छायावाद

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'द्विवेदी युग' के पश्चात् हिन्दी साहित्य में कविता की जो धारा प्रवाहित हुई, वह छायावादी कविता के नाम से प्रसिद्ध हुई। 'छायावाद' की कालावधि सन 1917 से 1936 तक मानी गई है। वस्तुत: इस कालावधि में 'छायावाद' इतनी प्रमुख प्रवृत्ति रही है कि सभी कवि इससे प्रभावित हुए और इसके नाम पर ही इस युग को 'छायावादी युग' कहा जाने लगा था। 1916 ई. के आस-पास हिन्दी में कल्पनापूर्ण, स्वच्छंद और भावुकता की एक लहर उमड़ पड़ी। भाषा, भाव, शैली, छंद, अलंकार इन सब दृष्टियों से पुरानी कविता से इसका कोई मेल नहीं था। आलोचकों ने इसे 'छायावाद' या 'छायावादी कविता' का नाम दिया। 'छायावाद' शब्द का सबसे पहले प्रयोग मुकुटधर पाण्डेय ने किया। इस युग की हिन्दी कविता के अंतरंग और बहिरंग में एकदम परिवर्तन हो गया। वस्तु निरूपण के स्थान पर अनुभूति निरूपण को प्रधानता प्राप्त हुई थी। प्रकृति का प्राणमय प्रदेश कविता में आया। जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा इस युग के चार प्रमुख स्तंभ थे।

क्या है छायावाद?

'छायावाद' के स्वरूप को समझने के लिए उस पृष्ठभूमि को समझ लेना आवश्यक है, जिसने उसे जन्म दिया। साहित्य के क्षेत्र में प्राय: एक नियम देखा जाता है कि पूर्ववर्ती युग के अभावों को दूर करने के लिए परवर्ती युग का जन्म होता है। 'छायावाद' के मूल में भी यही नियम काम कर रहा है। इससे पूर्व 'द्विवेदी युग' में हिन्दी कविता कोरी उपदेश मात्र बन गई थी। उसमें समाज सुधार की चर्चा व्यापक रूप से की जाती थी और कुछ आख्यानों का वर्णन किया जाता था। उपदेशात्मकता और नैतिकता की प्रधानता के कारण कविता में नीरसता आ गई। कवि का हृदय उस निरसता से ऊब गया और कविता में सरसता लाने के लिए वह छटपटा उठा। इसके लिए उसने प्रकृति को माध्यम बनाया। प्रकृति के माध्यम से जब मानव-भावनाओं का चित्रण होने लगा, तभी 'छायावाद' का जन्म हुआ और कविता 'इतिवृत्तात्मकता' को छोड़कर कल्पना लोक में विचरण करने लगी।

हिन्दी कविता के क्षेत्र में प्रथम महायुद्ध (1914-1918 ई.) के आसपास एक विशेष काव्य धारा का प्रवर्तन हुआ, जिसे 'छायावाद' की संज्ञा दी गई है। यह नामकरण किस आधार पर तथा किसके द्वारा किया गया, इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ कहना कठिन है। जहाँ तक 'छाया' और 'वाद' का सम्बन्ध है, छायावाद काव्य के स्वरूप या उसके लक्षणों से इनका कोई मेल नहीं है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल का विश्वास था कि बंगला में आध्यात्मिक प्रतीकवादी रचनाओं को 'छायावाद' कहा जाता था। अत: हिन्दी में भी इस प्रकार की कविताओं का नाम 'छायावाद' चल पड़ा, किंतु हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इस मान्यता का खंडन करते हुए कहा है कि- "बंगला में छायावाद नाम कभी चला ही नहीं"।

