रूप गोस्वामी भक्ति-रचनाएँ
राधारानी की कृपा
लुप्त तीर्थों के उद्धार और ग्रन्थ-रचना आदि कार्यों में संलग्न रहते हुए भी रूप गोस्वामी की आन्तरिक साधना चलती रही। उनके ग्रन्थों की समाप्ति में दिये विवरण से पता चलता है कि भजन की सुविधा की दृष्टि से वे अपने रहने का स्थान बदलते रहते। कभी भद्रवन में रहते, कभी नन्दीश्वर के निकट, कभी गोवर्धन की तलहटी में सनातन गोस्वामी के भजन-कुटी में और कभी राधाकुण्ड में रघुनाथ दास गोस्वामी और कृष्णदास कविराज के सान्निध्य में। इस बीच उनके और उनके इष्ट राधा-कृष्ण के बीच जो घटनायें घटीं उन्हें कौन जाने? पर उनमें से कुछ बहुत प्रचलित हैं, जिनका हम यहाँ उल्लेख करेंगे। बहुत दिन हो गये रूपगोस्वामी को धाम में रहते और धामेश्वरी का चिन्तन करते। पर उनकी साक्षात् कृपा का अनुभव उन्हें न हुआ। एक बार जब वे नन्द ग्राम में रह रहे थे, उनकी कृपा न प्राप्त कर सकने के कारण उन्हें बड़ा क्षोभ हुआ। क्षोभ बढ़ता गया। राधारानी का विरह असह्य हो गया। प्राण उनकी कृपा के बिना छटपट करने लगे। खाना-पीना छूट गया। मधुकरी को जाना बंद हो गया।
उसी समय संवाद मिला कि सनातन गोस्वामी आ रहे हैं उन्हें देखने। वे चिन्ता में पड़ गये कि गुरु-तुल्य अपने अग्रज के कैसे, क्या सेवा करें। वासना जागी कि कहीं से आवश्यक सामग्री उपलब्ध होती तो खीर बनाकर उन्हें खिलाते। पर सामग्री आती कहाँ से? किसी से कुछ मांगने का उनका नियम नहीं था। मधुकरी को जाते तो बिना मांगे रोटियों के टूक और मिलता ही क्या? वासना दबा देनी पड़ी।
उसी समय एक ब्रज-बालिका आयी दूध, चावल, शक्करादि बहुत-सा सामान लेकरं बोली- "बाबा तू मधुकरी को नाय गयौ कई दिना ते। भूखौ होयगो। माँ ने तेरे तंई सामान भेज्यौ है। खीर बनाय के पाय लीजौं।" रूप गोस्वामी अवाक! सनातन गोस्वामी को खीर खिलाने की उनकी वासना जागते ही सामान प्रस्तुत! यह कैसी राधारानी की कृपा! उन्होंने तनिक भी विलम्ब न किया। तत्काल ही बालिका की माँ को प्रेरणा देकर सामान भिजवा दिया।
रूप गोस्वामी यह सोच रहे थे और उनकी आंखों से आँसूओं का निर्झर बह रहा था। राधारानी की कृपा देख उनका हृदय द्रवित हो रहा था पर हृदय का क्षोभ फिर भी कम नहीं हो रहा था वह तो और बढ़ ही रहा था। राधारानी कृपा करती हैं तो भी दूर रहकर लुक-छिपकर दूसरों के माध्यम से करती हैं, मुझे कुपात्र जान स्वयं सामने न आना ही ठीक समझती हैं- वे सोच रहे थे। बालिका उनकी ओर विस्मय से देख रही थी। देखते-देखते बोली- "बाबा तू रोबे कायको है? दुर्बल है, खीर बनायवे की शक्ति नाँय, जा मारे? तो ला खीर मैं बनाय दऊँ।"
"ना लाली, खीर तो मैं बना लूँगा। दुर्बल नहीं हूँ।"
"बाबा, तेरो मोंहड़ो तो सूख रह्यौ है। हाथ-पैरन में जान दीखे नाँय। खानो-पीनो बन्द कर राख्यौ है। मधुकरी को जाय नाँय, तो दुर्बल तो आपई होयगो। च्यौं नई जाय मधुकरी को?
"लाली, मधुकरी के लिये ही क्या वृज में पड़ा हूँ? व्रजेश्वरी की कृपा के लिए। जब वे कृपा करती ही नहीं, तो मधुकरी जा के क्या करूँगा?"
"बाबा, तू जाने नाँय। कृपा तो तोपैं हय रही है। तबई तो तोको हियाँ राख राख्यौ है राधारानी ने। माँ कह्यौ करै बाक़ी कृपा के बिना कोऊ व्रज में रह नाँय सके। जासों तू दु:ख मति करे, अच्छो। मैं जाऊँ। खीर बनाय के पाय लीजों, नई राधारानी दु:ख पामेंगी।" वह बालिका स्नेह भरी दृष्टि से बाबा की ओर देखती और मुस्कराती वहाँ से चली गयी।
मृदु-मधुर स्वर में भोली बालिका के अन्तिम शब्दों ने और उसकी स्नेहमयी मधुमयी दृष्टि ने बाबा के हृदय में एक नये आलोडन की सृष्टि की। थोड़ी देर में सनातन गोस्वामी आ गये। खीर बनाकर रूप गोस्वामी ने उन्हें खिलायीं खीर की अप्राकृत सुगंध और स्वाद से वे चमत्कृत रह गये। उसे खाकर जो अप्राकृत नशा चढ़ा, उसे देख उनका कौतूहल और भी बढ़ गया। रूप गोस्वामी से उन्होंने कहा- "रूप, ऐसी खीर तो मैंने कभी नहीं खाई! तुमने कैसे बनायी?"
रूप गोस्वामी ने सब वृतांत कह सुनाया। सुनते ही सनातन गोस्वामी के शरीर में एक सिहरन दौड़ गयी। वे अश्रुसिक्त विस्फारित नेत्रों से रूपगोस्वामी की ओर देखते रह गये। कुछ देर बाद बोले- "रूप! तुम नहीं जानते कि वह बालिका जो खीर की सामग्री लाई थी कौन थी। वे स्वयं राधारानी थीं। तुमने उन्हें इतना कष्ट दिया। वे अपने भक्त को भूखा कब देख सकती हैं? अब फिर कभी जान-बूझकर भूखे रहने की बात न सोचना।"
"और देखो, अपने लिये या किसी और के लिये किसी वासना को भी हृदय में स्थान न देना। भक्त की वासना की पूर्ति के लिये ही राधारानी स्वयं चंचल हो उठती हैं। तुम्हारे हृदय में मुझे खीर खिलाने के लिए जो वासना हुई थी वह भी एक कारण है उनके स्वयं इतना कष्ट करने का।"
यह सुन रूप गोस्वामी के वचनों की पुष्टि के लिये किसी बाह्य साक्ष्य की आवश्यकता तो थी नहीं। पर बाह्य साक्ष्य से भी उनकी पुष्टि अपने-आप हो गयी, जब वे दूसरे दिन उस बालिका के घर गये मधुकरी को। उसे वहाँ न देखकर घरवालों से पूछा, तो उन्होंने कहा- "वह तो बहुत दिनों से मासी के घर दूसरे गाँव गयी है। अभी आयी कहाँ है?"
