रणकपुर

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रणकपुर जैन मंदिर
Ranakpur Jain Temple

रणकपुर राजस्थान के देसूरी तहसील के निकट पाली ज़िले के सादडी में स्थित है। रणकपुर जोधपुर और उदयपुर के बीच में अरावली पर्वत की घाटियों में स्थित है।

इतिहास

यह स्थान मन्दिरों के लिए प्रसिद्ध है, जो उत्तरी भारत के श्वेताम्बर जैन मन्दिरों में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। इन मन्दिरों का निर्माण धन्ना नामक सेठ ने किया था, उसे 'धरणाक सेठ' भी कहते हैं। इस सेठ ने महाराणा कुम्भा से इन मन्दिरों के लिए भूमि ख़रीदी थी। यहाँ स्थित प्रमुख मन्दिर को 'रणकपुर का चौमुखा मन्दिर' कहते हैं। इस मन्दिर के चारों ओर द्वार हैं। मन्दिर में प्रथम जैन तीर्थंकर आदिनाथ की मूर्ति स्थापित है। इस मन्दिर के अलावा दो और जैन मन्दिर हैं, जिनमें पार्श्वनाथ और नेमिनाथ की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित हैं। एक वैष्णव मन्दिर सूर्यनारायण का भी है। एक धार्मिक मन्दिर चौमुखा त्रलोक्य दीपक है, जिसमें राजस्थान की जैन कला और धार्मिक परम्परा का अपूर्व प्रदर्शन हुआ है।

स्थापना

रणकपुर में मन्दिर की प्रतिष्ठा विक्रम संवत 1496 (1439 ई.) में हुई थी। प्रधान मन्दिर वर्गाकार (220 फुट x 220 फुट) एवं चौमुखा है। इसका विस्तार 48, 400 वर्ग फुट ज़मीन पर किया गया है। इस मन्दिर में कुल 24 मण्डप, 84 शिखर और 1444 स्तम्भ हैं। सम्पूर्ण मन्दिर में सोनाणा, सेदाड़ी और मकराना के पत्थर का प्रयोग किया गया है। इस मन्दिर को बनाने में 99 लाख रुपया व्यय किया गया था।

चौमुखा मन्दिर

रणकपुर में आदिनाथ की भव्य प्रतिमाएँ श्वेत संगमरमर पत्थर की बनी हुई हैं। एक उच्च पीठिका पर आसीन आदिनाथ की प्रतिमाएँ पाँच फुट ऊँची हैं और एक-दूसरे की पीठ से लगी हुई चारों दिशाओं में मुख किये हुए हैं। इसी कारण यह मन्दिर चौमुखा कहलाता है। चारों ओर द्बार होने से कोई भी श्रद्धालु किसी भी दिशा से भगवान आदिनाथ के दर्शन कर सकता है।

रणकपुर जैन मंदिर
Ranakpur Jain Temple

इस मन्दिर के सामने दो अन्य जैन मन्दिर हैं, जिनमें से पार्श्वनाथ के मन्दिर का बाहरी भाग पूरा मैथुन मूर्तियों से भरा पड़ा है। इसीलिए इस मन्दिर को लोग 'वेश्या मन्दिर' कहते हैं। मन्दिर के सभामण्डप, द्वार, स्तम्भ, छत आदि तक्षण-कला के काम से लदे पड़े हैं। नर्तकी की मूर्तियाँ हाव-भाव से परिपूर्ण हैं। प्रमुख मन्दिर में जैन तीर्थों का भी वर्णन हैं। मन्दिर के चारों ओर 80 छोटी और 4 बड़ी देवकुलिकाएँ हैं।

प्राचीन वर्णन

मन्दिर की मुख्य देहरी में भगवान नेमीनाथ की श्यामल भव्य मूर्ति है। अन्य मूर्तियों में सहस्त्रकूट, भैरव, हरिहर, सहस्त्रफणा, धरणीशाह और देपाक की मूर्तियाँ उल्लेखनीय हैं। यहाँ पर एक 47 पंक्तियों का लेख चौमुखा मन्दिर के एक स्तम्भ में लगे हुए पत्थर पर उत्कीर्ण है, जो विक्रम संवत 1496 (1939 ई.) का है। इस लेख में संस्कृत तथा नागरी, दोनों लिपियों का प्रयोग किया गया है। प्रस्तुत लेख में बापा से लेकर कुम्भा तक के बहुत से शासकों का वर्णन है। महाराणा कुम्भा की विजयों तथा उसके विरुदों का विस्तृत विवरण दिया गया है। इस लेख में तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक जीवन के बारे में भी पर्याप्त जानकारी मिलती है। फर्ग्युसन ने इस अद्भुत प्रासाद का वर्णन करते हुए लिखा है कि ऐसा जटिल एवं कलापूर्ण मन्दिर मेरे देखने में नहीं आया है और मैं अन्य ऐसा कोई भवन नहीं जानता, जो इतना रोचक व प्रभावशाली हो। कर्नल टॉड ने भी इसे भव्य प्रासादों में गिना है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ


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