विश्वनाथ प्रताप सिंह

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विश्वनाथ प्रताप सिंह
पूरा नाम विश्वनाथ प्रताप सिंह
जन्म 25 जून, 1931
जन्म भूमि इलाहाबाद ज़िला, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 27 नवम्बर, 2008
मृत्यु स्थान दिल्ली
पति/पत्नी सीता कुमारी
संतान दो पुत्र
पार्टी कांग्रेस, जनता दल
पद भारत के आठवें प्रधानमंत्री, पूर्व मुख्यमंत्री, पूर्व केन्द्रीय वाणिज्य मंत्री, पूर्व वित्तमंत्री
कार्य काल 2 दिसम्बर, 1989 से 10 नवम्बर 1990
विद्यालय इलाहाबाद और पूना विश्वविद्यालय
स्थापना गोपाल इंटरमीडिएट कॉलेज
रचनाएँ 'मुफ़लिस', 'आईना'

विश्वनाथ प्रताप सिंह (जन्म- 25 जून, 1931 उत्तर प्रदेश; मृत्यु- 27 नवम्बर, 2008, दिल्ली)। विश्वनाथ प्रताप सिंह भारत के आठवें प्रधानमंत्री थे। राजीव गांधी सरकार के पतन के कारण बने विश्वनाथ प्रताप सिंह ने आम चुनाव के माध्यम से 2 दिसम्बर, 1989 को प्रधानमंत्री पद प्राप्त किया था। सिंह बेहद महत्वाकांक्षी होने के अतिरिक्त कुटिल राजनीतिज्ञ भी कहे जा सकते हैं।

जन्म एवं परिवार

विश्वनाथ प्रताप सिंह का जन्म 25 जून, 1931 उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद ज़िले में हुआ था। वह राजा बहादुर राय गोपाल सिंह के पुत्र थे। उनका विवाह 25 जून, 1955 को अपने जन्म दिन पर ही सीता कुमारी के साथ सम्पन्न हुआ था। इन्हें दो पुत्र रत्नों की प्राप्ति हुई। उन्होंने इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश) में गोपाल इंटरमीडिएट कॉलेज की स्थापना की थी।

एक कहावत प्रचलित है-यदि स्वयं को बड़ा बनाना हो तो दूसरे को छोटा कर दो। वस्तुत: विश्वनाथ प्रताप सिंह से भी अधिक योग्य व्यक्ति भारतीय राजनीति में सदैव से रहे हैं, लेकिन वे प्रधानमंत्री नहीं बन पाए। एक उदाहरण तो सरदार वल्लभ भाई पटेल का ही दिया जा सकता है। यदि वह भारत के प्रधानमंत्री बने होते तो देश की तस्वीर काफ़ी हद तक बदली हुई होती। देश के सामने कभी भी समस्याओं का अम्बार नहीं लगा होता। लेकिन भाग्य की प्रबल भुमिका को नक़ारा नहीं जा सकता। यही कारण है कि इस पुस्तक के कथा नायकों में विश्वनाथ प्रताप सिंह का नाम तो है लेकिन सरदार पटेल का नहीं। बेशक़ विश्वनाथ प्रताप सिंह भारत के प्रधानमंत्री रहने के कारण माननीय हैं और उनके अच्छे कार्य भी हैं, जिनकी सराहना होनी चाहिए। लेकिन प्रधानमंत्रियों की सूचि में इन्हें असफल प्रधानमंत्री ही कहा जाएगा।

विद्यार्थी जीवन

विश्वनाथ प्रताप सिंह ने इलाहाबाद और पूना विश्वविद्यालय में अध्ययन किया था। वह 1947-1948 में उदय प्रताप कॉलेज, वाराणसी की विद्यार्थी यूनियन के अध्यक्ष रहे। विश्वनाथ प्रताप सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय की स्टूडेंट यूनियन में उपाध्यक्ष भी थे। 1957 में उन्होंने भूदान आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभाई थी। सिंह ने अपनी ज़मीनें दान में दे दीं। इसके लिए पारिवारिक विवाद हुआ, जो कि न्यायालय भी जा पहुँचा था। वह इलाहाबाद की अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के अधिशासी प्रकोष्ठ के सदस्य भी रहे।

