"गुरु गोबिन्द सिंह": अवतरणों में अंतर

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गुरु गोविंद सिंह जी का जन्म 22 दिसंबर सन 1666 ई. को [[पटना]], [[बिहार]] में हुआ था। इनका मूल नाम 'गोविंद राय' था। यह सिक्खों के दसवें व अंतिम गुरु माने जाते थे, और सिक्खों के सैनिक संगति, ख़ालसा के सृजन के लिए प्रसिद्ध थे। गोविंद सिंह को सैन्य जीवन के प्रति लगाव अपने दादा [[गुरु हरगोविंद सिंह]] से मिला था और उन्हें महान बौद्धिक संपदा भी उत्तराधिकार में मिली थी। वह बहुभाषाविद थे, जिन्हें [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] [[अरबी भाषा|अरबी]], [[संस्कृत भाषा|संस्कृत]] और अपनी मातृभाषा [[पंजाबी भाषा|पंजाबी]] का ज्ञान था। उन्होंने सिक्ख क़ानून को सूत्रबद्ध किया, काव्य रचना की और सिक्ख ग्रंथ 'दसम ग्रंथ' (दसवां खंड) लिखकर प्रसिद्धि पाई। उन्होंने देश, धर्म और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए सिक्खों को संगठित कर सैनिक परिवेश में ढाला।
गुरु गोविंद सिंह जी का जन्म 22 दिसंबर सन 1666 ई. को [[पटना]], [[बिहार]] में हुआ था। इनका मूल नाम 'गोविंद राय' था। यह सिक्खों के दसवें व अंतिम गुरु माने जाते थे, और सिक्खों के सैनिक संगति, ख़ालसा के सृजन के लिए प्रसिद्ध थे। गोविंद सिंह को सैन्य जीवन के प्रति लगाव अपने दादा [[गुरु हरगोविंद सिंह]] से मिला था और उन्हें महान बौद्धिक संपदा भी उत्तराधिकार में मिली थी। वह बहुभाषाविद थे, जिन्हें [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] [[अरबी भाषा|अरबी]], [[संस्कृत भाषा|संस्कृत]] और अपनी मातृभाषा [[पंजाबी भाषा|पंजाबी]] का ज्ञान था। उन्होंने सिक्ख क़ानून को सूत्रबद्ध किया, काव्य रचना की और सिक्ख ग्रंथ 'दसम ग्रंथ' (दसवां खंड) लिखकर प्रसिद्धि पाई। उन्होंने देश, धर्म और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए सिक्खों को संगठित कर सैनिक परिवेश में ढाला।


दशम गुरु गोविंद सिंह जी स्वयं एक ऐसे ही महापुरुष थे, जो उस युग की आतंकवादी शक्तियों का नाश करने तथा धर्म एवं न्याय की प्रतिष्ठा के लिए [[गुरु तेगबहादुर सिंह]] जी के यहाँ अवतरित हुए। इसी उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा था। '''मुझे परमेश्वर ने दुष्टों का नाश करने और धर्म की स्थापना करने के लिए भेजा है।'''  
दशम गुरु गोविंद सिंह जी स्वयं एक ऐसे ही महापुरुष थे, जो उस युग की आतंकवादी शक्तियों का नाश करने तथा धर्म एवं न्याय की प्रतिष्ठा के लिए [[गुरु तेगबहादुर सिंह]] जी के यहाँ अवतरित हुए। इसी उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा था।  
 
'''मुझे परमेश्वर ने दुष्टों का नाश करने और धर्म की स्थापना करने के लिए भेजा है।'''
 
