रामा राघोबा राणे
रामा राघोबा राणे
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पूरा नाम | सेकेंड लेफ़्टिनेंट रामा राघोबा राणे |
जन्म | 26 जून, 1918 |
जन्म भूमि | हवेली गाँव, धारवाड़ ज़िला, कर्नाटक |
मृत्यु | 11 जुलाई, 1994 (आयु- 76) |
स्थान | पुणे, महाराष्ट्र |
सेना | भारतीय थल सेना |
रैंक | मेजर |
यूनिट | बॉम्बे इंजीनियर्स |
सेवा काल | 1940–1968 (28 वर्ष) |
युद्ध | भारत-पाकिस्तान युद्ध (1947) |
सम्मान | परमवीर चक्र (1948) |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | यह बाम्बे इंजीनियर्स से जुड़े हुए थे और इन्हें राजौरी को फिर से फ़तह करने के सम्बन्ध में याद किया जाता है। |
सेकेंड लेफ़्टिनेंट रामा राघोबा राणे (अंग्रेज़ी: Second Lieutenant Rama Raghoba Rane, जन्म: 26 जून, 1918 - मृत्यु: 11 जुलाई, 1994) परमवीर चक्र से सम्मानित भारतीय सैनिक हैं। इन्हें यह सम्मान सन् 1948 में मिला था।
जीवन परिचय
राघोबा राणे का जन्म 26 जून 1918 को धारवाड़ ज़िले के हवेली गाँव में हुआ था। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा, पिता के एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानांतरण (ट्रांसफ़र) के कारण बिखरी-बिखरी सी हुई। तभी 1930 में असहयोग आन्दोलन शुरू हुआ जिससे राघोबा राणे बेहद प्रभावित हुए और ऐसा लगा कि वह इस आन्दोलन में सब कुछ छोड़कर कूद पड़ेंगे। लेकिन इस स्थिति के आने के पहले ही इनके पिता अपने परिवार सहित अपने पैतृक गाँव चेंडिया आ गए।
भारतीय सेना में भर्ती
1940 में दूसरा विश्व युद्ध तेज़ी पर था। राघोबा के भीतर भी कुछ जोश भरा जीवन जीने की चाह थी तो उन्होंने भारतीय सेना में जाने का मन बनाया। उनकी इच्छा रंग लाई और 10 जुलाई 1940 को वह बॉम्बे इंजीनियर्स में आ गए। वहाँ इनके उत्साह और दक्षता ने इनके लिए बेहतर मौक़े पैदा किए। यह अपने बैच के 'सर्वोत्तम रिक्रूट' चुने गए। इस पर इन्हें पदोन्नत करके नायक बना दिया गया तथा इन्हें कमांडेंट की छड़ी प्रदान की गई। ट्रेनिंग के बाद राघोबा 26 इंफेंट्री डिवीजन की 28 फील्ड कम्पनी में आ गए। यह कम्पनी बर्मा में जापानियों से लड़ रही थी। बर्मा से लौटते समय राघोषा राणे को दो टुकड़ियों के साथ ही रोक लिया गया और उन्हें यह काम सौंपा गया कि वह बुथिडांग में दुश्मन के गोला बारूद के जखीरे को नष्ट करें और उनकी गाड़ियों को बरबाद कर दें। राघोबा और उनके साथी इस काम को करने में कामयाब हो गए। योजना थी कि इसके बार नेवी के जहाज इन्हें लेकर आगे जाएंगे। दुर्भाग्य से यह योजना सफल नहीं हो पाई और उन लोगों को नदी खुद पार करनी पड़ी। यह एक जोखिम भरा काम था क्योंकि उस नदी पर जापान की जबरदस्त गश्त और चौकसी लगी हुई थी। इसके बावजूद राघोबा और उनके साथी, जापानी दुश्मनों की नज़र से बचते हुए उनको मात देते हुए इस पार आए और इन लोगों ने बाहरी बाज़ार में अपने डिवीजन के पास अपनी हाजिरी दर्ज की। यह एक बेहद हिम्मत तथा सूझबूझ का काम था, जिसके लिए इन्हें तुरंत हवलदार बना दिया गया।
सेकेंड लेफ़्टिनेंट