राजनीतिक जीवन

विश्वनाथ प्रताप सिंह को अपने विद्यार्थी जीवन में ही राजनीति से दिलचस्पी हो गई थी। वह समृद्ध परिवार से थे, इस कारण युवाकाल की राजनीति में उन्हें सफलता प्राप्त हुई। उनका सम्बन्ध भारतीय कांग्रेस पार्टी के साथ हो गया। 1969-1971 में वह उत्तर प्रदेश विधानसभा में पहुँचे। उन्होंने उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री का कार्यभार भी सम्भाला। उनका मुख्यमंत्री कार्यकाल 9 जून, 1980 से 28 जून, 1982 तक ही रहा। इसके पश्चात्त वह 29 जनवरी, 1983 को केन्द्रीय वाणिज्य मंत्री बने। विश्वनाथ प्रताप सिंह राज्यसभा के भी सदस्य रहे। 31 दिसम्बर, 1984 को वह भारत के वित्तमंत्री भी बने। भारतीय राजनीति के परिदृश्य में विश्वनाथ प्रताप सिंह उस समय वित्तमंत्री थे जब राजीव गांधी के साथ में उनका टकराव हुआ। विश्वनाथ प्रताप सिंह के पास यह सूचना थी कि कई भारतीयों द्वारा विदेशी बैंकों में अकूत धन जमा करवाया गया है। इस पर वी. पी. सिंह अर्थात् विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अमेरिका की एक जासूस संस्था फ़ेयरफ़ैक्स की नियुक्ति कर दी ताकि ऐसे भारतीयों का पता लगाया जा सके।

इसी बीच 'बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा' वाली कहावत चरितार्थ हुई। स्वीडन ने 16 अप्रैल, 1987 को यह समाचार प्रसारित किया कि भारत के बोफोर्स कम्पनी की 410 तोपों का सौदा हुआ था, उसमें 60 करोड़ की राशि कमीशन के तौर पर दी गई थी। जब यह समाचार भारतीय मीडिया तक पहुँचा तो वह प्रतिदिन इसे सिरमौर बनाकर पेश करने लगा। इस 'ब्रेकिंग न्यूज' का उपयोग विपक्ष ने भी ख़ूब किया। उसने जनता तक यह संदेश पहुँचाया कि 60 करोड़ की दलाली में राजीव गांधी और उनके पारिवारिक सदस्यों की संलिप्तता थी। यद्यपि यह एकदम झूठ था और बाद में साबित भी हुआ। राजीव गांधी को भारतीय न्यायालय ने क्लीन चिट भी प्रदान कर दी। बोफोर्स कांड के सुर्खियों में रहते हुए 1989 के चुनाव भी आ गए। वी. पी. सिंह और विपक्ष ने इसे चुनावी मुद्दे के रूप में पेश किया। यद्यपि प्राथमिक जाँच-पड़ताल से यह साबित हो गया कि राजीव गांधी के विरुद्ध ऑडिटर जनरल के द्वारा कोई भी आरोप नहीं लगाया गया है, तथापि ऑडिटर जनरल ने तोपों की विश्वसनीयता को अवश्य संदेह के घेरे में ला दिया था। भारतीय जनता के मध्य यह बात स्पष्ट हो गई कि बोफार्स तोपें विश्वसनीयन नहीं हैं तो सौदे में दलाली ली गई होगी। ऐसे में निशाना राजीव गांधी और उनकी सरकार को ही बनना था। इधर वी. पी. सिंह ने 1987 में कांग्रेस द्वारा निष्कासित किए जाने पर विभीषण की भूमिका निभाने का मन बना लिया था। लेकिन यह विभीषण रावण की नहीं बल्कि राम की पराजय चाहता था। वी. पी. सिंह ने जनता के मध्य जाकर यह दुष्प्रचार करना आरम्भ कर दिया कि कांग्रेस सरकार में शीर्ष स्तर पर भ्रष्टाचार व्याप्त है। इसी कारण अफ़सरशाही और नौकरशाही भ्रष्ट हो चुकी है। उच्च स्तर पर भ्रष्टाचार के दावे ने भारत के सभी वर्गों को चौंका दिया। वी. पी. सिंह की बातें उन्हें सत्यवादी हरिश्चन्द्र के सत्य वचन के समान लगीं।

