कृष्ण जन्माष्टमी

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कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा
Krishna Birth Place, Mathura

भगवान श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव का दिन बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। कृष्ण जन्मभूमि पर देश–विदेश से लाखों श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती हें और पूरे दिन व्रत रखकर नर-नारी तथा बच्चे रात्रि 12 बजे मन्दिरों में अभिषेक होने पर पंचामृत ग्रहण कर व्रत खोलते हैं। कृष्ण जन्म स्थान के अलावा द्वारकाधीश, बिहारीजी एवं अन्य सभी मन्दिरों में इसका भव्य आयोजन होता हैं , जिनमें भारी भीड़ होती है।

भगवान श्रीकृष्ण का प्राकट्य उत्सव

माखनचोर कृष्ण
Makhanchor Krishna
  • भगवान श्रीकृष्ण ही थे, जिन्होंने अर्जुन को कायरता से वीरता, विषाद से प्रसाद की ओर जाने का दिव्य संदेश श्रीमदभगवदगीता के माध्यम से दिया।
  • कालिया नाग के फन पर नृत्य किया, विदुराणी का साग खाया और गोवर्धन पर्वत को उठाकर गिरिधारी कहलाये।
  • समय पड़ने पर उन्होंने दुर्योधन की जंघा पर भीम से प्रहार करवाया, शिशुपाल की गालियाँ सुनी, पर क्रोध आने पर सुदर्शन चक्र भी उठाया।
  • अर्जुन के सारथी बनकर उन्होंने पाण्डवों को महाभारत के संग्राम में जीत दिलवायी।
  • सोलह कलाओं से पूर्ण वह भगवान श्रीकृष्ण ही थे, जिन्होंने मित्र धर्म के निर्वाह के लिए गरीब सुदामा के पोटली के कच्चे चावलों को खाया और बदले में उन्हें राज्य दिया।
  • उन्हीं परमदयालु प्रभु के जन्म उत्सव को जन्माष्टमी के रूप में मनाया जाता है।

अवतार

भगवान श्रीकृष्ण विष्णुजी के आठवें अवतार माने जाते हैं। यह श्रीविष्णु का सोलह कलाओं से पूर्ण भव्यतम अवतार है। श्रीराम तो राजा दशरथ के यहाँ एक राजकुमार के रूप में अवतरित हुए थे, जबकि श्रीकृष्ण का प्राकट्य आततायी कंस के कारागार में हुआ था। श्रीकृष्ण का जन्म भाद्रपद कृष्ण अष्टमी की मध्यरात्रि को रोहिणी नक्षत्र में देवकीश्रीवसुदेव के पुत्ररूप में हुआ था। कंस ने अपनी मृत्यु के भय से बहिन देवकी और वसुदेव को कारागार में क़ैद किया हुआ था।

कृष्ण जन्म के समय भगवान विष्णु
God Vishnu at the Time of Krishna's Birth

कृष्ण जन्म के समय घनघोर वर्षा हो रही थी। चारों तरफ़ घना अंधकार छाया हुआ था। श्रीकृष्ण का अवतरण होते ही वसुदेव–देवकी की बेड़ियाँ खुल गईं, कारागार के द्वार स्वयं ही खुल गए, पहरेदार गहरी निद्रा में सो गए। वसुदेव किसी तरह श्रीकृष्ण को उफनती यमुना के पार गोकुल में अपने मित्र नन्दगोप के घर ले गए। वहाँ पर नन्द की पत्नी यशोदा को भी एक कन्या उत्पन्न हुई थी। वसुदेव श्रीकृष्ण को यशोदा के पास सुलाकर उस कन्या को ले गए। कंस ने उस कन्या को पटककर मार डालना चाहा। किन्तु वह इस कार्य में असफल ही रहा। श्रीकृष्ण का लालन–पालन यशोदा व नन्द ने किया। बाल्यकाल में ही श्रीकृष्ण ने अपने मामा के द्वारा भेजे गए अनेक राक्षसों को मार डाला और उसके सभी कुप्रयासों को विफल कर दिया। अन्त में श्रीकृष्ण ने आतातायी कंस को ही मार दिया। श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव का नाम ही जन्माष्टमी है। गोकुल में यह त्योहार 'गोकुलाष्टमी' के नाम से मनाया जाता है।

