौनियाँ

पलकों के किनारों पर छोटे-छोटे मोटे बाल आगे की ओर निकलते रहते हैं, जिन्हें बरौनी कहा जाता है। ये बाह्य पदार्थों को आँखों में प्रवेश करने से रोकते हैं। प्रत्येक आँख की पलक में लगभग 200 बरौनियाँ होती हैं। प्रत्येक बरौनी 3 से 5 माह में स्वतः गिर कर नवीन बरौनी उग आती है। इसके रोमकूपों के संक्रमित हो जाने पर गुहेरियाँ निकल जाती है।

नेत्रश्लेष्मला या कनजंक्टाइवा

कनजंक्टाइवा एक पतली पारदर्शन म्यूकस मेम्ब्रेन है जो पलकों के आंतरिक भाग को आस्तरित करती है तथा पलट कर नेत्र गोलक की ऊपर आकर सतह को आच्छादित करती है। पारदर्शन कॉर्नियाँ पर आकार समाप्त हो जाती है, जो अनाच्छादित रहता है। पलक को आस्तरित करने वाला भाग पल्पेब्रल कनजंक्टाइवा कहलाता है। इन दोनों भागों के बीच दो नेत्रश्लेष्मकला कोष होते हैं। इन्हीं कोषों के माध्यम से नेत्रगोलक एवं पलक में गति होना सम्भव होता है। नेत्र में डाली जाने वाली आईड्रॉप्स प्रायः निचले पलक को पीछे की ओर खींच कर अधोवर्ती नेत्रश्लेष्मकला कोष में डाली जाती हैं।

अश्रुप्रवाही उपकरण

प्रत्येक आँख में एक अश्रुप्रवाही उपकरण या लैक्राइमल एपरेटस होता है, जो अश्रुग्रंथि, अश्रुकोष, अश्रु वाहिनियाँ तथा नासा अश्रुवाहिनी से बनता है।

अश्रुग्रंथियाँ

प्रत्येक आँख की ऊपरी पलक के नीचे लेटरल कैंथस के ऊपर स्थित होती हैं। जिनके स्राव से नेत्रगोलक तर रहता है। प्रत्येक अश्रुग्रंथि बादाम के आकार की होती है तथा फ्रंटल अस्थि के नेत्रगुहा प्लेट के गर्त में अवस्थित होती है। यह स्त्रावी उपकला कोशिकाओं की बनी होती है। इन ग्रंथियों में से अनेक वाहिनियाँ निकलती हैं जो नेत्रश्लेष्मलाकोष के ऊपरी भाग में खुलती हैं। इन ग्रंथियों में आँसुओं का निर्माण होता है, जो अश्रुवाहिनियों द्वारा पलकों के नीचे आ जाते हैं और नेत्रगोलक के सामने वाले भाग पर फैलने के बाद प्रत्येक आँख के मीडियल कैंथस की ओर जाते हैं जहाँ पर ये दो अश्रुप्रवाही सूक्ष्मनलिकाएँ यहाँ स्थित माँस के एक छोटे-से लाल उभार जिसे माँसांकुर कहते हैं, के एक ऊपर और एक नीचे से जाती है और जो अश्रुकोष में प्रवेश कर जाती हैं। अश्रुकोष नासाअश्रुवाहिनी के ही ऊपर का फैला हुआ विस्फारित भाग होता हैं। नासा अश्रुवाहिनी नासा गुहा की अस्थित भित्ति को नीचे की ओर पार करती हुई नाक की इंफीरियल मिएटस में आकर खुलती है, जिसके द्वारा आँसू नाक में पहुँच जाते हैं।

आँसू

आँखें प्रत्येक 2 से 10 सेकण्ड पर झपकती रहती हैं, जिससे अश्रुग्रंथि उद्दीप्त होकर एक निर्जीवाणुक तरल स्त्रावित करती है, जिसे आँसू कहते हैं। आँसुओं में जल, लवण, म्यूसिन तथा एक जीवाणुनाशक एंजाइम लाइसोज़ाइम रहता है।

कार्य
  1. आँसू आँखों को चिकना एवं नम रखते हैं, जिससे पलकों की गति सहजतापूर्वक हो सके।
  2. आँसू बाह्य वस्तुओं, धूलकणों आदि को धोकर साफ़ कर देते हैं।
  3. आँसूओं में विद्यमान जीवाणुनाशक एंजाइम लाइसोज़ाइम में जीवाणु नष्ट हो जाते हैं।
  4. आँसू कॉर्निया एवं लेंस को जल एवं पोषण की आपूर्ति करते हैं।
  5. आँसू नेत्रगोलक को स्वच्छ, नम तथा चिकनी सतह प्रदान करते हैं।

