राजपूत काल
राजपूतों के इतिहास के बारे में अभिलेखों एवं समकालीन तथा बाद के कुछ साहित्यों से जानकारी मिलती है। अभिलेखों में ग्वालियर एवं ऐहोल अभिलेख तथा साहित्य में नयचन्द्रसूरि का 'हम्मीर महाकाव्य', पद्मगुप्त का 'नवसाहसांकचरित', हलायुध की 'पिंगलसूत्रवृति', 'कुमारपाल चरित', 'वर्ण रत्नाकार' एवं पृथ्वीराजरासो आदि प्रमुख है।
राजपूतों की उत्पत्ति
इन राजपूत वंशों की उत्पत्ति के विषय में विद्धानों के दो मत प्रचलित हैं- एक का मानना है कि राजपूतों की उत्पत्ति विदेशी है, जबकि दूसरे का मानना है कि, राजपूतों की उत्पत्ति भारतीय है। हर्षवर्धन की मृत्यु के उपरान्त जिन महान शक्तियों का उदय हुआ था, उनमें अधिकांश राजपूत वर्ग के अन्तर्गत ही आते थे।ऐजेन्ट टोड ने 12वीं शताब्दी के उत्तर भारत के इतिहास को 'राजपूत काल' भी कहा है। कुछ इतिहासकारों ने प्राचीन काल एवं मध्य काल को 'संधि काल' भी कहा है। इस काल के महत्त्वपूर्ण राजपूत वंशों में राष्ट्रकूट वंश, चालुक्य वंश, चौहान वंश, चंदेल वंश, परमार वंश एवं गहड़वाल वंश आदि आते हैं।
साम्राज्य विस्तार
बंगाल पर पहले पाल वंश का अधिकार था, बाद में सेन वंश का अधिकार हुआ। उत्तरकालीन पाल शासकों में सबसे महत्त्वपूर्ण 'महीपाल' था। जिसने उत्तरी भारत में महमूद ग़ज़नवी के आक्रमण के समय क़रीब पचास वर्षों तक राज किया। इस काल में उसने अपने राज्य का विस्तार बंगाल के अलावा बिहार में भी किया। उसने कई नगरों का निर्माण किया तथा कई पुराने धार्मिक भवनों की मरम्मत करवाई, जिनमें से कुछ नालन्दा तथा बनारस में थे। उसकी मृत्यु के बाद कन्नौज के गहड़वालों ने बिहार से धीरे-धीरे पालों के अधिकार को समाप्त कर दिया और बनारस को अपनी दूसरी राजधानी बनाया। इसी दौरान चौहान अपने साम्राज्य का विस्तार अजमेर से लेकर गुजरात की ओर कर रहे थे। वे दिल्ली और पंजाब की ओर भी बढ़ रहे थे। इस प्रयास में उन्हें गहड़वालों का सामना करना पड़ा। इन्हीं आपसी संघर्षों के कारण राजपूत पंजाब से ग़ज़नवियों को बाहर निकालने में असफल रहे। उनकी कमज़ोरी का लाभ उठाकर ग़ज़नवियों ने उज्जैन पर भी आक्रमण किया।
राजपूत का अर्थ
राजपूत शब्द संस्कृत के 'राजपुत्र' का अपभ्रंश है। सामान्यत: इसका अर्थ होता है, 'राजा का पुत्र' या शाही परिवार के किसी व्यक्ति का 'राजपुत्र'। सम्भवतः प्राचीन काल में इस शब्द का प्रयोग किसी जाति के रूप में न करके राजपरिवार के सदस्यों के लिए किया जाता था, पर हर्ष की मृत्यु के बाद राजपूत या राजपुत्र शब्द का प्रयोग जाति के रूप में होने लगा।
इतिहासकारों के मत
डॉ. गौरी शंकर ओझा राजपूतों की उत्पत्ति प्राचीन क्षत्रिय जाति से मानते हैं। राजतरंगिणी में 36 क्षत्रिय कुलों का वर्णन मिलता है। कुछ विद्वान राजपूतों की उत्पत्ति अग्निकुंड से उत्पन्न बताते हैं। यह अनुश्रति पृथ्वीराजरासो (चन्द्ररबरदाई कृत) के वर्णन पर आधारित है। पृथ्वीराजरासो के अतिरिक्त 'नवसाहसांक' चरित, 'हम्मीररासो', 'वंश भास्कर' एवं 'सिसाणा' अभिलेख में भी इस अनुश्रति का वर्णन मिलता है। कथा का संक्षिप्त रूप् इस प्रकार है- 'जब पृथ्वी दैत्यों के आतंक से आक्रांत हो गयी, तब महर्षि वशिष्ठ ने दैत्यों के विनाश के लिए आबू पर्वत पर एक अग्निकुण्ड का निर्माण कर यज्ञ किया। इस यज्ञ की अग्नि से चार योद्धाओं- प्रतिहार, परमार, चौहान एवं चालुक्य की उत्पत्ति हुई। भारत में अन्य राजपूत वंश इन्ही की संतान हैं। 'दशरथ शर्मा', 'डॉ. गौरी शंकर ओझा' एवं 'सी.वी. वैद्य' इस कथा को मात्र काल्पनिक मानते हैं।
विदेशी जाति का मत