समय काल

हिन्दी साहित्य में 'छायावाद' का अंकुरण रीतिकालीन काव्य, निवृत्ति मार्गी भाव और सूफी श्रृंगार के साथ-साथ अंग्रेज़ राज के पूंजीवादी उपभोक्तावाद के परिमार्जन की भूमिका के साथ हुआ। इस दौरान हिन्दी साहित्य का एक नया रूप बनने लगा। नये रूप, नई उपमाएँ सामने आईं। काव्य में भी रोमांटिक प्रवृत्ति का उदय हुआ। छायावाद विशेष रूप से हिन्दी साहित्य के उत्थान की वह धारा हैं, जो लगभग 1917 से 1936 के बीच हिन्दी साहित्य की प्रमुख युगवाणी रही। जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा और प्रेमचंद इस युग के प्रमुख साहित्यकार के रूप में स्थापित हुए। अज्ञेय के अनुसार 'छायावाद' भारतीय रोमांटिकवाद था। उदार, सुन्दर प्रकृति के प्रति आश्चर्य इसमें था, पर भाग्यवादी पात्र इसमें नहीं थे। रोमांटिकवाद का सबल ईश्वरवादी सारतत्व इसमें अन्तर्निहित था। प्रारम्भिक रोमांटिकवाद और भारतीय दर्शन के संश्लेषण का मिश्रण था 'छायावाद'।[1]

छायावाद शब्द का प्रयोग

हिन्दी की कुछ पत्रिकाओं- 'श्रीशारदा' और 'सरस्वती' में क्रमश: सन 1920 और 1921 में मुकुटधर पांडेय और सुशील द्वारा दो लेख 'हिन्दी में छायावाद' शीर्षक से प्रकाशित हुए थे। अत: कहा जा सकता है कि इस नाम का प्रयोग सन 1920 से या उससे पूर्व से होने लग गया था। संभव है कि मुकुटधर पांडेय ने ही इनका सर्वप्रथम आविष्कार किया हो। यह भी ध्यान रहे कि पांडेय जी ने इसका प्रयोग व्यंग्यात्मक रूप में छायावादी काव्य की अस्पष्टता (छाया) के लिये किया था। किंतु आगे चलकर वही नाम स्वीकृत हो गया। स्वयं छायावादी कवियों ने इस विशेषण को बड़े प्रेम से स्वीकार किया है। एक ओर जयशंकर प्रसाद लिखते हैं- "मोती के भीतर छाया और तरलता होती है, वैसे ही कांति की तरलता अंग में लावण्य कही जाती है। छाया भारतीय दृष्टि से अनुभूति की भंगिमा पर निर्भर करती है। ध्वन्यात्मकता, लाक्षणिकता, सौन्दर्यमय प्रतीक विधान तथा उपचार वक्रता के साथ अनुभूति की विवृत्ति छायावाद की विशेषताएं हैं। अपने भीतर से पानी की तरह आन्तर स्पर्श करके भाव समर्पण करने वाली अभिव्यक्ति छाया कांतिमय होती है।"

दूसरी ओर महादेवी वर्मा भी प्रसाद के स्वर में स्वर मिलाती हुई कहती हैं- "सृष्टि के बाह्याकार पर इतना लिखा जा चुका था कि मनुष्य का हृदय अभिव्यक्ति के लिए रो उठा। स्वछंद छंद में चित्रित उन मानव अनुभूतियों का नाम छाया उपयुक्त ही था और मुझे तो आज भी उपयुक्त लगता है।" जयशंकर प्रसाद और महादेवी वर्मा की इन उक्तियों में कोई तर्क नहीं है। जयशंकर प्रसाद जिन गुणों का आख्यान कर रहे हैं, उसके आधार पर तो इस कविता का नाम 'प्रकाश', 'चमक' या 'कांति' होना चाहिए था, या महादेवी वर्मा द्वारा परिगणित विशेषता को लेकर इसे अनुभूति भावुकता आदि किसी नाम से पुकारा जाना चाहिए था, किंतु वास्तविकता यह है कि नामकरण के सम्बन्ध में पूर्वजों के आगे किसी का वश नहीं चलता। कविता की तो बात ही क्या, स्वयं कवियों को भी कुछ ऐसे नाम विरासत में मिले हैं कि उन्हें उपनाम ढूंढने को विवश होना पड़ा है। अत: 'छायावाद' नाम को लेकर ज्यादा ऊहापोह करना अनावश्यक है।[2]