वी. पी. सिंह ने चुनाव की तिथि घोषित होने के बाद जनसभाओं में राजीव गांधी का नाम लेकर दावा किया कि उन्होंने बोफोर्स तोपों की दलाली की रक़म 'लोटस' नामक विदेशी बैंक में जमा कराई है और वह सत्ता में आने के बाद पूरे प्रकरण का ख़ुलासा कर देंगे। कांग्रेस में वित्त एवं रक्षा मंत्रालय का सर्वेहारा रहा व्यक्ति यह आरोप लगा रहा था, इस कारण सर्वहारा वर्ग ने यह मान लिया कि वी. पी. सिंह के दावों में अवश्य ही सच्चाई होगी। अब यहाँ यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि वी. पी. सिंह द्वारा राजीव गांधी के प्रति दुष्प्रचार का उद्देश्य सत्ता तक पहुँचना ही था। इस चुनाव में सच्चाई और ईमानदारी की बलि चढ़ाई गई तथा झूठ ने लोगों को ग़ुमराह कर दिया। यही मनोविज्ञान भी है कि यदि कोई झूठ बार-बार आपके कानों में पड़ता है तो एक दिन आप उसे सच माने लेते हैं। यही बात बोफोर्स सौदे के मामले में भी हुई। भारतीय जनता ने इसे सच मान लिया। इस प्रकार इस चुनाव में वी. पी. सिंह की छवि एक ऐसे राजनीतिज्ञ की बन गई जिसकी ईमानदारी और कर्तव्य निष्ठा पर कोई शक़ नहीं किया जा सकता था। उत्तर प्रदेश के युवाओं ने तो उन्हें अपना नायक मान लिया था। वी. पी. सिंह छात्रों की टोलियों के साथ-साथ रहते थे। वह मोटरसाइकिल पर चुनाव प्रचार करते छात्रों के साथ हो लेते थे। उन्होंने स्वयं को साधारण व्यक्ति प्रदर्शित करने के लिए यथासम्भव कार की सवारी से भी परहेज किया। फलस्वरूप इसका सार्थक प्रभाव देखने को प्राप्त हुआ। वी. पी. सिंह ने एक ओर जनता के बीच अपनी सत्यवादी हरिश्चन्द्र की छवि बनाई तो दूसरी ओर कांग्रेस को तोड़ने का काम भी आरम्भ कर दिया। जो लोग राजीव गांधी से असंतुष्ट थे, उनसे वी. पी. सिंह ने सम्पर्क करना आरम्भ कर दिया। वह चाहते थे कि असंतुष्ट कांग्रेसी राजीव गांधी और कांग्रेस पार्टी से अलग हो जाएँ। उनकी इस मुहिम में पहला नाम था-आरिफ़ मुहम्मद का। आरिफ़ मुहम्मद एक आज़ाद एवं प्रगतिशील विचारों के व्यक्ति थे। इस कारण वह चाहते थे कि इस्लामिक कुरीतियों को समाप्त किया जाना आवश्यक है। आरिफ़ मुहम्मद तथा राजीव गांधी एक-दूसरे के बेहद क़रीब थे लेकिन एक घटना ने उनके बीच गहरी खाई पैदा कर दी। दरअसल हुआ यह कि हैदराबाद में शाहबानो को उसके पति द्वारा तलाक़ देने के बाद मामला अदालत तक जा पहुँचा। अदालत ने मुस्लिम महिला शाहबानो को जीवन निर्वाह भत्ते के योग्य माना। लेकिन मुस्लिम कट्टरपंथी चाहते थे कि 'मुस्लिम पर्सनल लॉ' के आधार पर ही फैसला किया जाए। इस कारण यह विवाद काफ़ी तूल पकड़ चुका था। ऐसी स्थिति में राजीव गांधी ने आरिफ़ मुहम्मद से कहा कि वह एक ज़ोरदार अभियान चलाकर लोगों को समझाएँ कि मुस्लिमों को नया क़ानून मानना चाहिए और 'मुस्लिम व्यक्तिगत क़ानून' पर निर्भर नहीं रहना चाहिए।

वी. पी. सिंह ने विद्याचरण शुक्ल, रामधन तथा सतपाल मलिक और अन्य असंतुष्ट कांग्रेसियों के साथ मिलकर 2 अक्टूबर, 1987 को अपना एक पृथक मोर्चा गठित कर लिया। इस मोर्चे में भारतीय जनता पार्टी भी सम्मिलित हो गई। वामदलों ने भी मोर्चे को समर्थन देने की घोषणा कर दी। इस प्रकार सात दलों के मोर्चे का निर्माण 6 अगस्त, 1988 को हुआ और 11 अक्टूबर, 1988 को राष्ट्रीय मोर्चा का विधिवत गठन कर लिया गया।

