फोर्ट विलियम कॉलेज
फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना लार्ड वेलेजली के समय[1] में हुई। वेलेजली ने भारत आकर यह अनुभव किया कि कम्पनी के कर्मचारी केवल एक व्यापारिक संस्था के कर्मचारी नहीं बल्कि अब एक सरकार के अधिकारी हैं। उनमें शिक्षा, जनभाषा-ज्ञान और सदाचरण की आवश्यकता है। अत: उनकी शिक्षा-दीक्षा के लिए जॉन गिलक्राइस्ट की अध्यक्षता में उन्होंने 'ओरियंटल सैमिनरी' की स्थापना की।
स्थापना
बाद में यही संस्था 'फोर्ट विलियम कॉलेज' के रूप में परिवर्तित हुई। फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना टीपू सुल्तान पर ब्रिटेन की निर्णायक विजय की याद में 10 जुलाई को 'मार्केस ऑफ वेलेजली' ने 1800 ईस्वी में कोलकाता में की थी और गिलक्राइस्ट उसके हिन्दुस्तानी विभाग के अध्यक्ष नियुक्त किये गये।
उद्देश्य
यह कॉलेज ब्रिटेन के युवा सिविल अधिकारियों के सामान्य शिक्षण और प्रशिक्षण का केंद्र था। इस कॉलेज में सेना के कनिष्ठ अधिकारियों को भी प्रवेश की अनुमति थी, बाद में यह कॉलेज प्राचीन कालीन अध्ययन कार्यों का एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गया, जहां भारतीय और ब्रिटिश विद्वान विभिन्न भारतीय भाषाओं के आधुनिकीकरण के लिए विभिन्न भाषायी शोध योजनाओं पर मिलकर काम करते थे, लेकिन कंपनी का निदेशक मंडल इस संस्थान को एक खर्चीले अनुभव की संज्ञा देता था, इसलिए 1806 में 'मार्केस ऑफ वेलेजली' की स्वदेश वापसी के बाद इस संस्थान को अनेक आर्थिक संकटों का सामना करना पड़ा, जिसके फलस्वरूप यह संस्था एक शिक्षण संस्था के रूप में ही कार्य कर सकी।[2]
आर्थिक संकट
बाद के एक दशक के दौरान इस संस्थान ने कंपनी के सिविल अधिकारियों के परीक्षा केंद्र के रूप में भी कार्य जारी रखा, लेकिन बाद में जब शिक्षण संस्थान के रूप में इस कॉलेज की हैसियत समाप्त कर दी गई तो इसकी अधिकाश पुस्तकें और पांडुलिपि एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल के हिस्से में आ गईं, शेष पुस्तकें 'इम्पीरियल लाइब्रेरी' (नेशनल लाइब्रेरी कोलकाता) और 'इम्पीरियल रिकॉर्ड डिपार्टमेंट' (नेशनल आर्काइब्स ऑफ इंडिया अर्थात राष्ट्रीय अभिलेखागार) को सौंप दी गईं। राष्ट्रीय अभिलेखागार में उपलब्ध 742 दुर्लभ पुस्तकें और 199 पांडुलिपि, क्षेत्रीय साहित्यिक, ऐतिहासिक, पशुपालन, ज्योतिषशास्त्र, ऐतिहासिक यात्रा विवरणों, भौगोलिक बायोग्राफिक और आम अभिरूचि के अन्य विषयों के अध्ययन के लिए अत्यंत उपयोगी हैं।[3]
फोर्ट विलियम कॉलेज और हिंदी
गद्य के क्षेत्र में, खड़ी बोली की प्रतिष्ठा ने काव्यजगत में उसके प्रयोग की पीठिका तैयार की, यद्यपि उसकी स्वीकृति लम्बे अन्तराल के बाद, आधुनिकता का एक चरण बीतने के साथ हुई। आधुनिक काल में खड़ी बोली के आरम्भिक प्रयोग के संबंध में डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी लिखते हैं- 'जिस समय रीति काल के अंतिम प्रसिद्ध कवि पद्माकर ब्रजभाषा का परिष्कार ठेठ हिन्दी क्षेत्र में रहकर अपने कवित्त-सवैयों में