पश्चिम बंगाल की संस्कृति
बंगालियों ने हमेशा से ही साहित्य, कला, संगीत और रंगमंच (नाटक) को संरक्षण दिया है। बांग्ला साहित्य का आविर्भाव 12वीं सदी से पहले हुआ। हिन्दू धर्म के एक संघन भावनात्मक स्वरूप, चैतन्य आन्दोलन, को मध्यकालीन संत चैतन्य (1485-1533) ने प्रेरित किया, जिसने 19वीं सदी के आरम्भ तक बांग्ला कविता के परवर्ती विकास को आकार दिया। इसके बाद पश्चिम के साथ हुए सम्पर्क ने एक द्रुत बहुमुखी सृजनात्मक युग की शुरुआत की। आधुनक युग में अन्य साहित्यकारों के साथ नोबेल पुरस्कार विजेता कवि रबीन्द्रनाथ ठाकुर (1861-1941) हुए, जिनका योगदान आज भी भारतीय साहित्यिक परिदृश्य पर छाया हुआ है।
- मनोरंजन
रंगमंच यहाँ लोकप्रिय है तथा नए कलाकारों के साथ-साथ पेशेवर कलाकारों द्वारा मंच-प्रस्तुति उच्च कोटि की होती है। जात्रा खुले रंगमंच पर होने वाला पाम्परिक कार्यक्रम है, जिसकी कथावस्तु अब स्पष्ट रूप से पौराणिक एवं ऐतिहासिक विषयों से समकालीन विषय-वस्तु में परिवर्तित हो रही है और यह ग्रामीण और शहरी, दोनों शहरों में लोकप्रिय है। कथाकाता एक धार्मिक जाप है और लोकगीतों पर आधारित ग्रामीण मनोरंजन का एक पारम्परिक स्वरूप है।
फ़िल्मोद्योग सुस्थापित मनोरंजन का एक आधुनिक लोकप्रिय साधन है। बांग्ला फ़िल्मों ने भारतीय कथावस्तुओं की उत्कृष्ट प्रस्तुति के लिए राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार हासिल किए हैं। सत्यजीत राय, तपन सिन्हा, मृणाल सेन और अपर्णा सेन जैसे निर्देशकों के कार्य का विशिष्ट महत्व है।
- संगीत
पारम्परिक संगीत भक्ति और सांस्कृतिक गीतों के रूप में है। रबीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा लिखित एवं संयोजित ‘रबीन्द्र संगीत’, जिसे विशुद्ध भारतीय शास्त्रीय संगीत के साथ-साथ पारम्परिक लोकगीतों में पिरोया गया है, बंगालियों के सांस्कृतिक जीवन पर सशक्त प्रभाव छोड़ता है।
- दृश्य कला
दृश्य कला परम्परा के अनुसार, मुख्यत: मिट्टी की मूर्तियों, पक्की ईंटों (टेराकॉटा) की कृतियों और सज्जा-चित्रों पर आधारित हैं। कोलकाता की इंडियन एसोसियेशन फ़ॉर कल्टीवेशन ऑफ़ साइन्स, द बोस रिसर्च इंस्टिट्यूट और कोलकाता विश्वविद्यालय की विज्ञान प्रयोगशालाओं ने विज्ञान के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दिया है। 19वीं सदी की सुविख्यात भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान सभा एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल, पश्चिम बंगाल में है। शान्तिनिकेतन में रबीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा स्थापित विश्वभारती विश्वविद्यालय भारतीयता एवं अंतर्राष्ट्रीय सांस्कृतिक सम्बन्धों के अध्ययन का विश्वप्रसिद्ध केन्द्र है।
- त्योहार
दुर्गा पूजा सबसे महत्वपूर्ण त्योहार है इसके अतिरिक्त काली पूजा, सरस्वती पूजा, दीपावली। बसंत पंचमी, लक्ष्मी पूजा, होली, शिवरात्रि, जन्माष्टमी, ईद, क्रिसमस आदि त्योहार भी मनाये जाते हैं। बंगाल में आयोजित होने वाले मेलों में गंगासागर मेला, केंदोली मेला, जालपेश मेला, राश मेला तथा पौष मेला प्रमुख हैं।
कोलकाता की संस्कृति
उपनिवेशवादी अंग्रेज़ों के द्वारा भव्य यूरोपीय राजधानी के रूप में अभिकल्पित कोलकाता अब भारत के सबसे अधिक निर्धन और सर्वाधिक जनसंख्या वाले क्षेत्रों में से एक है। यह अत्यधिक विविधताओं और अंतर्विरोधों के शहर के रूप में विकसित हुआ है। कोलकाता को अपनी अलग पहचान पाने के लिए तीव्र यूरोपीय प्रभाव को आत्मसात करना था और औपनिवेशिक विरासत की सीमाओं से बाहर आना था। इस प्रक्रिया में शहर ने पूर्व और पश्चिम का एक संयोग बना लिया, जिसे 19वीं शताब्दी के कुलीन बंगालियों के जीवन कार्यों में अभिव्यक्ति मिली। इस वर्ग के सबसे विशिष्ट व्यक्तित्व थे, कवि और रहस्यवादि रवीन्द्रनाथ टैगोर। भारतीय शहरों में सबसे बड़ा और सबसे अधिक जीवन्त यह शहर अजेय लगने वाली आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक समस्याओं के बीच फला-फूला है। यहाँ के नागरिकों ने अत्यधिक जीवंतता दिखाई है, जो कला व संस्कृति में उनकी अभिरुचि और एक स्तर की बौद्धिक ओजस्विता में प्रदर्शित होती है। यहाँ की राजनीतिक जागरुकता देश में अन्यत्र दुर्लभ है। कोलकाता के पुस्तक मेलों, कला प्रदर्शनियों और संगीत सभाओं में जैसी भीड़ होती है, वैसी भारत के किसी अन्य शहर में नहीं होती। दीवारों पर वाद-विवाद का अच्छा-ख़ासा आदान-प्रदान होता है, जिसके कारण कोलकाता को इश्तहारों का शहर कहा जाने लगा है।
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