ज्योतिष के अनुसार

  • ज्योतिष के अनुसार श्रीकृष्ण जन्माष्टमी
  1. रोहिणी नक्षत्र योग से रहित हो, तो 'केवला' कहलाती है और
  2. नक्षत्र से युक्त हो तथा अर्धरात्रि हो, सोम या बुधवार अष्टमी तिथि से संयुक्त हो, तो वह 'जयन्ती' कहलाती है।
  • जन्म–जन्मांतरों के संचित पुण्य से ऐसा योग आता है।

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी महोत्सव

जन्माष्टमी के अवसर पर श्रद्धालुओं की भीड़, कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा
  • देश भर के श्रद्धालु जन्माष्टमी पर्व को बड़े भव्य तरीक़े से एक महान पर्व के रूप में मनाते हैं।
  • सभी कृष्ण मन्दिरों में अति शोभावान महोत्सव मनाए जाते हैं।
  • विशेष रूप से यह महोत्सव वृन्दावन, मथुरा (उत्तर प्रदेश), द्वारका (गुजरात), गुरुवयूर (केरल), उडृपी (कर्नाटक) तथा इस्कॉन के मन्दिरों में होते हैं।
  • श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का उत्सव सम्पूर्ण मण्डल में, घर–घर में, मन्दिर–मन्दिर में मनाया जाता है।
  • अधिकतर लोग व्रत रखते हैं और रात को बारह बजे ही 'पंचामृत या फलाहार' ग्रहण करते हैं।
  • मथुरा के जन्मस्थान में विशेष आयोजन होता है। सवारी निकाली जाती है। दूसरे दिन नन्दोत्सव में मन्दिरों में दधिकाँदों होता है।
  • फल, मिष्ठान, वस्त्र, बर्तन, खिलौने और रुपये लुटाए जाते हैं। जिन्हें प्रायः सभी श्रद्धालु लूटकर धन्य होते हैं।
  • गोकुल, नन्दगाँव, वृन्दावन आदि में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की बड़ी धूम–धाम होती है।

छबीले का छप्पन भोग

श्रीकृष्ण आजीवन सुख तथा विलास में रहे, इसलिए जन्माष्टमी को इतने शानदार ढंग से मनाया जाता है। इस दिन अनेक प्रकार के मिष्ठान बनाए जाते हैं। जैसे लड्डू, चकली, पायसम (खीर) इत्यादि। इसके अतिरिक्त दूध से बने पकवान, विशेष रूप से मक्खन (जो श्रीकृष्ण के बाल्यकाल का सबसे प्रिय भोजन था), श्रीकृष्ण को अर्पित किया जाता है। तरह–तरह के फल भी अर्पित किए जाते हैं। परन्तु लगभग सभी लोग लड्डू या खीर बनाना व श्रीकृष्ण को अर्पित करना श्रेष्ठ समझते हैं। विभिन्न प्रकार के पकवानों का भोजन तैयार किया जाता है तथा उसे श्रीकृष्ण को समर्पित किया जाता है।

प्रभु श्रीकृष्ण के विग्रह की भव्य सज्जा

आकर्षक वस्त्रों से सजे श्रीकृष्ण

पूजा कक्ष में जहाँ श्रीकृष्ण का विग्रह विराजमान होता है, वहाँ पर आकर्षक रंगों की रंगोली चित्रित की जाती है। इस रंगोली को 'धान के भूसे' से बनाया जाता है। घर की चौखट से पूजाकक्ष तक छोटे–छोटे पाँवों के चित्र इसी सामग्री से बनाए जाते हैं। ये प्रतीकात्मक चिह्न भगवान श्रीकृष्ण के आने का संकेत देते हैं। मिट्टी के दीप जलाकर उन्हें घर के सामने रखा जाता है। बाल श्रीकृष्ण को एक झूले में भी रखा जाता है। पूजा का समग्र स्थान पुष्पों से सजाया जाता है।

