सूत्रधार

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सूत्रधार नाटक अथवा फ़िल्म के सभी सूत्र अपने हाथों में धारण करता है। वही नाटक अथवा फ़िल्म का प्रारंभ करता है और वही अंत भी करता है। कभी कभी नाटक अथवा फ़िल्म के बीच में भी उसकी उपस्थिति होती है। कभी कभी वह मंच के पीछे अर्थात नेपथ्य से भी नाटक का संचालन करता है।

रंगमंच में सूत्रधार

हमारी रंगपरंपरा में सूत्रधार को अपने नाम के अनुरूप महत्व प्राप्त है। भारतीय समाज में संसार को रंगमंच, जीवन को नाट्य, मनुष्य या जीव को अभिनेता और ईश्वर को सूत्रधार कहा जाता है। यह माना जाता है कि ईश्वर ही वह सूत्रधार है, जिसके हाथ में सारे सूत्र होते हैं और वह मनुष्य या जीव रूपी अभिनेता को संसार के रंगमंच पर जीवन के नाट्य में संचालित करता है। सूत्रधार की यह नियामक भूमिका हमारी रंगपरंपरा में स्पष्ट देखने को मिलती है। वह एक शक्तिशाली रंगरूढ़ि के रूप में संस्कृत रंगमंच पर उपलब्ध रहा है। पारंपारिक नाट्यरूपों के निर्माण और विकास में भी सूत्रधार के योगदान को रेखांकित किया जा सकता है। आधुनिक रंगकर्म के लिए सूत्रधार अनेक रंगयुक्तियों को रचने में सक्षम है, जिसके कारण रंगमंच के नए आयाम सामने आ सकते हैं। यह एक ऐसा रूढ़ चरित्र है, जिसे बार-बार आविष्कृत करने का प्रयास किया गया है और आज भी वह नई रंगजिज्ञासा पैदा करने में समर्थ है।

साहित्य में उल्लेख

सूत्रधार लगभग हर संस्कृत नाटक में उपस्थित है। उसके कार्यव्यापार और व्यवहार की अनगिनत व्याख्याएँ आचार्यों ने की हैं। सूत्रधार के कुछ रूप विशेषतः यहाँ रेखांकित करने योग्य हैं। वह भास के नाटक चारुदत्त में संस्कृत नहीं प्राकृत बोलता है। उसकी भाषा में यह बदलाव रंगमंच पर उसके जन-प्रतिनिधि या सामान्य वर्ग के दर्शकों का प्रतिनिधि होने का संकेत है। कालिदास के नाटकों में वह नाटककार का प्रवक्ता बन जाता है। यहाँ वह उस परिषद के संदर्भ में कुछ सूचनाएँ देता है, जिसके निर्देश पर नाटक का मंचन हो रहा है। कुछ नाटकों में सूत्रधार के समग्र परिवार के अभिनय करने तथा नटी के रूप में स्वयं उसकी पत्नी के अभिनय करने के स्पष्ट संकेत हैं। भवभूति के मालतीमाधव में तो यह सूचना भी मिलती है कि सूत्रधार स्त्री-पात्र की भूमिका कर रहा है।

संस्कृत रंगमंच के बाद, उस रंगमंच के सूत्रधार को भी जानना होगा, जिस रंगमंच ने हमारे समाज के विभिन्न जनसमुदायों को सोद्देश्य मनोरंजन दिया और सबकी निजता की पहचान कायम रखते हुए उन्हें एक सूत्र में भी बाँधा। यह रंगमंच के लिए रचनात्मक ऊर्जा के विस्फोट का काल था, जिसका नेतृत्व धीरे-धीरे सामान्य-जन के हाथों में चला गया। यह सामान्य-जन की भाषा में जीवन के नाट्य की प्रस्तुति के लिए पारंपारिक नाट्यशैलियों के उदय और विकास का काल था। लोक-नाट्यशैलियों, जिन्हें जगदीशचंद्र माथुर परंपराशील नाट्य कहते हैं, के निर्माण और विकास में सूत्रधार ने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया।

