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अकबर का विद्रोह एवं नीति

अकबर को महारानी एलिज़ाबेथ द्वारा भेजा गया दूत, फ़तेहपुर सीकरी - 1586

जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर भारत का महानतम मुग़ल शंहशाह बादशाह था। जिसने मुग़ल शक्ति का भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकांश हिस्सों में विस्तार किया। अकबर को अकबर-ऐ-आज़म, शहंशाह अकबर तथा महाबली शहंशाह के नाम से भी जाना जाता है। अकबर के समय में हुए महत्त्वपूर्ण विद्रोह निम्नलिखित हैं-

उजबेगों का विद्रोह

उजबेग वर्ग पुराने अमीर थे। इस वर्ग के प्रमुख विद्रोही नेता थे- जौनपुर के सरदार ख़ान जमान, उसका भाई बहादुर ख़ाँ एवं चाचा इब्राहीम ख़ाँ, मालवा का सूबेदार अब्दुल्ला ख़ाँ, अवध का सूबेदार ख़ाने आलम आदि। ये सभी विद्रोही सरदार अकबर की अधीनता स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे। 1564 ई. में मालवा के अब्दुल्ला ख़ाँ ने विद्रोह किया। यह विद्रोह अकबर के समय का पहला विद्रोह था। इन विद्रोहों को अकबर ने बड़ी सरलता से दबा लिया।

मिर्ज़ाओं का विद्रोह

मिर्ज़ा वर्ग के लोग अकबर के रिश्तेदार थे। इस वर्ग के प्रमुख विद्रोही नेता थे- इब्राहिम मिर्ज़ा, मुहम्मद हुसैन मिर्ज़ा, मसूद हुसैन, सिकन्दर मिर्ज़ा एवं महमूद मिर्ज़ा आदि। चूंकि इस वर्ग का अकबर से ख़ून का रिश्ता था, इसलिए ये अधिकार की अपेक्षा करते थे। इसी से उपजे असन्तोष के कारण इस वर्ग ने विद्रोह किया। अकबर ने 1573 ई. तक मिर्ज़ाओं के विद्रोह को पूर्ण रूप से कुचल दिया।

बंगाल एवं बिहार का विद्रोह

1580 ई. में बंगाल में बाबा ख़ाँ काकशल एवं बिहार में मुहम्मद मासूम काबुली एवं अरब बहादुर ने विद्रोह किया। राजा टोडरमल के नेतृत्व में अकबर की सेना ने 1581 ई. में विद्रोह को कुचला।

यूसुफ़जइयों का विद्रोह

अकबर के कश्मीर अभियान के समय 1585 ई. में पश्चिमोत्तर सीमा पर यूसुफ़जइयों की आक्रामक गतिविधयों के कारण स्थिति अत्यन्त गंभीर हो गयी थी। अकबर ने जैलख़ान कोकलताश के नेतृत्व में इनसे निपटने हेतु सेना भेजी। बीरबल और हाकिम अब्दुल फ़तह भी बाद में उसकी सहायता के लिए नियुक्त किये गये, किन्तु अभियान के दौरान मतभेद होने के कारण वापस लौटते हुये यूसुफ़जइयों ने पीछे से हमला किया। इसी हमले में बीरबल की मृत्यु हो गयी। उत्तर पश्चिम सीमा प्रान्त की समस्याओं ने अकबर को अन्त तक प्रभावित किया।