नेत्र पेशियाँ

नेत्रगोलक की इसके सॉकेट में गति निम्न 6 पेशियों के सेट द्वारा सम्पादित होती है। इनमें चार सीधी और दो तिरछी (तिर्यक) पेशियाँ होती हैं।

आँख की आन्तरिक संरचना

सीधी पेशियाँ

  1. मीडियल रेक्टस
  2. लेटरल रेक्टस
  3. सुपीरियर रेक्टस
  4. इंफीरियर रेक्टस

तिरछी या तिर्यक पेशियाँ

  1. सुपीरियर ऑब्लिक पेशी
  2. इंफीरियर ऑब्लिक पेशी

ये सभी पेशियाँ बाह्य पेशियाँ कहलाती हैं, क्योंकि ये नेत्रगोलक के बाहर रहती हैं। प्रत्येक पेशी का एक सिरा कपालास्थि से संलग्न रहता है। तथा दूसरा सिरा नेत्रगोलक के स्कलेरा से संलग्न रहता है। इन सभी पेशियों की सहायता से नेत्रगोलक को सभी दिशाओं में घुमाना संभव होता है। इन पेशियों की गतियों में समंवय होने से ही आँखें घुमायी जाती हैं। जिससे दोनों आँखें एक ही वस्तु पर केन्द्रित होती हैं। दोनों आँखें सदैव एक-दूसरे के सहयोग से काम करती हैं और यही कारण है कि दोनों आँखों से देखने पर भी हम केवल एक ही वस्तु देखते हैं। पेशियों की कमज़ोरी की अवस्था में अथवा उनके रोगग्रस्त हो जाने पर दोनों आँखों की दृष्टि एक ही स्थान पर नहीं पड़ती है, जिससे वस्तु एक रहते हुए भी दो दिखाई देती हैं।

पेशियों की गतियाँ

उपर्युक्त पेशियों की गतियाँ एक-दूसरे के विपरित होती हैं अर्थात् जब पेशियों का एक सेट संकुचित होता है तो इसके ठीक विपरीत वाली पेशियों का सेंट शिथिलन की क्रिया करता है। जैसे- सुपीरियर रेक्टस के संकुचन के साथ इंफीरियर रेक्टस में शिथिलन होता है, जिससे आँखें ऊपर उठती हैं और इसके ठीक विपरीत जब इंफीरियर रेक्टस संकुचित होती है, तो सुपीरियर रेक्टस में शिथिलन होता है, जिससे आँखें नीचे की ओर गति करती हैं। इसी प्रकार मीडियल एवं लेटरल रेक्टस पेशियाँ आँखों ऊपर-नीचे और बाहर की ओर गतियाँ करती हैं। इसके साथ-साथ ये आँखें को चक्रवत घुमाने में भी सहायता देती हैं। आँखों के अन्दर निम्न तीन चिकनी पेशियाँ रहती हैं। जिन्हें अंतरस्थ पेशियाँ कहा जाता है। सिलियरी पेशी लेंस के ससपेंसरी लिगामेंट के तनाव को कम करती है तथा आँख को सही ढंग से समायोजित करने के लिए लेंस को इसकी आकृति में परिवर्तन करने देती है। सरकुलर पेशी या स्फिंक्टर प्यूपिला यह पेशी पुतली को चारों ओर वृत्ताकार दिशा में घेरे रहती है तथा पुतली के किनारों पर रेडियल दिशा में स्थित रहती है तथा पुतली को विस्फारित (फैलाती) करती है।

पलकों की पेशियाँ

ऑर्बिकुलेरिस ऑक्यूलाइ पेशी आँखों को बन्द करने के लिए पलकों को गिराती है, तथा लीवेटर पल्पेब्री सुपीरिओरिस पेशी आँखों को खोलने के लिए पलकों ऊपर उठाती है। सुपीरियर टार्सल पेशी, चिकनी पेशी होती है, जिसकी तन्त्रिका आपूर्ति सिम्पेथेटिक तन्त्रिका तन्त्र द्वारा होती है। यह ऊपर पलक को उठाने में सहायक होती है, इसके पक्षाघातग्रस्त होने पर ऊपरी पलक नीचे को लटक पड़ती है।