मध्यरात्रि को पूजा–अनुष्ठान

जन्माष्टमी के अवसर पर मन्दिरों को अति सुन्दर ढंग से सजाया जाता है तथा मध्यरात्रि को प्रार्थना की जाती है। श्रीकृष्ण की मूर्ति बनाकर उसे एक पालने में रखा जाता है तथा उसे धीरे–धीरे से हिलाया जाता है। लोग सारी रात भजन गाते हैं तथा आरती की जाती है। आरती तथा बालकृष्ण को भोजन अर्पित करने के बाद सम्पूर्ण दिन के उपवास का समापन किया जाता है।

ब्रजभूमि में जन्माष्टमी महोत्सव

  • ब्रजभूमि महोत्सव अनूठा व आश्चर्यजनक होता है।
  • सबसे पवित्रतम स्थान तो मथुरा को ही माना जाता है, और मथुरा में भी एक सुन्दर मन्दिर को जिसमें ऐसा विश्वास है कि यही वह स्थान है, जहाँ पर श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था।
  • ऐसा अनुमान है कि सात लाख लोगों से भी अधिक श्रद्धालु मथुरा व आस–पास के इलाक़ों से इस स्थान पर पूजा–अर्चना के लिए आते हैं।

श्रीकृष्ण जन्मभूमि मन्दिर

बाल कृष्ण को यमुना पार ले जाते वसुदेव
Vasudev Carring Krishna away from Yamuna
  • यह मन्दिर भक्तों का मुख्य आकर्षण केन्द्र है।
  • सैकड़ों भक्तगण ओजस्वी प्रवचनों को क्लोज़ सर्किट व टी. वी. की सहायता से मन्दिर के प्रत्येक कोने से देख व सुन सकते हैं।
  • कई लोग तो दिन से ही मन्दिर में डेरा डाल लेते हैं, ताकि मध्यरात्रि के जन्म समारोह को देख सकें।
  • अर्धरात्रि होती है, सभी श्रद्धालु उच्च स्वर में बोलते हैं - श्रीकृष्ण भगवान की जय।
  • छोटी सी मूर्ति श्वेत वस्त्र से ढंककर ऊँचे स्थान पर रख दी जाती है, ताकि सभी भक्तगण दर्शन कर सकें।

दही-हांडी समारोह

इसमें एक मिट्टी के बर्तन में दही, मक्खन, शहद, फल इत्यादि रख दिए जाते हैं। इस बर्तन को धरती से 30 – 40 फुट ऊपर टाँग दिया जाता है। युवा लड़के–लड़कियाँ इस पुरस्कार को पाने के लिए समारोह में हिस्सा लेते हैं। ऐसा करने के लिए युवा पुरुष एक–दूसरे के कन्धे पर चढ़कर पिरामिड सा बना लेते हैं। जिससे एक व्यक्ति आसानी से उस बर्तन को तोड़कर उसमें रखी सामग्री को प्राप्त कर लेता है। प्रायः रुपयों की लड़ी रस्से से बाँधी जाती है। इसी रस्से से वह बर्तन भी बाँधा जाता है। इस धनराशि को उन सभी सहयोगियों में बाँट दिया जाता है, जो उस मानव पिरामिड में भाग लेते हैं।

कृष्णावतार

प्रत्येक भारतीय भागवत पुराण में लिखित 'श्रीकृष्णावतार की कथा' से परिचित हैं। श्रीकृष्ण की बाल्याकाल की शरारतें जैसे - माखन व दही चुराना, चरवाहों व ग्वालिनियों से उनकी नोंक–झोंक, तरह - तरह के खेल, इन्द्र के विरुद्ध उनका हठ (जिसमें वे गोवर्धन पर्वत अपनी अँगुली पर उठा लेते हैं, ताकि गोकुलवासी अति वर्षा से बच सकें), सर्वाधिक विषैले कालिया नाग से युद्ध व उसके हज़ार फनों पर नृत्य, उनकी लुभा लेने वाली बाँसुरी का स्वर, कंस द्वारा भेजे गए गुप्तचरों का विनाश - ये सभी प्रसंग भावना प्रधान व अत्यन्त रोचक हैं।

