डेविड ह्यूम

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डेविड ह्यूम

डेविड ह्यूम (जन्म: 1711 - मृत्यु: 1776) स्कॉटलैंड के महान् दार्शनिक थे। डेविड ह्यूम का जन्म 1711 में हुआ और उसकी मृत्यु 1776 में हुई। सन 1723 से 1727 तक एडिनबरा विश्वविद्यालय में उसने शिक्षा पाई, किन्तु वहाँ से उसने कोई उपाधि नहीं ली। दर्शन के क्षेत्र में ज्ञान, सत्ता, नीति एवं धर्म के विषय में उसके विचार अत्यधिक महत्त्व रखते हैं और उनका प्रभाव आज के दर्शन पर बहुत है।

डेविड ह्यूम के सिद्धांत

डेविड ह्यूम के समय में एक प्रचलित धारणा यह थी कि ज्ञान दो प्रकार का होता है- साधारण और असाधारण। साधारण व्यक्तियों को साधारण तरीकों से होने वाले ज्ञान, अनुभव और प्रयोगों द्वारा मिलने वाले आम ज्ञान और उसके विकसित रूप विज्ञान को साधारण ज्ञान के अंतर्गत रखा जाता है। इसे निम्नकोटि का ज्ञान समझा जाता था। उसके विपरीत, बुद्धि से मिलने वाले ज्ञान को श्रेष्ठ तथा असाधारण ज्ञान माना जाता था। लोगों का विश्वास था कि बुद्धि एक प्रकार की दैवी शक्ति है और इससे मिला ज्ञान विश्व की अंतिम व्याख्या प्रस्तुत करता है, ऐसी व्याख्या जो असंदिग्ध होती है और कभी ग़लत नहीं सिद्ध हो सकती। डेविड ह्यूम के अनुसार ज्ञान के इस द्वैत में विश्वास निराधार ही नहीं बल्कि हानिकारक भी है, क्योंकि इससे अहंकार और हठ उत्पन्न होता है। इसके अतिरिक्त डेविड ह्यूम के अनुसार यह जानने के लिए कि किस प्रकार का ज्ञान मनुष्य के लिए सम्भव है, ज्ञानोपार्जन की शक्ति, ज्ञान की सीमा तथा अवबोध की योग्यता आदि की परीक्षा अपेक्षित है। बोधशक्ति का ही प्रयोग गणित, भौतिकी, मनोविज्ञान आदि विषयों में होता है। इसलिए बोध शक्ति की परीक्षा सबके लिए आधारिक है। अपनी दार्शनिक प्रणाली को डेविड ह्यूम प्रायोगिक कहते हैं, जिसका यह अर्थ यह है कि उसके निष्कर्षों की सत्यता की परीक्षा कोई भी अपने अनुभवों द्वारा कर सकता है।

ज्ञान मीमांसा

ह्यूम की ज्ञान मीमांसा इंद्रियानुभववादी है। वह मानता है कि ज्ञान के दो मूल घटक हैं- इंद्रियानुभव और (सरल) प्रत्यय। प्रत्यय इंद्रियानुभव से उत्पन्न उनकी नकल की तरह होते हैं और उनसे कम स्पष्ट, दुर्बल तथा धूमिल होते हैं। बिना किसी इंद्रियानुभव के कोई भी प्रत्यय नहीं उत्पन्न हो सकता। जिसे हम प्रत्यय समझते हैं, उसके मूल में यदि किसी इंद्रियानुभव का होना असिद्ध हो जाये तो हमें उसे प्रत्यय नहीं बल्कि धोखा या छलना मात्र कहना चाहिए।