==जन्म==
==जन्म==
गुरु गोविंद सिंह के जन्म के समय देश पर [[मुग़ल|मुग़लों]] का शासन था। हिन्दुओं को मुसलमान बनाने की [[औरंगज़ेब]] ज़बरदस्ती कोशिश करता था। इसी समय 22 दिसंबर, सन 1666 को गुरु तेगबहादुर की धर्मपत्नी गूजरी देवी ने एक सुंदर बालक को जन्म दिया, जो गुरु गोविंद सिंह के नाम से विख्यात हुआ। पूरे नगर में बालक के जन्म पर उत्सव मनाया गया। बचपन में सभी लोग गोविंद जी को 'बाला प्रीतम' कहकर बुलाते थे। उनके मामा उन्हें भगवान की कृपा मानकर 'गोविंद' कहते थे। बार-बार 'गोविंद' कहने से बाला प्रीतम का नाम 'गोविंद राय' पड़ गया।
गुरु गोविंद सिंह के जन्म के समय देश पर [[मुग़ल|मुग़लों]] का शासन था। हिन्दुओं को मुसलमान बनाने की [[औरंगज़ेब]] ज़बरदस्ती कोशिश करता था। इसी समय 22 दिसंबर, सन 1666 को गुरु तेगबहादुर की धर्मपत्नी गूजरी देवी ने एक सुंदर बालक को जन्म दिया, जो गुरु गोविंद सिंह के नाम से विख्यात हुआ। पूरे नगर में बालक के जन्म पर उत्सव मनाया गया। बचपन में सभी लोग गोविंद जी को 'बाला प्रीतम' कहकर बुलाते थे। उनके मामा उन्हें भगवान की कृपा मानकर 'गोविंद' कहते थे। बार-बार 'गोविंद' कहने से बाला प्रीतम का नाम 'गोविंद राय' पड़ गया।

12:10, 23 सितम्बर 2010 का अवतरण

गुरु गोविंद सिंह
Guru Gobind Singh

कुछ ज्ञानी कहते हैं कि जब-जब धर्म का ह्रास होता है, तब-तब सत्य एवं न्याय का विघटन भी होता है तथा आतंक के कारण अत्याचार, अन्याय, हिंसा और मानवता खतरे में होती है। उस समय दुष्टों का नाश एवं सत्य, न्याय और धर्म की रक्षा करने के लिए ईश्वर स्वयं इस भूतल पर अवतरित होते हैं। गुरु गोविंद सिंह जी ने भी इस तथ्य का प्रतिपादन करते हुए कहा है,

"जब-जब होत अरिस्ट अपारा। तब-तब देह धरत अवतारा।"

परिचय

गुरु गोविंद सिंह जी का जन्म 22 दिसंबर सन 1666 ई. को पटना, बिहार में हुआ था। इनका मूल नाम 'गोविंद राय' था। यह सिक्खों के दसवें व अंतिम गुरु माने जाते थे, और सिक्खों के सैनिक संगति, ख़ालसा के सृजन के लिए प्रसिद्ध थे। गोविंद सिंह को सैन्य जीवन के प्रति लगाव अपने दादा गुरु हरगोविंद सिंह से मिला था और उन्हें महान बौद्धिक संपदा भी उत्तराधिकार में मिली थी। वह बहुभाषाविद थे, जिन्हें फ़ारसी अरबी, संस्कृत और अपनी मातृभाषा पंजाबी का ज्ञान था। उन्होंने सिक्ख क़ानून को सूत्रबद्ध किया, काव्य रचना की और सिक्ख ग्रंथ 'दसम ग्रंथ' (दसवां खंड) लिखकर प्रसिद्धि पाई। उन्होंने देश, धर्म और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए सिक्खों को संगठित कर सैनिक परिवेश में ढाला।

दशम गुरु गोविंद सिंह जी स्वयं एक ऐसे ही महापुरुष थे, जो उस युग की आतंकवादी शक्तियों का नाश करने तथा धर्म एवं न्याय की प्रतिष्ठा के लिए गुरु तेगबहादुर सिंह जी के यहाँ अवतरित हुए। इसी उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा था।

मुझे परमेश्वर ने दुष्टों का नाश करने और धर्म की स्थापना करने के लिए भेजा है।

जन्म

गुरु गोविंद सिंह के जन्म के समय देश पर मुग़लों का शासन था। हिन्दुओं को मुसलमान बनाने की औरंगज़ेब ज़बरदस्ती कोशिश करता था। इसी समय 22 दिसंबर, सन 1666 को गुरु तेगबहादुर की धर्मपत्नी गूजरी देवी ने एक सुंदर बालक को जन्म दिया, जो गुरु गोविंद सिंह के नाम से विख्यात हुआ। पूरे नगर में बालक के जन्म पर उत्सव मनाया गया। बचपन में सभी लोग गोविंद जी को 'बाला प्रीतम' कहकर बुलाते थे। उनके मामा उन्हें भगवान की कृपा मानकर 'गोविंद' कहते थे। बार-बार 'गोविंद' कहने से बाला प्रीतम का नाम 'गोविंद राय' पड़ गया।