आस्था के केंद्र

श्रीकृष्ण युगों-युगों से हमारी आस्था के केंद्र रहे हैं। वे कभी यशोदा मैया के लाल होते हैं तो कभी ब्रज के नटखट कान्हा और कभी गोपियों का चैन चुराते छलिया तो कभी विदुर पत्नी का आतिथ्य स्वीकार करते हुए सामने आते हैं तो कभी अर्जुन को गीता का ज्ञान देते हुए। कृष्ण के रूप अनेक हैं और वह हर रूप में संपूर्ण हैं। अपने भक्त के लिए हँसते-हँसते गांधारी के शाप को शिरोधार्य कर लेते हैं।

श्रीमदभगवदगीता

पाण्डवों के रक्षक के रूप में, कुरुक्षेत्र युद्ध में अर्जुन के रथ के सारथी बने श्रीकृष्ण की उदारता तथा उनका दिव्यसंदेश, शाश्वत व सभी युगों के लिए उपयुक्त है। शोकग्रस्त व व्याकुल अर्जुन को श्रीकृष्ण द्वारा दिया गया यह दिव्यसंदेश ही गीता में लिखा है। 'धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः' इस श्लोकांश से भगवद् गीता का प्रारंभ होता है। गीता मनुष्य के मनोविज्ञान को समझाने, समझने का आधार ग्रंथ है। हमारी संस्कृति के दो ध्रुव हैं- एक है श्रीराम और दूसरे ध्रुव है श्रीकृष्ण। राम अनुकरणीय हैं और कृष्ण चिंतनीय। भारतीय चिंतन कहता है पृथ्वी पर जहाँ-जहाँ जीवन है, वह विष्णु का अवतरण है। सभी छवियाँ महाकाल की महेश की, और जन्म लेने को आतुर सारी की सारी स्थितियाँ ब्रह्मा की हैं। ऊर्जा के उन्मेष के यही तीन ढंग हैं चाहे तो हम इस सारे विषय को पावन 'त्रिमूर्ति' भी कह सकते हैं।

आनंद का संगम

इसी परम तत्व का ज्ञान श्रीकृष्ण ने आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में, हताश अर्जुन को दिया था। गीता श्रीकृष्ण का भावप्रवण हृदय ग्रंथ है। इस पूरे विराट में जो नीलिमा समाई है और लगातार जो स्वर ध्वनि सुनाई पड़ती है, वह श्रीकृष्ण की वंशी है। उन्हें सत्-चित् आनंद का संगम माना गया है, सत् सब तरफ भासमान है चित् मौन और आनंद अप्रकट है, जिस प्रकार दूध में मक्खन छिपा रहता है, उसी प्रकार श्रीकृष्ण की शरण में गया आदमी, आनंद से पुलकित हो जाता है। कृष्ण भी कुछ ऐसे करुण हृदय हैं कि डूबकर पुकारो तो पलभर में, कृतकृत्य कर देते हैं। श्रीकृष्ण 'रसेश्वर' भी हैं और 'योगेश्वर' भी हैं।

कृष्ण, जिसके जन्म से पूर्व ही उसके मार देने का ख़तरा है। अंधेरी रात, कारा के भीतर, एक बच्चे का जन्म, जिसे जन्म के तत्काल बाद अपनी माँ से अलग कर दिया जाता है। जन्म के छ: दिन बाद पूतना (पूतना का अर्थ है पुत्र विरोधन नारी) जिसके पयोधर जहरीलें हैं, उसे मारने का प्रयत्न करती है।