दृष्टि तन्त्रिका एवं दृष्टि पथ

ऑप्टिक या दृष्टि तन्त्रिकाएँ (द्वितीय/II कपालीय तन्त्रिका) प्रकाश संवेद की तन्त्रिकाएँ हैं, जिसके द्वारा देखने का कार्य होता है। इन तन्त्रिका तंतुओं की उत्पत्ति आँखों के रेटिना में होती है, जो मैक्यूला ल्यूटिया से लगभग 0.5 सेंटी मीटर नाक की ओर अभिबिन्दु होकर (अर्थात् एक बिन्दु पर मिलकर) तथा आपस में संयोजित होकर ऑप्टिक तन्त्रिका बनाते हैं। यह तन्त्रिका नेत्रगोलक के पिछले भाग से निकलती है और पिट्यूटरी ग्रंथि के पास आकर दूसरी ओर की ऑप्टिक तन्त्रिका से मिल जाती है। इस क्रॉसिंग हैं। इस स्थान पर आकर दोनों आँखों की ऑप्टिक तन्त्रिका के नाक की ओर के आधे-आधे तंतु एक-दूसरे को क्रॉस कर सीधे आगे की ओर बढ़ जाते हैं। शेष (लेटरल साइड के) प्रत्येक रेटिना के तन्त्रिका तंतु, बिना एक-दूसरे को क्रॉस किए, दोनों तरफ (उसी ओर) अग्रसर होते हुए मध्य मस्तिष्क में पहुँच जाते हैं। ऑप्टिक चियाज़्मा से होकर गुजरने के उपरांत तन्त्रिका तंतुओं को दृष्टिपथ कहा जाता है। प्रत्येक दृष्टिपथ में दूसरी ओर की आँख के रेटिना के नासा तंतुओं एवं उसी ओर की आँख की रेटिना के लेटरल तंतुओं का समावेश होता है।

प्रत्येक दृष्टिपथ सेरीब्रम से होकर पीछे की ओर जाता है तथा थैलेमस में के न्यूक्लियस जिन्हें लेटरल जेनिकुलेट बॉडी कहा जाता है, के साथ तंतुमिलन करता है। वहाँ से, लेटरल जेनिकुलेट बॉडी में के न्यूरॉंस के अक्ष तंतु प्रमस्तिष्कीय कॉर्टेक्स के ऑक्सिपिटल लोब में प्राथमिक दृष्टिपरक कॉर्टेक्स में प्रक्षेपित होते हैं। जहाँ दृष्टि आवेगों की व्याख्या एवं विश्लेषण होता है।

दृष्टि की क्रिया विधि

आँख की आन्तरिक संरचना

प्रकाश दीप्तिमान ऊर्जा का एक रूप है, जो वायु के माध्यम से लगभग 3,00,000 किलोमीटर प्रति सेकण्ड की गति से तरंगों में गमन करता है।

प्रकाश की किरणें सामान्यतः सामान्तर रेखा में चलती हैं, किंतु जब ये एक घनत्व वाले माध्यम से भिन्न घनत्व वाले माध्यम में को गुजरती हैं तो ये झुक जाती हैं, इस झुकाव को अपर्वतन या रिफेक्शन कहा जाता है। बाह्य वायु से आँख में प्रवेश करने वाली प्रकाश किरणें अपर्वित हो जाती हैं और अभिबिन्दुग होकर अर्थात् एक बिन्दु पर मिलकर रेटिना के फोकस बिन्दु पर केन्द्रित हो जाती है।

रेटिना पर पहुँचने से पूर्व प्रकाश की किरणें आँखों के पारदर्शी अपवर्तक माध्यमों- कॉर्निया, एक्वीयस ह्यूमर, लेंस एवं विट्रीयस ह्यूमर से होकर गुजरती हैं। इनमें लेंस ही एक ऐसी रचना है, जिसमें प्रकाश की किरणों को झुकाने या अपवर्तन करने की क्षमता रहती है, जिससे वे अभिबिन्दुग होकर लेंस के पीछे रेटिना पर बिम्ब बनाती हैं।

रचना की दृष्टि से आँखों (नेत्रगोलकों) की तुलना कैमरे से की जाती है, जिसमें पलकें कैमरे के समान आँखों के लिए शटर का काम करती हैं, प्रकाश के प्रवेश के लिए खिड़की कॉर्निया के रूप में रहती है। आइरिस भीतर प्रवेश करने वाले प्रकाश की मात्रा को नियंत्रित करता है।

क्रिस्टेलाइन लेंस से प्रकाश की किरणें फोकस होती हैं। अभिमध्य वाहिकामयी परत कैमरे के प्रकाशरोधक बॉक्स का काम करती है तथा रेटिना कैमरे के समान प्रकाश के प्रति संवेदनशील प्लेट का काम करती हैं।

