जैन आचार-मीमांसा

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जैन धर्म के अनुसार आध्यात्मिक विकास की पूर्णता हेतु श्रावक या गृहस्थधर्म (श्रावकाचार) पूर्वार्ध है और श्रमण या मुनिधर्म (श्रमणाचार) उत्तरार्ध। श्रमणधर्म की नींव गृहस्थ धर्म पर मजबूत होती है। यहाँ गृहस्थ धर्म की महत्त्वपूर्ण भूमिका इसलिए भी है क्योंकि श्रावकाचार की भूमिका में एक सामान्य गृहस्थ त्याग और भोग-इन दोनों को समन्वयात्मक दृष्टि में रखकर आध्यात्मिक विकास में अग्रसर होता है। अत: प्रस्तुत प्रसंग में सर्वप्रथम श्रावकाचार का स्वरूप विवेचन आवश्यक है। यद्यपि श्रावक अर्थात एक सद् गृहस्थ के आचार का कितना महत्त्व है? यह श्रावकाचार विषयक शताधिक बड़े-बड़े प्राचीन और अर्वाचीन ग्रन्थों की उपलब्धि से ही पता चल जाता है। इसी दृष्टि से अति संक्षेप में यहाँ श्रावकाचार अर्थात श्रावकों की सामान्य आचार पद्धति प्रस्तुत है-

श्रावकाचार:श्रावकों की आचार-पद्धति

जैन परम्परा में आचार के स्तर पर श्रावक और साधु-ये दो श्रेणियाँ हैं। श्रावक गृहस्थ होता है, उसे जीवन के संघर्ष में हर प्रकार का कार्य करना पड़ता है। जीविकोपार्जन के साथ ही आत्मोत्थान एवं समाजोत्थान के कार्य करने पड़ते हैं। अत: उसे ऐसे ही आचारगत नियमों आदि के पालन का विधान किया गया, जो व्यवहार्य हों क्योंकि सिद्धान्तों की वास्तविकता क्रियात्मक जीवन में ही चरितार्थ हो सकती है। इसलिए श्रावकोचित आचार-विचार के प्रतिपादन और परिपालन का विधान श्रावकाचार की विशेषता है। श्रावकाचार आदर्श जीवन के उत्तरोत्तर विकास की जीवन शैली प्रदान करता है। श्रावकाचार के परिपालन हेत साधु वर्ग सदा से श्रावकों का प्रेरणास्त्रोत रहा है। वस्तुत: साधु राग-द्वेष से परे समाज का संरक्षक होता है, वह समाज हित में श्रावकों को छोटे-छोटे स्वार्थों के त्याग करने एवं समता भाव की शिक्षा देता है।

संस्कार और उनका महत्त्व

संस्कार शब्द का प्रयोग शिक्षा, संस्कृति, प्रशिक्षण, सौजन्य पूर्णता, व्याकरण सम्बन्धी शुद्धि, धार्मिक कृत्य, संस्करण या परिष्करण की क्रिया, प्रभावशीलता, प्रत्यास्मरण का कारण, स्मरणशक्ति पर पड़ने वाला प्रभाव अभिमन्त्रण आदि अनेक अर्थों में होता है। सामान्यत: संस्कार वह है जिसके होने से कोई पदार्थ या व्यक्ति किसी कार्य के लिए योग्य हो जाता है अर्थात संस्कार वे क्रियाएं एवं विधियाँ हैं जो व्यक्ति को किसी कार्य को करने की आधिकारिक योग्यता प्रदान करती हैं। शुचिता का सन्निवेश मन का परिष्कार, धर्मार्थ-सदाचरण, शुद्धि-सन्निधान आदि ऐसी योग्यताऐं हैं जो शास्त्रविहित क्रियाओं के करने से प्राप्त होती हैं। संस्कार शब्द उन अनेक धार्मिक क्रिया-कलापों को भी व्याप्त कर लेता है जो शुद्धि, प्रायश्चित्त, व्रत आदि के अन्तर्गत आते हैं।

संस्कारों की संख्या

दिगम्बर परम्परा के पुराणों में संस्कार के लिए 'क्रिया' शब्द का प्रयोग किया गया है। यह सत्य है कि संस्कार शब्द सामान्यतया धार्मिक विधि-विधान या क्रिया का ही सूचक है। दिगम्बर जैन परम्परा के आचार्य जिनसेन कृत 'आदिपुराण' में विविध संस्कारों का उल्लेख करते हुए इन्हें तीन भागों में विभाजित किया गया है। उसके अनुसार

  1. गर्भान्वय क्रियाएँ-53,
  2. दीक्षान्वय क्रियाएँ-48, और
  3. कर्त्रन्वय क्रियाएँ-7 हैं।

इस प्रकार इसमें कुल मिलाकर 108 संस्कारों तक की चर्चा है। श्वेताम्बर जैन परम्परा के वर्धमानसूरिकृत 'आचारदिनकर' में संस्कारों की चर्चा करते हुए उनकी संख्या 40 बताई गई है, जिनमें से 16 संस्कार गृहस्थों के, 16 संस्कार यतियों के एवं 8 सामान्य संस्कार हैं।

आदिपुराण और उसमें प्रतिपादित संस्कार

संस्कार, वर्ण व्यवस्था आदि का विवेचन आचार्य जिनसेन ने महापुराण के प्रथम भाग अर्थात आदिपुराण में विस्तार से किया है। वस्तुत: महापुराण के मुख्य दो खण्ड हैं-