गोविंद का बचपन

खिलौनों से खेलने की उम्र में गोविंद जी कृपाण, कटार और धनुष-बाण से खेलना पसंद करते थे। गोविंद बचपन में शरारती थे लेकिन वे अपनी शरारतों से किसी को परेशान नहीं करते थे। गोविंद एक निसंतान बुढ़िया, जो सूत काटकर अपना गुज़ारा करती थी, से बहुत शरारत करते थे । वे उसकी पूनियाँ बिखेर देते थे। इससे दुखी होकर वह उनकी मां के पास शिकायत लेकर पहुँच जाती थी। माता गूजरी पैसे देकर उसे खुश कर देती थी। माता गूजरी ने गोविंद से बुढ़िया को तंग करने का कारण पूछा तो उन्होंने सहज भाव से कहा,

उसकी गरीबी दूर करने के लिए। अगर मैं उसे परेशान नहीं करूंगा तो उसे पैसे कैसे मिलेंगे।

औरंगज़ेब से तेगबहादुर की बातचीत

जब गोविंद आठ - नौ साल के थे तब उनके पिता तेगबहादुर आनंदपुर साहिब चले गये। गुरु तेगबहादुर का प्रभाव उन दिनों काफ़ी बढ़ रहा था, वहीं दूसरी ओर औरंगज़ेब हिदुओं पर कहर बरपा रहा था। कुछ कश्मीरी पंडित तेगबहादुर की शरण में औरंगज़ेब से बचने के लिए आनंदपुर साहिब आये। तेगबहादुर औरंगज़ेब से इस विषय में बातचीत करने के लिए दिल्ली पहुँचे लेकिन औरंगज़ेब ने उन्हें गिरफ्तार करवा लिया। औरंगज़ेब ने उनसे कहा,

तेग बहादुर, अब तुम मेरे रहमो-करम पर हो। अगर तुम सच्चे संत हो तो हमें कोई चमत्कार करके दिखाओ, वरना अपना ईमान छोड़ दो।

गुरु तेग बहादुर ने कहा,

मेरी गर्दन में एक ताबीज़ बंधा है, जिसके कारण तुम मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते।

यह सुनते ही गुरु तेगबहादुर का सिर औरंगज़ेब के इशारे पर काट दिया गया। यह घटना 11 नवम्बर 1675 ई. में दिल्ली के चांदनी चौक में हुई थी। जब तेगबहादुर जी की गर्दन में बंधा ताबीज़ खोलकर देखा गया तो उसमे लिखा था -

मैंने अपना सिर दे दिया, धर्म नहीं।

तेगबहादुर की शहादत के बाद गद्दी पर 9 वर्ष की आयु में 'गुरु गोविंद राय' को बैठाया गया था। 'गुरु' की गरिमा बनाये रखने के लिए उन्होंने अपना ज्ञान बढ़ाया और संस्कृत, फारसी, पंजाबी और अरबी भाषाएँ सीखीं। गोविंद राय ने धनुष- बाण, तलवार, भाला आदि चलाने की कला भी सीखी। उन्होंने अन्य सिक्खों को भी अस्त्र शस्त्र चलाना सिखाया। सिक्खों को अपने धर्म, जन्मभूमि और स्वयं अपनी रक्षा करने के लिए संकल्पबद्ध किया और उन्हें मानवता का पाठ पढ़ाया। उनका नारा था- सत श्री अकाल[1]

बैसाखी

गुरु गोविंद सिंह जी
Guru Gobind Singh ji

सन 1699 में बैसाखी वाले दिन केशगढ़ साहब में श्री गुरु गोविन्द सिंह ने एक विचित्र नाटक किया। खुले मैदान में खडे़ होकर उन्होंने एक सिर माँगा, लोग हैरान थे कि हाथ में तलवार लेकर वह एक व्यक्ति का सिर माँग रहे हैं। यह कैसी अनोखी माँग है। बैसाख के मेले में एक सोई हुई क़ौम को जगाने का इतिहास रचा जा रहा था। लोग तब यह नहीं समझ सके।