जन नायक

मथुरा नगरी पर कंस का शासन था। कंस ने अपने पिता उग्रसेन को सत्ता हथियाने के लोभ में, जेल में डाल दिया था। कृष्ण ने देखा मथुरावासी कंस को अपनी कमाई का अंश, दूध-दही के रूप में दे देते हैं, तब उन्होंने इसका विरोध किया। प्रजा ने कृष्ण की बात समझी और कंस को खाद्य सामग्री पहुँचाना बंद कर दिया। यह कृष्ण का जननायक का रूप है। कंस इस बाधा से भड़क उठा और मल्ल युद्ध के बहाने उसने कृष्ण को उनके भाई बलराम सहित मथुरा बुलाकर मार डालने की योजना बनाई। कृष्ण की आयु उस समय बारह वर्ष रही होगी। कृष्ण भी असाधारण थे। वे अपने भाई के साथ (बलराम) मथुरा गए और कंस का वधकिया और अनुकूल परिस्थितियाँ होते हुए भी, राजसिंहासन पर स्वयं न बैठकर कारागार में क़ैद कंस के पिता उग्रसेन को राजसिंहासन पर बैठाया और फिर वृन्दावन भी छोड़ दिया।

कुरुक्षेत्र के मैदान में

श्री कृष्ण के विराट व्यक्तित्व कुरुक्षेत्र के मैदान में प्रकट होता है। कृष्ण ने प्रयत्न किया था कि युद्ध न हो। फिर युद्ध स्वीकार किया और युद्ध से पूर्व एक और निर्णय लिया- कि मेरी सेना दुर्योधन के साथ लड़ेगी। मैं अकेला पांडवों की ओर रहूँगा। ऐसा विरोधी निर्णय कृष्ण ही ले सकते थे। इसी से कहा जाता है कि कृष्ण अनुकरणीय नहीं, चिंतनीय हैं। उनके हर कार्य के पीछे गहरा प्रतीकार्थ है, जो सामान्य आदमी की समझ से बाहर है।

संसार को अनुशासित करने वाले

वृंदावन में कृष्ण ने जैसा नृत्य-संगीत भरा जीवन जिया, उस उत्सवपरक उल्लास भरे बचपन के ठीक विपरीत वही कृष्ण, कुरुक्षेत्र में अर्जुन से यह क्यों कर कह सकें-

'कुरुकर्मेव तस्मात्त्वम्' [1] अर्थात कर्म करो। यहाँ वे अर्जुन से युद्ध करने को कह रहे हैं।

समग्रता में ही सुंदरता

अपने यहाँ चार पुरुषार्थ गिनाए गए हैं, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इन चारों का निर्वचन ईशावास्योपनिषद के प्रथम श्लोक में है। ईश शब्द 'ईंट' धातु से बना हुआ है। मतलब यह है कि जो सभी को अनुशासित करता है या जिसका आधिपत्य सब पर है, वही ईश्वर है। उसे न मानना स्वयं को भी झुठलाना है। जो अपने को नहीं जानता वही ईश्वर को भी नहीं मानता। 'कर्म करते हुए ही सौ वर्षों तक जीवित रहने की इच्छा रखे' ईशावास्य उपनिषद का यह मंत्र हम सब जानते हैं। 'ईशावास्यमिंद सर्वम्', इस मंत्र में तीन पुरुषार्थ के लिए तीन बातें कही गई हैं।

  • मोक्ष पुरुषार्थ के लिए : 'ईशावास्यमिंद सर्वम्।'
  • काम पुरुषार्थ के लिए : 'तेन त्यक्तेन भुंजीथा:।'
  • अर्थ पुरुषार्थ के लिए : 'मागृध: कस्यस्विद् धनम्॥'
  • और चौथे धर्म नामक पुरुषार्थ के लिए : कुर्वन्नेवीह कर्माणि

कृष्ण कर्म की बात कर रहे हैं और साथ ही यह भी कह रहे हैं- 'सर्वधर्मान परित्यज्य', सब धर्म अर्थात् पिता, पुत्र, वाला धर्म छोड़कर जितने शारीरिक, सांसारिक या भौतिक, दैविक राग और रोग हैं वे सारी परिधियाँ पार कर, मैं जो सभी का कर्त्ता और भर्त्ता हूँ, उसकी शरण में आ। तब तू सब पापों से मुक्त, परम स्थिति को पा लेगा।

वीथिका

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (गीता 4/5)

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