इंद्रियानुभव

इंद्रियानुभव में सभी प्रकार की अनुभूतियाँ समाविष्ट हैं, जैसे संवेदन, भावनाएं, आवेग, आंतरिक प्रत्यक्ष, इत्यादि। पहले हमें प्रत्यक्षानुभव होता है और उसके बाद हमारी कल्पना या स्मृति में उसकी अनुकृति के अंकित हो जाने से प्रत्यय उत्पन्न हो जाते हैं। पहले हमें मिठास का अनुभव होता है और उसके बाद मिठास के प्रत्यय का उदय होता है, इसीलिए मिठास का प्रत्यय उसके अनुभव स्वभावत: दुर्बल या धूमिल होता है। चूंकि सभी प्रत्यय अनुभव प्रसूत है। इसीलिए किसी को भी जन्मजात नहीं कहा जा सकता। हमारी प्रवृत्ति ही ऐसी है कि बिना प्रत्यक्षानुभव के हम कोई प्रत्यय नहीं बना सकते। किसी आनुभविक पद के अर्थ को हम तभी समझ सकते हैं, जब उससे व्यक्त प्रत्यय को अपने किसी प्रत्यक्षानुभव से संबोधित कर पाते हैं। अनुभव इंद्रियों से या मन से होता है। इंद्रियों से बाह्य वस्तुओं का होता है और मन से मनोविकारों का। कोई अतींद्रिय अनुभव हमें नहीं होता। अनुभव से स्वतंत्र कल्पना भी नहीं है, क्योंकि उसका भी नियंत्रण हमारा अनुभव करता है।

सरल प्रत्यय

सरल प्रत्ययों में कोई आपसी अनिवार्य सम्बन्ध नहीं होते, वे एक दूसरे से तत्वत: स्वतंत्र होते हैं। एक से दूसरे को निगमित नहीं किया जा सकता। उनमें सम्बन्ध होते हैं, किन्तु वे मात्र साहचर्य के तथ्यात्मक सम्बन्ध होते हैं। सरल प्रत्ययों के मूलत: अलग अलग होने पर भी उनके संधात समूह बनते हैं। हमारा मन कई स्वतंत्र प्रत्ययों को एक साथ सजा कर उनसे संश्लिष्ट प्रत्ययों को बनाता है। प्रत्ययों के समूह कुछ नियमों से नियंत्रित होते हैं। कुछ ही प्रत्यय कुछ अन्य प्रत्ययों के साथ हो सकते हैं, उनसे मिलकर समूह बनाकर एक नए संश्लिष्ट प्रत्यय को जन्म दे सकते हैं। प्रत्ययों के इस प्रकार आपस में मिलने के नियमों को साहचर्य नियम कहते हैं। ये हैं- सादृश्य, दशिंक कालिक सामीप्य (सन्निधि) और कार्यकरण भाव। समान वस्तुओं के प्रत्यय, दिक् या काल में एक साथ विद्यमान वस्तुओं या घटित होने वाली घटनाओं के प्रत्यय, या कारणता सम्बन्ध के द्वारा सम्बन्धित वस्तुओं या घटनाओं के प्रत्यय एक दूसरे के साथ हो लेते हैं। अनुभववादी दर्शन में अमूर्त प्रत्ययों की समस्या कठिन होती है। अमूर्त प्रत्यय सामान्य होता है और कई वस्तुओं के विषय में एक साथ लागू होता है, जैसे 'गोत्व' (गाय होने का) प्रत्यय। 'गोत्व' के द्वारा किसी गाय विशेष का नहीं बल्कि गाय जाति का बोध होता है। ह्यूम के अनुसार वस्तुत: कोई भी प्रत्यय अमूर्त या सामान्य नहीं होता। सभी प्रत्यय विशिष्टों के होते हैं। जब कई वस्तुओं में कुछ समानता होती है, तब हम उनके लिए एक ही पद, जैसे 'गाय' का, सब गायों के लिए करने लगते हैं। एक ही पद से अनेक वस्तुओं का बोध करने की आदत से हमें लगता है कि 'गोत्व' का प्रत्यय सामान्य है, जबकि 'गाय' पद के सिवा कोई ऐसा प्रत्यय वस्तुत: नहीं है। ऐसे मत को नागवाद कहते हैं।

