माणिक्यनन्दि

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आचार्य माणिक्यनन्दि नन्दिसंघ के प्रमुख आचार्य थे। इनके गुरु रामनन्दि दादागुरु वृषभनन्दि और परदादागुरु पद्मनन्दि थे। इनके कई शिष्य हुए। प्रभाचन्द्र[1] ने न्याय शास्त्र इन्हीं से पढ़ा था तथा उनके 'परीक्षामुख' पर विशालकाय 'प्रमेयकमलमार्त्तण्ड' नाम की व्याख्या लिखी थी, जिसके अन्त में उन्होंने भी माणिक्यनन्दि को अपना गुरु बताया है।

जीवन परिचय

माणिक्यनन्दि की गणना जैन दर्शन के प्रमुख आचार्यों में होती है। वे धारा नगरी के रहने वाले थे। नन्दी संघ के आचार्य गणीरामनन्दी उनके गुरु थे। 'प्रमेय रत्नमाला' के अनुसार माणिक्यनन्दि आठवीं शती में हुए थे, किन्तु नयनन्दी विरचित 'सुदर्शनचरित' के अनुसार उनका समय ई. की ग्यारहवीं शती है। आधुनिक विद्वान डॉक्टर हीरा लाल जैन ने 'सिद्धिविनिश्च' टीका की प्रस्तावना में उनका समय ई. 993-1053 बताया है। डॉक्टर महेन्द्र कुमार जैन यह सम्भावना व्यक्त करते हैं कि माणिक्यनन्दि विद्यानन्द के समकालीन रहे होंगे और उनका समय ई. की 9वीं शती हो सकता है। 'जैन धर्म दर्शन' में डॉक्टर मोहन लाल मेहता लिखते हैं-

दसवीं शताब्दी में माणिक्यनन्दी की एक ही अमरकृति 'परीक्षामुख' इस ग्रन्थ का अध्ययन करने से ऐसा स्पष्ट मालूम होता है कि उन्होंने अकलंक के ग्रन्थों का पूर्णरूपेण अध्ययन करके उनके सिद्धांतों को आत्मसात् कर डाला था, साथ ही भारतीय दर्शन की अन्य शाखाओं में भी अच्छा परिचय प्राप्त कर लिया था। उनके प्रकाण्ड पांडित्य एवं आध्यात्मिक विकास को देखते हुए 'न्यायदीपिका' में उन्हें भगवान कहा गया है।

नयनन्दि के अनुसार

आद्य विद्या-शिष्य नयनन्दि थे, जिन्होंने 'सुदंसणचरिउ' एवं 'सयलविहिविहान' इन अपभ्रंश रचनाओं से अपने को उनका आद्य विद्या-शिष्य तथा उन्हें 'पंडितचूड़ामणि' एवं 'महापंडित' कहा है। नयनन्दि[2] ने अपनी गुरु-शिष्य परम्परा उक्त दोनों ग्रन्थों की प्रशस्तियों में दी है। इनके तथा अन्य प्रमाणों के अनुसार माणिक्यनन्दि का समय ई. 1028 अर्थात 11वीं शताब्दी सिद्ध है।

माणिक्यनन्दि के ग्रन्थ

माणिक्यनन्दि का 'परीक्षामुख' सूत्रबद्ध ग्रन्थ न्यायविद्या का प्रवेश द्वार है। ख़ास कर अकलंकदेव के जटिल न्याय-ग्रन्थों में प्रवेश करने के लिए यह निश्चय ही द्वार है। तात्पर्य यह कि अकलंकदेव ने जो अपने कारिकात्मक न्यायविनिश्चयादि न्याय ग्रन्थों में दुरूह रूप में जैन न्याय को निबद्ध किया है, उसे गद्य-सूत्रबद्ध करने का श्रेय इन्हीं आचार्य माणिक्यनन्दि को है। इन्होंने जैन न्याय को इसमें बड़ी सरल एवं विषद भाषा में उसी प्रकार ग्रंथित किया है जिस प्रकार मालाकार माला में यथायोग्य स्थान पर प्रवाल, रत्न आदि को गूंथता है। इस पर प्रभाचन्द्र ने 'प्रमेयकमलमार्त्तण्ड', लघुअनन्तवीर्य ने 'प्रमेयरत्नमाला', अजितसेन ने 'न्यायमणिदीपिका', चारुकीर्ति नाम के एक या दो विद्वानों ने 'अर्थप्रकाशिका' और 'प्रमेयरत्नालंकार' नाम की टीकाएँ लिखी हैं।