कह रहे हैं, उसी समय सुदूर राजधानी कलकत्ते में हिन्दी गद्य के साथ नये प्रयोग चल रहे हैं। धार्मिक ग्रंथों के अनुवाद या तत्सम्बन्धी वृत्तान्तों के रूप में कुछ पुराना ब्रजभाषा या खड़ी बोली हिन्दी गद्य का रूप अभी तक मिलता था, पर व्यावहारिक उद्देश्यों के लिये नियोजित गद्य का सजग रूप में प्रयोग यहाँ से आरम्भ होता है। स्पष्ट ही ये नये प्रयोग 1800 ई. में संस्थापित फोर्ट विलियम कॉलेज के प्रिंसिपल डॉ. जॉन वौर्थविक गिलक्राइस्ट द्वारा हिन्दी/हिन्दुस्तानी गद्य में लिखवाई गई लेखों के रूप में थे। इन लेखों में लल्लू लाल की रचना ‘प्रेमसागर’ और सदल मिश्र की रचना ‘चन्द्रावती’ या ‘नासिकेतोपाख्यान’ विशेष महत्त्वपूर्ण है। संवत 1860 अर्थात् सन् 1803 ई. में लिखी गई इन दोनों ही रचनाओं की भूमिका में खड़ी बोली के आरम्भिक प्रयोग का संकेत क्रमश: यों मिलता है -
‘श्रीयुक्त गुनगाहक गुनियन सुखदायक जान गिलकिरिस्त महाशय की आज्ञा से संवत् 1860 में लल्लूजी कवि ब्राह्मण गुजराती सहस्र अवदीच आगरे वाले ने विसका सार ले यामिनी भाषा छोड़ दिल्ली आगरे की खड़ीबोली में कह नाम प्रेमसागर धरा।’[4]
प्रकाशन योजना
इनमें गिल क्राइस्ट ने मध्य या विशुद्ध हिन्दुस्तानी शैली को प्राथमिकता दी। इसमें उर्दू फारसी का बाहुल्य रहता था पर उसका मूल ढाँचा हिन्दी पर ही आधारित था, जिसके कारण उनकी विशेष माँग पर 19 फरवरी सन् 1802 ई. में कॉलेज कौसिल ने भाषा मुंशी के पद पर लल्लू जी लाल की नियुक्ति की। गिल क्राइस्ट ने हिन्दुस्तानी में पाठय पुस्तकों का अभाव देखकर प्रकाशन की एक योजना चलायी जिसके अंतर्गत सिंहासन बत्तीसी, बैताल पच्चीसी, शकुंतला नाटक और माधवानल का उल्लेख मिलता है।
महत्त्व
फोर्ट विलियम कॉलेज का महत्त्व पुस्तकों के प्रकाशन तथा टाइम सम्बन्धी सुधारों के लिए अधिक है। 26 फरवरी सन् 1804 को गिलक्राइस्ट के त्याग पत्र देने से भाषायी दृष्टि से सुधार वर्षों तक नहीं हुआ बल्कि अधिकांश अंग्रेज़ अधिकारियों एवं विद्वानों द्वारा हिन्दी के महत्त्व को समझने के बावजूद भी वे उसे उपेक्षा की दृष्टि से देखते रहे। टेलर रोयेबक, प्राइस आदि कॉलेज के परवर्ती अधिकारियों ने हिंदी शिक्षा के ह्रास का संकेत भी किया है। टेलर के बाद प्राइस हिन्दुस्तानी विभाग के अध्यक्ष हुए। वे अपने को हिन्दी प्रोफेसर कहते थे। और हिन्दी और हिन्दुस्तानी में लिपि तथा शब्दों का मुख्य अंतर मानते थे।
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सन् 1800 ई.
- ↑ फोर्ट विलियम की दुर्लभ पुस्तकों की प्रदर्शनी (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 20 नवम्बर, 2011।
- ↑ फोर्ट विलियम की दुर्लभ पुस्तकों की प्रदर्शनी (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 20 नवम्बर, 2011।
- ↑ खड़ीबोली का विकास (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 20 नवम्बर, 2011।
धीरेंद्र, वर्मा “भाग- 2 पर आधारित”, हिंदी साहित्य कोश (हिंदी), 362।
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख