लॉर्ड मैकाले
लॉर्ड मैकाले, जिसका पूरा नाम 'थॉमस बैबिंगटन मैकाले' था, प्रसिद्ध अंग्रेज़ी कवि, निबन्धकार, इतिहासकार तथा राजनीतिज्ञ था। मैकाले का जन्म 25 अक्टूबर, 1800 ई. में हुआ था और मृत्यु 28 दिसम्बर, 1859 ई. में हुई थी। एक निबन्धकार और समीक्षक के रूप मे उसने ब्रिटिश इतिहास पर जमकर लिखा था। सन 1834 ई. से 1838 ई. तक वह भारत की सुप्रीम काउंसिल में लॉ मेंबर तथा लॉ कमिशन का प्रधान रहा। भारतीय दंड विधान से सम्बन्धित प्रसिद्ध ग्रंथ 'दी इंडियन पीनल कोड' की लगभग सभी पांडुलिपि इसी ने तैयार की थी। अंग्रेज़ी भाषा को भारत की सरकारी भाषा तथा शिक्षा का माध्यम और यूरोपीय साहित्य, दर्शन तथा विज्ञान को भारतीय शिक्षा का लक्ष्य बनाने में इसका बड़ा हाथ था।
भारत आगमन
1823 ई. में मैकाले बैरिस्टर बना, परन्तु उसने बैरिस्टरी करने की अपेक्षा सार्वजनिक जीवन पसन्द किया। वह 1830 ई. में ब्रिटिश पार्लियामेन्ट का सदस्य चुना गया, और 1834 ई. में गवर्नर-जनरल की एक्जीक्यूटिव कौंसिल का पहला क़ानून सदस्य नियुक्त होकर भारत आया। भारत का प्रशासन उस समय तक जातीय द्वेष तथा भेदभाव पर आधारित तथा दमनकारी था। उसने ठोस उदार सिद्धान्तों पर प्रशासन चलाने की कोशिश की। उसने भारत में समाचार पत्रों की स्वाधीनता का आन्दोलन किया, क़ानून के समक्ष यूरोपियों और भारतीयों की समानता का समर्थन किया। अंग्रेज़ी के माध्यम से पश्चिमी ढंग की उदार शिक्षा-पद्धति आरम्भ की और दंड विधान का मसविदा तैयार किया, जो कि बाद में 'भारतीय दंड संहिता' का आधार बना।
भारत के प्रति मैकाले के विचार
सन 1835 ई. में ब्रिटिश पार्लियामेंट में दिये गए अपने भाषण में लॉर्ड मेकॉले ने कहा था-
"मैंने लम्बाई से लेकर चौड़ाई तक समस्त भारत की यात्रा की है, और अपनी इस यात्रा के दौरान मैंने एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं देखा, जो कि भिखारी हो, चोर हो। मुझे इस देश में ऐसी दौलत, ऐसी उच्च नैतिक मूल्य, ऐसी क्षमता वाले लोग दिखाई दिये हैं कि, मैं नहीं समझता कि, जब तक हम यहाँ की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत, जो कि इस देश की रीढ़ की हड्डी है, को तोड़ न दें, हम इस देश को कभी भी विजित कर पायेंगे, और इसीलिये मैं प्रस्तावित करता हूँ कि, हम उसके पुराने और प्राचीन शिक्षा प्रणाली, उसकी संस्कृति को बदल दें, ताकि भारतीय समझने लगें की, यह सब (अपनी वस्तुएँ) विदेशी हैं और अंग्रेज़ी हमारी अपनी भाषा से अधिक महान है। वे अपने आत्म सम्मान, अपनी मूल आत्म-संस्कृति को खो दें, और वैसे बन जायें, जैसा कि हम चाहते हैं। भारत सचमुच में हमारा शासित राष्ट्र बन जाये।"[1]
अवकाश ग्रहण करने के बाद भी मैकाले भारत के मामलों में दिलचस्पी लेता रहा और 1855 ई. में 'इण्डियन सिविल सर्विस' (भारतीय प्रशासनिक सेवा) में प्रवेश करने के लिए प्रतियोगिता परीक्षा आरम्भ करने के पक्ष में भी उसने ब्रिटिश पार्लियामेन्ट में भाषण किया था।
मृत्यु
मैकाले आजीवन साहित्य सेवा करता रहा और 1857 ई. में उसे ‘पिअर’ की पदवी प्रदान की गई। दो साल बाद 1859 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।
रचनाएँ
लॉर्ड मैकाले ने अंग्रेज़ी भाषा में अनेक पुस्तकें लिखी हैं, जिनमें ‘अर्भाडा’ (1833 ई.), ‘प्राचीन रोम के गीतिकाव्य’ (1842 ई.), ‘निबन्ध’ (1825-1843 ई.), तथा चार खण्डों में ‘इंग्लैण्ड का इतिहास’ (1848-1858 ई.) सबसे महत्त्वपूर्ण हैं। अन्तिम पुस्तक बहुत अधिक बिकी और उससे 20 हज़ार पौण्ड की आय हुई। इसका यूरोप की विविध भाषाओं में अनुवाद हुआ है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
भट्टाचार्य, सच्चिदानन्द भारतीय इतिहास कोश, द्वितीय संस्करण-1989 (हिन्दी), भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, 383।
- ↑ भारत के प्रति लॉर्ड मेकॉले के विचार (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल.)। । अभिगमन तिथि: 10 अगस्त, 2011।
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