बैसाखी को कई इतिहासकार जंग-ए-आज़ादी का शंखनाद मानते हैं। ग़ुलामी की जंजीरों को काटकर गुरु गोविन्द सिंह ने हक़ हलाल की लड़ाई की शुरुआत की, वहीं जो इंसान अपने हाथों में एक लाठी भी पकड़ने में झिझकता था, उन्होंने कृपाण पकड़ने का साहस भरा। एक- एक करके पाँच जांबाज़ अपना शीश हथेली पर रख कर आगे आए और गुरु गोविन्द सिंह के उस आह्वान को चरितार्थ किया।

पंचप्यारे

वो पाँच प्यारे जो देश के विभिन्न भागों से आए थे और समाज के अलग- अलग जाति और सम्प्रदाय के लोग थे, उन्हें एक ही कटोरे में अमृत पिला कर गुरु गोविन्द सिंह ने एक बना दिया। इस प्रकार समाज में उन्होंने एक ऐसी क्रान्ति का बीज रोपा, जिसमें जाति का भेद और सम्प्रदायवाद, सब कुछ मिटा दिया।

बैसाखी का एक महत्व यह है कि परम्परा के अनुसार पंजाब में फ़सल की कटाई पहली बैसाख को ही शुरू होती है और देश के दूसरे हिस्सों में भी आज ही के दिन फ़सल कटाई का त्योहार मनाया जाता है, जिनके नाम भले ही अलग-अलग हों। आज के दिन यदि हम श्री गुरु गोविन्द सिंह के जीवन के आदर्शों को, देश, समाज और मानवता की भलाई के लिए उनके समर्पण को अपनी प्रेरणा का स्त्रोत बनाऐं और उनके बताये गए रास्ते पर निष्ठापूर्वक चलें तो कोई कारण नहीं कि देश के अन्दर अथवा बाहर से आए आतंकवादी और हमलावर हमारा कुछ भी बिगाड़ सकें।

सिक्खों में युद्ध का उत्साह

गोविद सिंह ने सिक्खों में युद्ध का उत्साह बढ़ाने के लिए हर क़दम उठाया। वीर काव्य और संगीत का सृजन उन्होंने किया था। उन्होंने अपने लोगों में कृपाण जो उनकी लौह कृपा था, के प्रति प्रेम विकसित किया। ख़ालसा को पुनर्संगठित सिक्ख सेना का मार्गदर्शक बनाकर, उन्होंने दो मोर्चो पर सिक्खों के शत्रुओं के ख़िलाफ़ कदम उठाये।

  1. पहला मुग़लों के ख़िलाफ़ एक फ़ौज और
  2. दूसरा विरोधी पहाड़ी जनजातियों के ख़िलाफ़।


सवा लाख से एक लड़ाऊँ चिड़ियों सों मैं बाज तड़ऊँ तबे गोबिंदसिंह नाम कहाऊँ - गुरु गोविंद सिंह |} उनकी सैन्य टुकड़ियाँ सिक्ख आदर्शो के प्रति पूरी तरह समर्पित थीं, और सिक्खों की धार्मिक तथा राजनैतिक स्वतंत्रता के लिए सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार थीं। लेकिन गुरु गोविंद सिंह को इस स्वतंत्रता की भारी कीमत चुकानी पड़ी थी। अंबाला के पास एक युद्ध में उनके चारों बेटे मारे गए। बाद में उनकी पत्नी, मां और पिता भी संघर्ष की भेंट चढ़ गए। वह स्वयं भी एक पश्तो क़बीलाई के हाथों उसके पिता की मौत के प्रतिशोधस्वरूप मारे गए। गोविंद सिंह ने स्वयं को अंतिम गुरू घोषित किया। उसके बाद से पवित्र पुस्तक आदिग्रंथ को ही सिक्ख गुरू होना था। गुरू गोविंद सिंह आज भी सिक्खों के मन में वीरता के आदर्श और सिक्ख सैनिक संत के रूप में अंकित हैं।

इतिहास

गुरु गोविंद सिंह ने धर्म, संस्कृति व राष्ट्र की आन-बान और शान के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया था। गुरु गोविंद सिंह जैसी वीरता और बलिदान इतिहास में कम ही देखने को मिलता है। इसके बावजूद इस महान शख्सियत को इतिहासकारों ने वह स्थान नहीं दिया जिसके वे हक़दार हैं। कुछ इतिहासकारों का मत हैं कि गुरु गोविंद सिंह ने अपने पिता का बदला लेने के लिए तलवार उठाई थी। क्या संभव है कि वह बालक स्वयं लड़ने के लिए प्रेरित होगा जिसने अपने पिता को आत्मबलिदान के लिए प्रेरित किया हो।