अब और भी इस बात में संदेह करने का कोई अवकाश न रहा कि उस व्रज-बालिका के रूप में राधारानी ही आयी थीं खीर की सामग्री लेकर। आना तो था ही उन्हें। अपने दोनों प्रिय भक्तों की एक साथ सेवा करने का अवसर उन्हें फिर कब मिलता? प्रियादास जी ने भक्तमाल की टीका में सूत्र रूप में इस घटना का उल्लेख इस प्रकार किया है-
रहे नंदगाँव रूप, आये श्रीसनातन जू,
महासुखरूप भोग खीर कौ लगाइयै॥
नेकु मन आई, सुखदाई प्रिया लाड़िली जू,
मानौ कोऊ बालकी सुसोज सब ल्याइयै॥
करिकै रसोई सोई, लै प्रसाद पायौ,
भायो, अमल सो आयो बढ़ि, पूछी, सो जताइयै॥
"फैरि जिन ऐसी करौ, यही दृढ़ हिये धरौ,
ढरौ निज चाल" कहि आँखें भरि आइयै॥ 359॥
गोपाल की कृपा
रूप गोस्वामी के साथ इससे पूर्व घटी एक और घटना से भी इस बात की पुष्टि होती है कि उनकी वासना की पूर्ति के लिए स्वयं उनके इष्ट को कष्ट करना पड़ता। चैतन्य-चरितामृत में उल्लेख है कि एक बार उनके मन में वासना जागी गोपाल (श्रीनाथजी) के दर्शन करने की। गोपाल का मन्दिर गोवर्धन पर्वत के ऊपर था। गोवर्धन पर्वत पर रूप गोस्वामी चढ़ते नहीं थे, क्योंकि वे उसे साक्षात श्रीकृष्ण का विग्रह मानते थे। ऐसी स्थिति में उनकी वासना पूरी करने के लिए गोपाल को स्वयं उनके निकट आना पड़ा। उन्होंने कुछ ऐसी माया फैलायी, जिससे उनके भक्तों को उनके मन्दिर पर म्लेक्षों के आक्रमण का भय हो गया। वे उन्हें मथुरा ले गये। वहाँ विट्ठलेश्वर के घर गोपाल ने एक महीने उनकी सेवा स्वीकार की। उस बीच रूप गोस्वामी ने गोपालभट्ट भूगर्भ गोस्वामी, जीव गोस्वामी आदि अपने निज जनों के साथ मथुरा में रहकर एक मास तक उनके दर्शन किये-
तबे रूप गोसाञी सब निजजन लञा।
एकमास दर्शन कैला मथुराय रहिया॥[1]
वैष्णव अपराध
कुछ दिन बाद राधाकृष्ण की कृपा की वृष्टि रूपगोस्वामी पर निरन्तर होने लगी। उन्हें प्राय: हर समय उनकी मधुर लीलाओं की स्फूर्ति होती रहती। पहले तो जो कोई उनके पास आता अपनी कुछ शंकाए लेकर या भजन-साधन में अपनी कुछ समस्याएं लेकर, वे बड़े ध्यान से उसकी बात सुनते, मृदु वचनों से उसकी शंकाओं का समाधान करते, आवश्यक निर्देश देकर साधन-संबंधी उसकी समस्याओं को हल करते। जो भी उनके पास आता म्लान मुख लेकर उनसे विदा होता एक अकथनीय आनन्द लहरी से व्याप्त मन और प्राण लेकर। पर अब अक्सर उन्हें किसी के आने-जाने का पता भी न चलता। लोग आते उनके पास, उनके वचनामृत से तृप्त होने। पर कुछ देर उनके पास बैठकर प्यासे ही लौट आते।
एक बार कृष्णदास नाम के एक विशिष्ट वैष्णव-भक्त, जो पैर से लंगड़े थे, उनके पास आये कुछ सत्संग के लिए। उस समय वे राधा-कृष्ण की एक दिव्य लीला के दर्शन कर रहे थे। राधा एक वृक्ष की डाल से पुष्प तोड़ने की चेष्टा कर रही थीं। डाल कुछ ऊँची थी। वे उचक-उचक कर उसे पकड़ना चाह रही थीं, पर वह हाथ में नहीं आ रही थी। श्यामसुन्दर दूर से देख रहे थे। वे आये चुपके से और राधारानी के पीछे से डाल को पकड़कर धीरे-धीरे इतना नीचा कर दिया कि वह उनकी पकड़ में आ जाय। उन्होंने जैसे ही डाल पकड़ी श्यामसुन्दर ने उसे छोड़ दिया। राधारानी वृक्ष से लटक कर रह गयीं। यह देख रूप गोस्वामी को हंसी आ गयी। कृष्णदास समझे कि वे उनका लंगड़ापन देखकर हंस दिये। क्रुद्ध हो वे तत्काल वहाँ से गये। रूप गोस्वामी को इसका कुछ भी पता नहीं।
अकस्मात उनकी लीला-स्फूर्ति बन्द हो गयी। वे बहुत चेष्टा करते तो भी लीला-दर्शन बिना उनके प्राण छट-पट करने लगे। पर इसका कारण वे न समझ सके। सनातन गोस्वामी के पास जाकर उन्होंने अपनी व्यथा का वर्णन किया और इसका कारण जानना चाहा। उन्होंने कहा- 'तुम से जाने या अनजाने कोई वैष्णव-अपराध हुआ हैं, जिसके कारण लीला-स्फूर्ति बन्द हो गयी हैं। जिनके प्रति अपराध हुआ है, उनसे क्षमा मांगने से ही इसका निराकरण हो सकता है।'
'जान-बूझकर तो मैंने कोई अपराध किया नहीं। यदि अनजाने किसी प्रति कोई अपराध हो गया हैं, तो उसका अनुसन्धान कैसे हो?'रूप गोस्वामी ने पूछा।
'तुम वैष्णव-सेवा का आयोजन कर स्थानीय सब वैष्णवों को निमन्त्रण दो। यदि कोई वैष्णव निमन्त्रण स्वीकार न कर सका, तो जानना कि उसी के प्रति अपराध हुआ है' सनातन गोस्वामी ने परामर्श दिया।
रूप गोस्वामी ने ऐसा ही किया। खंज कृष्णदास बाबा ने निमन्त्रण स्वीकार नहीं किया। जो व्यक्ति निमन्त्रण देने भेजा गया था, उससे उन्होंने रूप गोस्वामी के प्रति क्रोध व्यक्त करते हुए उस दिन की घटना का वर्णन किया। रूप गोस्वामी ने जाकर उनसे क्षमा माँगी और उस दिन की अपनी हंसी का कारण बताया। तब बाबा संतुष्ट हुए और रूप गोस्वामी की लीला-स्फूर्ति फिर से होने लगी। साधकों के लिए इस घटना का विशेष महत्व है। लगता है साधकों को वैष्णव-अपराध से भली प्रकार सावधान करने के लिए ही श्रीमन महाप्रभु की इच्छा से यह घटना घटी। उन्होंने रूप गोस्वामी को शिक्षा देते समय वैष्णवापराध का असाधारण बल जतलाते हुए कहा था कि भक्ति एक सुकोमल लता के समान है और वैष्णव-अपराध मत्त हाथी के समान। वैष्णव-अपराध भक्ति-लता को समूल उखाड़ फेंकने की सामर्थ्य रखती हैं। इसलिए साधक रूपी माली को उसे यत्न से ढककर और अपराध रूपी हाथी से बचाकर रखना चाहिए-
यदि वैष्णव-अपराध उठे हाथी माता।
उपाड़े वा छिंडे ता शुखि जाय पाता।
ताते मालि जत्न करि करे आवरण।
अपराध हस्तीर जैछे ना हय उद्गम॥[2]
खेद का विषय है कि आज के भक्त-साधक वैष्णव-अपराध के सांघातिक प्रभाव को नहीं समझते। संकीर्ण साम्प्रदायिकता के नाते या द्वेष भाव रखने के कारण वे दूसरे वैष्णव-भक्तों, महात्माओं और आचार्यो की निन्दा या उनका अनादर करने में नहीं चूकते। हरि भक्ति विलास का कथन हैं कि किसी वैष्णव के प्रति द्वेष रखने, क्रोध करने, उसका अनादर करने, उसकी निन्दा करने, उस पर प्रहार करने, या उसे देखकर हर्ष न प्रकाश करने से पतन होता है-
हन्ति निन्दति वै द्वेष्टि वैष्णवान्नाभिनन्दति।
क्रुद्यते याति नो हर्ष दर्शन पतनादि षट्॥[3]
वैष्णव-अपराध से भगवान को दु:ख होता है और अपराध करने वाला भक्त हो तो भी यमपुर जाता है, ऐसा सूरदास जी ने कहा है-
भक्त अपराधे हरि दु:ख पइ हैं।
सूरदास भगवन्त बदत यों मोहि भजत ते यमपुर जइहैं॥
वैष्णव-अपराध से रक्षा करने की सामर्थ्य स्वयं भगवान में भी नहीं है। जिसके प्रति वैष्णव-अपराध हो वही जब तक क्षमा न करे तब तक भीषण परिणाम से रक्षा पाने का कोई उपाय नहीं। श्रीमद्भागवत के दुर्वासा- अम्बरीष उपाख्यान से यह स्पष्ट है।
गम्भीर आशय
रूप गोस्वामी का आशय इतना था और सात्विक-भावों को भीतर समा लेने की उनमें ऐसी अद्भुत शक्ति थी कि बाहर से देखकर उनके भाव की गम्भीरता का अनुमान करना कठिन होता। एक बार एक समाज में भगवान के रूप-गुणादि का सुन्दर कीर्तन हो रहा था। उसके अलौकिक प्रभाव से भक्तगण इतना अभिभावित हुए कि सात्विक-भावों के वेग को न रोक सकने के कारण वे मूर्च्छित होने लगे। पर रूप गोस्वामी धीर-गम्भीर ऐसे खड़े रहे, जैसे उन्हें भाव ने स्पर्श भी नहीं कियां उसी समय कवि कर्णपूर उस समाज में जा पहुँचे। उन्होंने रूप गोस्वामी को निकट से देखां। उन्हें लगा जैसे उनकी श्वास में से आग की लपटें निकल रही हैं। प्रियादास जी ने भक्तमाल की भक्तिरस बोधिनी टीका में इस घटना का इस प्रकार वर्णन किया है-