पदों के अर्थ उनसे सूचित प्रत्यय होते हैं। 'लाल' शब्द का अर्थ उसके द्वारा व्यक्त या बोधित प्रत्यय है। यदि किसी पद से किसी भी प्रत्यय का बोध नहीं होता है तो वह निरर्थक है। जब हम किसी पद का किसी विशेष अर्थ में काफ़ी अरसे तक व्यवहार करते रहते हैं, तब उसे उसी रूप में व्यवहृत करने की आदत बन जाती है। इन्हीं आदतों से भाषीय परम्पराएं उत्पन्न होती हैं। इन आदतों या भाषीय परम्पराओं के चलते किसी पद से व्यक्त प्रत्यय का बिना ध्यान किए भी हम उसका सार्थक व्यवहार कर सकते हैं। जब कभी यह समस्या उठे कि कोई पद अर्थवान् है या नहीं, तब हमें यह निश्चित करना चाहिए कि उससे व्यक्त कोई प्रत्यय है या नहीं और प्रत्ययों के विषय में प्रश्न उठने पर उनके जनक प्रत्यक्षानुभवों की खोज करनी चाहिए। इसीलिए अंतत: भाषीय विवादों को भी प्रत्यक्षानुभवों के आधार पर ही सुलझाया जा सकता है, क्योंकि भाषीय अर्थ का मूल आधार वे ही हैं। ह्यूम का यही मत वर्तमान शताब्दी के तार्किक अनुभव वादियों के सत्यापन सिद्धांत का पूर्वज है।

बोध शक्ति
डेविड ह्यूम

ह्यूम के अनुसार हमारी ज्ञान शक्ति या बोध शक्ति की सीमा अनुभव की सीमा है। बुद्धि किसी मूल या सरल प्रत्यय को अपने अंदर से उत्पन्न नहीं कर सकती, वह केवल अनुभवदत्त प्रत्ययों का विश्लेषण, संश्लेषण, उनकी तुलना मात्र ही कर सकती है। हमारा ज्ञान प्रत्ययात्मक होता है या तथ्यात्मक। प्रत्ययात्मक ज्ञान के विषय प्रत्ययों के सम्बन्ध होते हैं और तथ्यात्मक ज्ञान के विषय तथ्य और उनके सम्बन्ध। तर्क शास्त्र और गणित प्रत्ययों के सम्बन्धों का ज्ञान देते हैं और मनोविज्ञान, भौतिकी आदि आनुभविक विज्ञान तथ्यों का ज्ञान। पहले प्रकार का ज्ञान बौद्धिक विश्लेषण मात्र से प्राप्त होता है, जबकि दूसरे प्रकार का ज्ञान अनुभव से ही प्राप्त हो सकता है। प्रत्ययात्मक अर्थात् बौद्धिक ज्ञान निश्चयात्मक एवं अनिवार्य होता है, जबकि तथ्यात्मक अर्थात् आनुभविक ज्ञान आपतिक होता है। ज्ञान के इस विश्लेषण के आधार पर ही ह्यूम तत्वमीमांसीय अथवा धर्म सम्बन्धी उक्तियों को ज्ञान की कोटी में नहीं रखते, चूंकि ज्ञान के उपर्युक्त दो ही प्रकार हैं, इसीलिए ऐसे कथन को, जिससे प्रत्ययात्मक या तथ्यात्मक ज्ञान नहीं मिलता, कोई महत्त्व नहीं दिया जा सकता है। धर्म और तत्वमीमांसा की अधिकांश पुस्तकं ऐसी ही हैं

आनुभविक ज्ञान

आनुभविक ज्ञान प्रत्यक्षानुभव से आरम्भ होकर उससे बहुत आगे तक जाता है। इस तरह ज्ञान का आधार है अनुभव, जो कार्यकरण सम्बन्ध पर आश्रित है। किसी भी अनुभूत तथ्य से किसी भी अननुमूत तथ्य को अनुमित करना आनुभविक अनुमान कहा जायेगा। आनुभविक अनुमान में निश्चयात्मकता नहीं होगी। आनुभविक अनुमान का आधार कार्यकारण सम्बन्ध है। कारण कार्य में किसी एक के अनुभूत होने पर दूसरे का, कारण से कार्य का, कार्य से कारण का, अनुमान किया जा सकता है। ह्यूम कार्य कारण सम्बन्ध को आनुभविक मानता है। यह वस्तुओं, घटनाओं के बीच का सम्बन्ध है, जिसका ज्ञान अनुभव से होता है न कि प्रत्ययों के विश्लेषण से। पानी में डालना शक्कर के घुलने का कारण है। किन्तु ऐसा हम तभी कहते हैं, जब अनेक बार बिना किसी अपवाद के पानी में शक्कर को घुलते देखते हैं, वस्तुत: कार्य कारण सम्बन्ध दो विशिष्ट पदार्थों के बीच का नहीं बल्कि दो प्रकार के पदार्थों के बीच का सम्बन्ध है।