प्रधानमंत्री के पद पर

1989 का लोकसभा चुनाव पूर्ण हुआ। कांग्रेस को भारी क्षति उठानी पड़ी। उसे मात्र 197 सीटें ही प्राप्त हुईं। विश्वनाथ प्रताप सिंह के राष्ट्रीय मोर्चे को 146 सीटें मिलीं। भाजपा और वामदलों ने राष्ट्रीय मोर्चे को समर्थन देने का इरादा ज़ाहिर कर दिया। तब भाजपा के पास 86 सांसद थे और वामदलों के पास 52 सांसद। इस तरह राष्ट्रीय मोर्चे को 248 सदस्यों का समर्थन प्राप्त हो गया। लेकिन समस्या यह थी कि 'एक अनार, सौ बीमार' थे, अर्थात् प्रधानमंत्री का पद एक था और उम्मीदवार कई पैदा हो गए। वी. पी. सिंह स्वयं को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बता रहे थे। उन्हें लगता था कि राजीव गांधी और कांग्रेस की पराजय उनके कारण ही सम्भव हुई है। लेकिन चन्द्रशेखर और देवीलाल भी प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शरीक़ हो गए। अब स्थिति बेढब हो गई। विश्वनाथ प्रताप सिंह को प्रधानमंत्री की कुर्सी दूर ख़िसकती हुई नज़र आने लगी। लेकिन सभी लोग चाहते थे कि साझे की खिचड़ी का सत्यानाश न हो और शासन का मज़ा लिया जाए। ऐसे में यह तय किया गया कि वी. पी. सिंह की प्रधानमंत्री पद पर ताजपोशी होगी और चौधरी देवीलाल को उपप्रधानमंत्री बनाया जाएगा। अत: चुनाव में जीती खीर को बचाए रखने के लिए समझौता हुआ और 2 दिसम्बर, 1989 को वी. पी. सिंह ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ग्रहण कर ली। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सादगी का चोला धारण करके अपनी चालें चली थीं। वह जनता के सामने आम आदमी बने लेकिन हृदय से कुटिल चाणक्य थे। प्रधानमंत्री बनते ही उन्होंने सिखों के घाव पर मरहम रखने के लिए स्वर्ण मन्दिर की ओर दौड़ लगाई। 'ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार' राजीव गांधी की माता इंदिरा गांधी द्वारा उठाया गया क़दम था। वी. पी. सिंह माता और पुत्र दोनों की लोकप्रियता जनता के हृदय से सदैव के लिए मिटा देना चाहते थे।

यह वी. पी. सिंह का भय ही था जो उन्हें मृत माता एवं पुत्र से भी भयभीत किए हुए था। उनका दिल उस फ़रेब को जानता था, जिसके बल पर उन्होंने राजीव गांधी और कांग्रेस के साथ गद्दारी की थी। अत: वह चाहते थे कि इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की लोकप्रियता समाप्त हो जाए। लेकिन सच्चाई के सूर्य पर बादल रूपी झूठ का पहरा ज़्यादा समय तक क़ायम नहीं रहता। यदि एक अयोग्य व्यक्ति तिकड़मों के बल पर कुछ प्राप्त कर लेता है तो उसे सहेजकर रखना उसके लिए काफ़ी कठिन होता है। जो लोग विश्वासघात की नाव से समुद्र पार करना चाहते हैं, वे उसी समुद्र में डूब जाते हैं, क्योंकि विश्वासघात की नाव का सफर दूर तक जारी नहीं रहता। वी. पी. सिंह की नाव में भी अयोग्यता ने छेद करना शुरू कर दिया था। वी. पी. सिंह ने अपनी साहित्यिक प्रतिभा वाली राजनीति से कुछ समय तक लोगों को चमत्कृत किए रखा। लेकिन देश की जनता नए प्रधानमंत्री से कुछ काम चाहती थी, कविता की शैली में वादे नहीं चाहती थी। पंजाब में आतंकवाद को रोक पाना उनके बूते के बाहर हो रहा था। जिन पार्टियों के साथ वह कार्य कर रहे थे, उनकी नीतियों के कारण उनके विचारों में तालमेल नहीं हो रहा था। उन पार्टियों के मध्य भी अंतर्विरोध और कलह का वातावरण था। इस कारण वी. पी. सिंह का सारा समय मोर्चे की एकजुटता बनाए रखने में ही व्यतीत हो रहा था। ऐसे में देश की समस्याएँ कैसी निपटतीं।

