रणथम्भौर क़िला
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रणथम्भौर क़िला राजस्थान के सवाईमाधोपुर ज़िले में स्थित प्राचीन ऐतिहासिक एवं सामरिक महत्त्व के दुर्गों में अपना विशेष स्थान रखता है। यह अत्यंत विशाल पहाड़ी दुर्ग है। अपनी प्राकृतिक बनावट के कारण यह काफ़ी प्रसिद्ध है। यद्यपि यह दुर्ग ऊँची पहाड़ियों के पठार पर बना हुआ है, परंतु प्रकृति ने इसे अपने अंक में इस तरह भर लिया है कि मुख्य द्वार पर पहुँचकर ही इस दुर्ग के दर्शन किये जा सकते हैं। इस दुर्ग के प्राचीर से काफ़ी दूर तक शत्रु पर निगाह रखी जा सकती थी। यह क़िला चारों ओर सघन वनों से आच्छादित चम्बल की घाटी पर नियंत्रण रखता था।
इतिहास
रणथम्भौर क़िला राजस्थान में ऐतिहासिक घटनाओं एवं बहादुरी का प्रतीक है। इस क़िले के निर्माता का नाम अनिश्चित है, किन्तु इतिहास में सर्वप्रथम इस पर चौहानों के अधिकार का उल्लेख मिलता है। सम्भव है कि राजस्थान के अनेक प्राचीन दुर्गों की भाँति इसे भी चौहानों ने ही बनवाया हो। जनश्रुति है कि प्रारम्भ में इस दुर्ग के स्थान के निकट 'पद्मला' नामक एक सरोवर था। यह इसी नाम से आज भी क़िले के अन्दर ही स्थित है। इसके तट पर पद्मऋषि का आश्रम था। इन्हीं की प्रेरणा से जयंत और रणधीर नामक दो राजकुमारों ने जो कि अचानक ही शिकार खेलते हुए वहाँ पहुँच गए थे, इस क़िले को बनवाया और इसका नाम 'रणस्तम्भर' रखा। क़िले की स्थापना पर यहाँ गणेश जी की प्रतिष्ठा की गई थी, जिसका आह्वान राज्य में विवाहों के अवसर पर किया जाता है।
निर्माण
राजस्थान के इतिहास में कई ऐतिहासिक घटनाओं के साक्षी रहे रणथम्भौर क़िले के निर्माण का समय एवं निर्माता के बारे में निश्चित जानकारी नहीं है। सामान्यतः यह माना जाता है कि इस क़िले का निर्माण आठवीं शताब्दी में हुआ था। ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी तक इस क़िले की प्रसिद्धि इतनी फैल चुकी थी कि तत्कालीन समय के विभिन्न ऐतिहासिक महत्त्व के ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है। इतिहास में सर्वप्रथम इस क़िले पर चौहानों के आधिपत्य का उल्लेख मिलता है। यह सम्भव है कि चौहान शासक रंतिदेव ने इसका निर्माण करवाया हो।
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युद्ध
इस क़िले का प्रारम्भिक इतिहास अनिश्चित है। मुहम्मद ग़ोरी के हाथों तराइन में पृथ्वीराज चौहान की पराजय के बाद उनका पुत्र गोविन्दराज दिल्ली और अजमेर छोड़कर रणथम्भौर आ गया और यहाँ शासन करने लगा। उसके बाद लगभग सौ वर्षों तक चौहान रणथम्भौर पर शासन करते रहे। उनके समय में दुर्ग के वैभव में बहुत वृद्धि हुई। राजपूत काल के पश्चात् से 1563 ई. तक यहाँ पर मुस्लिमों का अधिकार था। इससे पहले बीच में कुछ समय तक मेवाड़ नरेशों के हाथ में भी यह दुर्ग रहा। इनमें चौहान शासक राणा हम्मीर प्रमुख हैं। इनके साथ दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन ख़िलज़ी का भयानक युद्ध 1301 ई. में हुआ था, जिसके फलस्वरूप रणथम्भौर की वीर नारियाँ पतिव्रत धर्म की ख़ातिर चिता में जलकर भस्म हो गईं और राणा हम्मीर युद्ध में वीर गति को प्राप्त हुए। इस युद्ध का वृत्तान्त जयचंद के 'हम्मीर महाकाव्य' में है। 1563 ई. में बूँदी के एक सरदार सामन्त सिंह हाड़ा ने बेदला और कोठारिया के चौहानों की सहायता से मुस्लिमों से यह क़िला छीन लिया और यह बूँदी नरेश सुजानसिंह हाड़ा के अधिकार में आ गया।
