गंगा का पौराणिक महत्त्व
गंगा भारत की सबसे महत्त्वपूर्ण नदियों में से एक है। यह उत्तर भारत के मैदानों की विशाल नदी है। गंगा भारत और बांग्लादेश में मिलकर 2,510 किलोमीटर की दूरी तय करती हुई उत्तरांचल में हिमालय से निकलकर बंगाल की खाड़ी में भारत के लगभग एक-चौथाई भू-क्षेत्र से प्रवाहित होती है। गंगा नदी को उत्तर भारत की अर्थव्यवस्था का मेरुदण्ड भी कहा गया है।
पौराणिक कथाएँ
गंगा नदी के साथ अनेक पौराणिक कथाएँ जुड़ी हुई हैं। कुछ पुराणों ने गंगा को मन्दाकिनी के रूप में स्वर्ग में, गंगा के रूप में पृथ्वी पर और भोगवती के रूप में पाताल में प्रवाहित होते हुए वर्णित किया है।[1] विष्णु आदि पुराणों ने गंगा को विष्णु के बायें पैर के अँगूठे के नख से प्रवाहित माना है।[2] कुछ पुराणों में ऐसा आया है कि शिव ने अपनी जटा से गंगा को सात धाराओं में परिवर्तित कर दिया, जिनमें तीन (नलिनी, ह्लदिनी एवं पावनी) पूर्व की ओर, तीन (सीता, चक्षुस एवं सिन्धु) पश्चिम की ओर प्रवाहित हुई और सातवीं धारा भागीरथी हुई (मत्स्य पुराण 121|38-41; ब्रह्माण्ड पुराण 2|18|39-41 एवं 1|3|65-66)। कूर्म पुराण (1|46|30-31) एवं वराह पुराण (अध्याय 82, गद्य में) का कथन है कि गंगा सर्वप्रथम सीता, अलकनंदा, सुचक्ष एवं भद्रा नामक चार विभिन्न धाराओं में बहती है। अलकनंदा दक्षिण की ओर बहती है, भारतवर्ष की ओर आती है और सप्तमुखों में होकर समुद्र में गिरती है।[3] ब्रह्माण्ड पुराण (73|68-69) में गंगा को विष्णु के पाँव से एवं शिव के जटाजूट में अवस्थित माना गया है।
एक दूसरे पौराणिक आख्यान के अनुसार गंगा हिमालय और मैना की पुत्री तथा उमा की भगिनी थीं। महाभारत की एक कथा उसे कुरुराज शान्तनु की पत्नी और भीष्म की माता बताती है। जिसमें भीष्म का दूसरा नाम गांगेय भी है। गंगा का सम्बन्ध कार्तिकेय के मातृत्व से भी है। हिन्दुओं के जितने तीर्थ इस नदी के तीर पर हैं, उतने कहीं पर नहीं और उसकी पवित्रता का प्रभाव तो भारतीयों पर इतना गहरा पड़ा कि उन्होंने अनेक दूसरी नदियों के नाम भी गंगा रख दिये। जहाँ-जहाँ भारतीय संस्कृति का विस्तार हुआ, वहाँ-वहाँ गंगा की पवित्रता का विविध रूप से उल्लेख हुआ। गंगा की मकर पर आरूढ़ चँवर अथवा कलश धारिणी मूर्तियाँ भी गुप्तकाल में बनने लगी थीं।[4] ऋग्वेद के नदीसूक्त में गंगा की स्तुति हुई है और पुराणों ने उसकी महिमा का अनन्त बखान किया है।
पुराणों के अनुसार विवद्गंगा, आकाशगंगा अथवा स्वर्गगंगा विष्णु के अँगूठे से निकली हैं, जिसका पृथ्वी पर अवतरण भगीरथ के स्तवन से कपिल मुनि द्वारा भस्मीकृत राजा सगर के 60,000 पुत्रों की अस्थियों को पवित्र करने के लिए हुआ। भगीरथ के साथ इसी संयोग के कारण गंगा का दूसरा नाम भागीरथी पड़ा। पौराणिक परम्परा है कि स्वर्ग से उतरने के कारण गंगा अत्यन्त कुपित हो उठी थीं और उसके कोप के कारण पृथ्वी पर उसकी धारा पड़ते ही उनके बहकर नष्ट हो जाने के भय से शिव ने अपनी जटा में उसे समेट लिया, जिससे उनकी जटाओं में उलझ जाने के कारण धारा पृथ्वी पर सीधी नहीं पड़ी और गंगा की गति मन्द हो गई। इसी सम्बन्ध में शिव का एक नाम गंगाधर भी पड़ा। गंगा का अवतरण तपस्वी जह्नु के यज्ञ के लिए घातक हुआ, जिससे क्रुद्ध होकर उस तापस ने गंगा को पी डाला और प्रार्थना के बाद उसने कान से गंगा की धारा निकाल दी, जिससे वह जाह्नवी कहलाई हैं।
