दोस्ती (1964 फ़िल्म)
दोस्ती भारतीय सिने इतिहास की सबसे प्रसिद्ध और सफल हिन्दी फ़िल्मों में से एक है। यह फ़िल्म 6 नवम्बर, 1964 को प्रदर्शित हुई थी। इस फ़िल्म के निर्देशक सत्येन बोस तथा निर्माता 'राजश्री प्रोडक्शन' के ताराचंद बड़जात्या थे। उस समय इस फ़िल्म को छ: 'फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार' मिले थे। फ़िल्म के मुख्य कलाकार सुशील कुमार तथा सुधीर कुमार थे। फ़िल्म में संजय ख़ान भी अहम भूमिका में थे। यह उनकी पहली फ़िल्म थी। इसके अलावा बेबी फ़रीदा, उमा राजू, लीला मिश्रा, नाना पालसिकर, लीला चिटनिस और अभि भट्टाचार्य जैसे कलाकार भी थे। यह फ़िल्म उस वर्ष की दस सबसे ज़्यादा प्रसिद्ध रही फ़िल्मों में से एक थी। आज की भाषा में कहें तो बॉक्स ऑफ़िस पर ब्लॉक बस्टर फ़िल्म थी।
विषय
यह फ़िल्म एक अपाहिज लड़के और एक अंधे लड़के के बीच दोस्ती की कहानी को लेकर आगे बढ़ती है। घर के बड़े बुजुर्गों ने यदि ये फ़िल्म देखी हो, तो वे बता सकते हैं कि कैसे पहली बार स्कूल में पढ़ते हुए बच्चों को अभिभावकों ने जोर देकर ये फ़िल्म दिखाई थी। दोस्ती की कहानी तो पहले भी कई फ़िल्मों में आई थी, लेकिन सुशील कुमार और सुधीर कुमार के अभिनय ने इस फ़िल्म को सबसे ख़ास बना दिया था। बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि फ़िल्म में माउथ ऑर्गन का जबरदस्त इस्तेमाल हुआ था और यह आर. डी. बर्मन का कमाल था। फ़िल्म में संवाद गोविंद मूनिस के थे। संगीत लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का और गीत मजरूह सुल्तानपुरी के थे।
फ़िल्म का संक्षिप्त सारांश
फ़िल्म में रामनाथ गुप्ता उर्फ़ 'रामू' (सुशील कुमार) के पिता एक फ़ैक्टरी में होने वाली दुर्घटना में चल बसते हैं। जब फ़ैक्टरी उनकी मौत का हर्ज़ाना देने से इन्कार कर देती है तो रामू की माँ (लीला चिटनिस) यह सदमा बर्दाश्त नहीं कर पाती और वह भी दम तोड़ देती है। सड़क दुर्घटना में रामू अपनी एक टांग गंवा बैठता है। बेघर, बिन पैसे के और अपाहिज रामू जब मुंबई की सड़कों की ख़ाक छान रहा होता है तो उसकी मुलाकात 'मोहन' (सुधीर कुमार) नाम के एक अन्धे लड़के से होती है, जिसकी कहानी भी रामू के जैसी ही है।
मोहन ग्राम का रहने वाला है और बचपन में ही अपनी आँखें खो बैठा है। मोहन की बहन मीना गांव से शहर नर्स बनने के लिए आई थी, ताकि मोहन की आँखों का इलाज करा सके। अब मोहन अपनी बहन को ढूंढता हुआ शहर आया है। रामू और मोहन गलियों में गाकर अपना पेट भरने लगते हैं और सड़क के किनारे ही सो जाते हैं। एक दिन उनकी मुलाकात मंजुला उर्फ़ मंजु नामक एक छोटी लड़की से होती है, जो एक अमीर परिवार की होती है और जो बहुत बीमार है। वह रामू और मोहन को पैसे देना चाहती है, लेकिन दोनों यह कह कर मना कर देते हैं कि छोटी बहन से पैसे नहीं लिए जाते हैं। मंजु की देखभाल के लिए नर्स की ज़रूरत होती है और डॉक्टर मीना को उसके घर ले आते हैं।
रामू को आगे पढ़ाई करने की चाह होती है, लेकिन स्कूल में दाख़िले के लिए साठ रुपयों की ज़रुरत होती है। दोनों यह पैसा मंजुला से मांगने जाते हैं, लेकिन मंजुला का भाई अशोक (संजय ख़ान) उन्हें पांच रुपये देकर कहता है कि आइंदा वहाँ न आयें। अपना इस तरह अपमान होना मोहन को गंवारा नहीं होता है और वह गाकर बाकी की रक़म जमा कर लेता है। अब वे सड़क के किनारे न सोकर एक झोपड़ पट्टी में खोली ले लेते हैं, जहाँ उनकी पड़ोसन मौसी (लीला मिश्रा) उन्हें अपने बच्चों जैसा ही प्यार देती है। रामू जब स्कूल में दाख़िले के लिए जाता है तो स्कूल के हेडमास्टर (अभि भट्टाचार्य) उससे कहते हैं कि उसका कोई तो होना चाहिए, जो उसकी ज़िम्मेदारी ले सके, अन्यथा स्कूल के क़ानून के मुताबिक उसका दाख़िला नहीं हो सकता है। तभी स्कूल के एक शिक्षक शर्मा जी (नाना पालसिकर) आगे आते हैं और रामू को अपनी छत्रछाया में ले लेते हैं।
शर्मा जी रामू से कहते हैं कि रामू झोपड़ पट्टी को छोड़ उन्हीं के घर आकर रहे और पढ़ाई करे। लेकिन रामू अपने दोस्त मोहन को छोड़ने के लिए राज़ी नहीं होता है। एक दिन मोहन सुनता है कि कोई (अशोक) मीना को पुकार रहा है तो वह उत्सुक्तता से अपनी बहन से मिलने आगे बढ़ता है, लेकिन उसके भिखारी होने की वजह से मीना उसको पहचानने से इन्कार कर देती है। बाद में मीना अशोक को सब सच बता देती है। इस बीच मंजु का भी देहान्त हो जाता है। एक दिन गली की लड़ाई में पुलिस रामू को हिरासत में ले लेती है। शर्मा जी उसकी ज़मानत देते हैं और कहते हैं कि अब वह उसे झोपड़ पट्टी में नहीं रहने देंगे। रामू मान जाता है और उनके साथ रहने चला जाता है। मोहन का दिल टूट जाता है। तभी शर्मा जी का देहान्त हो जाता है और रामू के पास इम्तिहान की फ़ीस भरने के पैसे नहीं होते हैं। मोहन को जब यह बात पता चलती है तो बीमारी में भी वह गाकर पैसे जुटा लेता है और चुपके से रामू के स्कूल में जमा कर देता है। मोहन इतना बीमार पड़ जाता है कि उसे अस्पताल दाख़िल कराना पड़ता है, जहाँ मीना बिना बताए उसकी देखभाल करने लगती है। रामू इम्तिहान में अव्वल आता है और जब उसे सच्चाई का पता चलता है तो वह अपने दोस्त से मिलने अस्पताल जाता है। मोहन मीना और रामू को माफ़ कर देता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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