कारणता के प्रत्यय का जनक संयोग का प्रत्यक्षानुभव है। जब हम क को ख का कारण कहते हैं तो क जैसी और ख जैसी वस्तुओं के बीच अविरत संयोग के अतिरिक्त और कोई सम्बन्ध नहीं पाते हैं। हमें लगता है कि कारणता में कोई अनिवार्यता है। किन्तु हमें किसी प्रकार की अनिवार्यता का अनुभव नहीं होता। ह्यूम का कहना है कि अनिवार्यता की यह भावना मनोवैज्ञानिक मात्र है। जब हम दो वस्तुओं में अविरत संयोग का अनुभव करते हैं, तब यह अनुभव हमारे अन्दर एक के होने पर दूसरे के होने की आशा की आदत पैदा कर देता है। इसी आदत के चलते हम समझने लगते हैं कि एक के होने पर दूसरा अवश्य ही होगा (या हुआ होगा)। हमारी यही आदत कारणता में आरोपित अनिर्वायता की जननी है।

तत्वमीमांसा

अपनी तत्वमीमांसा में भी ह्यूम एक अत्यन्त ही साहसी और संगत अनुभववादी की भूमिका अदा करता है, जो अनुभूत है, उसकी वास्तविकता वह नहीं मानता। लॉक भी मानता है कि हमें केवल गुणों का अनुभव होता है। शक्कर की मिठास, सफेदी आदि के गुण ही अनुभव होते हैं। शक्कर नाम का कोई द्रव्य नहीं। फिर भी वह अनुमान के आधार पर शक्कर द्रव्य को भी स्वीकार करता है, क्योंकि बिना द्रव्य के गुणों का अस्तित्व नहीं होता। गुणों को द्रव्य की अपेक्षा है, इसीलिए अनुभवगम्य न होने पर भी द्रव्य के अस्तित्व को मानना पड़ता है। ह्यूम इस तर्क को स्वीकार करता है। उसका कहना है कि जब हमें द्रव्य का प्रत्यक्षानुभव नहीं मिलता, तब उसकी सत्ता में विश्वास करने का कोई और औचित्य नहीं है। आंतरिक और बाह्य, दोनों में किसी प्रकार के अनुभव से द्रव्य का प्रत्यय नहीं मिलता। भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार के द्रव्य को ह्यूम अयथार्थ कहता है, क्योंकि कोई भी प्रत्यक्षानुभव इनके प्रत्ययों के जनक के रूप में हमें नहीं मिलता। न तो हमारा अंतर्निरीक्षण आत्मा जैसे किसी आंतरिक सूक्ष्म द्रव्य का प्रत्यक्षानुभव देता है, न ही कोई ऐन्द्रिय अनुभव शक्कर जैसे किसी भौतिक द्रव्य का।

कई दार्शनिक आत्मा को हमारे अनुभवों के आश्रय अनुभवकर्ता या भोक्ता के रूप में मानसिक द्रव्य मानते हैं। ह्यूम का कहना है कि एक तो ऐसे द्रव्य का कभी अनुभव नहीं होता, दूसरे इसे अनुभूत मानने में व्याघात् भी उत्पन्न होता है। जो सभी अनुभवों का आधार है, वह स्वयं कैसे अनुभूत हो सकता है। फिर आत्मा को चिरंतन, अनवच्छिन्न माना जाता है। इसलिए इस प्रत्यय के जनक प्रत्यक्षानुभव को भी वैसा ही होना चाहिए। किन्तु हमारा अन्तर्निरीक्षण बतलाता है कि ऐसा कोई प्रत्यक्षानुभव हमें कभी नहीं प्राप्त होता। यदि हमें आत्मा शब्द का प्रयोग आवश्यक लगता है तो उससे अनुभवों के संघात का समूह मात्र का ही बोध करना चाहिए। आत्मा की एकरूपता में हम प्राय: विश्वास करते हैं। किन्तु यह एकरूपता का प्रत्यय अनुभव से नहीं उत्पन्न होता। इसे ह्यूम काल्पनिक मानता है। भिन्न भिन्न समय में होने वाले अनुभवों में सादृश्य देखने पर हम कल्पना कर लेते हैं कि उनके आश्रय के रूप में कोई आत्मा नाम का अपरिवर्तनशील द्रव्य है, जो विभिन्न अनुभवों को एक धागे की तरह पिरोए हुए है। भौतिक वस्तुओं की तथाकथित एकरूपता की व्याख्या भी इस तरीके से ह्यूम करता है। बाह्य जगत् का हम प्राय: मन से स्वतंत्र, अपने अनुभवों से स्वतंत्र वस्तुओं की समष्टि समझते हैं। ह्यूम के अनुसार ऐसे बाह्य जगत् में विश्वास करने का भी कोई औचित्य नहीं है। हमें तो सिर्फ़ प्रत्यक्षानुभव होते हैं। उनसे स्वतंत्र या उनको उत्पन्न करने वाले बाह्य पदार्थों का हमें कभी अनुभव नहीं होता। बाह्य वस्तुओं में विश्वास भी आत्मा के अस्तित्व में विश्वास की तरह कल्पना की उपज है। फिर भी हमारे अन्दर यह विश्वास काफ़ी सबल रूप में विद्यमान है। हमारी प्रकृत में एक अत्यन्त ही बलवती प्रवृत्ति है, जो हमें बाह्य जगत् में विश्वास करने के लिए विवश करती है। बुद्धि इसका विरोध करती है, किन्तु यह प्रवृत्ति बुद्धि से सबल सिद्ध होती है।