वन पर्व
वन पर्व[5] ने गंगा की प्रशस्ति में कई श्लोक[6] दिये हैं, जिनमें से कुछ का अनुवाद इस प्रकार है- "जहाँ भी कहीं स्नान किया जाए, गंगा कुरुक्षेत्र के बराबर है। किन्तु कनखल की अपनी विशेषता है और प्रयाग में इसकी परम महत्ता है। यदि कोई सैकड़ों पापकर्म करके गंगाजल का अवसिंचन करता है तो गंगाजल उन दुष्कृत्यों को उसी प्रकार जला देता है, जिस प्रकार से अग्नि ईधन को जला देती है। सत युग में सभी स्थल पवित्र थे, त्रेता युग में पुष्कर सबसे अधिक पवित्र था, द्वापर युग में कुरुक्षेत्र एवं कलियुग में गंगा। नाम लेने पर गंगा पापी को पवित्र कर देती है। इसे देखने से सौभाग्य प्राप्त होता है। जब इसमें स्नान किया जाता है या इसका जल ग्रहण किया जाता है तो सात पीढ़ियों तक कुल पवित्र हो जाता है। जब तक किसी मनुष्य की अस्थि गंगा जल को स्पर्श करती रहती है, तब तक वह स्वर्गलोक में प्रसन्न रहता है। गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं है और केशन के समान कोई देव। वह देश जहाँ गंगा बहती है और वह तपोवन जहाँ पर गंगा पाई जाती है, उसे सिद्धिक्षेत्र कहना चाहिए, क्योंकि वह गंगातीर को छूता रहता है।"
अनुशासन पर्व
अनुशासन पर्व[7] में आया है कि वे जनपद एवं देश, वे पर्वत एवं आश्रम, जिनसे होकर गंगा बहती है, पुण्य का फल देने में महान हैं। वे लोग, जो जीवन के प्रथम भाग में पापकर्म करते हैं, यदि गंगा की ओर जाते हैं तो परम पद प्राप्त करते हैं। जो लोग गंगा में स्नान करते हैं उनका फल बढ़ता जाता है। वे पवित्रात्मा हो जाते हैं और ऐसा पुण्यफल पाते हैं जो सैकड़ों वैदिक यज्ञों के सम्पादन से भी नहीं प्राप्त होता। भगवदगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि धाराओं में मैं गंगा हूँ।[8] मनु[9] ने साक्षी को सत्योच्चारण के लिए जो कहा है उससे प्रकट होता है कि मनुस्मृति के काल में गंगा एवं कुरुक्षेत्र सर्वोच्च पुनीत स्थल थे।[10]
विष्णु पुराण
विष्णु पुराण[11] ने गंगा की प्रशस्ति इस प्रकार की है- जब इसका नाम श्रवण किया जाता है, जब कोई इसके दर्शन की अभिलाषा करता है, जब यह देखी जाती है या स्पर्श की जाती है या जब इसका जल ग्रहण किया जाता है या जब कोई उसमें डुबकी लगाता है या जब इसका नाम लिया जाता है (या इसकी स्तुति की जाती है) तो गंगा दिन-प्रतिदिन प्राणियों को पवित्र करती है। जब सहस्रों योजन दूर रहने वाले लोग गंगा नाम का उच्चारण करते हैं, तो तीन जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं।[12]
भविष्य पुराण