पारंपारिक नाट्यशैलियों के निर्माण में जयदेव के गीतगोविंद की प्रस्तुति-शैली का व्यापक प्रभाव रहा। जयदेव ने श्रीमद्भागवत के रास-प्रसंग को अपनी रचनात्मक प्रतिभा के बल पर नया स्वरूप दिया था। नृत्य एवं संगीत में निबद्ध कर रास-प्रसंग को उन्होंने दृश्य-प्रबंध के रूप में परिवर्तित किया। सूत्रधार मंगलाचरण करता, सूचना देता और इसके बाद अन्य पात्र ध्रुपद का गायन करते और फिर संलाप प्रस्तुत करते। इस प्रस्तुति-शैली में मंच पर सूत्रधार की निरंतर उपस्थिति अनिवार्य थी। गीतगोविंद के इस सूत्रधार ने लोक या परंपराशील नाट्य के सूत्रधार की रचना के लिए आधार-भूमि दी। ब्रज में जब रास के बाद अनुकरणात्मक लीला की प्रस्तुति आरंभ हुई, व्यापक बदलाव आया। गीतगोविंद के सूत्रधार की तरह लीलाओं की प्रस्तुति में सूत्रधार की निरंतर उपस्थिति की आवश्यकता महसूस की गई और वह उपस्थिति रहकर दर्शकों से संवाद करने लगा। प्रदर्शन की कई पद्धतियों में सूत्रधार ने विदूषक के अवयवों को ग्रहण क्या। चाक्यार नटों ने, जिनके एक पात्री अभिनय को 'कुत्तु' कहा जाता था, इस परंपरा को विकसित किया।

संस्कृत रंगमंच के सूत्रधार सूचक और प्रस्तावक थे, पर लोक रंगमंच ने अपने सूत्रधार को वाचक भी बनाया। सूत्रधार यहाँ व्याख्याता और टिप्पणीकार भी बना। नाट्य-प्रस्तुति के गंभीर और मार्मिक क्षणों को वह विश्लेषित करता तथा अपनी टिप्पणियों से सहजता के साथ इस विश्लेषण को संप्रेषित करता। दक्षिण की कई नाट्यशैलियों के सूत्रधार मंच पर प्रवेश से पूर्व अन्य पात्रों का परिचय देते हैं। इस परिचय के लिए सूत्रधार कभी संवाद, तो कभी गीतों का उपयोग करता है। अपनी मुद्राओं, संकेतों और आंगिक चेष्टाओं से वह गीतों के अर्थ भी खोलते चलता है। पारंपारिक नाट्यशैलियों में भी सूत्रधार के अलग-अलग नाम हैं। कहीं इसे नायक, तो कहीं खलीफ़ा नाम से पुकारा जाता है। कहीं नट, तो कहीं मूलगैन कहा जाता है। कथावाचक नाम से भी इसे संबोधित किया गया है। बिहार की बिदेसिया नाट्यशैली में भिखारी ठाकुर स्वयं सूत्रधार की भूमिका करते थे। आरंभ में नृत्य और गायन होता। इस दौरान जब शामियाना या प्रदर्शन-स्थल दर्शकों से ठसाठस भर जाता, तब वह प्रवेश करते। उनका प्रदर्शन देखने वाले आज भी बताते हैं कि उनके प्रवेश करते ही एक दिव्य शांति छा जाती थी। वह धोती, मिरजई और सिर पर पगड़ी धारण करते। नांदी पाठ की जगह सुमिरन होता। वह सुमिरन का नेतृत्व करते और सुमिरन के बाद अपने नाटक की प्रस्तावना करते। उनके बाद की पीढ़ी के लोगों ने उनका अनुकरण किया, पर नाच दल के मुखिया या मूलगैन ने अपनी-अपनी रुचि के अनुसार अपनी वेशभूषा में परिवर्तन किया। दरबारी गिरी कथक के नर्तकों की तरह पाजामा, पैशवाज और दुपट्टा पहना करते थे।