इसके बाद रामा राघोबा राणे लगातार सेना को अपनी बहादुरी, अपनी नेतृत्व क्षमता तथा अपने चरित्र से प्रभावित करते रहे जिसके फलस्वरूप इन्हें सेकेंड लेफ़्टिनेंट के रूप में कमीशंड ऑफिसर बनाकर जम्मू कश्मीर के मोर्चे पर तैनात कर दिया गया। पाकिस्तान के जवाबी हमले को नाकाम करते हुए नौशेरा की फ़तह के बाद भारतीय सेना ने अपनी नीति में परिवर्तन किया और यह तय किया कि वह केवल रक्षात्मक युद्ध नहीं लड़ेगी बल्कि खुद भी आक्रामक होकर मोर्चे जीतेगी और इसी से दुश्मन का मनोबल टूटेगा। इस क्रम में सबसे पहले 18 मार्च 1948 को 50 पैराब्रिगेड तथा 19 इंफेंट्री ब्रिगेड ने झांगार पर दुबारा जीत हासिल की थी। उसके बाद भारतीय सेना अपनी इसी नीति पर डटी रही थी। इसके बाद यह निर्णय हुआ था कि दुश्मन पर दबाव बनाए रखते हुए बारवाली रिज, चिंगास तथा राजौरी पर क़ब्ज़ा जमाया जाय। इस काम के लिए नौशेरा-राजारी मार्ग का साफ़ होना बहुत ज़रूरी था। एक तो भौगोलिक रूप से यहाँ रास्ता पहाड़ी रास्तों की तरह संकरा तथा पथरीला था, दूसरे इस पर दुश्मन ने बहुत सी ज़मीनी सुरंगें भी बना रखीं थीं। कूच करने के पहले ज़रूरी था कि उन सुरंगों को नाकाम करके, सभी तरह के अवरोध वहाँ से हटा दिए जाएँ।
अदम्य साहस का प्रदर्शन
8 अप्रैल 1948 को ऐसे ही एक मोर्चे पर सेकेंड लेफ़्टिनेंट रामा राघोबा राणे को अपना पराक्रम दिखाने का मौका मिला। 8 अप्रैल 1948 को यह काम बॉम्बे इंजीनियर्स के इन्हीं सेकेंड लेफ़्टिनेंट रामा राघोबा राणे को सौंपा गया। दिन में काम शुरू हुआ और शाम तक रिज को फ़तह कर लिया गया। दुश्मन ने इस हार पर अपना जवाबी हमला किया लेकिन उसे नाकाम कर दिया गया। इस सफलता के लिए रामा राघोबा की विशेष बहादुरी का ज़िक्र किया जा सकता है। 8 अप्रैल से ही, जैसे ही रामा राघोबा को काम शुरू करना था, दुश्मन की भारी गोलाबारी तथा बमबारी शुरू हो गई थी। इस शुरुआती दौर में ही रामा राघोबा के दो जवान मारे गए और पाँच घायल हो गए। घायलों में रामा राघोबा स्वयं भी थे। इसके बावजूद रामा राघोबा अपने टैंक के पास से हटे नहीं और दुश्मन की मशीनगन तथा मोर्टार का सामना करते रहे। रिज जो जीत भले ही लिया गया था, लेकिन राघोबा को पूरा एहसास था कि दुश्मन वहाँ से पूरी तरह साफ़ नहीं हुआ है। इसके बावजूद, रामा ने अपने दल को एकजुट किया और घुमाव बनाते हुए अपने टैंकों के साथ वह आगे चल पड़े। रात दस बजे वह एक-एक ज़मीनी सुरंग साफ़ करते हुए आगे बढ़ते रहे, जबकि दुश्मन की तरफ से मशीनगन लगातार गोलियों की बौछार कर रही थी।
बहादुरी और चतुराई का प्रदर्शन
अगले दिन 9 अप्रैल को फिर एकदम सुबह से ही काम शुरू हो गया जो शाम तीन बजे तक चलता रहा। इस बीच एक घुमावदार रास्ता तैयार था, जो सुरक्षित था और इससे टैंक आगे जा सकते थे। जैसे-जैसे सशस्त्र दल आगे बढ़ा, रामा राघोबा अगली पंक्ति में उनकी अगुवाई करते चले। रास्ते में फिर एक अवरोध चीड़ के पेड़ को गिरा कर बनाया गया था। राघोबा फुर्ती से अपने टैंक से कूद कर नीचे आए और पेड़ को धमाके से उड़ाकर उन्होंने रास्ता साफ़ कर लिया। क़रीब तीन सौ गज़ आगे फिर वहीं नज़ारा था। उस समय शाम ढल रही थी और रास्ता ज़्यादा घुमावदार होता जा रहा था। अगली बाधा एक उड़ा दी गई पुलिया ने खड़ी की थी। राघोबा अपने दल के साथ इसे भी दूर करने तत्परता से जुट गए। तभी यकायक दुश्मन ने मशीनगन से गोलियाँ चलानी शुरू कर दीं लेकिन यहाँ भी राघोबा ने बेहद चतुराई से अपना रास्ता दूसरी तरफ से काटा और निर्बाध आगे बढ़ गए। इस तरह सशस्त्र सेना ने न जाने कितने मार्ग अवरोधों का सामना किया और सभी को रामा राघोबा के दल ने बहादुरी और चतुराई से निपटा डाला।
