चाणक्य
चाणक्य
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पूरा नाम | चाणक्य |
अन्य नाम | कौटिल्य, विष्णुगुप्त |
जन्म | अनुमानत: ईसा पूर्व 370 |
जन्म भूमि | पंजाब |
मृत्यु | अनुमानत: ईसा पूर्व 283 |
मृत्यु स्थान | पाटलिपुत्र |
पति/पत्नी | 'बृहत्कथाकोश' के अनुसार चाणक्य की पत्नी का नाम 'यशोमती' था। |
कर्म भूमि | भारत |
कर्म-क्षेत्र | शिक्षक |
मुख्य रचनाएँ | अर्थशास्त्र |
प्रसिद्धि | राजनीतिज्ञ और चंद्रगुप्त मौर्य के महामंत्री |
विशेष योगदान | चाणक्य की सहायता और उनके कुशल निर्देशन से ही चंद्रगुप्त मौर्य ने भारत में मौर्य वंश की स्थापना की थी। |
नागरिकता | भारतीय |
संबंधित लेख | चंद्रगुप्त मौर्य, धननंद, तक्षशिला |
मुख्य प्रसंग | 'मुद्राराक्षस' में कहा गया है कि राजा नन्द ने भरे दरबार में चाणक्य को उसके उस पद से हटा दिया, जो उसे दरबार में दिया गया था। इस पर चाणक्य ने शपथ ली कि "वह उसके परिवार तथा वंश को निर्मूल करके नन्द से बदला लेगा।" |
अन्य जानकारी | चाणक्य ने 'अर्थशास्त्र' नामक एक ग्रन्थ की रचना की, जो तत्कालीन राजनीति, अर्थनीति, इतिहास, आचरण शास्त्र, धर्म आदि पर भली-भाँति प्रकाश डालता है। 'अर्थशास्त्र' मौर्य काल के समाज का दर्पण है, जिसमें समाज के स्वरूप का सर्वागं देखा जा सकता है। |
कौटिल्य अथवा 'चाणक्य' अथवा 'विष्णुगुप्त' (जन्म- अनुमानत: ईसा पूर्व 370, पंजाब; मृत्यु- अनुमानत: ईसा पूर्व 283, पाटलिपुत्र) सम्पूर्ण विश्व में एक महान राजनीतिज्ञ और मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के महामंत्री के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनका व्यक्तिवाचक नाम 'विष्णुगुप्त', स्थानीय नाम 'चाणक्य' (चाणक्यवासी) और गोत्र नाम 'कौटिल्य' (कुटिल से) था। ये चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रधानमन्त्री थे। चाणक्य का नाम संभवत उनके गोत्र का नाम 'चणक', पिता के नाम 'चणक' अथवा स्थान का नाम 'चणक' का परिवर्तित रूप रहा होगा। चाणक्य नाम से प्रसिद्ध एक नीतिग्रन्थ 'चाणक्यनीति' भी प्रचलित है। तक्षशिला की प्रसिद्धि महान अर्थशास्त्री चाणक्य के कारण भी है, जो यहाँ प्राध्यापक था और जिसने चन्द्रगुप्त के साथ मिलकर मौर्य साम्राज्य की नींव डाली। 'मुद्राराक्षस' में कहा गया है कि राजा नन्द ने भरे दरबार में चाणक्य को उसके उस पद से हटा दिया, जो उसे दरबार में दिया गया था। इस पर चाणक्य ने शपथ ली कि "वह उसके परिवार तथा वंश को निर्मूल करके नन्द से बदला लेगा।" 'बृहत्कथाकोश' के अनुसार चाणक्य की पत्नी का नाम 'यशोमती' था।[1]
जन्म तथा शिक्षा
माना जाता है कि चाणक्य ने ईसा से 370 वर्ष पूर्व ऋषि चणक के पुत्र के रूप में जन्म लिया था। वही उनके आरंभिक काल के गुरु थे। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि चणक केवल उनके गुरु थे। चणक के ही शिष्य होने के नाते उनका नाम 'चाणक्य' पड़ा। उस समय का कोई प्रामाणिक इतिहास उपलब्ध नहीं है। इतिहासकारों ने प्राप्त सूचनाओं के आधार पर अपनी-अपनी धारणाएं बनाई। परंतु यह सर्वसम्मत है कि चाणक्य की आरंभिक शिक्षा गुरु चणक द्वारा ही दी गई। संस्कृत ज्ञान तथा वेद-पुराण आदि धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन चाणक्य ने उन्हीं के निर्देशन में किया। चाणक्य मेधावी छात्र थे। गुरु उनकी शिक्षा ग्रहण करने की तीव्र क्षमता से अत्यंत प्रसन्न थे। तत्कालीन समय में सभी सूचनाएं व विधाएं धर्मग्रंथों के माध्यम से ही प्राप्त होती थीं। अत: धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन शिक्षा प्राप्त का एकमात्र साधन था। चाणक्य ने किशोरावस्था में ही उन ग्रंथों का सारा ज्ञान ग्रहण कर लिया था।[2]
अर्थशास्त्र
इन्होंने 'अर्थशास्त्र' नामक एक ग्रन्थ की रचना की, जो तत्कालीन राजनीति, अर्थनीति, इतिहास, आचरण शास्त्र, धर्म आदि पर भली भाँति प्रकाश डालता है। 'अर्थशास्त्र' मौर्य काल के समाज का दर्पण है, जिसमें समाज के स्वरूप को सर्वागं देखा जा सकता है। अर्थशास्त्र से धार्मिक जीवन पर भी काफ़ी प्रकाश पड़ता है। उस समय बहुत से देवताओं तथा देवियों की पूजा होती थी। न केवल बड़े देवता-देवी अपितु यक्ष, गन्धर्व, पर्वत, नदी, वृक्ष, अग्नि, पक्षी, सर्प, गाय आदि की भी पूजा होती थी। महामारी, पशुरोग, भूत, अग्नि, बाढ़, सूखा, अकाल आदि से बचने के लिए भी बहुत से धार्मिक कृत्य किये जाते थे। अनेक उत्सव, जादू टोने आदि का भी प्रचार था। अर्थशास्त्र राजनीति का उत्कृट ग्रन्थ है, जिसने परवर्ती राजधर्म को प्रभावित किया। चाणक्य ने अर्थशास्त्र में वार्ता (अर्थशास्त्र) तथा दण्डनीति (राज्यशासन) के साथ आन्वीक्षिकी (तर्कशास्त्र) तथा त्रयी (वैदिक ग्रन्थों) पर भी काफ़ी बल दिया है। अर्थशास्त्र के अनुसार यह राज्य का धर्म है कि वह देखे कि प्रजा वर्णाश्रम धर्म का 'उचित पालन करती है कि नहीं।[3]
- कौटिलीय अर्थशास्त्र के अनुसार
राजा का मुख्य कर्तव्य था प्रजा द्वारा वर्णाश्रम धर्म और नैतिक आचरण का पालन कराना। चाणक्य राजनीतिशास्त्र के प्रसिद्ध ग्रन्थ 'कौटिलीय अर्थशास्त्र' के रचयिता एवं चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रधान मन्त्री थे। चाणक्य का लिखा हुआ अर्थशास्त्र आज भी अपने विषय का एक श्रेष्ठ ग्रंथ है। अर्थशास्त्र में उन्होंने स्वयं लिखा है-
'येन शास्त्रं च शस्त्रं नन्दराजगता च भू:।
असर्षेणोद्धृतान्याशु तेन शास्त्रमिदं कृतम्।।'
अर्थात् जिसने कोप से शास्त्र, शस्त्र और नन्दराजा के अधीनस्थ भूमि का शीघ्र उद्धार किया, उसी ने अर्थशास्त्र नामक ग्रंथ की रचना की है। विष्णु पुराण में भी लिखा है कि कौटिल्य नामक ब्राह्मण नन्द वंश का विनाश करेगा और चन्द्रगुप्त मौर्य को राजा बनायेगा। इन प्रमाणों से सिद्ध होता है कि कौटिल्य चन्द्रगुप्त मौर्य के महामात्य थे और अर्थशास्त्र का रचना काल लगभग 300 ईसा पूर्व है।
आचार्य दण्डी ने कौटिल्य के अर्थशास्त्र के पढ़ने की संस्तुति की है और लिखा है कि उसका विषय दण्डनीति है तथा उसमें 600 श्लोक हैं। दण्डी की तरह ही आचार्य कामन्दक ने भी लिखा है कि विष्णुगुप्त ने अर्थशास्त्र के समुद्र से नीतिशास्त्र रूपी अमृत निकाला है और वह राज्य विद्या के जानने वालों में सर्वश्रेष्ठ है। किन्तु बाणभट्ट ने कौटिल्य के अर्थशासत्र को प्रमाण मानने वालों को अतिनृशंस और निर्घृण कहा है। इससे स्पष्ट है कि उनके समय में अर्थशास्त्र के महत्त्व का ह्रास हो गया था।