रूप-गुणगान होत, कान सुनि सभा सब, अति अकुलाने
प्रान मूर्छा सी आई है।
बड़े आप धीरे रहे ठाढ़े, न शरीर सुधि, बुधि मैं
न आवै ऐसी बात लै दिखाई है॥
श्रीगुसाई कर्णपूर पाछे आये देखे आछे, नेकु ढिग गये।
स्वास लाग्यौ तब पाई है।
मानों आगि आंच लागी, ऐसो तन चिह्न भयौ
नयौ यह प्रेम रीति कापै जात गाई है॥
तिरोभाव
सन् 1554 में 90 वर्ष की आयु में सनातन गोस्वामी का अन्तर्धान हुआ। अभिन्नात्मा सनातन गोस्वामी के अप्राकट्य के साथ रूप गोस्वामी के प्राण भी मानो विदा हो गये। निष्प्राण देह को लेकर उन्होंने अग्रज की अन्त्योष्टि क्रिया सम्पन्न की, चिता-भस्म लाकर मदनमोहन के मन्दिर के निकट समाधि स्थापित की, विराट महोत्सव किया। तब शोकाष्छन्न अवस्था में कुटी में प्रवेश किया। निरन्तर कुटी के भीतर रहकर जप और ध्यान में सलग्न रहे। एक ही मास के भीतर एक दिन अपने इष्ट देव की ओर देखते-देखते सदा के लिए नेत्र मूँद लिए। आषाढ़ी पूर्णिमा को सनातन गोस्वामी का अन्तर्धान हुआ, श्रावणी शुक्ला द्वादशी को रूप गोस्वामी का। जैसे एक साथ दोनों भ्राताओं ने सब ऐश्वर्य त्याग कर एकात्म भाव से वृन्दावन वास किया था, वैसे ही एक साथ संसार त्यागकर नित्य वृन्दावन में प्रवेश किया। भारत के आध्यात्मिक-आकाश के दो अत्युज्ज्वल नक्षत्र शून्य में विलीन हो गये। पर वे अपना आदर्श और अवदान छोड़ गये, जिसका उल्लेख नाभाजी ने भक्तमाल में इस प्रकार किया है-
व्रज भूमि रहस्य राधाकृष्ण भक्त तोष उद्धार कियौ।
संसार स्वाद सुख बात ज्यों दुहू रूप-सनातन तजि दियौ॥
प्रियादासजी ने अपनी टीका में उसका खुलासा यों किया हैं-
वृन्दावन वृज भूमि जानत न कोऊ प्राय,
दई दरसाय जैसी सुख-मुख गाई है।
रीति हू उपासना की भागवत अनुसार,
लियो रस सार सो रसिक सुखदाई है॥
चैतन्य-चरितामृत में कृष्णदास कविराज ने दोनों गोस्वामियों के अवदान के सम्बन्ध में लिखा है-
सनातन कृपाय पाइनु भक्तिर सिद्धान्त।
श्रीरूप कृपाय पाइनु रस भार प्रान्त॥
अर्थात सनातन गोस्वामी की कृपा से हमें भक्ति के सिद्धान्त की उपलब्धि हुई और रूप गोस्वामी की कृपा से रस के साम्राज्य की। रसिक शिरोमणि व्यासजी ने भक्ति-रस के भंडारी दोनों भाइयों के अन्तर्धान पर ब्रज के साधु-समाज की स्थिति का वर्णन करते हुए लिखा है कि अब व्रज के लोग अनाथ हो गये, अब यहाँ रसिक जन रस की अपनी प्यास बुझाने के लिए किसके पास जायेंगे? करुणा सिन्धु श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की कृपा से रस के जो दो स्त्रोत फूटे थे उनका प्रवाह समाप्त हो गया। अब तो सुखे पत्ते चबाकर ही रह जाना है-
करुणासिन्धु कृष्ण-चैतन्न की कृपा फली दुहुँ भ्रातन।
तिनु-बिनु 'व्यास' अनाथ भये सब सेवत सूखे पातन॥[4]
श्रीरूप गोस्वामी को श्रीचैतन्य महाप्रभु के रस-सिद्धान्त की साक्षात मूर्ति माना गया है। श्रीपाद रामदास बाबाजी महाराज ने अपने कीर्तन[5]में कहा है-
"गौरांग निगूढ़ मनोवृत्ति, श्रीरूप रूपे धरे छे मूरति।"[6]
अर्थात श्रीगौरांग महाप्रभु की निगूढ़ मनोवृति ही मूर्ति धारण कर रूप गोस्वामी के रूप में प्रकट हुई हैं। इसी प्रकार श्रीनरोत्तम दास ठाकुर ने 'प्रेमभक्ति-चन्द्रिका' के मंगला-चरण में
'श्रीचैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले' कहकर उनकी वन्दना की है।
कवि कर्णपूरने तो रूप् गोस्वामी को श्रीचैतन्य महाप्रभु का 'एकरूप' ही कहा है-
प्रिय स्वरूपे दयित स्वरूपे प्रेम स्वरूपे सहजाभिरूपे।
निजानुरूपे प्रभुरेक रूपे ततान रूपे स्वविलास रूपे॥
माध्व-गौड़ीय सम्प्रदाय में रूप गोस्वामी व्रज की 'रूप-मंजरी' भी हैं। रूप-मंजरी की कृपा के बिना व्रज में राधा-कृष्ण की प्रेम-सेवा का अधिकार नहीं मिलता-
श्रीरूप जारे देय हाते धरे किशोरी अंगीकार करेन तारे
एइ आमार नव दासी बले-
श्रीरूपेर कृपा बिने भाई-श्रीराधारमन पाबार आर उपाय नाइ।
उपासना
श्रीरूपगोस्वामी के अनुसार पुरुषार्थ प्रेम है, उपास्य राधा-कृष्ण हैं। पर साध्य राधा-कृष्ण न होकर उनकी सम्भोगमयी निकुञ्ज-विलासलीला में मञ्जरी रूप से प्रेममयी सेवा है और साध्य की चरम अवधि है सम्भोग की अन्तिम परिणति प्रेम-विलास-विवर्त। प्रेम साधन-भक्ति का फल है, पर साधन-भक्ति से उत्पन्न नहीं है। प्रेम जन्य पदार्थ नहीं है। यह नित्य सिद्ध हो, श्रीकृष्ण में अनादिकाल से विराजमान उनकी ह्लादिनी शक्ति की वृत्ति है। साधन-भक्ति के अनुष्ठान करते-करते जब साधक का चित्त निर्मल हो जाता है, तब कृष्ण-कृपा से उसमें इसका आविर्भाव होता है। साधन-भक्ति साध्य-भक्ति या प्रेमा-भक्ति का अपरिपक्व स्वरूप है। साध्य-भक्ति साधन-भक्ति का परिपक्व स्वरूप है। साध्य है भगवान की प्रेम-सेवा, साधन है श्रवण-कीर्तनादि भक्ति के अनुष्ठानों के रूप में भगवान की सेवा।
रागानुगा भक्ति
साधन-भक्ति के दो प्रकार हैं- वैधीभक्ति और रागानुगा भक्ति। वैधीभक्ति के साधक भजन में प्रवृत्त होते हैं। शात्रोक्त विधि-निषेध के भय से और सांसारिक दु:खों से परित्राण पाने के उद्देश्य से। राग मार्ग के साधक भजन में प्रवृत्त होते हैं श्रीकृष्ण में राग, प्रीति या आसक्ति होने के कारण उनकी सेवा के लाभ से। विधिमार्ग के भक्तों में भगवान के ऐश्वर्य ज्ञान की प्रधानता होती है। वे भगवान को कर्म फल दाता और मुक्ति दाता के रूप में जानते हैं। इसलिए उन्हें ऐश्वर्य प्रधान वैकुण्ठ या परव्योम की प्राप्ति होती है और वे सालोक्यादि चार प्रकार की मुक्तियों में से किसी एक प्रकार की मुक्ति प्राप्त कर वैकुण्ठ में भगवत-पार्षद के रूप में वास करते हैं। उन्हें पार्षद देह से व्रज में लीला पुरुषोंत्तम श्रीकृष्ण की प्रेम-सेवा की प्राप्ति होती है। विधिमार्ग के साधकों को व्रज में श्रीकृष्ण की प्राप्ति नहीं होती।[7]
रागानुगा-भक्ति रागात्मिका की अनुगा है। रागात्मिका भक्ति के आश्रय है नन्द, यशोदा, राधा, ललितादि, जो श्रीकृष्ण की स्वरूप-शक्ति के मूर्त विग्रह, अनादि-सिद्ध, अनरू निरपेक्ष व्रज परिकर के रूप में श्रीकृष्ण के साथ उनके लीला-स्थान व्रजधाम में नित्य विराजमान हैं और जिनका व्रजधाम से सजातीय सम्बन्ध है।[8] व्रजधाम में जो साधन-सिद्ध जीव हैं, वे रागात्मिका भक्ति के मुख्य आश्रय नहीं हैं, क्योंकि वे स्वरूप-शक्ति का प्रकाश नहीं हैं, वे जीवन-शक्ति का प्रकाश हैं। उनकी भक्ति रागात्मिका-भक्ति के आश्रयों के आनुगत्य में की जाती है। इसीलिए उसे रागानुगा-भक्ति कहते हैं।