समाज का अन्तर्विरोध

छायावादी कविता और प्रेमचंद की कहानी और उपन्यासों के तुलनात्मक अध्ययन में इस युग के भारतीय समाज का कई अन्तर्विरोध सामने आता है। भारत में विकसित हो रहे पूंजीवादी विकास, राष्ट्रीय आत्मचेतना के जागरण तथा औपनिवेशिक और सामन्तवादी उत्पीड़न के विरुध्द व्यापक संघर्ष के प्रभाव के साथ-साथ 1919-1922 के राष्ट्रव्यापी आंदोलन की पराजय का प्रतिनिधित्व भी इसमें हुआ था। 1914 से प्रथम विश्वयुध्द शुरू हो गया था। 1917 से महात्मा गांधी का प्रभाव भारतीय राजनीति में बढ़ने लगा था। 'चौरीचौरा कांड' के हिंसक प्रभाव को ध्यान में रखकर गांधी जी ने असहयोग आंदोलन को 1922 में स्थगित कर दिया। इससे भारत के कुछ बुद्धिजीवियों में गहरी निराशा और उदासी छा गई थी। 1920 के आसपास सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने लिखा- "मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होती है। मनुष्यों की मुक्ति कर्मों के बन्धन से छुटकारा पाना है और कविता की मुक्ति छंदों के शासन से अलग हो जाना है।" भारतीय राजनीति में 'गांधी युग' और हिन्दी साहित्य में 'छायावादी युग' एक ही काल की उपज है। साहित्य रूपों के नवीकरण के मार्गों की खोज, रूढ़िगत बिम्बों को नये सिरे से समझने का प्रयास, भावावेगों की असाधारण प्रचुरता, प्राकृतिक सौन्दर्य की तीव्र अनुभूति, ओजपूर्ण, अभिव्यंजनात्म्क भाषा, कलात्मक गद्य आदि इस काल के हिन्दी साहित्यकारों की स्वाभाविक विशिष्टताएं थीं। छायावादी कवि भी सुन्दर, चिरयुवा प्रकृति को प्रस्तुत करते थे।[1]

मुख्य कवि

'छायावाद' का केवल पहला अर्थात् मूल अर्थ लेकर तो हिन्दी काव्य क्षेत्र में चलने वाली महादेवी वर्मा ही हैं। जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा इस युग के चार प्रमुख स्तंभ हैं। रामकुमार वर्मा, माखनलाल चतुर्वेदी, हरिवंशराय बच्चन और रामधारी सिंह दिनकर को भी 'छायावाद' ने प्रभावित किया। किंतु रामकुमार वर्मा आगे चलकर नाटककार के रूप में प्रसिद्ध हुए, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रवादी धारा की ओर रहे, बच्चन ने प्रेम के राग को मुखर किया और दिनकर जी ने विद्रोह की आग को आवाज़ दी। जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानन्दन पन्त और सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' इत्यादि और सब कवि प्रतीक पद्धति या चित्रभाषा शैली की दृष्टि से ही छायावादी कहलाए। छायावादी युग के प्रमुख कवि थे-

  1. रायकृष्ण दास
  2. वियोगी हरि
  3. डॉ. रघुवीर सहाय
  4. माखनलाल चतुर्वेदी
  5. जयशंकर प्रसाद
  6. महादेवी वर्मा
  7. नन्द दुलारे वाजपेयी
  8. डॉ. शिवपूजन सहाय
  9. सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
  10. रामचन्द्र शुक्ल
  11. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी
  12. बाबू गुलाबराय

"छायावाद के कवि वस्तुओं को असाधारण दृष्टि से देखते हैं। उनकी रचना की संपूर्ण विशेषताएँ उनकी इस ‘दृष्टि’ पर ही अवलंबित रहती हैं।...वह क्षण-भर में बिजली की तरह वस्तु को स्पर्श करती हुई निकल जाती है।...अस्थिरता और क्षीणता के साथ उसमें एक तरह की विचित्र उन्मादकता और अंतरंगता होती है, जिसके कारण वस्तु उसके प्रकृत रूप में नहीं किंतु एक अन्य रूप में दीख पड़ती है। उसके इस अन्य रूप का संबंध कवि के अंतर्जगत से रहता है।...यह अंतरंग दृष्टि ही ‘छायावाद’ की विचित्र प्रकाशन रीति का मूल है।" इस प्रकार मुकुटधर पांडेय की सूक्ष्म दृष्टि ने ‘छायावाद’ की मूल भावना ‘आत्मनिष्ठ अंतर्दृष्टि’ को पहचान लिया था। जब उन्होंने कहा कि "चित्र दृश्य वस्तु की आत्मा का ही उतारा जाता है," तो छायावाद की मौलिक विशेषता की ओर संकेत किया। छायावादी कवियों की कल्पनाप्रियता पर प्रकाश डालते हुए मुकुटधर जी कहते हैं- "उनकी कविता देवी की आँखें सदैव ऊपर की ही ओर उठी रहती हैं; मर्त्यलोक से उसका बहुत कम संबंध रहता है; वह बुद्धि और ज्ञान की सामर्थ्य-सीमा को अतिक्रम करके मन-प्राण के अतीत लोक में ही विचरण करती रहती है।"[2] यहीं छायावादिता से आध्यात्मिकता तथा धर्म-भावुकता का मेल होता है, यथार्थ में उसके जीवन के ये दो मुख्य अवलंब हैं।