गुरु गोविन्द सिंह जी को किसी से बैर नहीं था, उनके सामने तो पहाड़ी राजाओं की ईर्ष्या पहाड़ जैसी ऊँची थी, तो दूसरी ओर औरंगज़ेब की धार्मिक कट्टरता की आँधी लोगों के अस्तित्व को लील रही थी। ऐसे समय में गुरु गोविंद सिंह ने समाज को एक नया दर्शन दिया। उन्होंने आध्यात्मिक स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए तलवार धारण की।

ख़ालसा पंथ

ख़ालसा का अर्थ है ख़ालिस अर्थात विशुद्घ, निर्मल और बिना किसी मिलावट वाला व्यक्ति। इसके अलावा हम यह कह सकते हैं कि ख़ालसा हमारी मर्यादा और भारतीय संस्कृति की एक पहचान है, जो हर हाल में प्रभु का स्मरण रखता है और अपने कर्म को अपना धर्म मान कर ज़ुल्म और ज़ालिम से लोहा भी लेता है।

गोविन्द सिंह जी ने एक नया नारा दिया है- वाहे गुरु जी का ख़ालसा, वाहे गुरु जी की फतेह।[2]


गुरु जी द्वारा ख़ालसा का पहला धर्म है कि वह देश, धर्म और मानवता की रक्षा के लिए तन-मन-धन सब न्यौछावर कर दे। निर्धनों, असहायों और अनाथों की रक्षा के लिए सदा आगे रहे। जो ऐसा करता है, वह ख़लिस है, वही सच्चा ख़ालसा है। ये संस्कार अमृत पिलाकर गोविंद सिंह जी ने उन लोगों में भर दिए, जिन्होंने ख़ालसा पंथ को स्वीकार किया था।

ज़फरनामा में स्वयं गुरु गोविन्द सिंह जी ने लिखा है कि जब सारे साधन निष्फल हो जायें, तब तलवार ग्रहण करना न्यायोचित है। गुरु गोविंद सिंह ने 1699 ई. में धर्म एवं समाज की रक्षा हेतु ही ख़ालसा पंथ की स्थापना की थी। ख़ालसा यानि ख़ालिस (शुद्ध), जो मन, वचन एवं कर्म से शुद्ध हो और समाज के प्रति समर्पण का भाव रखता हो। सभी जातियों के वर्ग-विभेद को समाप्त करके उन्होंने न सिर्फ समानता स्थापित की बल्कि उनमें आत्म-सम्मान और प्रतिष्ठा की भावना भी पैदा की। उनका स्पष्ट मत व्यक्त है-

मानस की जात सभैएक है।

ख़ालसा पंथ की स्थापना (1699) देश के चौमुखी उत्थान की व्यापक कल्पना थी। एक बाबा द्वारा गुरु हरगोविंद को 'मीरी' और 'पीरी' दो तलवारें पहनाई गई थीं।

  • एक आध्यात्मिकता की प्रतीक थी।
  • दूसरी सांसारिकता की।

गुरु गोविन्द सिंह ने आत्मविश्वास एवं आत्मनिर्भरता का संदेश दिया था। ख़ालसा पंथ में वे सिख थे, जिन्होंने किसी युद्ध कला का कोई विशेष प्रशिक्षण नहीं लिया था। सिखों में समाज एवं धर्म के लिए स्वयं को बलिदान करने का ज़ज्बा था।

एक से कटाने सवा लाख शत्रुओं के सिर
गुरु गोविन्द ने बनाया पंथ खालसा
पिता और पुत्र सब देश पे शहीद हुए
नहीं रही सुख साधनों की कभी लालसा
जोरावर फतेसिंह दीवारों में चुने गए
जग देखता रहा था क्रूरता का हादसा
चिड़ियों को बाज से लड़ा दिया था गुरुजी ने
मुग़लों के सर पे जो छा गया था काल सा