रागात्मिका-भक्ति के समान रागानुगा-भक्ति भी दो प्रकार की है- कामानुगा और सम्बन्धानुगा। दास्य, सख्य और वात्सल्यभाव के श्रीकृष्ण के रागात्मिका परिकरों के आनुगत्य में की जाने वाली भक्ति सम्बन्धानुगा है। और मधुर भाव के श्रीकृष्ण के रागात्मिका परिकरों के अनुगत्य में की जाने वाली भक्ति कामानुगा है। रागानुगाओं की कामानुगा भक्ति भी दो प्रकार की है- सम्भोगेच्छामयी और तत्तद्भावेच्छामयी। सम्भोगेच्छामयी भक्ति में श्रीकृष्ण के साथ सम्भोग की इच्छा रहती है। सम्भोग की इच्छा रखने वाले भक्तों को व्रज में ब्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण की सेवा नहीं मिलती। कारण यह है कि व्रज में स्वसुख-वासना है ही नहीं। व्रज में परिकर इच्छा रखते हैं केवल श्रीकृष्ण के सुख की। फिर सम्भोग की इच्छा रखने वाले भक्त आनुगत्य करें तो किसका? वे द्वारिका की महर्षियों का ही अनुगत्य कर सकते हैं, जिनके हृदय में कभी-कभी स्वसुख वासनामयी सम्भोग की इच्छा जाग्रत होती है। इसलिए उन्हें ब्रज की प्राप्ति न होकर द्वारका की ही प्राप्ति होती है। तत्तदभावेच्छामयी कामानुगा-भक्ति में सम्भोग की इच्छा नहीं होती। साधन में सिद्धि लाभ करने के पश्चात मंजरी-देह से लीला में प्रवेश करने पर भी तत्तदभावेच्छामयी कामानुगा भक्ति के साधक सब प्रकार से स्वसुख वासना-रहित होकर रागात्मिकामयी कृष्ण सेवा के आयोजनों में आनुकूल्य करते हैं। श्रीकृष्ण भी यदि उनके चित्त-विनोद के लिये उनके साथ रमण करना चाहें, तो वे पराड मुख रहते हैं।
वाह्य और अन्तर साधन
साधन दो प्रकार के है- अन्तर और बाह्य। अन्तर साधन का संबंध मन से है, बाह्य साधन का देह और बाह्य इन्द्रियों से। रागानुगा भजन अन्तर-साधन प्रधान है। लीला-स्मरण ही इसका मुख्य अंग है। परन्तु श्रवण-कीर्तनादि बाह्य-साधन इसमें उपेक्षनीय नहीं हैं। बाह्य साधन से अन्तर-साधन की पुष्टि होती है और अन्तर-साधन से बाह्य-साधन में रूचि उत्पन्न होती है। बाह्य और अन्तर-साधन साथ-साथ भी चल सकते हैं। वास्तव में बाह्य-साधन अन्तर-साधन का ही बाह्य रूप है। बाह्य-साधन की सार्थकता अन्तर-साधन से उसके योग में हैं। यन्त्र के समान बाह्य-साधन करना और मन के साथ उसका योग न रखना रागानुगा मार्ग का भजन नहीं है। इस प्रकार के यान्त्रिक भजन से अभीष्ट की प्राप्ति नहीं होती।[9] बाह्य-साधन होता है यथावस्थित पाञचमौतिक देह से। अन्तर-साधन होता है अन्तश्चिन्तित सिद्ध देह से। अन्तश्चिन्तित सिद्ध पार्षद-देह से अपनी भावना में श्रीकृष्ण के सान्निध्य में रहकर उनकी प्रीति के लिये श्रवण-कीर्तनादि भक्ति के अनुष्ठान करने में ही उनकी सार्थकता है।
हम कह चुके हैं कि भक्ति ह्लादिनी-प्रधाना स्वरूप-शक्ति की वृत्ति है। इसलिए भक्ति के सभी अंग स्वरूप-शक्ति की वृत्ति हैं। अन्तश्चिन्तित सिद्ध-देह की चिंता करना भी भक्ति का अंग है। इसकी चिंता में भी चित्त स्वरूप-शक्ति से तादात्म्य प्राप्त करता है। चिन्ता करते-करते स्वरूप-शक्ति के प्रभाव से जैसे-जैसे चित्त की विशुद्धता बढ़ती जाती है, स्वरूप-शक्ति से तादात्म्य बढ़ता जाता है। सम्पूर्ण रूप से तादात्म्य प्राप्त करने पर प्रेम का उदय होता है, देह और इन्द्रियाँ पूर्णरूप से अप्राकृत या चिन्मय हो जाती हैं,[10] श्रीकृष्ण के परिकर सहित दर्शन होते हैं और अन्तश्चिन्तित सिद्ध देह पूर्ण रूप से चिन्मय हो जाता है। चिन्मय देह प्राप्त करने पर साधक का एक नया दिव्य जीवन प्रारम्भ होता है। योगमाया इस चिन्मय देह को श्रीकृष्ण के प्रकट-स्थल पर गोपी गर्भ से आविर्भावित करा नित्य-लीला में प्रविष्ट करती हैं।
प्रेम प्राप्ति के स्तर
किस प्रकार प्रेम का क्रमश: उदय होता है, इसकी भी रूप गोस्वामी ने भक्तिरसामृतसिन्धु में चमत्कारिक मनोवैज्ञानिक व्याख्या की है। प्रेम-प्राप्ति के पूर्व साधक को जिन आठ स्तरों को पार करना होता है, वे हैं श्रद्धा, साधु-संग, भजन क्रिया, अनर्थ-निवृत्ति, निष्ठा, रूचि, आसक्ति, भाव या रति।[11]
श्रद्धा
श्रद्धा है भक्ति का बीज-स्वरूप। श्रद्धा का प्राण है उत्साह। रूपगोस्वामी ने ज्ञान विषय में निष्ठा युक्त व्याकुलतामय आसक्ति को उत्साह कहा है।[12] इसका अर्थ यह है कि श्रद्धा कार्यरूप में परिणत हो और साधक को परमार्थ विषय की जानकारी प्राप्त करने के लिये व्यग्र कर दे, तभी समझना चाहिये कि उसमें सच्ची श्रद्धा उत्पन्न हुई है, अन्यथा नहीं। जीव गोस्वामी ने भक्ति-सन्दर्भ में लिखा है कि जिस प्रकार रासायनिक प्रक्रिया से सोना तैयार करने में लगे लोग अपनी चेष्ठा को थोड़ा भी विराम नहीं देते, उसी प्रकार श्रद्धा उत्पन्न होने पर साधक अपने प्रयत्न में निरन्तर लगा रहता है।
साधु-संग
हृदय में श्रद्धा जागने पर साधु-संग की इच्छा होती है। यथार्थ साधु-संग उसे कहते हैं, जिसमें साधक महापुरुषों के गुणों को अपने जीवन में उतारने की चेष्टा करता है और उनके उपदेशानुसार आचरण करने की चेष्टा करता है। साधु-संग का अर्थ श्रवण और मनन है। गुरुपदाश्रय साधु-संग का मुख्य अंग है।
भजनक्रिया
भजन क्रिया का अर्थ है श्रवण-कीर्तनादि भजन-क्रियाओं में दृढ़तां।
अनर्थ-निवृत्ति
भजन क्रिया दृढ़तापूर्वक सम्पादित होने से अनर्थ निवृत्ति होती है, अर्थात् श्रीकृष्ण-सेवा की कामना छोड़ और सब प्रकार की कामनाओं का नाश हो जाता है।[13] इस स्तर पर प्रारब्ध कर्म का नाश हो जाता है।
निष्ठा
अनर्थ निवृत्ति के बाद भक्ति में नैश्चल्य और दृढ़ता उत्पन्न होती है। इसी को निष्ठा कहते हैं। निष्ठा जन्मने पर साधक काय, मन और वाक्य से प्रभु की सेवा करता है और लीलादि का स्मरण करता है। निष्ठा युक्त व्यक्ति मैत्री, दया, शम, दम, तितिक्षा, दैन्य आदि गुण सहज ही प्राप्त कर लेता है।
रूचि
निष्ठा से रूचि उत्पन्न होती है। रूचि की अवस्था में श्रवण-कीर्तनादि भक्ति के अंगों का बार-बार अनुशीलन करने से भी अरूचि या श्रम नहीं होता। उनका जितना अधिक अनुशीलन होता है, उतनी ही रूचि और बढ़ती है। जिस साधक में रूचि का उदय होता है वह कीर्तन के ताल, लय आदि की अपेक्षा नहीं रखता। भगवान के नाम या लीला का कीर्तन जैसा भी हो उसे सुनकर वह उल्लसित होता है।
आसक्ति
रूचि से आसक्ति उत्पन्न होती है। आसक्ति की अवस्था में चित्त भजन में उतना आसक्त नहीं रहता, जितना भजनीय विषय श्रीभगवान में आसक्त रहता है। आसक्ति की अवस्था में भगवान भक्त के मन और बृद्धि पर ऐसे छाये रहते हैं कि उसका हाव-भाव, बोल-चाल, आहार-विहारादि सब कुछ असंलग्न जैसा प्रतीत होता है, यदि उसे भगवान के चरणारविन्द प्राप्त करने की तीव्र उत्कण्ठा के सन्दर्भ में न देखा जाय।
भाव या रति
आसक्ति गाढ़तम होने पर भाव या रति में परिणत होती है। भाव की अवस्था में साधक स्फूर्ति में मानो श्रीकृष्ण को साक्षात पाकर आनन्दित होता है। रूप गोस्वामी ने भक्तिरसामृत-सिन्धु में भाव को प्रेम कल्प तरू का अंकुर कहा है।[14] भाव की दशा में साधक क्षोभ का कारण उपस्थित होते हुए भी अक्षुब्ध रहता है। इन्द्रियों के विषयों के प्रति उसे विरक्ति रहती है। उसका एक क्षण भी यदि भगवान के स्मरण-मनन के बगैर चला जाय तो उसे लगता है जैसे जन्म व्यर्थ चला गया। अपने उत्कर्ष में भी वह अभिमानहीन रहता है। श्रीकृष्ण की प्राप्ति होगी, इसकी उसे दृढ़ आस रहती है। साथ ही कृष्ण-प्राप्ति का उसे गुरुतर लोभ रहता है, जिसे समुत्कण्ठा कहा जाता है। भगवान के नाम-गान में उसकी सदा रूचि, भगवान के गुणगान में आसक्ति और भगवान के धाम में प्रीति रहती है।
प्रेम
भाग गाढ़ता प्राप्त कर प्रेम में परिणत होता है। प्रेम की दशा में साधक को सचमुच भगवान के साक्षात दर्शन होते हैं। वह उनके सौन्दर्य और माधुर्य का दर्शन कर चमत्कृत हो जाता है। तब उसे जो अकथनीय आनन्द होता है, उसकी तुलना उस आनन्द से करना भी झक मारना है, जो चिरकाल से दावानल से पीड़ित वन में भ्रमण करने वाले हाथी को घनघोर बादलों की असंख्य जल धाराओं में स्नान करने से मिलता है।[15] प्रेम के ऊपर के स्तर हैं स्नेह, मान, प्रणय, राम, अनुराग और महाभाव। यह साधक का देह रहते संभव नहीं है, क्योंकि इनके आस्वादन की उष्णता और शीतलता को सहन करने की उसकी देह में सामर्थ्य नहीं है।[16]