शाम सवा छह का समय हो रहा था। रोशनी तेज़ी से घट रही थी और सामने एक बड़ी बाधा मुँह बाए खड़ी थी। चीड़ के पाँच बड़े पेड़ों के सहारे मार्ग अवरोध बनाया गया था। उसके नीचे ज़मीनी सुरंगे थीं, जिसमें बारूदी विस्फोट का पूरा सामान था और उसके दोनों ओर से मशीनगर की लगातार गोलाबारी थी जिससे इस अवरोध को दूर कर पाना सरल नहीं लग रहा था। रामा राघोबा इस बाधा को भी हटाने के लिए तत्पर थे लेकिन सशस्त्र टुकड़ी के कमाण्डर को यही ठीक लगा कि टुकड़ी का रास्ता बदल कर कहीं सुरक्षित ठिकाने पर ले जाया जाए। इस निर्णय के साथ रात बीती लेकिन रामा राघोबा को चैन नहीं था। वह सुबह पौने पाँच बजे से ही उस मार्ग अवरोध को साफ़ करने में लग गए। दुश्मन की ओर से मशीनगन का वार जारी था। उसके साथ एक टैंक भी वहाँ तैनात हो गया था लेकिन रामा राघोबा का मनोबल भी कम नहीं था। वह इस काम में लगे ही रहे और सुबह साढ़े छह बजे, क़रीब पौने दो घण्टे की मशक्कत के बाद उन्होंने वह रास्ता साफ़ कर लिया और आगे बढ़ने की तैयारी शुरू हुई।
अगला हजार गज़ का फासला जबरदस्त अवरोधों तथा विस्फोटों से ध्वस्त तट-बंधों से भरा हुआ था। इतना ही नहीं, आगे का पूरा रास्ता मशीनगन की निगरानी में था लेकिन रामा राघोबा असाधारण रूप से शांत तथा हिम्मत से भरे हुए थे। उनमें जबरदस्त नेतृत्व क्षमता थी। वह अपनी टुकड़ी का हौसला बढ़ने में प्रवीण थे और अपनी टुकड़ी के सामने अपनी बहादुरी एवं हिम्मत की मिसाल भी रख रहे थे, जिसके दम पर उनका पूरा अभियान उसी दिन सुबह साढ़े दस बजे तक पूरा हो गया। सशस्त्र टुकड़ी को तो निकलने का रास्ता राघोबा ने दे दिया, लेकिन वह थमे नहीं। सशस्त्र टुकड़ी तावी नदी के किनारे रुक गई लेकिन राघोबा का दल प्रशासनिक दल के लिए रास्ता साफ़ करने में जुटा रहा। राघोबा के टैंक चिंगास तक पहुँच गए। रामा को इस बात का पूरा एहसास था कि रास्तों का साफ़ होना जीत के लिए बहुत ज़रूरी है, इसलिए वह अन्न-जल के, बिना विश्राम किये रात दस बजे तक काम में लगे रहे और सबेरे छह बजे से फिर शुरू हो गए। 11 अप्रैल 1948 को उन्होंने ग्यारह बजे सुबह तक चिंगास का रास्ता एक दम साफ़ और निर्बाध कर दिया। उनका काम अभी भी पूरा नहीं हुआ था। उसके बाद भी आगे का रास्ता उनको काम में लगाए रहा। रात ग्यारह बजे जाकर उनका काम पूरा हुआ।
सम्मान
सेकेंड लेफ़्टिनेंट रामा राघोबा राणे ने जिस बहादुरी धैर्य तथा कुशल नेतृत्व से यह काम पूरा किया और भारत को विजय का श्रेय दिलाया, उसके लिए उन्हें परमवीर चक्र प्रदान किया गया। यह सम्मान उन्होंने स्वयं प्राप्त किया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- पुस्तक- परमवीर चक्र विजेता, लेखक- अशोक गुप्ता, पृष्ठ संख्या- 43
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