भविष्य पुराण में भी ऐसा ही आया है।[13] मत्स्य, कूर्म, गरुड़ एवं पद्म पुराणों का कहना है कि गंगा में पहुँचना सब स्थानों में सरल है, केवल गंगाद्वार (हरिद्वार), प्रयाग एवं वहाँ जहाँ यह समुद्र में मिलती है, पहुँचना कठिन है। जो लोग यहाँ पर स्नान करते हैं, उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति होती है और जो लोग यहाँ पर मर जाते हैं, वे पुन: जन्म नहीं पाते हैं।[14]
नारद पुराण
नारद पुराण का कथन है कि गंगा सभी स्थानों में दुर्लभ है, किन्तु तीन स्थानों पर अत्यधिक दुर्लभ है। वह व्यक्ति जो चाहे या अनचाहे गंगा के पास पहुँच जाता है और मर जाता है, स्वर्ग जाता है और नरक नहीं देखता।[15]
कूर्म पुराण
कूर्म पुराण का कथन है कि गंगा वायु पुराण द्वारा घोषित स्वर्ग, अन्तरिक्ष एवं पृथ्वी में स्थित 35 करोड़ पवित्र स्थलों के बराबर है और वह उनका प्रतिनिधित्व करती है।[16]
पद्म पुराण
पद्मपुराण ने प्रश्न किया है- ‘बहुत धन के व्यय वाले यज्ञों एवं कठिन तपों से क्या लाभ, जब कि सुलभ रूप से प्राप्त होने वाली एवं स्वर्ग मोक्ष देने वाली गंगा उपस्थित है!’ नारदीय पुराणों में भी आया है-‘आठ अंगों वाले योग, तपों एवं यज्ञों से क्या लाभ? गंगा का निवास इन सभी से उत्तम है।’[17] पद्मपुराण[18] में आया है कि विष्णु सभी देवों का प्रतिनिधित्व करते हैं और गंगा विष्णु का। इसमें गंगा की प्रशस्ति इस प्रकार की गई है-‘पिता, पति, मित्रों एवं सम्बन्धियों के व्यभिचारी, पतित, दुष्ट, चाण्डाल एवं गुरुघाती हो जाने पर या सभी प्रकार के पापों एवं द्रोहों से संयुक्त होने पर क्रम से पुत्र, पत्नियाँ, मित्र एवं सम्बन्धि उनका त्याग कर देते हैं, किन्तु गंगा उन्हें परित्यक्त नहीं करती[19]
मत्स्य पुराण
मत्स्य पुराण[20] के दो श्लोक यहाँ वर्णन के योग्य हैं- "पाप करने वाला व्यक्ति भी सहस्रों योजन दूर रहता हुआ गंगा स्मरण से परम पद प्राप्त कर लेता है। गंगा के नाम-स्मरण एवं उसके दर्शन से व्यक्ति क्रम से पापमुक्त हो जाता है एवं सुख पाता है। उसमें स्नान करने एवं जल के पान से वह सात पीढ़ियों तक अपने कुल को पवित्र कर देता है।" काशीखण्ड[21] में ऐसा आया है कि गंगा के तट पर सभी काल शुभ हैं, सभी देश शुभ हैं और सभी लोग दान ग्रहण करने के योग्य हैं।
वराह पुराण
वराह पुराण[22] में गंगा की व्युत्पत्ति ‘गां गता’ (जो पृथ्वी की ओर गई हो) है। पद्मपुराण[23] ने गंगा के विषय में निम्न मूलमंत्र दिया है-
‘ओं नमो गंगायै विश्वरूपिण्यै नारायण्यै नमो नम:।’
पुराणों में गंगा के पुनीत स्थल का विस्तार
कुछ पुराणों में गंगा के पुनीत स्थल के विस्तार के विषय में व्यवस्था दी हुई है। नारद पुराण[24] में आया है- गंगा के तीर से एक गव्यूति तक क्षेत्र कहलाता है, इसी क्षेत्र सीमा के भीतर रहना चाहिए, किन्तु तीर पर नहीं, गंगातीर का वास ठीक नहीं है। क्षेत्र सीमा दोनों तीरों से एक योजन की होती है अर्थात् प्रत्येक तीर से दो कोस तक क्षेत्र का विस्तार होता है।[25] यम ने एक सामान्य नियम यह दिया है कि वनों, पर्वतों, पवित्र नदियों एवं तीर्थों के स्वामी नहीं होते, इन पर किसी का भी प्रभुत्व (स्वामी रूप से) नहीं हो सकता।