गुरु गोविन्द सिंह का एक और उदाहरण उनके व्यक्तित्व को अनूठा साबित करता है-

पंच पियारा बनाकर उन्हें गुरु का दर्जा देकर स्वयं उनके शिष्य बन जाते हैं और कहते हैं- ख़ालसा मेरो रूप है ख़ास, ख़ालसा में हो करो निवास।[3]

पाँच ककार

युद्ध की प्रत्येक स्थिति में सदा तैयार रहने के लिए उन्होंने सिखों के लिए पाँच ककार अनिवार्य घोषित किए, जिन्हें आज भी प्रत्येक सिख धारण करना अपना गौरव समझता है:-

  1. केश : जिसे सभी गुरु और ऋषि-मुनि धारण करते आए थे।
  2. कंघा : केशों को साफ करने के लिए।
  3. कच्छा : स्फूर्ति के लिए।
  4. कड़ा : नियम और संयम में रहने की चेतावनी देने के लिए।
  5. कृपाण : आत्मरक्षा के लिए।[4]

जहाँ शिवा जी राजशक्ति के शानदार प्रतीक हैं, वहीं गुरु गोविन्द सिंह एक संत और सिपाही के रूप में दिखाई देते हैं। क्योंकि गुरु गोविन्द सिंह को न तो सत्ता चाहिए और न ही सत्ता सुख। शान्ति एवं समाज कल्याण उनका था। अपने माता-पिता, पुत्रों और हज़ारों सिखों के प्राणों की आहुति देने के बाद भी वह औरंगज़ेब को फ़ारसी में लिखे अपने पत्र ज़फरनामा में लिखते हैं- औरंगजेब तुझे प्रभु को पहचानना चाहिए तथा प्रजा को दु:खी नहीं करना चाहिए। तूने क़ुरान की कसम खाकर कहा था कि मैं सुलह रखूंगा, लड़ाई नहीं करूंगा, यह क़सम तुम्हारे सिर पर भार है। तू अब उसे पूरा कर।

एक आध्यात्मिक गुरु के अतिरिक्त गुरु गोविंद सिंह एक महान विद्वान भी थे। उन्होंने 52 कवियों को अपने दरबार में नियुक्त किया था। गुरु गोविन्द सिंह की महत्वपूर्ण कृतियाँ हैं- ज़फरनामा एवं विचित्र नाटक। वह स्वयं सैनिक एवं संत थे। उन्होंने अपने सिखों में भी इसी भावनाओं का पोषण किया था। गुरु गद्दी को लेकर सिखों के बीच कोई विवाद न हो इसके लिए उन्होंने 'गुरुग्रन्थ साहिब' को गुरु का दर्जा दिया। इसका श्रेय भी प्रभु को देते हुए कहते हैं-

आज्ञा भई अकाल की तभी चलाइयो पंथ, सब सिक्खन को हुकम है गुरू मानियहु ग्रंथ।

गुरु नानक की दसवीं जोत गुरु गोविंद सिंह अपने जीवन का सारा श्रेय प्रभु को देते हुए कहते है-

मैं हूं परम पुरखको दासा, देखन आयोजगत तमाशा। ऐसी शख्सियत को शत-शत नमन।

वीरता व बलिदान की मिसालें

इस सारे घटनाक्रम में भी अड़िग रहकर गुरु गोविंद सिंह संघर्षरत रहे, यह कोई सामान्य बात नहीं है। यह उनके महान कर्मयोगी होने का प्रमाण है। उन्होंने ख़ालसा के सृजन का मार्ग देश की अस्मिता, भारतीय विरासत और जीवन मूल्यों की रक्षा के लिए, समाज को नए सिरे से तैयार करने के लिए अपनाया था। वे सभी प्राणियों को आध्यात्मिक स्तर पर परमात्मा का ही रूप मानते थे। 'अकाल उस्तति' में उन्होंने स्पष्ट कहा है कि जैसे एक अग्नि से करोड़ों अग्नि स्फुर्ल्लिंग उत्पन्न होकर अलग-अलग खिलते हैं, लेकिन सब अग्नि रूप हैं, उसी प्रकार सब जीवों की भी स्थिति है। उन्होंने सभी को मानव रूप में मानकर उनकी एकता में विश्वास प्रकट करते हुए कहा है कि हिन्दू तुरक कोऊ सफजी इमाम शाफी। मानस की जात सबै ऐकै पहचानबो।