परीक्षामुख में समुद्देश्य

'परीक्षामुख' में छ: समुद्देश्य हैं।

  • प्रथम समुद्देश्य में प्रमाण की प्रतिष्ठा हुई है और इस सम्बन्ध में मीमांसकों के मत पर विशेष रूप विचार किया गया है।
  • द्वितीय समुद्देश्य में प्रमाण सम्बन्धी चार्वाक एवं बौद्धमतों पर विचार-विमर्श प्रस्तुत करते हुए सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष पर प्रकाश डाला गया है।
  • तृतीय समुद्देश्य में स्मृति आदि परोक्ष प्रमाण का प्रतिपादन करते हुए न्याय मत पर विचार किया गया है।
  • चतुर्थ समुद्देश्य में सामान्य विशेष सम्बन्धी सिद्धांत को स्पष्ट किया गया है।
  • पंचम समुद्देश्य में केवल तीन सूत्र हैं, जिनमें प्रमाण के फल का विवेचन हुआ है।
  • षष्ठ समुद्देश्य में आभासों एवं नयों के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए वादलक्षण और पत्रलक्षण के प्रस्तुत किया गया है।

परीक्षामुख पर प्रभानन्द ने 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' नामक एक बृहत् टीका लिखी है, जिसमें 12 हज़ार श्लोक हैं। लघु अनन्तवीर्य ने इस पर 'प्रमेयरत्नमाला' नामक टीका की रचना की है। इस पर तीसरी टीका 'प्रमेयरत्नालंकार' है, जिसके रचयिता भट्टारक चारूकीर्ति हैं। 'प्रमेयकण्ठिका' जिसके रचयिता शांतिवर्णी हैं, को 'परीक्षामुख' की टीका तो नहीं मान सकते, परन्तु इससे सम्बन्धित या इस पर आधारित पुस्तक अवश्य कहेंगे, क्योंकि 'परीक्षामुख' के प्रथम सूत्र का ही यह विवेचन विश्लेषण करता है।

प्रमाण के लक्षण को बताते हुए माणिक्यनन्दी ने कहा है कि वह ज्ञान जो स्व का अर्थात् अपने आप का तथा अपूर्वार्थ का यानी जिसे किसी अन्य प्रमाण से नहीं जाना गया है, उस वस्तु का निश्चय करता है, उसे प्रमाण कहते हैं। किन्तु निर्विकल्पक प्रत्यक्ष निश्चयात्मक नहीं होता। अत: इसे प्रमाण की कोटि में नहीं रख सकते। इस विचार की पुष्टि के लिए प्रमाण को व्यवसायात्मक माना गया है। व्यवसायात्मक होने के लिए ज्ञान का सविकल्पक होना आवश्यक है। नैयायिकों के द्वारा सन्निकर्षादि को प्रमाण माना गया है। परन्तु माणिक्यनन्दी ऐसा नहीं मानते। वे प्रकर्ष को प्रमाण का लक्षण मानते हैं। संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय के व्यवच्छेदन के रूप में 'प्रकर्ष' शब्द आता है। इसके लिए अकलंक ने 'अविसंवादी' शब्द का प्रयोग किया है।

ज्ञान हित प्राप्ति में सहायक होता है और अहित का परिहार करता है। अज्ञान से हित की प्राप्ति नहीं हो सकती और न उससे अहित का परिहार ही हो सकता है, अत: वह कभी भी प्रमाण की कोटि में नहीं रखा जा सकता। 'स्वार्थपूर्वार्थ व्यवसायात्मक ज्ञानं प्रमाणम्' यह प्रमाण लक्षण है। यद्यपि 'अपूर्वार्थ' विशेषण कुमारिल के प्रमाण लक्षण में हम देखते हैं, तथापि वह अकलंक और विद्यानन्द द्वारा 'कथंचित् अपूर्वार्थ' के रूप में जैन परम्परा में भी प्रतिष्ठित हो चुका था। माणिक्यनन्दी ने भी उसे अपना लिया। माणिक्यनन्दी का यह प्रमाण लक्षण इतना लोकप्रिय हुआ कि उत्तरवर्ती अनेक जैन तार्किकों ने उसे ही कुछ आंशिक परिवर्तन के साथ अपने तर्क ग्रन्थों में मूर्धन्य स्थान दिया।

प्रमाण के प्रकार

प्रमाण के प्रकारों के विषय में भारतीय दर्शन में एकमत नहीं है। दो ही प्रकार के प्रमाण माने गए हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष। माणिक्यनन्दी भी प्रमाण के इन्हीं दो प्रकारों को मानते हैं।

प्रत्यक्ष

प्रत्यक्ष को परिभाषित करते हुए माणिक्यनन्दी ने कहा है कि जो ज्ञान 'विशद' है, वही प्रत्यक्ष है। विशद का वे वही अर्थ लेते हैं, जो कि अकलंक ने लिया है। उनके अनुसार भी विशद शब्द का स्पष्टता और निर्मलता के लिए प्रयोग हुआ है। तात्पर्य यह है कि जो ज्ञान स्पष्ट है, निर्मल है उसे ही प्रत्यक्ष की संज्ञा मिल सकती है। पुन: वैशद्य की व्याख्या उन्होंने इस प्रकार की है- वह ज्ञान जो दूसरे ज्ञान के व्यवधान से रहित होता है तथा विशेषता के साथ प्रतिभासित होता है, विशद कहलाता है।