विदेशी उत्पत्ति के समर्थकों में महत्त्वपूर्ण स्थान 'कर्नल जेम्स टॉड' का है। वे राजपूतों को विदेशी सीथियन जाति की सन्तान मानते हैं। तर्क के समर्थन में टॉड ने दोनों जातियों (राजपूत एवं सीथियन) की सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति की समानता की बात कही है। उनके अनुसार दोनों में रहन-सहन, वेश-भूषा की समानता, मांसाहार का प्रचलन, रथ के द्वारा युद्ध को संचालित करना, याज्ञिक अनुष्ठानों का प्रचलन, अस्त्र-शस्त्र की पूजा का प्रचलन आदि से यह प्रतीत होता है कि राजपूत सीथियन के ही वंशज थे।
विलियम क्रुक ने 'कर्नल जेम्स टॉड' के मत का समर्थन किया है। 'वी.ए. स्मिथ' के अनुसार शक तथा कुषाण जैसी विदेशी जातियां भारत आकर यहां के समाज में पूर्णतः घुल-मिल गयीं। इन देशी एवं विदेशी जातियों के मिश्रण से ही राजपूतों की उत्पत्ति हुई।
भारतीय इतिहासकारों में 'ईश्वरी प्रसाद' एवं 'डी.आर. भंडारकर' ने भारतीय समाज में विदेशी मूल के लोगों के सम्मिलित होने को ही राजपूतों की उत्पत्ति का कारण माना है। भण्डारकर तथा कनिंघम के अनुसार राजपूत विदेशी थे। इन तमाम विद्वानों के तर्को के आधार पर निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि, यद्यपि राजपूत क्षत्रियों के वंशज थे, फिर भी उनमें विदेशी रक्त का मिश्रण अवश्य था। अतः वे न तो पूर्णतः विदेशी थे, न तो पूर्णत भारतीय।
राजपूत समाज का मुख्य आधार
राजपूत राज्यों में भी सामंतवादी व्यवस्था का प्रभाव था। राजपूत समाज का मुख्य आधार वंश था। हर वंश अपने को एक योद्धा का वंशज बताता था, जो वास्तविक भी हो सकता था और काल्पनिक भी। अलग-अलग वंश अलग-अलग क्षेत्रों पर शासन करते थे। इनके राज्यों के अंतर्गत 12, 24, 48 या 84 ग्राम आते थे। राजा इन ग्रामों की भूमि अपने सरदारों में बाँट देता था, जो फिर इसी तरह अपने हिस्से की भूमि को राजपूत योद्धाओं को, अपने परिवारों और घोड़ों के रख-रखाव के लिए बाँट देते थे। राजपूतों की प्रमुख विशेषता अपनी भूमि, परिवार और अपने मान-सम्मान के साथ लगाव था। हर राजपूत राज्य का राजा अधिकतर अपने भाइयों की सहायता से शासन करता था। यद्यपि सारी भूमि पर राजा का ही अधिकार था। भूमि पर नियंत्रण को सम्मान की बात समझने के कारण विद्रोह अथवा उत्तराधिकारी के न होने जैसी विशेष स्थितियों में ही राजा ज़मीन वापस ले लेता था।
अनुशासनहीनता
राजपूतों की समाज व्यवस्था के लाभ भी थे और नुक़सान भी। लाभ तो यह था कि राजपूतों में भाईचारे और समानता की भावना व्याप्त थी, पर दूसरी ओर इसी भावना के कारण उनमें अनुशासन लाना कठिन था। उनकी दूसरी कमज़ोरी आपसी संघर्ष था, जो पुश्तों तक चलता था। पर उनकी मूल कमज़ोरी यह थी कि, वे अपने ही अलग गुट बनाते और दूसरों से श्रेष्ठ होने का दावा करते थे। वे भाईचारे की भावना में ग़ैर राजपूतों को शामिल नहीं करते थे। इससे शासन करने वाले राजपूतों और आम जनता, जो अधिकतर राजपूत नहीं थी, के बीच अन्तर बढ़ता गया। आज भी राजपूत राजस्थान की आबादी के कुल छ्ह प्रतिशत के लगभग हैं। ग्यारहवीं तथा बारहवीं शताब्दी में भी राजपूतों तथा उनके द्वारा शासित प्रदेशों की पूरी आबादी के बीच यही अनुपात रहा होगा।
धार्मिक स्वतंत्रता
उस काल में अधिकतर राजपूत राजा हिन्दू थे, यद्यपि कुछ जैन धर्म के भी समर्थक थे। वे ब्राह्मण और मन्दिरों को बड़ी मात्रा में धन और भूमि का दान करते थे। वे वर्ण व्यवस्था तथा ब्राह्मणों के विशेषाधिकारों के पक्ष में थे। इसलिए कुछ राजपूती राज्यों में तो भारत की स्वतंत्रता और भारतीय संघ में उनके विलय तक ब्राह्मणों से अपेक्षाकृत कम लगान वसूल किया जाता था। इन विशेषाधिकारों के बदले ब्राह्मण राजपूतों को प्राचीन सूर्य और चन्द्रवंशी क्षत्रियों के वंशज मानने को तैयार थे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