  1. आदिपुराण और
  2. उत्तरपुराण।

सम्पूर्ण आदिपुराण के 47 पर्वों में से 42 पर्व पूर्ण तथा 43वें पर्व के तीन श्लोक तक आठवीं-नवीं शती के भगवज्जिनसेनाचार्य द्वारा रचित हैं और इसके अवशिष्ट पाँच पर्व तथा उत्तरपुराण की रचना जिनसेनाचार्य के बाद उनके प्रमुख शिष्य गुणभद्राचार्य के द्वारा की गई। एक गृहस्थ श्रावक को समाज की मुख्य धारा से अलग हुए बिना नैतिक, आदर्श और संस्कारित जीवन जीने के लिए आचार्य जिनसेन ने संस्कार पद्धति मुख्यत: तीन भागों में विभक्त की-

  1. गर्भान्वय क्रिया,
  2. दीक्षान्वय क्रिया,
  3. क्रियान्वय क्रिया।

गर्भान्वय क्रिया

इसमें श्रावक या गृहस्थ की 53 क्रियाओं, संस्कारों का वर्णन है। वह इस प्रकार है :

  1. आधान क्रिया (संस्कार),
  2. प्रीति क्रिया,
  3. सुप्रीति,
  4. धृति,
  5. मोद,
  6. प्रियोद्भव जातकर्म,
  7. नामकर्म या नामकरण,
  8. बहिर्यान,
  9. निषद्या,
  10. अन्नप्राशन,
  11. व्युष्टि (वर्षगांठ),
  12. केशवाय,
  13. लिपिसंख्यान,
  14. उपनीति (यज्ञोपवीत),
  15. व्रतावरण,
  16. विवाह,
  17. वर्णलाभ,
  18. कुलचर्या,
  19. गृहीशिता,
  20. प्रशान्ति,
  21. गृहत्याग,
  22. दीक्षाग्रहण,
  23. जिनरूपता,
  24. मौनाध्ययन,
  25. तीर्थकृद्भावना,
  26. गणोपग्रहण,
  27. स्वगुरुस्थानावाप्ति,
  28. निसंगत्वात्मभावना,
  29. योगनिर्वाणसम्प्राप्ति,
  30. योगनिर्वाणसाधन,
  31. इन्द्रोपपाद,
  32. इन्द्राभिषेक,
  33. इन्द्रविधिदान,
  34. सुखोदय,
  35. इन्द्रत्याग,
  36. अवतार,
  37. हिरण्योत्कृष्टजन्मग्रहण,
  38. मन्दराभिषेक,
  39. गुरुपूजन,
  40. यौवराज्यक्रिया,
  41. स्वराज्यप्राप्ति,
  42. दिशांजय,
  43. चक्राभिषेक,
  44. साम्राज्य,
  45. निष्क्रान्त,
  46. योगसम्मह,
  47. आर्हन्त्य क्रिया,
  48. विहारक्रिया,
  49. योगत्याग,
  50. अग्रनिर्वृत्ति, तीन अन्य क्रिया (संस्कार) इस प्रकार गर्भ से लेकर निर्वाण पर्यन्त 53 क्रियाओं (संस्कारों) का कथन किया गया है।

दीक्षान्वय क्रिया

वह इस प्रकार है-

  1. अवतार,
  2. वृत्तलाभ,
  3. स्थानलाभ,
  4. गणग्रह,
  5. पूजाराध्य,
  6. पुण्ययज्ञ,
  7. दृढ़चर्या,
  8. उपयोगिता,
  9. उपनीति,
  10. व्रतचर्या,
  11. व्रतावतरण,
  12. पाणिग्रहण
  13. वर्णलाभ,
  14. कुलचर्या,
  15. गृहीशिता,
  16. प्रशान्तता,
  17. गृहत्याग,
  18. दीक्षाद्य,
  19. जिनरूपत्व,
  20. दीक्षान्वय।

क्रियान्वय क्रिया

सज्जाति: सद्गृहस्थत्वं, पारिव्रज्यं सुरेन्द्रता।
साम्राज्यं पदमार्हन्त्यं, निर्वाणं चेति सप्तकम्॥

  1. सज्जातित्व (सत्कुलत्व)
  2. सद्गृहस्थता,
  3. पारिव्रज्य,
  4. सुरेन्द्रपदत्व,
  5. साम्राज्यपद,
  6. अर्हन्तपद,
  7. निर्वाणपदप्राप्ति-ये सात क्रियान्वय क्रियाएँ हैं।
  • धार्मिक एवं संस्कारित जीवन पद्धति के निर्माण में इन समस्त क्रियाओं का महत्व है। इन क्रियाओं (संस्कारों) में देव-शास्त्र-गुरु की पूजा भक्ति का यथायोग्य-विधान है।

प्रमुख सोलह संस्कारों का स्वरूप और विधि

जिन संस्कारों से सुसंस्कृत मानव द्विज (संस्कारित श्रावक) कहा जाता है, वे संस्कार सोलह होते हैं[1]-

टीका टिप्पणी

  1. षोडशसंस्कार : सं0 एवं प्र0 जिनवाणी कार्यालय, कलकत्ता संस्कारप्रकरण। सं0 नरेन्द्र-कुमार जैन


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