परिभाषाएँ

'छायावाद' का नामकरण भले ही बिना सोचे समझे कर दिया गया हो, किंतु परिभाषाओं की दृष्टि से यह बड़ा सौभाग्यशाली है। विभिन्न विद्वानों ने अपने अपने ढंग से छायावाद की इतनी अधिक और विचित्र परिभाषाएँ दी हैं कि उन्हें पढ़कर चाहे 'छायावाद' समझ में आये या न आये, पाठक के मस्तिष्क पर अवश्य 'छायावाद' छा जाता है। 'छायावाद' अपने युग की अत्यंत व्यापक प्रवृत्ति रही है। फिर भी यह देख कर आश्चर्य होता है कि उसकी परिभाषा के संबंध में विचारकों और समालोचकों में एकमत नहीं हो सका।[3] विभिन्न विद्वानों ने 'छायावाद' की भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ की हैं-

  • आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने 'छायावाद' को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि- "छायावाद शब्द का प्रयोग दो अर्थों में समझना चाहिए। एक तो 'रहस्यवाद' के अर्थ में, जहाँ उसका संबंध काव्य-वस्तु से होता है अर्थात् जहाँ कवि उस अनंत और अज्ञात प्रियतम को को आलम्बन बनाकर अत्यंत चित्रमयी भाषा में प्रेम की अनेक प्रकार से व्यंजना करता है। 'छायावाद' शब्द का दूसरा प्रयोग काव्य शैली या पद्धति-विशेष के व्यापक अर्थ में है।... 'छायावाद' एक शैली विशेष है, जो लाक्षणिक प्रयोगों, अप्रस्तुत विधानों और अमूर्त उपमानों को लेकर चलती है।" दूसरे अर्थ में उन्होंने 'छायावाद' को चित्र-भाषा-शैली कहा है।
  • महादेवी वर्मा ने 'छायावाद' का मूल सर्वात्मवाद दर्शन में माना है। उन्होंने लिखा है कि- "छायावाद का कवि धर्म के अध्यात्म से अधिक दर्शन के ब्रह्म का ऋणी है, जो मूर्त और अमूर्त विश्व को मिलाकर पूर्णता पाता है। अन्यत्र वे लिखती हैं कि- "छायावाद प्रकृति के बीच जीवन का उद्-गीथ है"।
  • डॉ. राम कुमार वर्मा ने 'छायावाद' और 'रहस्यवाद' में कोई अंतर नहीं माना है। 'छायावाद' के विषय में उनके शब्द हैं- "आत्मा और परमात्मा का गुप्त वाग्विलास रहस्यवाद है और वही छायावाद है। एक अन्य स्थल पर वे लिखते हैं- "छायावाद या रहस्यवाद जीवात्मा की उस अंतर्निहित प्रवृत्ति का प्रकाशन है, जिसमें वह दिव्य और अलौकिक सत्ता से अपना शांत और निश्चल संबंध जोड़ना चाहती है और यह संबंध इतना बढ़ जाता है कि दोनों में कुछ अंतर ही नहीं रह जाता है। परमात्मा की छाया आत्मा पर पड़ने लगती है और आत्मा की छाया परमात्मा पर। यही छायावाद है।"