ब्रह्मपुराण का कथन है कि नदियों से चार हाथ की दूरी तक नारायण का स्वामित्व होता है और मरते समय भी (कण्ठगत प्राण होने पर भी) किसी को भी उस क्षेत्र में दान नहीं लेना चाहिए। गंगाक्षेत्र के गर्भ (अन्तर्वत्त), तीर एवं क्षेत्र में अन्तर प्रकट किया गया है। गर्भ वहाँ तक विस्तृत हो जाता है, जहाँ तक भाद्रपद के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तक धारा पहुँच जाती है और उसके आगे तीर होता है, जो गर्भ से 150 हाथ तक फैला हुआ रहता है तथा प्रत्येक तीर से दो कोस तक क्षेत्र विस्तृत रहता है।
आठ वसुओं की माँ
गंगा-यमुना के मध्य का समस्त भूभाग ययाति ने पुरु को दिया था। गंगा आठ वसुओं की माँ हैं। वसुओं ने गंगा से कहा था कि शान्तनु से उनके गर्भ धारण करने के उपरान्त उनके जन्मते ही जल में प्रवाहित कर देना। गंगा ने शान्तनु से उत्पन्न सात वसु जल में प्रवाहित कर दिए। आठवें वसु (भीष्म) को शान्तनु ने बचा लिया। [26]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पद्म पुराण 6|267|47
- ↑ वामपादाम्बुजांगुष्ठनखस्रोतोविनिर्गताम्। विष्णोर्बभर्ति यां भक्त्या शिरसाहनिंशं ध्रुव:।। विष्णु पुराण (2|8|109); कल्पतरु (तीर्थ, पृष्ठ 161) ने ‘शिव:’ पाठान्तर दिया है। ‘नदी सा वैष्णवी प्रोक्ता विष्णुपादसमुदभवा।’ पद्म पुराण (5|25|188)।
- ↑ तथैवालकनंदा च दक्षिणादेत्य भारतम्। प्रयाति सागरं भित्त्वा सप्तभेदा द्विजोत्तम:।। कूर्म पुराण (1|46|31)।
- ↑ महाभारत, वन पर्व, अध्याय 12, 42, 47, 83-88, 90, 93, 95, 99, 107-109 आदि।
- ↑ वन पर्व (अध्याय 85
- ↑ वन पर्व (श्लोक 88-97
- ↑ अनुशासन पर्व (36|26, 30-31
- ↑ स्रोतसामस्मि जाह्नवी, 10|31
- ↑ मनु (8|92
- ↑ यमो वैवस्वतो देवो यस्तवैष हृदि स्थित:। तेन चेदविवादस्ते मा गंगा मा कुरून्गम:।। मनु (8|92)।
- ↑ विष्णु पुराण (2|8|120-121
- ↑ श्रुताभिलषिता दृष्टा स्पृष्टा पीतावगाहिता। या पावयति भूतानि कीर्तिता च दिने दिने।। गंगा गंगेति यैनमि योजनानां शतेष्वपि। स्थितैरुच्चारितं हन्ति पापं जन्मत्रयार्जितम्।। विष्णु पुराण (2|8|120-121); गंगावाक्यावली (पृष्ठ 110), तीर्थचि. (पृष्ठ 202), गंगाभक्तितरंगिणी (पृष्ठ 9)। दूसरा श्लोक पद्म पुराण (6|21|8 एवं 23|12) एवं ब्रह्माण्ड पुराण (175|82) में कई प्रकार से पढ़ा गया है, यथा- गंगा........यो ब्रूयाद्योजनानां शतैरपि। मुच्यते सर्वपापेभ्यो विष्णुलोकं स गच्छति।। पद्य पुराण (1|31|77) में आया है......शतैरपि। नरो न नरकं याति किं तया सदृशं भवेत्।।