अर्थशास्त्र की परम्परा
कौटिल्य ने अनेकों ग्रंथों का अध्ययन करके अर्थशास्त्र की रचना की थी। बौद्ध धर्म के जातक ग्रंथों, लगभग 600 ईसा पूर्व से अर्थशास्त्र की गणना एक प्रमुख रूप में होने लगी थी। आश्वलायन गृहसूत्र में आदित्य नामक एक आचार्य का उल्लेख मिलता है, जिन्होंने अर्थशास्त्र पर एक ग्रंथ लिखा है। स्वयं कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में मानव, बार्हस्पत्य, औशनस, पराशर, पिशुन (नारद), कौसापदन्त (भीष्म-आम्भीय), वातव्याधि (उद्धव), वाहुदन्ती पुत्र (इन्द्र), भारतद्वाज, विशालाक्ष, द्रोण आदि अर्थशास्त्र के आचार्यों का नामोल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त इन्होंने 'इति आचार्यों' कहकर किसी अन्य आचार्य का भी उल्लेख किया है। आधुनिक विद्यार्थी के मत से वे आचार्य कौटिल्य के गुरु थे। कौटिल्य ने इन सभी आचार्यों के मतों की आलोचना की है और अन्त में अपना मत प्रस्तुत किया है। ऐसे अवसरों पर एक या कई आचार्यों के मत का उदाहरण देकर वे लिखते हैं- 'नेति कौटिल्य', अर्थात् कौटिल्य ऐसा नहीं मानते हैं।
कौटिल्य के बाद अर्थशास्त्र का विषय दण्ड नीति से हटकर जनपद संबंधी कार्यों का विधान हो गया। तब से धर्मशास्त्र के लेखक दण्डनीति और अर्थशास्त्र के सिद्धांतों की भी चर्चा अपने ग्रन्थों में करने लगे थे। इसी प्रकार पुराणकार भी पुराणों में इनकी चर्चा करने लगे थे। परन्तु कौटिल्य के अर्थशास्त्र की परम्परा में ये ग्रन्थ मुख्यत: नहीं आते हैं। उनकी परम्परा में कामन्दक का नीतिसार, शुक्र नीतिसार, बृहस्पति सूत्र, सोमदेव का नीतिवाक्यतामृत, वीरमित्रोदय, राजनीतिमयूख, राजनीति कामधेनु आदि ग्रन्थ हैं। बृहस्पति सूत्र मूलरूप में कौटिल्य के प्राचीन था, किन्तु जिस रूप में आज वह उपलब्ध है, वह नवम शताब्दी का संस्करण है। इसी प्रकार कामन्दक नीतिसार मूल रूप से 400 ईसवी का ग्रन्थ है। किन्तु आज वह जिस रूप में उपलब्ध है, वह 17वीं शताब्दी का है। इसी प्रकार शुक्र नीतिसार भी आज जिस रूप में मिलता है, वह कौटिल्य पूर्व शुक्र या उशनस का लिखा हुआ नहीं है। वर्तमान मनुस्मृति भी कौटिल्य पूर्व मनु की रचना नहीं है। इस प्रकार इस समय अर्थशास्त्र विषयक सबसे प्राचीन ग्रन्थ कौटिल्य का अर्थशास्त्र ही है। इसके पूर्व निश्चय ही बृहस्पति शुक्र तथा मनु के रचित ग्रन्थ थे, किन्तु अब वे उपलब्ध नहीं हैं।
अर्थशास्त्र की खोज
20वीं शती में महामहोपाध्याय शामशास्त्री और महामहोपाध्याय गणपति शास्त्री ने अर्थशास्त्र की खोज की और उसे सम्पादित करके प्रकाशित किया। शामशास्त्री ने इसका अंग्रेज़ी अनुवाद 1915 में मैसूर से प्रकाशित किया। महामहोपाध्याय गणपति शास्त्री ने इस पर एक टीका संस्कृत में लिखी तथा मूल और टीका दोनों को मैसूर से 1925 में तीन खंडों में प्रकाशित किया। टीका क पूर्व संस्कृत में भट्टस्वामी और माधवयज्वा ने अर्थशास्त्र पर टीकाएं लिखीं। इस पर एक टीका मलयालम मिश्रित तमिल में भी है। किन्तु वे तीनों टीकाएं अपूर्ण हैं। पूर्ण टीका केवल गणपति शास्त्री की है। अर्थशास्त्र का हिन्दी अनुवाद वाचस्पति गैरोला ने किया है, जो वाराणसी से प्रकाशित है। डॉ. काशी प्रसाद जायवसाल, डॉ. वेनी प्रसाद, डॉ. जी. बूहलर प्रभूति विद्वानों ने कौटिल्य के राजनीतिक सिद्धान्तों का विवेचनात्मक अनुशीलन प्रस्तुत किया। किन्तु वे अनुशीलन अभी अपर्याप्त हैं। अत: अभी इस ओर गंभीर अनुशीलन कार्य हो रहा है। 