  • आचार्य नंददुलारे वाजपेयी का मंतव्य है- "मानव अथवा प्रकृति के सूक्ष्म किंतु व्यक्त सौंदर्य में आध्यात्मिक छाया का भान मेरे विचार से 'छायावाद' की एक सर्वमान्य व्याख्या हो सकती है। 'छायावाद' की व्यक्तिगत विशेषता दो रूपों में दीख पड़ती है- एक सूक्ष्म और काल्पनिक अनुभूति के प्रकाश में और दूसरी लाक्षणिक और प्रतीकात्मक शब्दों के प्रयोग में। और इस आधार पर तो यह कहा ही जा सकता है कि 'छायावाद' आधुनिक हिन्दी-कविता की वह शैली है, जिसमें सूक्ष्म और काल्पनिक सहानुभूति को लाक्षणिक एवं प्रतीकात्मक ढ़ंग पर प्रकाशित करते हैं।"
  • शांतिप्रिय द्विवेदी ने 'छायावाद' और 'रहस्यवाद' में गहरा संबंध स्थापित करते हुए कहा है- "जिस प्रकार 'मैटर ऑफ़ फैक्ट' (इतिवृत्तात्मक) के आगे की चीज छायावाद है, उसी प्रकार छायावाद के आगे की चीज रहस्यवाद है।"
  • गंगाप्रसाद पांडेय ने 'छायावाद' पर इस प्रकार से प्रकाश डाला है- "छायावाद नाम से ही उसकी छायात्मकता स्पष्ट है। विश्व की किसी वस्तु में एक अज्ञात सप्राण छाया की झांकी पाना अथवा उसका आरोप करना ही 'छायावाद' है। जिस प्रकार छाया स्थूल वस्तुवाद के आगे की चीज है, उसी प्रकार रहस्यवाद 'छायावाद' के आगे की चीज है।"
  • जयशंकर प्रसाद ने 'छायावाद' को अपने ढ़ग से परिभाषित करते हुए कहा है- "कविता के क्षेत्र में पौराणिक युग की किसी घटना अथवा देश-विदेश की सुंदरी के बाह्य वर्णन से भिन्न जब वेदना के आधार पर स्वानुभूतिमयी अभिव्यक्ति होने लगी, तब हिन्दी में उसे 'छायावाद' के नाम से अभिहित किया गया।"
  • डॉ. देवराज छायावाद को आधुनिक पौराणिक धार्मिक चेतना के विरुद्ध आधुनिक लौकिक चेतना का विद्रोह स्वीकार करते हैं।
  • डॉ. नगेन्द्र 'छायावाद' को स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह मानते हैं और साथ ही यह भी स्वीकार करते हैं कि- "छायावाद एक विशेष प्रकार की भाव-पद्धति है। जीवन के प्रति एक विशेष प्रकार का भावात्मक दृष्टिकोण है। उन्होंने इसकी मूल प्रवृत्ति के विषय में लिखा है कि वास्तव पर अंतर्मुखी दृष्टि डालते हुए, उसको वायवी अथवा अतीन्द्रीय रूप देने की प्रवृत्ति ही मूल वृत्ति है। उनके विचार से, युग की उदबुद्ध चेतना ने बाह्य अभिव्यक्ति से निराश होकर जो आत्मबद्ध अंतर्मुखी साधना आरंभ की वह काव्य में 'छायावाद' के रूप में अभिव्यक्त हुई। वे 'छायावाद' को अतृप्त वासना और मानसिक कुंठाओं का परिणाम स्वीकार करते हैं।
  • डॉ. नामवर सिंह ने अपनी पुस्तक "छायावाद" में विश्वसनीय तौर पर दिखाया कि 'छायावाद' वस्तुत: कई काव्य प्रवृत्तियों का सामूहिक नाम है और वह उस "राष्ट्रीय जागरण की काव्यात्मक अभिव्यक्ति" है, जो एक ओर पुरानी रुढ़ियों से मुक्ति पाना चाहता था और दूसरी ओर विदेशी पराधीनता से।