मधुर भक्ति-रस
मधुर-रस को रूप गोस्वामी ने उज्ज्वल-रस कहा है। उज्ज्वल-रस का नायक श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कोई नहीं हो सकता। साधारण व्यक्तियों की तो बात ही क्या, परशुराम, नृसिंहादि अवतार भी नहीं हो सकते। श्रीकृष्ण ही उज्ज्वल रस के एक मात्र नायक या विषयालम्बन हैं और कृष्ण-प्रेयसियाँ आश्रयालम्बन हैं।
मधुर रस के भेद
मधुर रस के दो प्रकार हैं- विप्रलम्भ और सम्भोग।
विप्रलम्भ
विप्रलम्भ नायक और नायिका की वह अवस्था है, जिसमें वे एक-दूसरे के निकट नहीं होते, या निकट होते हुए भी अपना अभीष्ट आलिंगनादि प्राप्त नहीं कर सकते। विप्रलम्भ सम्भोग का पुष्टिकारक तो है ही, स्वयं रस भी है। विप्रलम्भ में नायक और नायिका के निविड़तम पारस्परिक स्मरण-चिन्तन के फलस्वरूप स्फूर्ति में परस्पर के निकट परस्पर का आविर्भाव होता है। उस अवस्था में जो परस्पर का मानसिक, चाक्षुष और कायिक आलिंगन-चुम्बनादि होता है, वह सम्भोग की अवस्था के आलिंगन-चुम्बनादि की अपेक्षा अधिक चमत्कारमय होता है। इसलिए विप्रलम्भ को सम्भोग-पुञ्जमय कहा है। सम्भोग में एक ही कृष्ण का अनुभव होता है, विप्रलम्भ में विश्व कृष्णमय होता है। अनुभवी व्यक्तियों ने सम्भोग और विप्रलम्भ के बीच विप्रलम्भ को ही वरणीय कहा है।
विरह दशा में साधक की अवस्था बाहर से देखने पर अत्यधिक दु:खमय प्रतीत होती है। पर उसके अन्तर में जिस रस का उत्स फूटता है, वह सम्भोग-रस से कितना उत्कृष्ट है, इस बात से जान पड़ता है कि विरह की अनुभूति प्रलय रूपी अन्तिम सात्विक भाव की गाढ़ अनुभूति से भी गाढ़तर होती है। विरह की मोह दशा में अन्तर्वृत्ति का जिस प्रकार लोप हो जाता है, उस प्रकार प्रलय में नहीं होता। मोह दशा को प्राप्त करने पर कृष्ण-भक्त आत्म पर्यन्त सब विषयों की स्मृति खो बैठता है, केवल उसकी कृष्ण-स्फूर्ति विशेष का लोप नहीं होता-
अस्यान्यात्रात्मपर्यन्ते स्यात् सर्वत्रैव मूढ़ता।
कृष्णस्फूर्ति विशेषस्तु न कदाप्यत्र लीयते॥[17]
प्रेम स्वरूप में ही आनन्द है। विरह भी मिलन के समान प्रेम की ही एक अवस्था है। इसे दु:ख उसी प्रकार स्पर्श नहीं करता, जिस प्रकार प्रकाश को अन्धकार स्पर्श नहीं करता। सुख और दु:ख प्राकृत गुणात्मक चित्त की वृत्तियाँ हैं। प्रेम प्राप्त करने पर साधक के चित्त का प्राकृतत्व नष्ट, हो जाता है। वह अप्राकृत देह और मन द्वारा कभी स्फूर्ति में मिलन-जनित, कभी अस्फूर्ति में विरह-जनित आनन्द का अनवरत आस्वादन करता है। विरह-जनित आनन्द एक अनिर्वचनीय वस्तु है। इसमें कृष्ण के अदर्शन के कारण दु:ख तो होता ही है, पर यह दु:ख एक विशेष प्रकार का सुख ही है, इसलिये इसे किसी ने 'विषामृत एकत्र मिलन', किसी ने 'आनन्द का धनीभूत परिपाक' कहा है। पर वास्तविकता यह है कि इसका यथार्थ वर्णन करने के लिये प्राकृत भाषा-कोष में शब्द ही नहीं है।
'विप्रलम्भ' शब्द का अर्थ है प्रकारान्तर से प्राप्ति। विप्रलम्भ में बाहर श्रीकृष्ण का दर्शन न होने पर भी अन्त:स्थल में उसकी सम्यक प्राप्ति हुई रहती है। बाहर बाह्य इन्द्रियों द्वारा ही मिलन संभव होता है, अन्तर में इन्द्रियों का इन्द्रियों से, मन का मन से, प्राण का प्राण से मिलन होता है। विप्रलम्भ चार प्रकार का है- पूर्वराग, मान, प्रवास और प्रेमवैचित्य। प्रेमवैचित्य की परिभाषा रूप गोस्वामी ने इस प्रकार की है- प्रेम के उत्कर्ष के कारण नायिका प्रिय के सन्निधान में रहते हुए भी विरह-बुद्धि के कारण जिस आर्तिका अनुभव करती है, उसे प्रेम वैचित्य कहते हैं[18] इस दशा में नायिका नायक के गोद में रहते हुए भी उसके विरह का अनुभव करती है। नायक की गुण-माधुरी का चिन्तन करते-करते उसकी बुद्धि-वृत्ति उसमें इस प्रकार लीन हो जाती है कि उसे नायक की उपस्थिति का ध्यान ही नहीं रहता।
सम्भोग
नायक और नायिका के परस्पर दर्शन, आलिंगन, चुम्बनादि से परस्पर के सुख-वासनामय निषेवन द्वारा उल्लासप्राप्त भाव को सम्भोग कहते हैं।[19] यह सम्भोग स्वसुख-वासनामय, काममय सम्भोग से सर्वथा भिन्न है।
मधुरा रति के तीन प्रकार
मधुरा रति के तीन प्रकार हैं- साधरणी, समञ्जसा और समर्था। साधारणी रति में सम्भोग की इच्छा ही मूलरूप से वर्तमान रहती है, जैसे कुब्जा में। समञ्जसा-रति पति-पत्नी के सम्बन्ध जनित अभिमान से उदित होती है। इसमें कर्तव्य-बुद्धि से पति को सुख पहुँचाने की इच्छा के साथ-साथ सम्भोग-इच्छा भी होती है, जैसे द्वारका की महिर्षियों में। समर्था रति में केवल श्रीकृष्ण के सुख की वासना रहती है। यह केवल व्रजगोपियों में ही होती है।
साधरणी रति श्रीकृष्ण के साक्षात दर्शन से और आत्मसुख-वासना से उत्पन्न होती हैं। समञ्जसा-रति स्वाभाविक है, तो भी इसका अन्मेष श्रीकृष्ण के गुणादि श्रवण से होता है। पर समर्था रति में रति के उन्मेष के लिए कुब्जा की रति के समान श्रीकृष्ण के साक्षात दर्शन की, या महिर्षियों के समान श्रीकृष्ण के गुणादि श्रवण करने की अपेक्षा नहीं होती। स्वरूप-धर्म के कारण यह स्वत: ही उन्मेषित होती है-
स्वरूपं ललनानिष्ठं स्वयमुद्धुद्धतां व्रजेत।
अदृष्टेऽप्यश्रुतेऽप्युच्चै: कृष्णे कुर्याद्द्रुतं रतिम्॥[20]
साधारणी रति में स्वसुख वासनामयी सम्भोगेच्छा की ही प्रधानता होती है: समञ्जसा-रति में कभी-कभी स्वसुख वासनामयी सम्भोगेच्छा होती है, पर समर्था-रति में किसी भी समय स्वसुख वासनामयी-सम्भोगेच्छा नहीं होती। पत्थर में जिस प्रकार सुई की नोंक भी प्रवेश नहीं कर सकती, उसी प्रकार समर्था रतिमती व्रज सुन्दरियों में कृष्ण सुखवासना के सिवा और कोई वासना प्रवेश नहीं कर सकती। समञ्जसारतिमती रुकमणि आदि श्रीकृष्ण की सेवा के लिये लाला सान्वित होते हुए भी कृष्ण के लिये धर्म को तिलाञ्जलि नहीं दे सकतीं। इसलिये उन्होंने यज्ञादि सम्पादन पूर्वक विधिवत विवाह करके ही श्रीकृष्ण की सेवा करने की इच्छा की। पर समर्थारतिमती व्रज-सुन्दरियों की कृष्ण-सेवा की लालसा इतनी प्रबल थी कि उन्होंने उसके लिये लोक धर्म, वेद धर्म, आर्यपथादि को तिलाञ्जलि देने में भी संकोच नहीं किया। समर्थारति को समर्था इसलिये ही कहते हैं कि यह कुल, धर्म, धैर्य, लज्जा आदि का तृणवत त्यागकर कृष्ण-सेवा के अपने लक्ष्य की ओर तीर की तरह छूट पड़ने की और कृष्ण को पूर्णरूप से वशीभूत करने की असाधारण सामर्थ्य रखती है। साधारणी रति प्रेम पर्यन्त वृद्धि को प्राप्त होती है;[21] सामञ्जसारति अनुराग की शेष सीमा तक वृद्धि को प्राप्त होती है।[22] समर्थारति महाभाव की शेष सीमा तक वर्द्धित होती है। इसलिए समर्थारतिमति व्रजगोपियों का प्रेम ही सबसे श्रेष्ठ है। व्रज-गोपियों में भी राधा का प्रेम सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि केवल राधा में ही समर्थारति की चरम-परिणति मादनाख्य महाभाव देखने में आता है।
व्रज-सुन्दरियाँ