अज़फरनामा

गुरु गोविंद सिंह मूलतः धर्मगुरु थे, लेकिन सत्य और न्याय की रक्षा के लिए तथा धर्म की स्थापना के लिए उन्हें शस्त्र धारण करने पड़े। औरंगज़ेब को लिखे गए अपने 'अज़फरनामा' में उन्होंने इसे स्पष्ट किया है। उन्होंने लिखा था,

चूंकार अज हमा हीलते दर गुजशत, हलाले अस्त बुरदन ब समशीर ऐ दस्त।

अर्थात जब सत्य और न्याय की रक्षा के लिए अन्य सभी साधन विफल हो जाएँ तो तलवार को धारण करना सर्वथा उचित है। उनकी यह वाणी सिख इतिहास की अमर निधि है, जो आज भी हमें प्रेरणा देती है।

मृत्यु

गुरु गोविन्द सिंह ने अपना अंतिम समय निकट जानकर अपने सभी सिखों को एकत्रित किया और उन्हें मर्यादित तथा शुभ आचरण करने, देश से प्रेम करने और सदा दीन-दुखियों की सहायता करने की सीख दी। इसके बाद यह भी कहा कि अब उनके बाद कोई देहधारी गुरु नहीं होगा और 'गुरुग्रन्थ साहिब' ही आगे गुरु के रूप में उनका मार्ग दर्शन करेंगे। गुरु गोविंदसिंह की मृत्यु 7 अक्तूबर सन 1708 ई. में नांदेड़, महाराष्ट्र में हुई थी।

आज मानवता स्वार्थ, संदेह, संघर्ष, हिंसा, आतंक, अन्याय और अत्याचार की जिन चुनौतियों से जूझ रही है, उनमें गुरु गोविंद सिंह का जीवन-दर्शन हमारा मार्गदर्शन कर सकता है।

गुरु मेरी पूजा, गुरु गोविन्द

गुरु मेरी पूजा, गुरु गोविन्द
गुरु मेरा पार ब्रह्म, गुरु भगवंत

गुरु मेरा देऊ, अलख अभेऊ, सर्व पूज चरण गुरु सेवऊ
गुरु मेरी पूजा, गुरु गोविन्द, गुरु मेरा पार ब्रह्म, गुरु भगवंत

गुरु का दर्शन .... देख - देख जीवां, गुरु के चरण धोये -धोये पीवां

गुरु बिन अवर नही मैं ठाऊँ, अनबिन जपऊ गुरु गुरु नाऊँ
गुरु मेरी पूजा, गुरु गोविन्द, गुरु मेरा पार ब्रह्म, गुरु भगवंत

गुरु मेरा ज्ञान, गुरु हिरदय ध्यान, गुरु गोपाल पुरख भगवान्
गुरु मेरी पूजा, गुरु गोविन्द, गुरु मेरा पार ब्रह्म, गुरु भगवंत

ऐसे गुरु को बल-बल जाइये ..-2 आप मुक्त मोहे तारें ..

गुरु की शरण रहो कर जोड़े, गुरु बिना मैं नही होर
गुरु मेरी पूजा, गुरु गोविन्द, गुरु मेरा पार ब्रह्म, गुरु भगवंत

गुरु बहुत तारे भव पार, गुरु सेवा जम से छुटकार
गुरु मेरी पूजा, गुरु गोविन्द, गुरु मेरा पार ब्रह्म, गुरु भगवंत

अंधकार में गुरु मंत्र उजारा, गुरु के संग सजल निस्तारा
गुरु मेरी पूजा, गुरु गोविन्द, गुरु मेरा पार ब्रह्म, गुरु भगवंत

गुरु पूरा पाईया बडभागी, गुरु की सेवा जिथ ना लागी
गुरु मेरी पूजा, गुरु गोविन्द, गुरु मेरा पार ब्रह्म, गुरु भगवंत

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सत्य ही ईश्वर है।
  2. कि ख़ालसा ईश्वर का है और ईश्वर की विजय सुनिश्चित है।
  3. जहाँ पाँच सिख इकट्ठे होंगे, वहीं मैं निवास करूंगा।
  4. गुरु गोबिंद सिंह (हिन्दी) (एचटीएमएल) वेबदुनियाँ। अभिगमन तिथि: 14 जून, 2010।

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