उपर्युक्त परिभाषाओं से 'छायावाद' की अनेक परिभाषाएँ स्पष्ट होती हैं, किंतु एक सर्वसम्मत परिभाषा नहीं बन सकी। उपरिलिखित परिभाषाओं से यह भी व्यक्त होता है कि 'छायावाद' स्वच्छंदतावाद (रोमांटिसिज्म) के काफ़ी समीप है। उपर्युक्त परिभाषाओ को समन्वित करते हुए यह कहा जा सकता है कि "संसार के प्रत्येक पदार्थ में आत्मा के दर्शन करके तथा प्रत्येक प्राण में एक ही आत्मा की अनुभूति करके इस दर्शन और अनुभूति को लाक्षणिक और प्रतीक शैली द्वारा व्यक्त करना ही 'छायावाद' है।" आधुनिक काल के 'छायावाद' का निर्माण भारतीय और यूरोपिय भावनाओं के मेल से हुआ है, क्योंकि उसमें एक ओर तो सर्वत्र एक ही आत्मा के दर्शन की भारतीय भावना है और दूसरी ओर उस बाहरी स्थूल जगत् के प्रति विद्रोह है, जो पश्चिमी विज्ञान की प्रगति के कारण अशांत एवं दु:खी है।

महत्त्वपूर्ण तथ्य

विद्वानों द्वारा दी गई परिभाषाओं से 'छायावाद' के सम्बन्ध में अनेक महत्त्वपूर्ण बातें ज्ञात होती हैं-

  1. 'छायावाद' और 'रहस्यवाद' एक हैं।
  2. 'छायावाद' एक शैली विशेष है।
  3. प्रकृति में छायावाद मानव जीवन का प्रतिबिम्ब देखता है अर्थात् प्रकृति का मानवीकरण करता है।
  4. यह एक दार्शनिक अनुभूति है।
  5. छायावाद एक भावात्मक दृष्टिकोण है।
  6. प्रकृति में छायावाद आध्यात्मिक सौन्दर्य का दर्शन करता है।
  7. गति तत्त्व की छायावाद में प्रमुखता है।
  8. छायावाद में प्रकृति का चित्रण होता है।
  9. छायावाद स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह है।[2]

रचनाएँ

'छायावाद' की रचनाएँ गीतों के रूप में ही अधिकतर होती हैं। इससे उनमें अन्विति कम दिखाई पड़ती है। जहाँ यह अन्विति होती है, वहाँ समूची रचना अन्योक्ति पद्धति पर की जाती है। इस प्रकार साम्य भावना का ही प्राचुर्य हम सर्वत्र पाते हैं। यह साम्य भावना हमारे हृदय का प्रसार करने वाली, शेष सृष्टि के साथ मनुष्य के गूढ़ संबंध की धारणा बँधाने वाली, अत्यंत अपेक्षित मनोभूमि है, इसमें संदेह नहीं, पर यह सच्चा मार्मिक प्रभाव वहीं उत्पन्न करती है, जहाँ यह प्राकृतिक वस्तु या व्यापार से प्राप्त सच्चे आभास के आधार पर खड़ी होती है। प्रकृति अपने अनंत रूपों और व्यापारों के द्वारा अनेक बातों की गूढ़ वा अगूढ़ व्यंजना करती रहती है।[4] इस व्यंजना को न परखकर या न ग्रहण करके जो साम्य विधान होगा, वह मनमाना आरोप मात्र होगा। इस अनंत विश्व महाकाव्य की व्यंजनाओं की परख के साथ जो साम्य विधान होता है, वह मार्मिक और उद्बोधाक होता है, जैसे-

दुखदावा से नवअंकुर पाता जग जीवन का वन
करुणार्द्र विश्व का गर्जन बरसाता नवजीवन कण।
खुल खुल नव इच्छाएं फैलाती जीवन के दल।
यह शैशव का सरल हास है, सहसा उर में है आ जाता।
यह ऊषा का नवविकास है, जो रज को है रजत बनाता।
यह लघु लहरों का विलास है, कलानाथ जिसमें खिंच आता।

हँस पड़े कुसुमों में छविमान, जहाँ जग में पदचिद्द पुनीत।
वहीं सुख में ऑंसू बन प्राण, ओस में लुढ़क दमकते गीत। (गुंजन)

मेरा अनुराग फैलने दो, नभ के अभिनव कलरव में।
जाकर सूनेपन के तम में, बन किरन कभी आ जाना।
अखिल की लघुता आई बन, समय का सुंदर वातायन।
देखने को अदृष्टर् नत्तान। (लहर)