प्रत्यक्ष के प्रकार

प्रत्यक्ष के दो प्रकार हैं- मुख्य और सांव्यावहारिक। माणिक्यनन्दी ने पहले सांवयवहारिक प्रत्यक्ष की परिभाषा बताई है। वह ज्ञान जो इन्द्रिय और मन के माध्यम से प्राप्त होता है तथा एकदेशत: विशद होता है, सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष कहलाता है। नैयायिकों का कथन है कि यदि इन्द्रिय और अनिन्द्रिय को ज्ञान का कारण या उत्पादक माना जाता है तो क्यों नहीं अर्थ और आलोक को भी ज्ञान का कारण माना जाए, क्योंकि ज्ञान तथा आलोक के निमित्त से ज्ञान होता है। इसका समाधान करते हुए माणिक्यनन्दी ने कहा है कि अर्थ और आलोक सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष के कारण बनने के योग्य नहीं हैं, क्योंकि ये तो स्वयं ज्ञान के विषय हैं। जो ज्ञान का विषय है, वह ज्ञान का कारण या उत्पादक कैसे बन सकता है। जिसके सभी आवरण हट गए हैं तथा जो सामग्री की विशेषता से दूर हो गया है, ऐसे अतीन्द्रिय एवं पूर्ण विशद ज्ञान को मुख्य प्रत्यक्ष कहते हैं। जो ज्ञान इन्द्रियों से उत्पन्न होता है, तथा जिसका आवरण पूर्णरूपेण हटता नहीं, उस ज्ञान पर प्रतिबन्ध की संभावना रहती है। ऐसी स्थिति में उसकी विशदता संकुचित हो जाती है। फिर वह मुख्य प्रत्यक्ष की कोटि में नहीं आ सकता। मुख्य प्रत्यक्ष में अवधि ज्ञान, मन पर्ययज्ञान और केवल ज्ञान आते हैं तथा सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष में मतिज्ञान।

परोक्ष

जो प्रत्यक्ष से भिन्न होता है, उसे परोक्ष कहते हैं। ऐसा भी कहा जा सकता है कि जिसका निमित्त प्रत्यक्ष होता है, वह परोक्ष है। उसके पांच भेद होते हैं- स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम। धारण किये हुए संस्कार के प्रकट होने पर 'तत्' अर्थात् 'वह' के आकार में जो ज्ञान प्राप्त होता है, उसे स्मृति कहते हैं। 'यह वही है', इस ज्ञान में 'यह' वर्तमान से सम्बन्धित है और इस 'वही' का सम्बन्ध भूत से है। अत: इस ज्ञान का सम्बन्ध वर्तमान और भूत दोनों से ही है। ऐसे ज्ञान को प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। नैयायिक आदि दार्शनिकों ने सादृश्य के लिए उपमान प्रमाण माना है। किन्तु माणिक्यनन्दी ने कहा है कि यदि सादृश्य या साधर्म्य के के लिए उपमान प्रमाण होगा तो वैधर्म्य के लिए कौन सा प्रमाण होगा। संज्ञी पदार्थों के प्रतिपादन के लिए कौन सा प्रमाण होगा और 'यह इससे अल्प है', 'यह इससे महान है', 'यह इससे दूर है' आदि और (इसके निषेधात्मक रूप, जैसे) 'यह इससे सत्य नहीं है', 'यह इससे महान नहीं है', 'यह इससे दूर नहीं है' आदि के लिए कौन कौन से प्रमाण होंगे। अतएव उपमान प्रमाण को अलग से नहीं माना जा सकता। उसे भी सादृश्य प्रत्यभिज्ञान में समाविष्ट समझना चाहिए।

माणिक्यनन्दी का कथन

'उपलम्भ' अर्थात् अन्वय और अनुपलम्भ अर्थात् व्यतिरेक से जो व्याप्तिज्ञान प्राप्त होता है, उसे 'ऊह' यानी तर्क प्रमाण कहते हैं, जैसे साध्य के होने पर साधन का होना और साध्य के न रहने पर साधन का न होना। अविनाभाव अर्थात् साध्य के बिना साधन का न होना, साधन का साध्य के होने पर ही होना, अभाव में बिल्कुल न होना, इस नियम को सर्वोपंसहार रूप से ग्रहण करना तर्क है। अविनाभाव का एक उदाहरण है: अग्नि होने पर धूम का होना और अग्नि के न होने पर धूम का भी न होना। नैयायिकों का मत है कि केवल प्रत्यक्ष से ही व्याप्ति ज्ञान सम्भव है, किन्तु माणिक्यनन्दी का कथन है कि अनुमान अथवा आगम प्रमाण से भी व्याप्ति ज्ञान सम्भव है। सूर्य की गति को हम नहीं देख पाते, क्योंकि सूर्य हमसे बहुत दूर है। फिर भी उसकी गति के सम्बन्ध में हम अनुमान करते हैं।