उज्ज्वलनीलमणि में व्रज-सुन्दरियों के चार पक्षों का वर्णन- स्वपक्ष और प्रतिपक्ष, सुहृत्पक्ष और तटस्थ। व्रज में श्री कृष्ण की नित्य प्रेयसियाँ हैं राधा, चन्द्रावलि, विशाखा, ललिता, श्यामा, पद्मा, शैव्या भद्रिका, तारा, विचित्रा, गोपाली, धनिष्ठा और पालिकादि। इनमें मुख्य हैं राधा और चन्द्रावली। इन दोनों में भी राधा श्रेष्ठ हैं। नित्य प्रेयसियों में विशाखा, ललिता, पद्मा और शैव्या को छोड़ सभी यूथेश्वरी हैं। उनके एक-एक यूथ में लाख-लाख व्रज सुन्दरियाँ हैं। जो व्रज सुन्दरियाँ एक ही यूथेश्वरी के यूथ में अवस्थान करती हैं, उन्हें उस यूथेश्वरी की स्वपक्षा कहते हैं। स्वपक्षा यूथेश्वरी का इष्ट-साधन और अनिष्ट निवारण करती है। ललितादि राधा की स्वपक्षा हैं।
जिस सुन्दरी के भाव में यूथेश्वरी के भाव से अधिकतम साजात्य होता है, पर किञ्चित वैजात्य होता है, उसे उस यूथेश्वरी की सुहृत्पक्षा कहते हैं, जैसे श्यामला राधा की सुहृत्पक्षा है। जो सुन्दरियाँ परस्पर विद्वेष भावापन्न होती है, उन्हें एक-दूसरे का विपक्ष कहते हैं। राधा और चन्द्रावली परस्पर विपक्षा हैं। विपक्ष के सुहृत्पक्ष को तटस्था कहते हैं। श्यामला राधा की सुहृत है और चन्द्रावली की तटस्था। यहाँ यह कह देना आवश्यक जान पड़ता है कि व्रज की सखियाँ सब राधा की शाखा-प्रशाखा, पत्र-पुष्प तथा उनकी कायव्यूह रूपा हैं। उन सबका एकमात्र काम्य है श्रीकृष्णसुख। इसलिए उनमें ईर्ष्या-विद्वेषादि की कोई संभावना नहीं है। पर रस वेचित्री सम्पादन कर श्रीकृष्ण को सुखी करने के उद्देश्य से श्रृंगार रस मूर्ति परिग्रह कर अपने परिवार स्वरूप ईर्ष्या-विद्वेषादि को व्रज सुन्दरियों के हृदय में निक्षेप कर उनमें स्वपक्षा, विपक्षा और तटस्था आदि की सृष्टि करता है।[23] ईर्ष्या आदि हैं श्रृंगार रस के संचारी भाव। संचारी भाव श्रृंगार-रति को परिपुष्टकर रस में परिणत करता है। पर ईर्ष्यादि व्रज सुन्दरियों की बाहृ वृत्ति में ही उदित होते हैं। उनकी अन्तर्वृन्ति को वे स्पर्श भी नहीं करते। यह बात व्रज सुन्दरियों के श्रीकृष्ण से वियोग के समय भली-भाँति जानी जाती है। उस समय उनमें परस्पर ईर्ष्या-द्वेषादि की जगह परस्पर स्नेह ही देखने में आता है।
सखी-मञ्जरियाँ
राधाकृष्ण की कुंज विलास लीला सखी मंजरियों के सहयोग के बिना सम्पादित नहीं होती। सखी-मञ्जरियों का इस लीला में उतना ही महत्व है, जितना राधा-कृष्ण कां चैतन्य-चरितामृत में महाप्रभु ने राय रामानन्द के इस वाक्य की पुष्टि की है कि सखियाँ ही इस लीला का विस्तार करती हैं और सखियाँ ही इसका आस्वादन करती हैं-
सखी बिना एइ लीला पुष्ट नाहि हय।
सखी लीला आस्वादिया सखी आस्वादय॥[24]
सखियाँ राधा कृष्ण का मिलन कराकर निकुंज–लीला में अपना योगदान करती हैं। रूप, रति, लवंगदि मञ्जरी भाव रखने वाली सखियाँ निकुञ्ज में विविध प्रकार से राधा-कृष्ण की सेवा कर लीला को पुष्ट करती है। किस प्रकार मञ्जरियाँ निकुञ्ज में राधा-कृष्ण की सेवा करती हैं, इसका वर्णन रूप गोस्वामी ने उज्ज्वल नीलमणि में सांकेतिक रूप से सखीभेद प्रकरण में और अपने स्तोत्रों में विशद रूप से किया है। स्तोत्रों में उन्होंने जिस प्रकार की राधा-कृष्ण की सेवा की अभिलाषा व्यक्त की है उससे मञ्जरियों की विभिन्न प्रकार की सेवा का ज्ञान होता है।
रूप गोस्वामी ने 'कार्पण्य पञ्जिका' स्त्रोत में अभिलाषा व्यक्त की है कि जब राधा-कृष्ण विरह-व्यग्र हो वृन्दावन में परस्पर अन्वेषण करते हों, उस समय वे मञ्जरी रूप से उनका मिलन करा, उनसे हार पदकादि पारितोषिक रूप में प्राप्त कर धन्य हों[25], वे विलास के समय उनके निकट रहकर उनकी विभिन्न प्रकार से सेवा करें[26], ताम्बूल सजाकर अपने हाथ से उनके मुख में अर्पित करें[27], अनुंग-क्रीड़ा में उनके केश विखर जाने पर उन्हें संवार दे, उनकी वेश-भूषा फिर से कर दें और उनके तिलक शून्य ललाट पर फिर से तिलक-रचना कर दें।[28] 'उत्कलिकावल्लरी' में उन्होंने अभिलाषा व्यक्त की है कि वे अपने केश-पाश खोलकर, राधा के दोनों चरणों को पोंछ देने का सौभाग्य प्राप्त कर सकें।[29], निकुञ्ज में विलास के उपयोगी पुष्प शय्या तैयार कर सकें[30], विलास के समय दोनों को मधुपान करा सकें[31] और विलास के पश्चात उनका श्रम दूर करने के लिये चामर से बीजन कर सकें[32],। 'श्रीगान्धर्व्वासं प्रार्थनाष्टकं' नामक स्तव में उन्होंने अभिलाषा व्यक्ति की है कि जब निकुञ्ज में नानाविध पुष्प रचित शय्या पर शयन करते हुए राधा-कृष्ण मधुर नर्म विलास करते हों, तो वे दोनों की चरण-सेवा करें।[33]
साधारण रूप से सखी और मञ्जरी दोनों को सखी कहा जाता है, क्योंकि दोनों ही लीला की सहायिका और विस्तारिका हैं। पर दोनों के भाव और सेवा में भेद है, जैसा हम आगे व्यक्त करेंगे। सखियाँ सब नित्य-सिद्धा स्वरूप-शक्ति हैं। मञ्जरियों में श्रीरूप मञ्जरी, श्रीअनंग मञ्जरी आदि स्वरूप-शक्ति हैं। पर जो साधन-सिद्धा मञ्जरी हैं, वे स्वरूप-शक्ति नहीं हैं। वे सखी नहीं हो सकतीं। सखियों की सेवा स्वातन्त्रयमयी है, मञ्जरियों की सेवा अनुगत्यमयी है। मञ्जरियाँ सखियों की अपेक्षा न्यून वयस्का भी हैं।
राधा-प्रधान मञ्जरी भाव की उपासना
मधुर भाव की उपासना का उल्लेख पद्म पुराण पाताल खण्ड में मिलता है। श्री निम्बार्काचार्य, जयदेव, चण्डीदास और विद्यापति आदि ने भी इसका उल्लेख किया है। पर मञ्जरी भाव की उपासना के वैशिष्ठय का श्रीरूप गोस्वामी ने ही प्रथम बार उज्ज्वल नीलमणि में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है।
राधा की सखियाँ दो प्रकार की हैं- सम स्नेहा और असम स्नेहा। जिनका राधा और कृष्ण के प्रति समान स्नेह है, वे सम स्नेहा है, जैसे ललिता-विशाखा। असम स्नेहा दो प्रकार की हैं- कृष्ण स्नेहाधिका, जिनका राधा की अपेक्षा कृष्ण के प्रति स्नेह अधिक है, जैसे धनिष्ठादि और राधा स्नेहाधिका, जिनका कृष्ण की अपेक्षा राधा के प्रति स्नेह अधिक है। राधा स्नेहाधिका 'मञ्जरी' कहलाती हैं। यह रूप मञ्जरी आदि।[34] मञ्जरियों का राधा स्नेहाधिक्यमय स्थायी भाव 'भावोल्लासारति' कहलाता है। कृष्ण के प्रति उनकी रति उसका संचारी भाव है। मञ्जरियों की विशेषता है उनकी विलक्षण भावशुद्धि। सखियाँ राधा के अतिशय आग्रह से कभी-कभी श्रीकृष्ण का अंग-संग स्वीकार भी कर लेती हैं। पर मञ्जरियाँ राधाकृष्ण-सेवानन्दरस-माधुर्य आस्वादन में इतना तल्लीन रहती हैं कि वे राधाकृष्ण के अनुरोध पर भी कभी स्वप्न में भी कृष्ण-अंग-संग की बाँछा नहीं रखतीं।
इस विलक्षण भाव शुद्धि के कारण मञ्जरीगण को राधा-कृष्ण की जिस गोपनीय सेवा का अधिकार और सौभाग्य प्राप्त है, वह ललितादि सखियों को नहीं है। वे उनकी केलिभूमि में असंकुचित भाव से गमना-गमनकर उनकी गोपनीय सेवा करके धन्य होती है। ललितादि सखियों का वहाँ प्रवेश भी नहीं है। इसके अतिरिक्त कृष्ण के अंग-संग का तिरस्कार करने के कारण मञ्जरियाँ रस की दृष्टि से किसी प्रकार घाटे में नहीं रहती।
