गुणाढ्य
गुणाढ्य प्रसिद्ध आख्यायिका ग्रंथ 'बड़ कथा', जो कि पैशाची भाषा में लिखा गया था, के प्रणेता थे। विद्वानों में गुणाढ्य के समय को लेकर मतभेद हैं। संस्कृत तथा अपभ्रंश ग्रंथों में जो उल्लेख प्राप्त होते हैं, वे 7वीं शताब्दी से प्राचीन नहीं है। कीथ ने कम्बोडिया से प्राप्त 875 ई. के एक अभिलेख के आधार पर गुणाढ्य के अस्तित्व की कल्पना 600 ई. पू. की है। गुणाढ्य की विद्वता से प्रभावित होकर ही सातवाहन वंश के राजा ने उन्हें अपना मंत्री बना लिया था।
जन्म तथा शिक्षा
एक विवरण के अनुसार प्रतिष्ठान निवासी कीर्तीसेन के पुत्र गुणाढ्य ने दक्षिणापथ में विद्यार्जन किया था। वे प्रतिभा के धनी और विद्वता से परिपूर्ण थे, यही कारण था कि सातवाहन राजा उनसे प्रभावित हुआ और उन्हें अपना मंत्री नियुक्त किया।
प्रतिद्वंदिता
यह माना जाता है कि सातवाहन नरेश संस्कृत व्याकरण का अच्छा ज्ञाता नहीं था, जिस कारण एक बार जलक्रीड़ा के समय वह विदुषी रानियों के मध्य उपहास का पात्र बन गया। इससे दु:खी होकर राजा ने अल्पकाल में ही संस्कृत व्याकरण मे पारंगत होने के निमित्त गुणाढ्य पंडित को प्रेरित किया, लेकिन उन्होंने इसे असंभव बताया। वहीं 'कातत्र' के रचयिता एक दूसरे सभापंडित शर्ववर्मा ने इस कार्य को छह मास में ही संभव कर देना बताया। गुणाढ्य ने उसकी इस चुनौती और प्रतिद्वंदिता का उत्तर अपनी रोष युक्त प्रतिज्ञा द्वारा किया। लेकिन शर्ववर्मा ने उसी अवधि में राजा को संस्कृत व्याकरण का अच्छा ज्ञान करा दिया। इसके फलस्वरूप प्रतिज्ञा के अनुसार गुणाढ्य को नगर का निवास छोड़ कर वनवास की ओर जाना पड़ा और साथ ही संस्कृत, पाली तथा प्राकृत छोड़ कर पैशाची भाषा का आश्रय लेना पड़ा।
'बड़ कथा' की रचना
कुछ विद्वान गुणाढ्य को कश्मीर क़ा निवासी मानते हैं। यद्यपि गुणाढ्य द्वारा रचित पैशाची भाषा का आख्यायिका ग्रंथ 'बड़ कथा'[1] आज उपलब्ध नहीं है, परंतु प्राचीन ग्रंथों में उनका उल्लेख अनेक बार होने से उनका महत्त्व प्रकट है। गुणाढ्य ने पैशाची में सात लाख कथाओं की 'बड़ कथा' की रचना की थी, जो काणभूति के अनुसार चमड़े पर लिखी विद्याधरेंद्रो की कथा बताई जाती है। बाद में सातवाहन नरेश की राज्यसभा में सम्मान न मिलने से उन्होंने इस विशाल ग्रंथ को अग्नि में समर्पित कर दिया। ऐसा कहा जाता है कि माधुर्य के कारण पशु-पक्षी गण तक निराहार रह कर कथा श्रवण में लीन रहने लगे, जिससे वे मांसरहित हो गए। इधर वन जीवों के मांसाभाव का कारण जानने के लिये सातवाहन राजा द्वारा पूछताछ किए जाने पर लुब्धकों ने जो उत्तर दिया, उसके अनुसार वे गुणाढ्य को मनाने अथवा 'बड़ कथा' को बचाने के उद्देश्य से वन की ओर गए। वहाँ वे अनुरोधपूर्वक ग्रंथ का केवल सप्तमांश जलने से बचाने में सफल हो सके, जो क्षेमेंद्र कृत 'बृहत्कथा श्लोकसंग्रह' (7500 श्लोक) और सोमदेव कृत 'कथासरित्सागर' (2400 श्लोक) नामक संस्कृत रूपांतरों में उपलब्ध है।