नीति और धर्म

ह्यूम के नीतिशास्त्र की मुख्य समस्या नैतिक पदों के अर्थ की है। किसी चीज़ को नैतिक दृष्टि से अच्छा-बुरा कहने का क्या अर्थ है। इसके उत्तर के लिए वह आनुभविक और वैश्लेषिक प्रणाली का प्रयोग करता है। उसका कहना है कि हमें पहले तो अनुभव के आधार पर यह स्थिर करना चाहिए कि इन पदों का प्रयोग किन किन चीजों के लिए होता है और फिर बौद्धिक विश्लेषण द्वारा उनके सामान्य लक्षणों को। तभी हम कह सकते हैं कि इन पदों के प्रयोग का अर्थ यह बतलाना है कि वे वस्तुएं उन (सामान्य) गुणों से युक्त हैं।

नैतिक पदों जैसे ईमानदार, दयालु, उदार, दुष्ट, चरित्रहीन आदि का प्रयोग मनुष्य अपनी, उसकी क्रियाओं और प्रवृत्तियों के विशेषण के रूप में होता है। ह्यूम का कहना है कि सभी प्रशंसनीय नैतिक क्रियाओं या प्रवृत्तियों का सामान्य लक्षण यह है कि वे अपने कर्ता या धारक के लिए या दूसरों के लिए तत्काल सुखदायी या उपयोगी होती है। यहाँ पर चार सम्भावनाएं हैं-

  1. तत्काल सुखदायी होना
  2. उसके लिए उपयोगी होना
  3. दूसरों के लिए तत्काल सुखदायी होना
  4. दूसरों के लिए उपयोगी होना।

किसी क्रिया को नैतिक दृष्टि से प्रशंसनीय होने के लिए कम से कम चारों में से किसी एक गुण का उसमें होना ज़रूरी है और उसके निन्दनीय होने के लिए चारों के विरोधी गुणों का। यदि उसमें चारों का अभाव मात्र है तो वह न तो प्रशंसनीय होता है, न निन्दनीय। ह्यूम तो मानता है कि उपयोगी या सुखद होना किसी भी मूल्यवान वस्तु का लक्षण है। चाहे वे नैतिक या अनैतिक दृष्टि से मूल्यवान कही जाए। ह्यूम नैतिक और अनैतिक दृष्टियों से आंके गए मूल्यों में भेद, मिलने वाले सुख या उपयोगिता की भिन्नता के आधार पर करता है।

स्वहितवाद का खंडन भी ह्यूम अनुभव के आधार पर करता है। ह्यूम के अनुसार दूसरों के सुख के लिए इच्छा का हमारे अन्दर होना उतना ही सत्य है, जितना अपने सुख के लिए इच्छा का होना। इसीलिए यह कहना (जो स्वहितवाद को मानता है) कि हर मनुष्य केवल अपना ही सुख चाहता है, तथ्यत: ग़लत है।