शाहज़ादा सलीम का विद्रोह

अकबर के लाड़-प्यार में पला सलीम काफ़ी बिगड़ चुका था। वह बादशाह बनने के लिए उत्सुक था। 1599 ई. में सलीम अकबर की आज्ञा के बिना अजमेर से इलाहाबाद चला गया। यहाँ पर उसने स्वतन्त्र शासक की तरह व्यवहार करना शुरू किया। 1602 ई. में अकबर ने सलीम को समझाने का प्रयत्न किया। उसने सलीम को समझाने के लिए दक्षिण से अबुल फज़ल को बुलवाया। रास्ते में जहाँगीर के निर्देश पर ओरछा के बुन्देला सरदार वीरसिंहदेव ने अबुल फ़ज़ल की हत्या कर दी। निःसंदेह जहाँगीर का यह कार्य अकबर के लिए असहनीय था, फिर भी अकबर ने सलीम के आगरा वापस लौटकर (1603 ई.) में माफ़ी मांग लेने पर माफ़ कर दिया। अकबर ने उसे मेवाड़ जीतने के लिए भेजा, पर वह मेवाड़ न जाकर पुनः इलाहाबाद पहुँच गया। कुछ दिन तक सुरा और सुन्दरी में डूबे रहने के बाद अपनी दादी की मुत्यु पर सलीम 1604 ई. में वापस आगरा गया। जहाँ अकबर ने उसे एक बार फिर माफ़ कर दिया। इसके बाद सलीम ने विद्रोहात्मक रूख नहीं अपनाया।

हमज़ानामा

अकबर की राजपूत नीति

अकबर की राजपूत नीति उसकी गहन सूझ-बूझ का परिणाम थी। अकबर राजपूतों की शत्रुता से अधिक उनकी मित्रता को महत्व देता था। अकबर की राजपूत नीति दमन और समझौते पर आधारित थी। उसके द्वारा अपनायी गयी नीति पर दोनों पक्षों का हित निर्भर करता था। अकबर ने राजपूत राजाओं से दोस्ती कर श्रेष्ठ एवं स्वामिभक्त राजपूत वीरों को अपनी सेवा में लिया, जिससे मुग़ल साम्राज्य काफ़ी दिन तक जीवित रह सका। राजपूतों ने मुग़लों से दोस्ती एवं वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर अपने को अधिक सुरक्षित महसूस किया। इस तरह अकबर की एक स्थायी, शक्तिशाली एवं विस्तृत साम्राज्य की कल्पना को साकार करने में राजपूतों ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। अकबर ने कुछ राजपूत राजाओं जैसे- भगवान दास, राजा मानसिंह, बीरबल एवं टोडरमल को उच्च मनसब प्रदान किया था। अकबर ने सभी राजपूत राजाओं से स्वयं के सिक्के चलाने का अधिकार छीन लिया तथा उनके राज्य में भी शाही सिक्कों का प्रचलन करवाया।

धार्मिक नीति

अकबर प्रथम सम्राट था, जिसके धार्मिक विचारों में क्रमिक विकास दिखायी पड़ता है। उसके इस विकास को तीन कालों में विभाजित किया जा सकता है।

  • प्रथम काल (1556-1575 ई.) - इस काल में अकबर इस्लाम धर्म का कट्टर अनुयायी था। जहाँ उसने इस्लाम की उन्नति हेतु अनेक मस्जिदों का निर्माण कराया, वहीं दिन में पाँच बार नमाज़ पढ़ना, रोज़े रखना, मुल्ला मौलवियों का आदर करना, जैसे उसके मुख्य इस्लामिक कृत्य थे।
  • द्वितीय काल (1575-1582 ई.) - अकबर का यह काल धार्मिक दृष्टि से क्रांतिकारी काल था। 1575 ई. में उसने फ़तेहपुर सीकरी में इबादतखाने की स्थापना की। उसने 1578 ई. में इबादतखाने को धर्म संसद में बदल दिया। उसने शुक्रवार को मांस खाना छोड़ दिया। अगस्त-सितम्बर, 1579 ई. में महजर की घोषणा कर अकबर धार्मिक मामलों में सर्वोच्च निर्णायक बन गया। महजरनामा का प्रारूप शेख़ मुबारक द्वारा तैयार किया गया था। उलेमाओं ने अकबर को ‘इमामे-आदिल’ घोषित कर विवादास्पद क़ानूनी मामले पर आवश्यकतानुसार निर्णय का अधिकार दिया।
  • तृतीय काल (1582-1605 ई.) - इस काल में अकबर पूर्णरूपेण 'दीन-ए-इलाही' में अनुरक्त हो गया। इस्लाम धर्म में उसकी निष्ठा कम हो गयी। हर रविवार की संध्या को इबादतखाने में विभिन्न धर्मों के लोग एकत्र होकर धार्मिक विषयों पर वाद-विवाद किया करते थे। इबादतखाने के प्रारम्भिक दिनों में शेख़, पीर, उलेमा ही यहाँ धार्मिक वार्ता हेतु उपस्थित होते थे, परन्तु कालान्तर में अन्य धर्मों के लोग जैसे ईसाई, जरथुस्ट्रवादी, हिन्दू, जैन, बौद्ध, फ़ारसी, सूफ़ी आदि को इबादतखाने में अपने-अपने धर्म के पत्र को प्रस्तुत करने के लिए आमंत्रित किया गया। इबादतखाने में होने वाले धार्मिक वाद विवादों में अबुल फ़ज़ल की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती थी।
हमज़ानामा

दीन-ए-इलाही

सभी धर्मों के सार संग्रह के रूप में अकबर ने 1582 ई. में दीन-ए-इलाही (तौहीद-ए-इलाही) या दैवी एकेश्वरवाद नामक धर्म का प्रवर्तन किया तथा उसे राजकीय धर्म घोषित कर दिया। इस धर्म का प्रधान पुरोहित अबुल फ़ज़ल था। इस धर्म में दीक्षा प्राप्त करने वाला व्यक्ति अपनी पगड़ी एवं सिर को सम्राट अकबर के चरणों में रखता था। सम्राट उसे उठाकर उसके सिर पर पुन: पगड़ी रखकर ‘शस्त’ (अपना स्वरूप) प्रदान करता था, जिस पर ‘अल्ला हो अकबर’ खुदा रहता था। इस मत के अनुयायी को अपने जीवित रहने के समय ही श्राद्ध भोज देना होता था। माँस खाने पर प्रतिबन्ध था एवं वृद्ध महिला तथा कम उम्र की लड़कियों से विवाह करने पर पूर्णत: रोक थी। महत्त्वपूर्ण हिन्दू राजाओं में बीरबल ने इस धर्म को स्वीकार किया था। इतिहासकार स्मिथ ने दीन-ए-इलाही पर उदगार व्यक्त करते हुए कहा है कि, ‘यह उसकी साम्राज्यवादी भावनाओं का शिशु व उसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का एक धार्मिक जामा है।’ स्मिथ ने यह भी लिखा है कि, ‘दीन-ए-इलाही’ अकबर के अहंकार एवं निरंकुशता की भावना की उपज थी। 1583 ई. में एक नया कैलेण्डर इलाही संवत् शुरू किया। अकबर पर इस्लाम धर्म के बाद सबसे अधिक प्रभाव हिन्दू धर्म का था।

कला और साहित्य में योगदान

  • सोलहवीं शताब्दी के मध्य में भारत मुसव्वरखानों की हालत बिखरी हुई थी। चाहे कई पुस्तकें बंगाल, मांडू और गोलकुण्डा के कलाकारों के हाथों चित्रित हुई थीं।
  • राजपूत दरबार में संस्कृत और हिन्दी की कई पाण्डुलिपियाँ चित्रित हुई थीं और जैन चित्र उसी तरह गुजरात और राजस्थान में बन रहे थे। उस समय बादशाह अकबर ने कलाकारों के लिए बहुत बड़ा स्थान तैयार करवाया और कलाकार दूर-दूर से आगरा आने लगे, भारत की राजधानी में।
  • अकबर के इस बहुत बड़े तस्वीरखाना में से जो पहली किताब तैयार हुई वह थी—तोतीनामा।
  • अकबर की सरपरस्ती में जो बहुत बड़ा काम हुआ, वह था—हमज़ानामा। यह हज़रत मुहम्मद के चाचा अमीरहमज़ा के जंगी कारनामों की दास्तान है जो चौदह जिल्दों में तरतीब दी गयी। हर जिल्द में एक सौ चित्र थे। यह सूती कपड़े के टुकड़ों पर चित्रित की गई थी और इसे मुकम्मल सूरत देते हुए पन्द्रह बरस लगे।
  • जरीन-कलम़ का अर्थ है सुनहरी कलम। यह एक किताब थी जो अकबर बादशाह ने कैलीग्राफी़ के माहिर एक कलाकार मुहम्मद हुसैन अल कश्मीरी को दी गई थी।
  • अम्बरी क़लम़ भी एक किताब थी जो अकबर ने अब्दुल रहीम को दी थी। महाभारत, रामायण, हरिवंश, योगवाशिष्ठ और अथर्ववेद जैसे कई ग्रंथों का फ़ारसी से अनुवाद भी बादशाह अकबर ने कराया था।
  • रज़म-नामा महाभारत फ़ारसी अनुवाद का नाम है जिसका अनुवाद विद्वान ब्राह्मणों की मदद से बदायूँनी जैसे इतिहासकारों ने किया था, 1582 में और उसे फ़ारसी के शायर फ़ैज़ी ने शायराना जुबान दी थी।
  • राज कुँवर किसी हिन्दू कहानी को लेकर फ़ारसी में लिखी हुई किताब है जिसके लेखक ने गुमनाम रहना पसंद किया था। इसकी इक्यावन पेण्टिंग सलीम के इलाहाबाद वाले तस्वीर खाने में तैयार हुई थीं।[1]

अबुल फ़ज़ल का वर्गीकरण

अबुल फ़ज़ल ने अरस्तु द्वारा उल्लिखित 4 तत्वों आग, वायु, जल, भूमि को सम्राट अकबर की शरीर रचना में समावेश माना। अबुल फ़ज़ल ने योद्धाओं की तुलना अग्नि से, शिल्पकारों एवं व्यापारियों की तुलना वायु से, विद्वानों की तुलना पानी से एवं किसानों की तुलना भूमि से की। शाही कर्मचारियों का वर्गीकरण करते हुए अबुल फ़ज़ल ने उमरा वर्ग की अग्नि से, राजस्व अधिकारियों की वायु से, विधि वेत्ता, धार्मिक अधिकारी, ज्योतिषी, कवि एवं दार्शनिक की पानी से एवं बादशाह के व्यक्तिगत सेवकों की तुलना भूमि से की है। अबुल फ़ज़ल ने आइने अकबरी में लिखा है कि, ‘बादशाहत एक ऐसी किरण है, जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करने में सक्षम है।’ इसे समसामयिक भाषा में फर्रे-इजदी कहा गया है। सूफ़ी मत में अपनी आस्था जताते हुए अकबर ने चिश्ती सम्प्रदाय को आश्रय दिया। अकबर ने सभी धर्मों के प्रति अपनी सहिष्णुता की भावना के कारण अपने शासनकाल में आगरा एवं लाहौर में ईसाईयों को गिरिजाघर बनवाने की अनुमति प्रदान की। अकबर ने जैन धर्म के जैनाचार्य हरिविजय सूरि को जगत गुरु की उपाधि प्रदान की। खरतर-गच्छ सम्प्रदाय के जैनाचार्य जिनचन्द्र सूरि को अकबर ने 200 बीघा भूमि जीवन निर्वाह हेतु प्रदान की। सम्राट पारसी त्यौहार एवं संवत् में विश्वास करता था। अकबर पर सर्वाधिक प्रभाव हिन्दू धर्म का पड़ा। अकबर ने बल्लभाचार्य के पुत्र विट्ठलनाथ को गोकुल और जैतपुरा की जागीर प्रदान की। अकबर ने सिक्ख गुरु रामदास को 500 बीघा भूमि प्रदान की। इसमें एक प्राकृतिक तालाब था। बाद में यहीं पर अमृतसर नगर बसाया गया और स्वर्ण मन्दिर का निर्माण हुआ।

  1. अक्षरों की रासलीला (हिन्दी) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 30 अप्रॅल, 2010