1976 में प्रो. वी.पी. सिन्हा ने 'रीडिंग्स इन कौटिल्याज अर्थशास्त्र' नाम से एक ऐसा ही अनुशीलन दिल्ली से प्रकाशित किया है।
अर्थशास्त्र की परम्परा के विषय में यह ज्ञातव्य है कि यह मनु की परम्परा से भिन्न है। मनु की परम्परा वेद मूलक है और अर्थशास्त्र की परम्परा लोकायतमूलक है। पहली अनुदान परम्परा है और दूसरी प्रगतिशील तथा उदार परम्परा है। दासों, शूद्रों, स्त्रियों आदि के बारे में इन दोनों परम्पराओं को रेखांकित किया जा सकता है। अर्थशास्त्र की परम्परा वस्तुत: इहलोकवाद (सेकुलेंरिजम) की परम्परा है। वह अर्थ को प्रधान पुरुषार्थ मानती है, जब कि मनु की परम्परा धर्म को प्रधान पुरुषार्थ मानती है।
दर्शनशास्त्र
औशनस दंडनीति को ही एकमात्र विद्या मानते हैं। बार्हस्पत्य वार्ता और दंडनीति इन विधाओं को मानते थे। मानव त्रयी (वेद), वार्ता और दंडनीति इन तीन विधाओं को मानते हैं। वे सभी आचार्य आन्वीक्षिकी (दर्शनशास्त्र) को कोई स्वतंत्र विद्या या शास्त्र नहीं मानते थे। किन्तु कौटिल्य आन्वीक्षिकी को एक पृथक विद्या मानते हुए कहते हैं कि आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दंडनीति ये चार विद्याएं हैं। आन्वीक्षिकी के अंतर्गत वे सांख्य योग और लोकायत को रखते हैं। उनके मत से आन्वीक्षिकी अन्य तीनों विद्याओं के बलाबल (प्रामाण्य या अप्रामाण्य) का निर्धारण हेतुओं से करती हैं। निश्चय ही आन्वीक्षिकी के सर्वाधिक महत्व को सर्वप्रथम कौटिल्य ने ही प्रतिपादित किया है। उनका कहना है-
प्रदीप: सर्वविद्ययानामुपाय: सर्वकर्मणाम्।
आश्रय: सर्वधर्माणां शश्वदान्वीक्षिकी मता।।
अर्थात् आन्वीक्षिकी सभी विद्याओं का शाश्वत प्रदीप, सभी कार्यों का शाश्वत साधन और सभी धर्मों का शाश्वत आश्रय है। कौटिल्य ने जैसे अर्थशास्त्र नामक एक नये शास्त्र का प्रवर्तन किया वैसे ही उन्होंने आन्वीक्षिकी के सही स्वरूप की भी संस्थापना की है।
दंड या राजशासन प्रजा को धर्म, अर्थ और काम में प्रवृत्त करता है। यह दंड या राजशासन ही कौटिल्य के अर्थशास्त्र का मुख्य वर्ण्य विषय है। आधुनिक अनुशीलनों से सिद्ध है कि कौटिल्य ने जिस राज्य की अवधारणा की थी, वह एक लोक कल्याणकारी राज्य (बेलफ़ेयर स्टेट) है। यद्यपि वे साम्राज्यवादी थे और मानते थे कि धर्म, व्यवहार, चरित्र और राज्य शासन क़ानून के चार पाद हैं और इन पादों में उत्तरोत्तर पाद पूर्वपाद से अधिक प्रमाणिक और सबल हैं, तथापि उनके मत से सम्राट निरंकुश नहीं हैं। सम्राट को वर्णाश्रम की व्यवस्था का पालन एवं संरक्षण करना चाहिए, क्योंकि वर्णाश्रम धर्म के नष्ट हो जाने पर समस्त पूजा का नाश हो जाता है। ऐसा इसलिए होता है कि तब प्रजा किंकर्तव्यविमुख हो जाती है और अराजकता की स्थिति पैदा हो जाती है।
पुनश्च, कौटिल्य मानते हैं कि अर्थ ही प्रधान पुरुषार्थ है और धर्म तथा काम अर्थ पर निर्भर करते हैं। 'अर्थ एवं प्रधान: इति कौटिल्य: अर्थमूलौ हि धर्मकामाविति'। फिर अर्थ की परिभाषा देते हुए वे कहते हैं कि मनुष्यों की वृत्ति अर्थ है या मनुष्यवती भूमि अर्थ है। इस अर्थ के लाभ और पालन के उपाय को बतलाने वाला शास्त्र अर्थशास्त्र है। इस प्रकार कौटिल्य के अर्थशास्त्र में आधुनिक राजनीति और आधुनिक अर्थशास्त्र दोनों का विधान है। कौटिल्य ने राजसत्ता और अर्थ को अन्योन्याश्रित माना है। यह एक शास्त्र है और प्रत्येक शास्त्र लोकहित का वर्धक होता है। अत: अर्थशास्त्र भी लोकहित का ही सम्पादन करता है। यदि कर्तव्यवश किसी राजा या दूत को अपने शत्रुओं से छल करने की शिक्षा यह शास्त्र देता है तो इस कारण इस शास्त्र को असत्शास्त्र या वंचनाशास्त्र नहीं कहा जा सकता। यह व्यक्ति विशेष की परिस्थिति का दायित्व है, जिसे कोई यथार्थवादी नकार नहीं सकता। अद्वैतवेदांती आनन्दगिरि ने अर्थशास्त्र विषयक चिंतन को शिष्टों का परमार्थ चिन्तन माना है, क्योंकि जो सुख है, वह अर्थघ्न नहीं हो सकता-'न चार्थचनं सुखम्'। पुनश्च, जिस अर्थ साधन का विधान अर्थशास्त्र करता है, वह त्रिवर्ग का साधक है, अथ च धर्म और काम पुरुषार्था का उन्नायक है। वास्तव में मूलत: अर्थशास्त्र का एकमात्र प्रयोजन प्रजा के सुख तथा हित का संवर्धन करना है। इसका औचित्य आन्वीक्षिकी पर आधारित है और इस कारण कौटिल्य के अर्थशास्त्र में समाज दर्शन, राजनीति दर्शन, अर्थ दर्शन और विधि दर्शन के सिद्धांत निहित और चर्चित हैं।
अर्थशास्त्र 32 युक्तियों से युक्त होने के कारण एक शास्त्र है। वे युक्तियाँ अर्थशास्त्र के अंतिम अध्याय में वर्णित हैं।
ज्ञानमीमांसा और तर्कशास्त्र के दृष्टिकोण से इन तंत्रयुक्तियों का महत्व अत्यधिक है। आधुनिक युग में एक्ज़ियोमैटिक्स (अभिगृहीतमीमांसा), संप्रत्यात्मक योजना (कनसेप्चुअल स्कीम) का तथा अधिसद्धांत (मेटा-थियरी) की जो परिकल्पनाएं की गई हैं, वे सब तंत्रयुक्ति के अंतर्गत आ जाती हैं। किसी शास्त्र या विज्ञान की वैज्ञानिकता की कसौटी के रूप में आज भी इनका महत्त्व अक्षुण्ण है। यह दूसरी बात है कि आज इन तंत्रयुक्तियों के नये वर्गीकरण किये गए हैं और कुछेक को जोड़ा और हटाया भी गया है। किन्तु कौटिल्य ने इनका प्राविधान किया है और इनके बल पर अर्थशास्त्र को एक शास्त्र या विज्ञान सिद्ध किया है। यह केवल ऐतिहासिक दृष्टि से ही अभूतपूर्व कार्य नहीं था, अपितु तार्किक संकल्पना की दृष्टि से भी इसका महत्व अभूतपूर्व था। अत: कौटिल्य का योगदान तर्कशास्त्र में भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
समाज की अवधारणा
कौटिल्य ने जिस समाज की अवधारणा की है, उसका प्राण तत्व राजा या राजसत्ता (स्टेट) है। राजसत्ता के अभाव में मात्स्यन्याय तथा अराजकता उत्पन्न होती है, परन्तु राजसत्ता पर भी धर्म का अनुशासन रहता है, क्योंकि धर्म राजसत्ता का पूर्ववर्ती और प्रेरक तत्व है। इस प्रकार कौटिल्य का समाज आर्यों का वर्णाश्रम धर्म से अनुशासित समाज ही है। परन्तु उसके अनुसार आर्यों में दास प्रथा का अभाव है। उन्होंने लिखा है कि कोई आर्य दास नहीं हो सकता- 'नेत्वेवार्यस्य दासभाव:'। दास केवल वे ही हो सकते हैं, जो अनार्य या म्लेच्छ हों। परन्तु आर्यों में भी आपत्ति के समय कुछ काल के लिए दास बनाये जाते थे, बनाये जा सकते हैं, ऐसा कौटिल्य ने लिखा है। किन्तु आदर्श रूप में उन्होंने यही माना है कि यथा सम्भव आर्यों में दास भाव नहीं होना चाहिए। इसी आधार पर मैगस्थनीज ने लिखा था कि मौर्य काल में भारतीयों में वह दास प्रथा नहीं थी, जो यूनानियों में थी। किन्तु आर्यों का समाज ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों में बंटा था और प्रत्येक वर्ण के व्यक्तियों के शासत्रानुमोदित कर्तव्य थे। यद्यपि नियमत: कोई व्यक्ति अपने पैतृक व्यवसाय के अतिरिक्त दूसरे वर्ण का व्यवसाय नहीं कर सकता था, तथापि कुछेक लोग ऐसा व्यवसाय परिवर्तन कर लेते थे। कौटिल्य ने ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के लिए ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास आश्रमों का विधान किया है। किन्तु जब तक किसी व्यक्ति के ऊपर घरेलू दायित्व है, तब तक उसे वानप्रस्थ या संन्यास आश्रम में नहीं जाना चाहिए, ऐसा उनका मत है। इसी प्रकार जो स्त्रियां सन्तान पैदा कर सकती हैं, उन्हें संन्यास ग्रहण करने का उपदेश देना कौटिल्य की दृष्टि में अनुचित है। इससे स्पष्ट है कि कौटिल्य ने गृहस्थ आश्रम सुदृढ़ करने का अथक परिश्रम किया है। विवाह के बारे में कौटिल्य का मत मनु के मत की तुलना में कुछ प्रगतिशील है। समाज में जितने प्रकार के विवाह होते थे, उन सबको कौटिल्य ने प्रामाणित माना है। किसी प्रकार घृणा या हीनता की दृष्टि से उनको नहीं देखा गया है। ब्राह्मण आदि प्रथम चार प्रकार के विवाहों में पिता ही प्रमाण है और गंधर्व आदि चार विवाहों में माता तथा पिता दोनों प्रमाण हैं। अंतर्जीतीय विवाह, विधवा विवाह तथा तलाक की प्रथाएं भी उस समय प्रचलित थीं।
किन्तु कौटिल्य के समाज की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह एक सार्वभौम समाज था। वह सभी जातियों और देशों के लिए हितकर था। यह कहने में अतिशियोक्ति नहीं है कि तत्कालीन विश्व में कौटिल्य का समाज निश्चय ही सर्वाधिक मानववादी और जनवादी था। राजसत्ता का उद्देश्य प्रजा के सुख और हित का संवर्धन तथा संरक्षण करना था। प्रतिदिन उठते ही शासक को सोचना चाहिए कि प्रजा का आर्थिक उत्थान किस प्रकार हो और अर्थानुशासन कैसे स्थापित हो। उन्नति का मूल आर्थिक उन्नति है।
प्रजासुखे संखु राज्ञ: प्रजानां च हिते हितम्।
नात्मप्रियं हितं राज्ञ: प्रजानां तु प्रियं हितम्।।
तस्मान्नित्योत्थतो राजा कुर्यादर्थानुशासनम्।
अर्थस्यमूलमुत्थानमनर्थस्य विषर्यय:।।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
पाण्डेय, प्रो. संगमलाल विश्व के प्रमुख दार्शनिक (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग, नई दिल्ली, 158।
- ↑ कौटिल्य (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 16 जुलाई, 2013।
- ↑ चाणक्य जीवन गाथा (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 14 फ़रवरी, 2014।
- ↑ 'कौटिल्य' और 'अर्थशास्त्र'
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