नैतिक निर्णयों के स्वरूप के विषय में ह्यूम का कहना है कि वे तथ्यात्मक नहीं होते, न उन्हें तथ्यात्मक वाक्यों से निगमित ही किया जा सकता है, क्योंकि तथ्यात्मक वाक्य वर्णानात्मक होते हैं, मूल्यात्मक नहीं। नैतिक निर्णय किसी तथ्य का वर्णन मात्र नहीं करते, बल्कि कर्तव्य, चाहिए, शुभ-अशुभ, आदि की भावना को भी व्यक्त करते हैं। नैतिक निर्णय बुद्धि नहीं बनाती। बुद्धि तो केवल सम्बन्धित तथ्यों का विश्लेषण भर कर देती है। किसी वस्तु का मूल्यांकन करना, यह कहना कि वह अच्छी या बुरी है, भावना का काम है, बुद्धि का नहीं। बुद्धि हमें प्रेरित नहीं कर सकती, वह केवल तथ्यों के हमारे ज्ञान को सुस्पष्ट कर देती है। हमारी क्रियाओं के लिए प्रेरणा तो भावना से ही मिलती है।

कार्यकारण भाव

कार्यकारण भाव को मानते हुए ह्यूम कहता है कि इसका संकल्प-स्वातंत्रय से कोई विरोध नहीं है। कार्यकारण सम्बन्ध केवल अविरत संयोग का सम्बन्ध है, अनिवार्यता नहीं। इसको मानव क्रियाओं पर लागू करने का यही परिणाम होता है कि हम उनके विषय में अनुमान कर सकते हैं कि उनके क्या कारण या कार्य हो सकते हैं। हम यह नहीं कह सकते कि क्रियाओं को करना ही सम्भव नहीं है। बल्कि यदि हम ईश्वर को सर्वशक्तिमान मान लेते हैं तो नैतिक मूल्यांकन असम्भव हो जाएगा। उस हालत में सब कुछ ईश्वर की इच्छा से ही होगा, और किसी मनुष्य को उसके कृत्यों के लिए उत्तरदायी नहीं कहा जा सकेगा। किन्तु चूंकि नैतिक मूल्यांकन होते हैं, इसीलिए इससे यह निगमित होता है कि सर्वशक्तिमान ईश्वर को सत्य नहीं मान सकते। ईश्वर को विश्व का आदि कारण, पूजा का विषय, सर्वशक्तिमान पूर्णत: शुभ माना जाता है। उसके लिए कई तर्क दिये जाते हैं। एक तर्क यह है कि उसकी सत्ता उसके प्रत्यय से निकृष्ट है। वह पूर्ण है और पूर्ण होने के लिए सत्तावान होना ज़रूरी है। यह तर्क ग़लत है, क्योंकि सत्ता का अनुभव प्रत्यय से ही नहीं बल्कि अनुभव के आधार पर, कार्यकारण के आधार पर ही हो सकता है। कभी भी हमें विश्व जैसे पदार्थ का कारण ईश्वर जैसे पदार्थ के होने का अनुभव नहीं होता। इसलिए कार्यकारण सम्बन्ध के आधार पर ईश्वर को प्रभावित नहीं किया जा सकता। ईश्वर और विश्व दोनों ही अद्वितीय हैं। इसीलिए दोनों में कार्यकारण सम्बन्ध का आरोप करना ग़लत है। दु:ख अशुभ के अस्तित्व से भी ईश्वर का अस्तित्व असिद्ध होता है। यदि ईश्वर दु:ख का कारण है तो वह शुभ नहीं है और यदि कारण नहीं है तो वह सर्वशक्तिमान नहीं है। ह्यूम का कहना है कि ईश्वर में विश्वास यद्यपि बौद्धिक दृष्टि से औचित्यपूर्ण नहीं है तथापि भावना हमें उसे मानने के लिए प्रेरित करती है और हम उससे शान्ति पाते हैं।

ह्यूम अपने को संशयवादी कहता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि वह हर प्रकार के ज्ञान की सम्भावना को अस्वीकार करता है बल्कि यह कि हमारी मानसिक शक्तियाँ इस प्रकार की हैं कि हम अनुभव की सीमा के बाहर नहीं जा सकते।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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  1. प्रसाद, डॉ. राजेन्द्र विश्व के प्रमुख दार्शनिक (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग, नई दिल्ली, 689।

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