जल उठा स्नेह दीपक सा, नवनीत हृदय था मेरा।
अब शेष धूमरेखा से, चित्रित कर रहा अंधेरा। (ऑंसू)

मनमाने आरोप, जिनका विधान प्रकृति के संकेत पर नहीं होता, हृदय के मर्मस्थल का स्पर्श नहीं करते, केवल वैचित्रय का कुतूहल मात्र उत्पन्न करके रह जाते हैं। 'छायावाद' की कविता पर कल्पनावाद, कलावाद, अभिव्यंजनावाद आदि का भी प्रभाव ज्ञात या अज्ञात के रूप में पड़ता रहा है। इससे बहुत सा अप्रस्तुत विधान मनमाने आरोप के रूप में भी सामने आता है। प्रकृति के वस्तु व्यापारों पर मानुषी वृत्तियों के आरोप का बहुत चलन हो जाने से कहीं-कहीं ये आरोप वस्तु व्यापारों की प्रकृत व्यंजना से बहुत दूर जा पड़े हैं, जैसे- चाँदनी के इस वर्णन में-

1. जग के दु:ख दैन्य शयन पर यह रुग्णा जीवनबाला।
पीली पड़, निर्बल, कोमल, कृश देहलता कुम्हलाई।
विवसना, लाज में, लिपटी, साँसों में शून्य समाई।

  • चाँदनी अपने आप इस प्रकार की भावना मन में नहीं जगाती। उसके संबंध में यह उद्भावना भी केवल स्त्री की सुंदर मुद्रा सामने खड़ी करती जान पड़ती है ,

2. नीले नभ के शतदल पर वह बैठी शारद हासिनि।
मृदु करतल पर शशिमुख धार नीरव अनिमिष एकाकिनि।

  • इसी प्रकार ऑंसुओं को 'नयनों के बाल' कहना भी व्यर्थ सा है। नीचे की जूठी प्याली भी[5] किसी मैखाने से लाकर रखी जान पड़तीहै ,

3. लहरों में प्यास भरी है, है भँवर पात्र से ख़ाली।
मानव का सब रस पीकर, लुढ़का दी तुमने प्याली।

प्रकृति चित्रण

छायावादी कवियों की रचनाएँ पारंपरिक भारतीय रचनाओं (कालिदास, जयदेव, विद्यापति, तुलसीदास, सूरदास) से इस बात में ऊपरी तौर पर भिन्न दिखती हैं कि उनमें प्रकृति चित्रण अपने आप में ध्येय नहीं होता, अपितु मानवीय भावनाओं से पूर्ण होता है। छायावादी रचनाओं में प्राकृतिक चित्रों के माध्यम से मानवी भावनाओं और अनुभूतियों के जगत् को समझने का प्रयास प्रमुख विशेषता बनकर उभरता है। अरविन्दो के अनुसार- "प्रकृति का यह रम्य अंचल कवि की कल्पना-भावना आदि का मनोहर विहार-स्थल था। इस प्रशान्त हरीतिमा में उसे कभी माँ की ममता भरी मूर्ति मिलती, कभी सहचरी सखी का स्नेह भरा सौन्दर्य मिलता और कभी अनुरागमयी बहन का सौम्य रूप दिखता, कभी ऋषियों की आशीषवाणी, कभी गुरु का गंभीर संदेश और मित्र की शुभकामना दिखती।" वास्तव में छायावाद ऊपर से जितना नया और मौलिक दिखता है, उससे कहीं अधिक इसके भीतर आधुनिकता और परम्परा के बीच के भारतीय द्वंद्व एवं संश्लेषण का युगीन अभिव्यक्ति है। इसमें परम्परा का पुनर्नवीनीकरण ही हुआ। निराला पर रामकृष्ण परमहंस एवं विवेकानंद का प्रभाव था। प्रसाद काश्मीर शैवागम और अभिनवगुप्त से प्रभावित थे। पंत पर अरविन्दो का प्रभाव था। महादेवी वर्मा पर मीराबाई का प्रभाव था। प्रेमचंद पर महात्मा गांधी और दयानंद सरस्वती का प्रभाव था। दुर्भाग्य से अब तक छायावाद के विश्लेषण पर मार्क्सवादी आलोचकों ने ही व्यवस्थित काम किया है। इन लोगों ने छायावादी रचनाकारों की पारम्परिक चिन्तनधारा को अनदेखा करने का काम किया है। वागीश शुक्ल ने निराला पर नई दृष्टि से चिन्तन किया है। रामस्वरूप चतुर्वेदी की आलोचना में भी कुछ नयापन है। लेकिन आधुनिक काल के भारतीय चिन्तकों- रामकृष्ण, विवेकानन्द, महात्मा गांधी, अरविन्दो या इनके पूर्व के आचार्यों- शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, वल्लभाचार्य, अभिनवगुप्त, गोरखनाथ, कबीर आदि की चिन्तन धारा के आलोक में छायावादी कवियों एवं लेखकों का व्यवस्थित मूल्यांकन होना अभी बाकी है।[1]