यद्यपि गुणाढ्य द्वारा कृत 'बड़ कथा' अब अनुपलब्ध है, फिर भी जैसे सप्तशतियों की परंपरा का आदि स्रोत हाल कृत 'गाहासत्तसई' बताई जाती है, वैसे ही भारतीय आख्यायिका साहित्य का अतीत 'बड़ कथा' से संयुक्त है। बाण ने उसे हरलीला के समान विस्मयकारक, त्रिविक्रम ने अत्यधिक लोगों का मनोरंजन करने वाला और धनपाल ने उपजीव्य ग्रंथ मानकर उसे सागर के समान विशाल बताया है, जिसकी बूंद से संस्कृत के परवर्ती आख्यायिकाकार और कवि अपनी रचनाएँ प्रस्तुत करते आए हैं। इस दृष्टि से गुणाड्य परवर्ती आख्यायिका लेखकों के शिक्षक सिद्ध होते है। पुराणों, वेदों आदि में प्राप्त कथाओं की शिष्ट साहित्य धारा, जो भारतीय इतिहास के सांस्कृतिक अतीत से जुड़ी है, उसी के ठीक समानांतर लोक प्रचलित कथाओं की धारा भी आदि काल से संबंधित है। गुणाड्य ने सर्वप्रथम इस द्वितीय धारा का संग्रह जनभाषा में किया। अत: पौराणिक कथा-संकलनों की भाँति लोक कथाओं के इस संग्रह का भी असाधारण महत्व है। इसीलिये गोवर्धनाचार्य ने 'बड़ कथा' को व्यास और वाल्मीकि की कृतियों के पश्चात् तीसरी महान् कृति मानकर गुणाढ्य को व्यास का अवतार कहा है।
समय काल
अधिकांश विद्वानों में गुणाढ्य के समय को लेकर विवाद हैं। संस्कृत तथा अपभ्रंश ग्रंथों में जो उल्लेख प्राप्त होते हैं, वे 7वीं शताब्दी से प्राचीन नहीं है। कीथ ने कम्बोडिया से प्राप्त 875 ई. के एक अभिलेख के आधार पर उनके अस्तित्व की कल्पना 600 ई. से पूर्व की है। प्रचलित प्रवादों में गुणाढ्य का संबंध सातवाहन से जोड़ा गया है। सातवाहन नरेशों का समय 200 ई. पू. से 300 ई. तक माना जाता है, जिनके समय में प्राकृत साहित्य की प्रतिनिधि रचनाएँ हुई थीं। इसके अतिरिक्त विद्वानों का मत है कि 'कादंबरी', 'दशकुमारचरित', 'उदयन' और 'पंचतंत्र' की कथाओं का मूल 'बृहत्कथा' ही है। इनमें 'पंचतंत्र' का पहलवी भाषा में हुआ अनुवाद पाँचवीं शताब्दी का बताया जाता है। अत: गुणाढ्य का काल निस्संदेह तृतीय चतुर्थ शताब्दी में कभी माना जा सकता है।
संकलन कार्य
अनेक विद्वानों का मत है कि भारतीय सहित्य की दो धाराएँ आदि काल से ही प्रचलित रही हैं। एक धारा वेद, पुराण आदि की थी और दूसरी उसी के समनांतर लोक प्रचलित कथाओं की धारा थी। गुणाढ्य ने इसी कथा धारा को संकलित करने का महान कार्य किया। इसलिये कुछ आचार्य बड़ कथा को व्यास और वाल्मीकि की रचनाओं के क्रम में तीसरी महान कृति मानकर गुणाढ्य को व्यास का अवतार मानते हैं।[2]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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