वी. पी. सिंह ने राजीव गांधी और कांग्रेस पार्टी के भ्रष्टाचार का ख़ुलासा करने का वादा किया था, लेकिन वह किसी भी आरोप को साबित नहीं कर सके। तब लोगों को एहसास हुआ कि वे छले गए हैं। उस समय तक राजीव गांधी की मृत्यु हो चुकी थी। ऐसे में जनता सच जानने को ज़्यादा उत्सुक थी ताकि वह राजीव गांधी के साथ अनजाने में कोई अन्याय न कर बैठे। वी. पी. सिंह ने यह कल्पना भी नहीं की थी कि राजीव गांधी की चुनावों के दौरान ही मृत्यु हो जाएगी और उससे नेहरू-गांधी खानदान के लिए जनता में सहानुभूति की लहर उत्पन्न हो जाएगी। चन्द्रशेखर और देवीलाल भी उनके साथ स्पर्द्धा कर रहे थे। वी. पी. सिंह को यह डर था कि जो खेल उन्होंने राजीव गांधी के साथ खेला था, वही खेल कहीं ये लोग उनके साथ न खेल जाएँ।

कश्मीर में आतंकवाद

कश्मीर का आतंकवाद भी एक समस्या बन रहा था। राजनीतिक दूरदर्शिता का अभाव और केन्द्र में कमज़ोर प्रधानमंत्री की छवि से कश्मीर में आतंकियों के हौसले बुलन्द हो गए थे। वी. पी. सिंह के हृदय में अविश्वास था। इस कारण कश्मीर का मसला निबटाने के लिए जो समिति बनी, उसका अध्यक्ष जॉर्ज फ़र्नाडीज को बनाया गया। अरुण नेहरू और मुफ़्ती मुहम्मद सईद को भी कश्मीर मामले में दख़ल देने का अधिकारी बना दिया गया। फिर रही-सही क़सर उन्होंने जगमोहन को कश्मीर का राज्यपाल बनाकर पूरी कर दी। इससे जाहिर हो रहा था कि वह किसी पर विश्वास नहीं कर रहे थे। विश्वासघात करने वाला शख़्स सदैव शंकित रहता है। कुल मिलाकर राष्ट्रीय मोर्चा सरकार सभी क्षेत्रों में असफलता को प्राप्त हुई। हाँ, एक काम अवश्य हुआ कि श्रीलंका से भारतीय सेना की मुक़म्मल वापसी हो गई। राम मन्दिर और बाबरी मस्जिद का मामला नए राजनीतिक समीकरणों के कारण सुलझ सकता था, लेकिन उसे भी उलझाए रखा गया। वी. पी. सिंह ने जब जगमोहन को कश्मीर का राज्यपाल बनाकर वहाँ पर भेजा तो फ़ारूख़ अब्दुल्ला ने मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया। तब जगमोहन ने कश्मीर का शासन हस्तगत करने के लिए विधानसभा भंग कर दी। ऐसे में वी. पी. सिंह ने विवश होकर जगमोहन को कश्मीर से वापस बुला लिया।

उधर जनता मोर्चा के चन्द्रशेखर खरी बात कहने वाले व्यक्ति थे। उन्हें यह पसंद नहीं था कि ग़ैर ज़िम्मेदाराना हरकत को किसी भी सूरत में बर्दाश्त किया जाए। फ़ारूख़ अब्दुल्ला ने मुख्यमंत्री पद से इस कारण से त्यागपत्र दिया था क्योंकि जगमोहन को कश्मीर का राज्यपाल बनाकर भेजा गया था। जगमोहन ने 1983 में विधायकों को तोड़कर फ़ारूख़ अब्दुल्ला को मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देने के लिए विवश कर दिया था। इस कारण चन्द्रशेखर ने फ़ारूख़ अब्दुल्ला का समर्थन किया। राष्ट्रीय मोर्चा में सभी नेताओं के परस्पर सम्बन्ध बहुत ख़राब थे। चरण सिंह के पुत्र अजीत सिंह को देवीलाल पसंद नहीं करते थे और चन्द्रशेखर को देवीलाल नापसंद थे। देवीलाल अपने पुत्र ओमप्रकाश चौटाला के मोह में ग्रस्त थे। इस कारण उन्होंने हरियाणा की मुख्यमंत्री की कुर्सी पर ओमप्रकाश चौटाला को बैठा दिया। चौटाला ने महम की सीट से भ्रष्ट तरीक़े अपनाकर चुनाव लड़ा था। अत: धाँधलियों के कारण निर्वाचन आयोग ने वह चुनाव रद्द कर दिया। तब चौटाला को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा। लेकिन दो माह बाद उपप्रधानमंत्री पिता देवीलाल के वरद हस्त से वह पुन: हरियाणा के मुख्यमंत्री बन गए। इससे राष्ट्रीय मोर्चे में अंतर्कलह की स्थिति ज़्यादा बढ़ गई।