कैमरे के सामने जो वस्तु रहती है, कैमरे की प्लेट पर उसका उल्टा प्रतिबिम्ब बनता है। ठीक उसी प्रकार आँखों से देखी जाने वाली वस्तुओं का उल्टा प्रतिबिम्ब रेटिना पर बनता है। वस्तु से प्रकाश की किरणें निकलती हैं और एक्वीयस ह्यूमर, लेंस एवं विट्रीयस ह्यूमस को पार करके रेटिना पर पड़ती हैं। लेंस तथा कॉर्निया प्रकाश की समांतर किरणों को रेटिना पर केन्द्रीभूत करते हैं। कैमरे में लेंस से फोकस-बिन्दु की दूरी निश्चित होती है और लेंस को आगे-पीछे खिसका कर फोटोग्राफी प्लेट पर वस्तु का स्पष्ट प्रतिबिम्ब लिया जाता है। आँख में भी लेंस तथा रेटिना की दूरी निश्चित होती है। अतः आँख में लेंस से फोकस- बिन्दु की दूरी को सिलियरी पेशियों की संकुचन-क्रिया द्वारा बदल कर वस्तु के स्पष्ट प्रतिबिम्ब को रेटिना पर प्राप्त किया जाता है।

ऑप्टिक तन्त्रिका द्वारा प्रतिबिम्ब की विस्तृत सूचना प्रमस्तिष्कीय कॉर्टेक्स के ऑक्सिपिटल लोब में पहुँचती है, जहाँ यह चेतना में विकसित होती है। इस प्रकार ऑप्टिक तन्त्रिकाओं द्वारा संवेदनाएँ मस्तिष्क के दृष्टि क्षेत्र में पहुँचती हैं, फलतः मस्तिष्क को देखने की अनुभूति होती है। रेटिना के उल्टे बिम्ब को सीधा दिखाना मस्तिष्क का काम है।

समायोजन

आँखों में प्रवेश करने वाली सभी सामांतर प्रकाश किरणों को रेटिना पर केन्द्रित होने के लिए अपवर्तित होने या झुकने की आवश्यकता होती है। 6 मीटर (20 फीट) से अधिक दूर की वस्तुओं को देखने के लिए उनसे आने वाली प्रकाश किरणों को अधिक अपवर्तन की आवश्यकता नहीं होती है परंतु जैसे-जैसे वस्तु पास आती जाती है तो उसे देखने के लिए उससे आने वाली प्रकाश किरणों को अधिक अपवर्तित होने की आवश्यकता होती है।

दूर की वस्तु से निकली प्रकाश की समांतर किरणें लेंस के वर्टिकल एक्सिस पर समकोण पर पड़ती हैं। आँखें इस प्रकार एडजस्ट होती हैं कि ये किरणें लेंस के द्वारा झुका दी जाती हैं, जिससे वे स्पष्ट बिम्ब बनाने के लिए रेटिना पर फोकस हो जाती हैं। पास (6 मीटर से कम दूरी की) की वस्तु से निकली प्रकाश की किरणें अपबिन्दुक होती हैं तथा लेंस पर तिरछे होकर पड़ती हैं, जो सामान्यतः रेटिना के पीछे फोकस होती हैं। ये किरणें रेटिना पर ठीक से फोकस हो सकें इसके लिए लेंस को मोटा, गोल होना चाहिए। यह क्रिया सिलियरी पेशियों के द्वारा संपादित होती है। साथ ही बिम्ब की स्पष्टता के लिए आँखों में प्रवेश होने वाली किरणों की संख्याओं में, आइरिस के संकुचन से कमी होती हैं। इस प्रकार लेंस के आकार में परिवर्तन से तथा आइरिस के संकुचन से पुतली के छोटे होने की क्रिया को समायोजन कहते हैं। यह क्रिया पास की वस्तु देखते समय सदैव होती है। विभिन्न दूरीयों के अनुसार लेंस की मोटाई या उत्तलता में अनुरूप परिवर्तन होने वाली शक्ति को ही अनुकूलन अथवा समायोजन कहते है। आँख के लेंस की फोकस दूरी की इन स्वयं एडजस्टिंग क्रियाओं को आँख की समायोजन क्षमता कहते हैं। दोषमुक्त आँखों द्वारा 25 सेंटीमीटर. से दूर रखी वस्तुओं को ही स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। इस दूरी को 'स्पष्ट दृष्टि' की 'न्यूनतम दूरी' कहा जाता है। जिस अधिकतम दूरी के स्थान तक आँखें वस्तुओं को स्पष्ट रूप में देख सकती है, उसे आँखों का 'दूर बिन्दु' कहा जाता है। जब कोई वस्तु आँखों के बिल्कुल समीप रहती है, तो उसका दोनों आँखों के रेटिना पर स्पष्ट फोकस प्राप्त करने के लिए आँखें स्वयं थोड़ा भीतर की ओर घूमती हैं। आँखों की यही क्रिया 'अनुकूलन कहलाती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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