मुग़ल अधिकार
चार वर्ष बाद मुग़ल बादशाह अकबर ने चित्तौड़ की चढ़ाई के पश्चात् मानसिंह को साथ लेकर रणथम्भौर पर चढ़ाई की। अकबर ने परकोटे की दीवारों को ध्वस्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, किन्तु पहाड़ियों के प्राकृतिक परकोटों और वीर हाड़ाओं के दुर्दनीय शौर्य के आगे उसकी एक न चली। किन्तु राजा मानसिंह ने छलपूर्वक राव सुजानसिंह को अकबर से सन्धि करने के लिए विवश कर दिया। सुजानसिंह ने लोभवश क़िला अकबर को दे दिया, किन्तु सामन्त सिंह ने फिर भी अकबर के दाँत खट्टे करके मरने के बाद ही क़िला छोड़ा। 1569 ई. में इस पर अकबर का अधिकार हो गया। इसके बाद अगले दो सौ वर्षों तक इस पर मुग़लों का अधिकार बना रहा। 1754 ई. तक रणथम्भौर पर मुग़लों का अधिकार रहा। इसी वर्ष इसे मराठों ने घेर लिया, किन्तु दुर्गाध्यक्ष ने जयपुर के महाराज सवाई माधोसिंह की सहायता से मराठों के आक्रमण को विफल कर दिया। तब से आधुनिक समय तक यह क़िला जयपुर रियासत के अधिकार में रहा।
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परिवेश
रणथम्भौर का दुर्ग सीधी ऊँची खड़ी पहाड़ी पर स्थित है, जो आसपास के मैदानों के ऊपर 700 फुट की ऊंचाई पर है। यह विंध्य पठार और अरावली पहाड़ियों के बीच स्थित है, जो 7 कि.मी. भौगोलिक क्षेत्र में फैला हुआ है। क़िले के तीन ओर प्राकृतिक खाई बनी है, जिसमें जल बहता रहता है। क़िला सुदृढ़ और दुर्गम परकोटे से घिरा हुआ है। दुर्ग के दक्षिणी ओर 3 कोस पर एक पहाड़ी है, जहाँ 'मामा-भानजे' की क़ब्रें हैं। सम्भवतः इस पहाड़ी पर से यवन सैनिकों ने इस क़िले को जीतने का प्रयत्न किया होगा और उसी में यह सरदार मारे गए होंगे। क़िले में विभिन्न हिन्दू और जैन मंदिरों के साथ एक मस्जिद भी है. आवासीय और प्रवासी पक्षियों की एक बड़ी विविधता यहाँ देखी जा सकती है, क्योंकि क़िले के आसपास कई जल निकाय उपस्थित हैं। इस क़िले से पर्यटक रणथंभौर राष्ट्रीय उद्यान के शानदार दृश्यों का आनन्द उठा सकते हैं।
कलात्मक भवन
चौहान शासकों ने इस दुर्ग में अनेक देवालयों, सरोवरों तथा भवनों का निर्माण करवाया था। चित्तौड़ के गुहिल शासकों ने भी इसमें कई भवन बनवाये। बाद में मुस्लिम विजेताओं ने कई भव्य देवालयों को नष्ट कर दिया। वर्तमान में क़िले में मौजूद नौलखा दरवाज़ा, दिल्ली दरवाज़ा, तोरणद्वार, हम्मीर के पिता जेतसिंह की छतरी, पुष्पवाटिका, गणेशमन्दिर, गुप्तगंगा, बादल महल, हम्मीर कचहरी, जैन मन्दिर आदि का ऐतिहासिक महत्त्व है। दुर्ग में आकर्षित करने वाले कलात्मक भवन अब नहीं रहे, फिर भी शेष बचे हुए भवनों की सुदृढ़ता, विशालता तथा उनकी घाटियों की रमणीयता दर्शकों को बरबस ही अपनी ओर आकर्षित करती है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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