अबूबक्र खलीफा
अबूबक्र | एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- अबूबक्र (बहुविकल्पी) |
अबू बक्र उस्मान के पुत्र जिनके उपनाम 'सिक और अतीक' भी थे। सुन्नी मुसलमान इनको चार प्रमुख पवित्र खलीफाओं में अग्रणी मानतें हैं। ये पैगंबर मुहम्मद के प्रारंभिक अनुयायियों में से थे और इनकी पुत्री आयशा पैगंबर की चहेती पत्नी थी। उन्होंने 40,000 दिरहम की पूँजी से व्यापार आरंभ किया था जो उस समय घटकर 5000 दिरहम रह गई थी जब उन्होंने पैगंबर के साथ मदीना को प्रस्थान किया। पैगंबर की मृत्यु (जून,8,632 ई.) के पश्चात् मदीना के आदिवासियों ने एक सभा में लंबे विवाद के पश्चात् अबू बक्र को पैगंबर का खलीफा (उत्तराधिकारी) स्वीकार किया। ये उस समय 60 वर्ष के, इकहरे शरीर, किंतु प्रबल साहस और शक्तिवाले विनम्र व्यक्ति थे। उन्हें देखकर गुमान भी नहीं होता था कि वह अपनी दो वर्ष और तीन मास की खिलाफत की छोटी सी अवधि में इस्लाम के सबसे बड़े खतरों से बचा सकेंगे।[1]
पैगंबर की मृत्यु होते ही मक्का, मदीना और ताइफ़ नामक तीन नगरों के अतिरिक्त समस्त अरब प्रदेश इस्लाम विमुख हो गया। पैगंबर द्वारा लगाए गए करों और नियुक्त किए गए कर्मचारियों का लोगों ने बहिष्कार कर दिया। तीन अप्रामाणिक पुरुष पैगंबर तथा एक अप्रामाणिक स्त्री पैगंबर अपना पृथक् प्रचार करने लगे। अपने घनिष्ठतम मित्रों के परामर्श के विरुद्ध अबू बक्र ने विद्रोही आदिवासियों से समझौता नहीं किया। 11 सैनिक दस्तों की सहायता से उन्होंने समस्त अरब प्रदेश को एक वर्ष में नियंत्रित किया। मुसलमान न्यायपंडितों ने धर्मपरिवर्तन के अपराध के लिए मृत्युदंड निश्चित किया, किंतु अबू बक्र ने उन सब जातियों को क्षमा कर दिया जिन्होंने इस्लाम और उसकी केंद्रीय शक्ति को पुन: स्वीकार कर लिया।
पदारोहण के एक वर्ष के भीतर ही अबू बक्र ने खालिद (पुत्र वलीद) को, जो संसार के सर्वोत्तम सेनापतियों में से था, आज्ञा दी कि वह मुसन्ना नामक सेनापति के साथ 18,000 सैनिक लेकर इराक पर चढ़ाई करे। इस सेना ने ईरानी शक्ति को अनेक लड़ाइयों में नष्ट करके बाबुल तक, जो ईरानी साम्राज्य की राजधानी मदाइन के निकट था, अपना आधिपत्य स्थापित किया। इसके बाद खालिद ने अबू बक्र के आज्ञानुसार इराक से सीरिया की ओर कूच किया और वहाँ मरुस्थल को पार करके वह 30,000 अरब सैनिकों से जा मिला और 1,00,000 बिजंतीनी सेना को फिलस्तीन के अजन दैइन नामक स्थान पर परास्त किया (31 जुलाई, 634 ई.)। कुछ ही दिनों बाद अबू बक्र का देहांत हो गया (23 अगस्त, 624)।
शासनव्यवस्था में अबू बक्र ने पैगंबर द्वारा प्रतिपादित गरीबी और आसानी के सिद्धांतो का अनुकरण किया। उनका कोई सचिवालय और नाजकीय कोष नहीं था। कर प्राप्त होते ही व्यय कर दिया जाता था। वह 5,000 दिरहम सालाना स्वयं लिया करते थे, किंतु अपनी मृत्यु से पूर्व उन्होंने इस धन को भी अपनी निजी संपत्ति बेचकर वापस कर दिया।[2]