- ↑ दर्शनार्त्स्शनात्पानात् तथा गंगेति कीर्तनात्। स्मरणदेव गंगाया: सद्य: पापै: प्रमुच्यते।। भविष्य पुराण (तीर्थचि. पृष्ठ 198; गंगावाक्यावली पृष्ठ 12 एवं गंगाभक्तितरंगिणी पृष्ठ 9)। प्रथम पाद अनुशासन पर्व (26|64) एवं अग्नि पुराण (110|6) में आया है। गच्छंस्तिष्ठञ् जपन्ध्यायन् भुञ्जञ् जाग्रत स्वपन् वदन्। य: स्मरेत् सततं गंगां सोऽपि मुच्येत बन्धनात्।। स्कन्द पुराण (काशीखण्ड, पूर्वार्ध 27|37) एवं नारदीय पुराण (उत्तर, 39|16-17)।
- ↑ सर्वत्र सुलभा गंगा त्रिषु स्थानेषु दुर्लभा। गंगाद्वारे प्रयागे च गंगासागरसंगमे।। तत्र स्नात्वा दिवं यान्ति ये मृतास्तेऽपुनर्भवा:।। मत्स्य पुराण (106|54);कूर्म पुराण (1|37|34); गरुड़ पुराण (पूर्वार्ध, 81|1-2); पद्म पुराण (5|60|120)। नारदीय पुराण (40|26-27) में ऐसा पाठान्तर है- ‘सर्वत्र दुर्लभा गंगा त्रिषु स्थानेषु चाधिका। गंगाद्वारे.......संगमे।। एषु स्नाता दिवं.......र्भवा:।।’
- ↑ मत्स्य पुराण 107|4
- ↑ तिस्र: कोट्योर्धकोटी च तीर्थानां वायुरब्रवीत्। दिवि भुव्यन्तरिक्षे च तत्सर्व जाह्नवी स्मृता।। कूर्म पुराण (1|39|8); पद्म पुराण (1|47|7 एवं 5|60|59); मत्स्य पुराण (102|5, तानि ते सन्ति जाह्नवि)।
- ↑ किं यज्ञैर्बहुवित्ताढ्यै: किं तपोभि: सुदुष्करै:। स्वर्ग्मोक्षप्रदा गंगा सुखसौभाग्यपूजिता।। पद्म पुराण (5|60|39); किमष्टांगेन योगेन किं तपोभि: किमध्वरै:। वास एव हि गंगायां सर्वतोपि विशिष्यते।। नारदीय पुराण (उत्तर, 38|38); तीर्थचि. (पृष्ठ 194, गंगायां ब्रह्मज्ञानस्य कारणम्); प्रायश्चित्ततत्त्व (पृष्ठ 494)।
- ↑ पद्म पुराण (सृष्टि. 60|65
- ↑ पद्म पुराण, सृष्टिखण्ड, 60|25-26)।’
- ↑ मत्स्य पुराण (104|14-15
- ↑ काशीखण्ड (27|69
- ↑ वराह पुराण (अध्याय 82
- ↑ पद्म पुराण(सृष्टि खण्ड, 60|64-65
- ↑ नारद पुराण (उत्तर, 43|119-120
- ↑ तीराद् गव्यूतिमात्रं तु परित: क्षेत्रमुच्यते। तीरं वसेत्क्षेत्रे तीरे वासो न चेष्यते।। एकयोजनविस्तीर्णा क्षेत्रसीमा तटद्वयात्। नारद पुराण (उत्तर, 43|119-120)। प्रथम को तीर्थचि. (पृष्ठ 266) ने स्कन्द पुराण से उदधृत किया है और व्याख्या की है-‘उभयतटे प्रत्येकं कोशदयं क्षेत्रम्।’ अन्तिम पाद को तीर्थचि. (पृष्ठ 267) एवं गंगावाक्यावली (पृष्ठ 136) ने भविष्य पुराण से उदधृत किया है। ‘गव्यूति’ दूरी या लम्बाई की माप है जो सामान्यत: दो क्रोश (कोस) के बराबर है। लम्बाई के मापों के विषय में कुछ अन्तर है। अमरकोश के अनुसार ‘गव्यूति’ दो क्रोश के बराबर है, यथा- ‘गव्यूति: स्त्री क्रोशयुगम्।’ वायु पुराण (8|105 एवं 101|122-123) एवं ब्रह्माण्ड पुराण (2|7|96-101) के अनुसार 24 अंगुल=एक हस्त, 96 अंगुल=एक धनु (अर्थात् ‘दण्ड’, ‘युग’ या ‘नाली’); 2000 धनु (या दण्ड या युग या नालिका)=गव्यूति एवं 8000 धनु=योजन। मार्कण्डेय पुराण (46|37-40) के अनुसार 4 हस्त=धनु या दण्ड या युग या नालिका; 2000 धनु=क्रोश, 4 क्रोश=गव्यूति (जो योजन के बराबर है)। और देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड 3, अध्याय 5।
- ↑ महाभारत, आदिपर्व, अध्याय 2, 3, 61, 63, 67, 70, 87, 95-10।
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