दक्षिण की नाट्यशैली 'वीथिनाटकम्' का सूत्रधार 'कट्टियंगरन' जिस तरह अपने नाटक के पात्रों का परिचय देता है, उससे अलग अंदाज़ में कर्नाटका के 'दोड्डाता' पौराणिक नाटक का सूत्रधार 'भागवतर' अपने सहयोगी के साथ नाटक का आरंभ करता है। प्रस्तावना के बीच में ही नाटक इस तरह आरंभ होता है जैसे नदी की धाराएँ फूट रही हों। असम के 'अंकिया' का सूत्रधार पारंपारिक नाट्यशैलियों के सूत्रधारों के बीच अपनी अलग पहचान रखता है। समग्र प्रस्तुति में उसका योगदान उसे महत्वपूर्ण बना देता है। उसकी रंगयुक्तियाँ प्रस्तुति को आधार देती हैं और वह उद्बोधक के रूप में सामने आता है। अंकिया के जनक शंकरदेव ने उसकी परिकल्पना करते हुए जिस मौलिकता का परिचय दिया है वह दुर्लभ है। अंकिया के पाठ लिखित रूप में उपलब्ध हैं। इन आलेखों में सूत्रधार का पाठ (टेक्स्ट) स्थिर या निर्धारित है। पाठ का यह निर्धारण सूत्रधारर को प्रस्तुति के बीच गंभीरता और पर्याप्त स्पेस देता है। उसकी उपस्थिति अंकिया की प्रस्तुति को गरिमा देती है। श्वेत चूड़ी(पाजामा), लंबी और ढीली बाँहों वाला गुलाबी रंग का गाठी सेला(जामा), काठी कापड़ (कमरबंद) और पगड़ीधारी यह सूत्रधार भी हर पात्र के प्रवेश पर सूचना देता है। भागवत पाठ करने वाले कथावाचकों की तरह उसकी घोषणाओं और टिप्पणियों की परंपरा अपेक्षाकृत ज़्यादा सुगठित है।


'एक था गदहा' (शरद जोशी) जैसे कुछ नाटकों में जब पाठ और प्रस्तुति के भीतर वह उपस्थित होता है- उसकी शक्ति प्रकट होती है और संप्रेषण के नए रास्ते बनते हैं। जब हबीब तनवीर और कारंथ जैसे रंगकर्मी अपने नाटकों में सूत्रधार की रचनात्मक परंपरा की तलाश करते हैं, तब वह नई छवियों के साथ प्रकट होता है। अन्य भारतीय भाषाओं के रंगमंच पर सूत्रधार की स्थिति हिंदी रंगमंच जैसी निराशाजनक नहीं है क्यों कि वहाँ के रंगमंच का बहुलांश अपनी भाषा और अपने समाज की रंगमंचीय परंपरा के रचनात्मक रंगअवयवों के आधार पर निर्मित हो रहा है, वहीं पाठ और प्रस्तुति के भीतर सूत्रधार की वापसी हो रही है। यह वापसी दूसरे सूत्रधार यानी समकालीन रंगमंच के निर्देशक को अराजक और निरंकुश होने से बचा सकती है। बीज दर्शक, भाव, तत्वज्ञ, दीर्घदर्शी और मर्मज्ञ बनने के लिए सूत्रधार को पाठ एवं प्रस्तुति के भीतर अपनी समग्र रचनात्मक ऊर्जा के साथ रहना होगा। सूत्रधार हमारी रंगपरंपरा से प्राप्त तक ऐसा चरित्र है, जो नाटककार, अभिनेता, दर्शक ही नहीं स्वयं के लिए भी कल्पनाशीलता के नए क्षितिज खोज सकता है। सुलभ, ऋषीकेश। सूत्रधार की रंगछवियाँ (हिन्दी) उद्घोषक (ब्लॉग)। अभिगमन तिथि: 6 नवम्बर, 2014।


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