अनुमान के सम्बन्ध में माणिक्यनन्दी का कथन है कि जब साधन से साध्य का ज्ञान प्राप्त होता है, तब उस ज्ञान को अनुमान कहते हैं। साध्य के साथ जिसका अविनाभाव सम्बन्ध निश्चित होता है और जो साध्य के अभाव में नहीं होता, उसे हेतु अर्थात् साधन कहते हैं। बौद्धों के अनुसार हेतु का यह लक्षण ठीक नहीं है। वे पक्षधर्मत्व, सपक्षधर्मत्व और विपक्षाद् व्यावृत्ति को हेतु का लक्षण मानते हैं, क्योंकि इन्हीं से क्रमश: असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिक दोषों का निवारण होता है। परन्तु माणिक्यनन्दी मानते हैं कि अविनाभाव के होने पर ही ये तीनों दोष दूर हो जाते हैं। अत: हेतु के लिए अविनाभावी होना आवश्यक है। आगम उस अर्थज्ञान को कहते हैं, जो आप्तवचन के निमित्त से होता है।

सामान्य या विशेष को प्रमाण माना जाए, उसके सम्बन्ध में विभिन्न मत पाये जाते हैं। सांख्य और वेदांत केवल सामान्य को प्रमाण मानते हैं। बौद्ध दर्शन में विशेष को प्रमाण माना गया है, न्याय वैशेषिक दोनों को ही स्वतंत्र रूप से प्रमाण मानते हैं, क्योंकि इन सब के अनुसार पदार्थों को ऐसे ही देखा जाता है। किन्तु माणिक्यनन्दी ने कहा है कि न केवल सामान्य को, न केवल विशेष को और न दोनों को ही स्वतंत्र रूप से प्रमाण माना जा सकता है, क्योंकि वस्तु का प्रतिभास ही ऐसा नहीं होता। वस्तु में सामान्य और विशेष दोनों एक साथ पाए जाते हैं। अत: सामान्य विशेषात्मक पदार्थ प्रमाण का विषय हो सकता है। सामान्य या विशेष को एकान्त रूप से अथवा स्वतंत्र रूप से दोनों को प्रमाण का विषय मानना विषयाभास है।

प्रमाण के चार फल होते हैं

अज्ञान की निवृत्ति, हान, उपादान और उपेक्षा। ये फल प्रमाण से भिन्न और अभिन्न दोनों ही होते हैं। इन्हें दो वर्गों में रखते हैं- साक्षात्फल और पारंपर्यफल। किसी वस्तु के जानते ही तत्काल जो लाभ प्राप्त होता है, उसे साक्षात्फल कहते हैं, जैसे अज्ञान की निवृत्ति। वस्तु के जानने के बाद परम्परागत रूप से जो लाभ प्राप्त होता है, उसे पारम्पर्यफल कहते हैं। इस कोटि में हान, उपादान और उपेक्षा को रखते हैं। वस्तु को जानने के बाद उसे अहितकर समझकर त्याग देना हान है। हितकर समझकर ग्रहण करना उपादान है और जिससे हित और अहित की कोई भी सम्भावना न हो, उसे ऐसा समझ कर त्याग देना उपेक्षा कही जाती है।

प्रमाण के स्वरूप, संख्या, विषय और फल पर विचार करने के बाद माणिक्यनन्दी बड़े ऊँचे ही स्वर में उद्घोष करते हैं कि इनसे भिन्न जो कुछ भी हैं, वे तदाभास हैं। ये आभास चार प्रकार के होते हैं-

  1. स्वरूपाभास- जो प्रमाण के सही स्वरूप के अभाव में ही आभासित होता है।
  2. संख्याभास- प्रमाण की अयथार्थ संख्या का आभासित होना।
  3. विषयाभास।
  4. फलाभास- प्रमाण से उसके फल को बिल्कुल भिन्न अथवा अभिन्न समझना।

इस प्रकार एक ही ग्रन्थ की रचना करके माणिक्यनन्दी ने जैन न्याय में अपना प्रतिमान स्थापित कर दिया है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

सिन्हा, डॉ. वशिष्ट नारायण विश्व के प्रमुख दार्शनिक (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग, नई दिल्ली, 391।

  1. ई. 1053
  2. वि. सं. 1100, ई. 1043

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