अपितु राधा के साथ अपने तादात्म्य के कारण वे राधा और कृष्ण के मिलनान्द का स्वत: उपभोग करती हैं, यहाँ तक कि वे रति-चिह्न, जो कृष्ण के अंग-संग के कारण राधा में होते हैं, मञ्जरियों के अंग में भी उभर आते हैं। रूप गोस्वामी के अनुसार श्रीरूप मञ्जरी आदि प्रमुखा मंजरियों के आनुगत्य में अपने अन्तश्चिन्तित सिद्ध देह से, राधाकृष्ण की सेवा करना ही गौड़ीय-वैष्णव साधकों का मुख्य भजन है- बाहर साधक देह से श्रवण-कीर्तनादि करना औ अन्तर में सिद्ध देह (मंजरी-स्वरूप) की भावना कर उसके द्वारा लीला परिकर मञ्जरी के आनुगत्य में राधा कृष्ण की अष्टकालीन सेवा करना-
सेवासाधकरूपे सिद्धरूपेण चात्रहि।
तद्भावलिप्सुना कार्य्या व्रजलोकानुसारत:॥[35]
इस प्रकार भावना करते-करते साधक का नित्य-सिद्ध लीला-परिकर मंजरीगण के साथ 'साधारणीकरण' हो जाता है, जिसके फलस्वरूप वह राधारानी के विप्रलम्भ और सम्भोग-रस का आस्वादन करता है। मंजरी भाव की उपासना के उक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि यह राधा-कृष्ण की युगल-उपासना है, पर इसमें प्रधानता राधा की है। मंजरियाँ राधा की दासी हैं। वे मुख्य रूप से उन्हीं की चरण-सेवा में अनुरक्त हैं। कृष्ण के साथ उनका सम्बन्ध है राधा की सेवा के निमित्त ही। स्वतन्त्र रूप से कृष्ण की सेवा तो दूर, वे कृष्ण के प्रति भ्रुक्षेप भी नहीं करतीं। वे अपने राधा-प्रेम के कारण और राधा की अपने प्रति कृपा के कारण गर्ववती हैं। उन्हें कृष्ण से क्या लेना? कृष्ण उनकी अपेक्षा रखते हैं, वे कृष्ण की अपेक्षा नहीं रखतीं। कृष्ण राधा के प्रेम के वशीभूत हैं, और राधा से उनके मिलन में उनकी यह किंकरियाँ सहायक हैं। इसलिये उलटा वे ही इनके आगे हाथ जोड़े रहते हैं, इनकी चाटुकारी करते रहते हैं। रूप गोस्वामी की 'चाटु पुष्पाञ्जलि' के इस श्लोक से यह कितना स्पष्ट है-
"करुणां महुरर्थयेपरं तव वृन्दावन चक्रवर्त्तिनी।
अपिकेशिरिपोर्यया भवेत्स चाटु प्रार्थनभाजनं॥[36]
-हे वृन्दावन चक्रवर्तिनि! 'मैं बार-बार तुम्हारी ऐसी कृपा की प्रार्थना करता हूँ, जिससे मैं तुम्हारी प्रिय सखी बनूं। तुम जब मानिनी हो तो कृष्ण तुम से मिलने के लिए मेरी चाटुकारी करें और मैं उनका हाथ पकड़कर उन्हें तुम्हारे पास ले आऊँ।'
किंकरी राधा की दासी है और कृष्ण राधा के प्राण हैं इसलिए वह कृष्ण से सम्बन्ध रखती है और राधा के साथ कृष्ण की सेवा करती है। पर यदि राधा की कृपा उसे न मिले तो अकेले कृष्ण से उसे क्या काम? वह उनकी उपेक्षा करती है। रघुनाथ दास गोस्वामी ने 'विलाप कुसुमाञ्जलि' में यह बात खोलकर कही है-
त्वं चेत् कृपां मयि विधास्यसि नैव किं मे।
प्राणैर्व्रजेन च वरोरू वकारिणापि॥[37]
निकुञ्ज-विलास
निकुंञ्ज-विलास का अर्थ है- प्रेम-विलास। प्रेम-विलास काम-क्रीड़ा नहीं है। प्रेम और काम में उतना ही अन्तर है। जितना प्रकाश और अन्धकार में। प्रेम निर्मल भास्कर है, काम निविड़तम अन्धकार। प्रेम-विलास है जड़-सम्पर्क रहित, माया मुक्त, चितधन शरीर धारी, स्वसुख वासना रहित नायक-नायिकाओं का मधुर चेष्टाओं द्वारा एक-दूसरे को सुखी करने के उद्देश्य से तन-मन को एक-दूसरे पर न्योछावर कर देने जैसा उन्नत, उज्ज्वल, रसमय व्यापार। काम-क्रीड़ा है रक्त-मांस-मल-मूत्रमय दो जड़ शरीर धारी व्यक्तियों का अपनी जड़ेन्द्रियों का दासत्व स्वीकार कर उनकी सेवा के हेतु, एक-दूसरे के शरीर का पशुओं के समान भोग करने जैसा कुत्सित व्यापार।
श्रीरूप गोस्वामी ने कृष्ण को धीर-ललित नायक कहा है। धीर-ललित नायक चातुर, नवतरूण, परिहास-विशारद, चिन्ता शून्य और प्रेयसी वश होता है-
विदग्धो नवतारूण्य: परिहास-विशारद:।
निश्चिन्तो धीर-ललित: स्यात् प्राय: प्रेयसीवश:॥[38]
चैतन्य-चरितामृत में कहा है- धीर-ललित नायक का स्वभाव ही है निरन्तर काम-क्रीड़ा में रत रहना। इसलिये श्रीकृष्ण राधा के साथ रात-दिन कृञ्ज-क्रीड़ा में रत रहकर कैशोर वयस सफल करते हैं-
राय कहे कृष्ण हय धीर-ललित। निरन्तर काम-क्रीड़ा-जाँहार चरित॥
रात्रि-दिन कुञ्जे क्रीड़ा करे राधा संगे। कैशोर वयस सफल कैल क्रीड़ा रंगे॥[39]
भक्ति रसामृत सिन्धु के 2/1/231 श्लोक का भी यही भाव है। रूप गोस्वामी ने उज्ज्वल नीलमणि में राय रामानन्द के इस सूत्र का विस्तार करते हुए निकुञ्ज-लीला के विधायक तत्वों का विशद वर्णन किया है। उज्ज्वल नीलमणि के सम्भोग प्रकरण में उन्होंने निकुञ्ज-विलास के विभिन्न प्रकारों का वर्णन किया है।
प्रेम विलास विवर्त
व्रज सुन्दरियों का श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम असाधारण है, क्योंकि सभी महाभाववती हैं। पर महाभाव का चरमतम विकास है राधा के मादनाख्य महाभाव में, जो अन्य व्रज सुन्दरियों में नहीं है। इसलिये श्रीकृष्ण की प्रेम वश्यता का चरमतम विकास भी है राधा के प्रेम के सन्दर्भ में ही। दोनों परस्पर के प्रति अपने प्रेम की उद्दामता के कारण परस्पर सुखी करने की उद्दाम प्रेरणा से केलि-विलास में अपूर्व, गाढ़तम तन्मयता को प्राप्त होते हैं। इस तन्मयता को गाढ़तम बनाती हैं राधा के मादनाख्य महाभाव की कुछ विशेषताएँ, जो इस प्रकार हैं-
(1)मादन है प्रेम का पूर्ण रूप या स्वयं रूप। रति, स्नेह, मान, प्रणय, राग, अनुराग, भाव और महाभाव इसके अंश हैं। इसलिए मादनाख्य महाभाववती राधा हैं अनन्त कान्ताभाव वैचित्री का मूर्तरूप-कान्ताभाव का स्वयं रूप, अखिल-कान्ताभाव-विग्रह। जिस प्रकार स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के आविर्भाव के समय अनन्त रस-वैचित्री के प्रकाश-स्वरूप अनन्त भगवत-स्वरूप उनके भीतर आविर्भूत होते हैं, उसी प्रकार स्वयं प्रेम रूप मादन के उदय होने पर समस्त प्रेम-वैचित्री और समस्त कान्ताभाव-वैचित्री एक हसाथ उल्लसित और तरंगायित होती है। परिणाम-स्वरूप विलास-सुख में असाधारण तन्मयता जन्मती है।
(2) मादन का उदय होता है केवल सम्भोग में। सम्भोग की असंख्य वैचित्री हैं, जैसे अलिंगन, चुम्बन, संलापन, वेश रचना, चित्रांकनादि। मादन में किसी एक प्रकार के सम्भोग में समस्त सम्भोग वैचित्री का एक साथ सुखानुभव होता है, और सम्भोग वैचित्री के सुखानुभव के साथ नानाविध वियोग जनित भाव का भी अनुभव होता है। सम्भोग में वियोग और वियोग में संयोग का अनुभव मादन की एक अद्भुत विशेषता है। मिलन की तीव्र उत्कण्ठा ही सम्भोग में वियोग का अनुभव कराती है और वियोग का अनुभव ही उत्कण्ठा का वर्धनकर, सम्भोग-सुख चमत्कारित्व की नवन वायमानता को अक्षुण्ण बनाये रखता है। यह क्रम निरन्तर चलता रहता है, जिससे विलास-सुख-चेष्टा में तन्मयता निविड़से भी निविड़तम होती जाती है।
(3) महाभाव की दो विशेषताएँ हैं- उसकी स्वसम्वेद्य दशा और यावदाश्रय वृत्ति। अनुराग के उत्कर्ष में जब बलवती उत्कण्ठा के साथ श्रीकृष्ण माधुर्य का अनुभव होता है, तब माधुर्य के आस्वादनाधिक्य के कारण आस्वादक इतना तन्मय हो जाता है कि उसे न अपनी स्मृति रहती है, न माधुर्यादि की। स्मृति रहती है केवल आस्वादन की। उसका अपना और आस्वाद्य वस्तु का ज्ञान लुप्त हो जाता है। आस्वादक के अभाव में आस्वादन स्वयं ही अनुभव करता है, क्योंकि अनुराग संवित संयुक्ता ह्लादिनी शक्ति की वृत्ति है, जो स्वयं संवेद्य है। 'ना सो रमण, ना हाम रमणी' भाव अनुराग की इस स्वसम्वेद्य दशा का ही इंगित करता हैं, महादनाख्य महाभाव की दशा में, जो महाभाव की चरम सीमा है, अनुराग की स्वसम्वेद्य दशा भी चरम सीमा पर पहुँच जाती है। अनुराग जब अपनी सीमा पर पहुँचता है, तो यावदाश्रय-वृत्तित्व लाभ करता है। अनुराग का आश्रय या भित्ति है प्रेम के विकास-क्रम में उसके पूर्व का स्तर-राग। राग की भित्ति है प्रणय। प्रणय की अवस्था में नायक और नायिका में विश्रम्भ की, अपने प्राण-देह-मनादि को एक मानने की प्रवृत्ति जन्मती है। अत: मादनाख्य महाभाव में, जो अनुराग की चरम पराकाष्ठा है, प्राण-देह-मनादि के ऐक्य-मनन की भी चरम पराकाष्ठा होती है,[40] जिसका रामानन्द राय के गीत में 'दुहुँ मन मनोभव पेषल जानि' वाक्य द्वारा इंगित किया गया है।