ओमप्रकाश चौटाला के मुद्दे पर आरिफ़ मुहम्मद और अरुण नेहरू ने त्यागपत्र दे दिया। तब वी. पी.सिंह ने देवीलाल से स्पष्ट कह दिया कि यदि ओमप्रकाश चौटाला हरियाणा के मुख्यमंत्री का पद नहीं छोड़ते हैं तो वह प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र दे देंगे। ऐसी स्थिति में देवीलाल ने उन्हें आश्वासन दिया कि ओमप्रकाश चौटाला मुख्यमंत्री का पद छोड़ देंगे। देवीलाल जानते थे कि उनके पुत्र ओमप्रकाश चौटाला पर दबाव बनाने वाले व्यक्ति अरुण नेहरू और आरिफ़ मुहम्मद हैं। इसीलिए उन्होंने दोनों के विरुद्ध भ्रष्टाचार का आरोप लगाया। आरोप के समर्थन में देवीलाल ने 1987 में राष्ट्रपति को लिखे गए वी. पी. सिंह का पत्र प्रस्तुत किया। जिसमें अरुण नेहरू और आरिफ़ मुहम्मद के बोफोर्स सौदे में शरीक़ होने की बात लिख थी। वी. पी. सिंह ने उस पत्र को न केवल जाली क़रार दिया बल्कि चौधरी देवीलाल की शक्ति का अनुमान लगाए बिना उन्हें बर्ख़ास्त भी कर दिया।

मंडल कमीशन की रिपोर्ट

देवीलाल ने अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए 9 अगस्त को किसान रैली आहूत करने का निर्णय किया। वी. पी. सिंह जानते थे कि चौधरी देवीलाल का किसानों पर अच्छा प्रभाव है। उन्हें पता था कि यदि यह रैली हुई तो दिल्ली का प्रशासन डोल जाएगा। अत: उस रैली का मुक़ाबला करने के लिए वी. पी. सिंह ने 7 अगस्त को मंडल कमीशन की रिपोर्ट संसद में पेश कर दी। दरअसल जनता पार्टी सरकार ने 1977-79 में मंडल कमीशन का गठन किया था। मंडन कमीशन ने अन्य पिछड़ा वर्ग के सम्बन्ध में अनेक अनुशंसाएँ की थीं। लेकिन जनता पार्टी उसे लागू कर पाती, उसके पूर्व ही वह टूट गई और चुनाव के बाद में इंदिरा गांधी सत्ता में आ गईं। इंदिरा गांधी ने मंडल कमीशन की सिफ़ारिशों को पढ़ा था। वह जानती थीं कि अगर मंडल कमीशन की सिफ़ारिशें लागू की गईं तो देश में वर्ग विभेद भड़क उठेगा। इस कारण उन्होंने मंडल कमीशन की सिफ़ारिशें कूड़े के ढेर में डाल दी थीं।

वी. पी. सिंह के हाथ मंडल कमीशन की वही सिफ़ारिशें लग गई थीं। उसे संसद में पेश करने के बाद जब अनुशंसाएँ लागू हुई तो देश में भूचाल आ गया। सवर्ण और अन्य पिछड़ा वर्ग के रूप में दो नई समस्याएँ पैदा हो गईं। अन्य पिछड़ा वर्ग को नौकरियों में 27 प्रतिशत का आरक्षण प्राप्त हो रहा था जबकि सवर्णों के लिए 50.5 प्रतिशत ही नौकरी के अवसर रह गये थे। क्योंकि एस. सी. और एस. टी. के लिए 22.5 प्रतिशत पहले से ही आरक्षण था। इस आरक्षण नीति को उच्च शिक्षा के अवसरों पर भी लागू होना था।

मंडल कमीशन की सिफ़ारिशें लागू होते ही छात्र भड़क उठे। जिन नौजवानों ने वी. पी. सिंह को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुँचाया था, वही उन्हें पानी-पी-पीकर कोसने पर विवश हो गए। सवर्ण जाति के नौजवानों को लग रहा था कि उनका भविष्य अंधकारमय हो गया है। नौजवान यह मांग कर रहे थे कि एस. सी. एवं एस. टी. आरक्षण की समीक्षा की जाए और आरक्षण का लाभ प्राप्त कर सवर्णों के बराबर आ चुके लोगों को उस सूची से निकाल दिया जाए। अब समस्या और भी जटिल हो गई थी। छात्र हिंसक आन्दोलन करने लगे। अनेक छात्रों ने तो आत्मदाह भी कर लिया। तब मेरठ के किसान नेता महेन्द्र सिंह टिकैत ने नौजवानों का आहवान किया कि उन नेताओं को सबक सिखाओ जिन्होंने मंडल कमीशन की सिफ़ारिशें लागू की हैं।

टिकैत के इस बयान से राष्ट्रीय मोर्चा के नेताओं की रूह काँप उठी। उन्होंने टिकैत के ख़िलाफ़ जन भड़काने के लिए कार्रवाई करने की ज़रूरत बताई। सम्पूर्ण देश में वी. पी. सिंह के ख़िलाफ़ माहौल का वातावरण बन गया और दिल्ली में अव्यवस्था फैल गई। छात्रों पर अंकुश लगाना पुलिस के बूते से बाहर हो गया था। यदि वी. पी. सिंह को प्रधानमंत्री वाली सुरक्षा न प्राप्त होती और वह चुनावों के समय जिस प्रकार से उन्मुक्त होकर घूमा करते थे, वैसे ही घूमते तो निश्चय ही उनके ज़िस्म के टुकड़ों का पता नहीं लगता।

वी. पी. सिंह ने यह भी विचार नहीं किया कि इंदिरा गांधी ने मंडल कमीशन की जिन सिफ़ारिशों को नक़ार दिया था, वह सिफ़ारिशें किसी भी क़ीमत पर नहीं लागू की जा सकतीं। लेकिन वी. पी. सिंह को लगा था कि अन्य पिछड़ा वर्ग को आरक्षण देकर वह रातों-रात हीरो बन जाएँगे। परन्तु मंडल कमीशन की सिफ़ारिशों की आग में वी. पी. सिंह का वजूद जलकर ख़ाक़ हो जाना था। इस बारे में वी. पी. सिंह ने सहयोगी पार्टियों से कोई परामर्श नहीं किया था। उन्होंने रामस्वरूप हेगड़े, बीजू पटनायक और अरुण नेहरू को विश्वास में नहीं लिया था। इस कारण वे लोग नाराज़ हो गए। भाजपा और वामदल भी खुश नहीं थे। यदि आरक्षण का आधार जातियाँ न होकर आर्थिक स्थिति होती तो मोर्चे के घटक नेता कुछ सोच सकते थे।

वी. पी. सिंह की भयंकर भूल ने जातियों को विभाजित कर दिया और उनमें वैमनस्य का बीज बो दिया था। जो जातियाँ आरक्षण का लाभ पाने से वंचित रह गईं थीं, उनके लिए कोई भी सकारात्मक बात प्रचारित नहीं की गई। वी. पी. सिंह की राजनिक अपरिपक्वता ने समाज का विघटन कर दिया था। ऐसी स्थिति में उच्चतम न्यायालय ने 1 अक्टूबर, 1990 को मंडल कमीशनश के प्रतिवेदन को लागू करने पर रोक लगा दी।

इस दौरान राष्ट्रीय मोर्चा में सम्मिलित पार्टियों को यह एहसास हो गया कि चुनाव अवश्यंभावी हैं और यह मोर्चा अधिक समय तक क़ायम नहीं रहेगा। इस कारण सभी दल अपना जनाधार तैयार कर लेना चाहते थे। ऐसे में भाजपा ने पहल करते हुए राम मन्दिर का मुद्दा भुनाकर हिन्दुओं के वोटों को आकर्षित करने की नीति विकसित की। भाजपा के लालकृष्ण आणवानी ने 25 सितम्वर को सोमनाथ से अयोध्या तक की यात्रा का शुभारम्भ कर दिया। वह अयोध्या में राम मन्दिर की आधार शिला रखना चाहते थे।

बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने लालकृष्ण आडवाणी को समस्तीपुर में गिरफ्तार कर लिया। तब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव भी यही चाहते थे। लेकिन लालकृष्ण आडवाणी की गिरफ्तारी से भाजपा नाराज़ हो गई। उसके द्वारा समर्थन वापसी की धमकी दी गई। अब वी. पी. सिंह के सामने एक तरफ़ कुंआ था और दूसरी तरफ़ खाई। यदि वह भाजपा को मनाते तो वामपंथी दल समर्थन वापस ले सकते थे। इस कारण भाजपा के समर्थन वापस लेने के विषय में उसे नहीं रोका गया। स्थिति तब अधिक विस्फोटक गई, जब 30 अक्टूबर, 1990 को अयोध्या में भारी गोलीकांड हुआ। बाबरी मस्जिद और राम मन्दिर के मुद्दे पर कई लोगों की मृत्यु हो गई। इसके कारण उत्तर भारत में साम्प्रदायिक माहौल बिगड़ गया।

इन सबका परिणाम वी. पी. सिंह के लिए घातक सिद्ध हुआ। फिर 10 नवम्बर, 1990 को 58 सांसदों ने चन्द्रशेखर के पक्ष में पाला बदल लिया। ऐसे में वी. पी. सिंह को प्रधानमंत्री का पद छोड़ने के लिए विवश होना पड़ा। उसके बाद वी. पी. सिंह सदैव के लिए हाशिये पर चले गए। राजनीति के अतिरिक्त इन्हें कविता और पेटिंग का भी शौक़ था। इनके कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए और पेटिंग्स की प्रदर्शनियाँ भी लगीं।

इस दौरान वी. पी. सिंह गुर्दों की बीमारी से पीड़ित रहे। उन्होंने किसानों और विस्थापितों की समस्याओं को आधार बनाकर अपना राजनीतिक क़द पुन: बनाने का प्रयास किया। लेकिन इनका शरीर साथ नहीं दे रहा था। इस कारण कोई भी बड़ी क़ामयाबी इनके ख़ाते में नहीं आई।

27 नवम्बर, 2008 को 77 वर्ष की अवस्था में वी. पी. सिंह का निधन दिल्ली के अपोलो हॉस्पीटल में हो गया। इन्हें पिछले 17 वर्षों से ब्लड कैंसर था। इनके लीवर ने भी कार्य करना बंद कर दिया था। इन्हें मृत्यु से 6 माह पूर्व अपोलो हॉस्पीटल में भर्ती करवाया गया था। वह अपने पीछे पत्नी सुनीता कुमारी तथा दो पुत्रों अभय सिंह और अजय सिंह को छोड़ गए।

समग्र विश्लेषण

मृत्यु सभी दूरियों को पाट देती है और घावों को भर देती है। वी. पी. सिंह का राजनीतिक जीवन भी उनकी मृत्यु के बाद थम चुका है। अब यही माना जाएगा कि वी. पी. सिंह भारत के प्रधानमंत्री की सूची में थे। उनके कार्यकाल में उनसे कुछ राजनीतिक भलें हुईं। वह साझा दलों की सरकार बनाकर कभी भी सुविधाजनक स्थिति में नहीं दिखे। वी. पी. सिंह के उत्कर्ष काल को भारतीय राजनीति का एक नया अध्याय भी कहा जा सकता है। उन्हें भारतीय राजनीति में कभी भी विस्मृत नहीं किया जा सकेगा। अंत में विश्वनाथ प्रताप सिंह की दो कविताएँ उनके एकाकी जीवन के साक्ष्य स्वरूप प्रस्तुत हैं-

मुफ़लिस

मुफ़लिस से अब चोर बन रहा हूँ
पर इस भरे बाज़ार से चुराऊँ क्या,
यहाँ वही चीज़ें सजी हैं
जिन्हें लुटाकर मैं मुफ़लिस हो चुका हूँ।

आईना

मेरे एक तरफ़ चमकदार आईना है
उसमें चेहरों की चहल-पहल है,
उसे दुनिया देखती है
दूसरी ओर कोई नहीं
उसे मैं अकेले ही देखता हूँ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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