परन्तु प्रेम-विलास-विवर्त का देह-मन-प्राणादि का ऐक्य-मनन, या अभेद-ज्ञान, ज्ञान-मार्ग साधक के अभेद-ज्ञान जैसा नहीं है। ज्ञान-मार्ग की मूल भित्ति ही है जीव और ब्रह्म का अभेद ज्ञान। ज्ञान-मार्ग का साधक यह मानकर चलता है कि जीव और ब्रह्म तत्वत: एक हैं, पर अज्ञान के कारण ब्रह्म से अपने पृथक् अस्तित्व की प्रतीत होती है। अज्ञान के दूर हो जाने पर उसका भेद-ज्ञान उसी प्रकार मिट जाता है, जिस प्रकार घट के टूट जाने पर घटाकाश और महाकाश का भेद मिट जाता है। राधा और कृष्ण दोनों में कोई भी अज्ञान वृत ब्रह्मरूप जीव के समान अनित्य नहीं है। दोनों नित्य हैं, दोनों की लीला भी नित्य है। लीला-रस आस्वादन करने के लिये ही दोनों स्वरूपत: एक होते हुए भी अनादिकाल से दो रूपों में विद्यमान हैं-
राधा-कृष्ण ऐछे सदा एकइ स्वरूप। लीलारस आस्वादिते धरे दुइ रूप॥[41]
प्रेम-विलास-विवर्त में जो प्राण-मन-देहादि का ऐक्य होता है, वह केवल भावगत है, वस्तुगत नहीं। देह, मन और प्राण का पृथक् अस्तित्व बना रहता है, पर विलास-सुखैक-तन्मयता के कारण उनके ऐक्य का मनन मात्र होता है। राधा-कृष्ण के इस देह-मनादि के ऐक्य के मनन को कवि कर्णपूर ने 'परैक्य' कहा है। 'परैक्य' शब्द का अर्थ है राधा-कृष्ण के मन का प्रेम के प्रभाव से गलकर सर्वतो भाव से एक हो जाना, वैसे ही जैसे लाख के दो टुकड़े अग्नि के प्रभाव से गलकर एक हो जाते हैं। इस प्रकार मन का भेद मिट जाने पर ज्ञान का भेद भी मिट जाता है। दोनों को अपने पृथक् अस्तित्व का ज्ञान नहीं रहता, यद्यपि पृथक् अस्तित्व बना रहता है। ज्ञान-मार्ग के साधक में सिद्धावस्था प्राप्त करने पर ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय तीनों का लोप हो जाने के कारण न तो ज्ञाता का पृथक् अस्तित्व रहता है, न किसी प्रकार का अनुभव होता है और न किसी प्रकार की चेष्टा पर प्रेम-विलास-विवर्त में राधा-कृष्ण का पृथक् अस्तित्व रहता है, विलास-सुखैक तात्पर्यमयी अनुभूति रहती है और विलास-सम्बन्धी चेष्टा रहती है।
प्रेम-विलास-विवर्त में राधा-कृष्ण की विलास-सुखैक-तन्मयता ही है, प्रेम-विलास की परिपक्वता या चरमोत्कर्षावस्था। पर इसके परिणामस्वरूप दोनों में उस अवस्था के दो बाह्य लक्षण भी प्रतिलक्षित होते हैं। वे हैं भ्रम और वैपरीत्य। तन्मयता के कारण भ्रम या आत्मविस्मृति घटती है और आत्मविस्मृति की अवस्था में परस्पर का सुख वधन करने की वर्धमान चरम उत्कण्ठा के कारण उनकी स्वाभाविक चेष्टाओं का अनजाने वैपरीत्य घटता है, अर्थात कान्ता का भाव और आचरण कान्त में, और कान्त का भाव और आचरण कान्ता में सञ्चारित होता है, जैसे साधारण रूप से कृष्ण वंशी बजाते हैं और राधा नृत्य करती हैं, पर विहार-वैपरीत्य में राधा वंशी बजाती हैं, कृष्ण नृत्य करते हैं। नायक और नायिका में विहार-वैपरीत्य बुद्धिपूर्वक भी हो सकता है। पर प्रेम-विवर्त-विलास में यह अबुद्धिपूर्वक होता है, क्योंकि उसमें रमण का रमणत्व रमणी में और रमणी का रमणीत्व रमण में आत्मविस्मृति की अवस्था में अनजाने ही सञ्चारित होता है। चैतन्य-चरितामृत में राय रामानन्द ने महाप्रभु से अपने वार्तालाप में प्रेम-विवर्त-विलास का इंगित एक गीत द्वारा किया है, जिसकी प्रारंभिक पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-
पहिलहि राग नयनभंग भेल। अनुदिन बाढ़ल अवधि न गेल॥
ना सो रमण ना हम रमणी। दुहुँ मन मनोभव पेषल जानि॥
-राधा कहती हैं 'नयन-भंग' अर्थात पलक पड़ने में जितनी देर लगती है, उतनी देर में (श्रीकृष्ण से) मेरा प्रथम राग हो गया। राग दिन-प्रति-दिन निरवच्छिन्न भाव से बढ़ता गया। उसे कोई सीमा न मिली। राग के निरन्तर वर्धनशील प्रवाह ने, एक-दूसरे के विलास-सुख को वर्धन करने की वर्धनशील वासना ने मानो दोनों के मन को पीसकर एक कर दिया। परिणामस्वरूप न रमण को अपने रमणत्व का ज्ञान रहा, न रमणी को अपने रमणीत्व का। दोनों विलास-सुख की अनुभूति में खो गये और वह अनुभूति अपना आस्वादन स्वयं करती रही। श्रीरूप गोस्वामी की मादनाख्य महाभाव और प्रेम-विलास-विवर्त की व्याख्या वैष्णव-समाज को उनकी महत्वपूर्ण देन है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (चैतन्य-चरितामृत 2/18/48)
- ↑ (चैतन्य-चरितामृत 16/156-57)
- ↑ (हरिभक्तिविलास 10/239)
- ↑ (व्यासवाणी, 22)
- ↑ श्रीरामदास बाबाजी महाराज के कीर्तन प्रसिद्ध हैं। उन्हें कीर्तन करते समय भावाविष्ट अवस्था में छंदबद्ध कीर्तनों की स्वात: स्फूर्ति होती थी। दूसरे लोग लिख लिया करते थे। उनके स्वत: स्फूर्त कीर्तन 'श्रीगुरु-कृपार-दान' के नाम से कई खण्डों में पाठबाड़ी कलकत्ता से प्रकाशित हैं।
- ↑ श्रीगुरुकृपारदार, पृ0 118
- ↑ चैतन्य चरित 3/8/182
- ↑ भक्ति रसामृतसिन्धु 1/2/131
- ↑ चैतन्य-चरितामृत 1/8/15
- ↑ वृ0 भा0 1।3।45
- ↑ भक्ति रसामृतसिन्धु 1।4।8।9
- ↑ 2।5।57
- ↑ श्रीविश्वनाथ चक्रवर्ती ने भागवत 2/7/13 श्लोक की टीका में लिखा है कि जब श्रीहरि के सौन्दर्य, सुस्वर, सुरभि, सुकुमारता, वैदग्ध प्रभृति में चक्षु, कर्ण, नासिका, त्वक, जिह्वा और मन सर्वतो भाव से निमग्न हो जाते है और प्राकृत रूप-रसादि आस्वादन करने के पूर्णरूप से अनिच्छुक हो जाते है, तब समझना चाहिये कि अनर्थ-निवृत्ति हुई है।
- ↑ भक्ति-रसामृत-सिंधु 1/3/26
- ↑ विस्तृत विवरण के लिए देखिये लेखक द्वारा प्रणीत 'भक्ति-विज्ञान' पृ0 45-63 अथवा 'श्रीचैतन्य-मत' पृ0 325-400।
- ↑ देखिये भक्ति-विज्ञान, पृ0 181-200 श्रीचैतन्य-मत पृ0 505-529।
- ↑ (भक्ति रसामृतसिन्धु 2/4/98)
- ↑ उज्ज्वल नीलमणि, प्रेम वैचित्य, 57
- ↑ उज्ज्वल नीलमणि, सम्भोग 4 ।
- ↑ (उज्ज्वलनीलमणि, स्था. 26)
- ↑ (उज्ज्वलनीलमणि स्थायि. 164)
- ↑ (उज्ज्वलनीलमणि स्थायि. 35)
- ↑ (उज्ज्वलनीलमणि 28)
- ↑ (चैतन्य-चरितामृत 2/8/202)
- ↑ (चैतन्य-चरितामृत श्लोक 35)
- ↑ (चैतन्य-चरितामृत श्लोक 33)
- ↑ (चैतन्य-चरितामृत श्लोक 42)
- ↑ (चैतन्य-चरितामृत श्लोक 39-40)
- ↑ (चैतन्य-चरितामृत श्लोक 47)
- ↑ (चैतन्य-चरितामृत श्लोक 48)
- ↑ (चैतन्य-चरितामृत श्लोक 49)
- ↑ (चैतन्य-चरितामृत श्लोक 52)
- ↑ (चैतन्य-चरितामृत श्लोक 5)
- ↑ रूप गोस्वामी ही वृजलीला की रूप मञ्जरी हैं।
- ↑ (भक्ति रसामृतसिन्धु 1/2/295)
- ↑ (चाटु पुष्पाञजलि, 23)
- ↑ (विलाप कुसुमाञ्जलि, 102)
- ↑ (भक्ति रसामृतसिन्धु.द.वि., विभाव लहरी, 123)
- ↑ (चैतन्य-चरितामृत 2/8/186, 188)
- ↑ उज्ज्वलनीलमणि, स्थायि, 78 श्लोक की आनन्दचन्द्रिका और लोचन-लोचनी टीकाएँ।
- ↑ (चैतन्य-चरितामृत 1/4/85)