प्रसाद की 'कामायनी'

कुछ आलोचकों के अनुसार जयशंकर प्रसाद की 'कामायनी' छायावाद की अंतिम श्रेष्ठ उपलब्धि है। हिन्दी कविता के नूतनीकरण की इच्छा से प्रेरित होकर प्रसाद ने 'कामायनी' में भारत की पौराणिक कथाओं के पात्रों और विषय-वस्तुओं को नये सांचों में ढ़ाला है। ठीक इसी प्रकार महादेवी वर्मा के बारे में यह कहा जाता है कि रहस्यवादी गूढ़ार्थ, विश्व के मर्मो में पैठने की अभिलाषा, नीरव स्वरों और अर्धस्वरों से ध्वनित लघु प्रगीतात्मकता, चिरस्थायी विषादभरी मन: स्थिति बौध्दधर्म से प्रभावित करुणा की पुकारें आदि महादेवी वर्मा की कविता की विशिष्टतायें हैं।

प्रेमगीतात्मक प्रवृत्ति

'छायावाद' की प्रवृत्ति अधिकतर प्रेमगीतात्मक होने के कारण हमारा वर्तमान काव्य प्रसंगों की अनेकरूपता के साथ नई-नई अर्थ भूमियों पर कुछ दिनों तक बहुत कम चल पाया। कुछ कवियों में वस्तु का आधार अत्यंत अल्प रहता है। विशेष लक्ष्य अभिव्यंजना के अनूठे विस्तार पर रहा है। इससे उनकी रचनाओं का बहुत सा भाग अधार में ठहराया सा जान पड़ता है। जिन वस्तुओं के आधार पर उक्तियाँ मन में खड़ी की जाती हैं, उनका कुछ भाग कला के अनूठेपन के लिए पंक्तियों के इधर उधर से हटा भी लिया जाता है। अत: कहीं-कहीं व्यवहृत शब्दों की व्यंजकता पर्याप्त न होने पर भाव अस्फुट रह जाता है, पाठक को अपनी ओर से बहुत कुछ आक्षेप करना पड़ता है, जैसे नीचे की पंक्तियों में-

निज अलकों के अंधकार में तुम कैसे छिप आओगे।
इतना सजग कुतूहल! ठहरो, यह न कभी बन पाओगे।
आह, चूम लूँ जिन चरणों को चाँप चाँप कर उन्हें नहीं।
दुख दो इतना, अरे! अरुणिमा उषा सी वह उधर बही।

यहाँ कवि ने उस प्रियतम के छिपकर दबे पाँव आने की बात कही है, जिनके चरण इतने सुकुमार हैं कि जब आहट न सुनाई पड़ने के लिए वह उन्हें बहुत दबा दबाकर रखते हैं, तब एड़ियों में ऊपर की ओर ख़ून की लाली दौड़ जाती है। वही ललाई उषा की लाली के रूप में झलकती है। 'प्रसादजी' का ध्यान शरीर विकारों पर विशेष जमता था। इसी से उन्होंने 'चाँप चाँपकर दु:ख दो', से ललाई दौड़ने की कल्पना पाठकों के ऊपर छोड़ दी है। 'कामायनी' में उन्होंने मले हुए कान में भी कामिनी के कपोलों पर की 'लज्जा की लाली' दिखाई है।

साम्य

हमारे यहाँ साम्य मुख्यत: तीन प्रकार का माना गया है-

  1. सादृश्य - रूप या आकार का साम्य
  2. साधार्म्य - गुण या क्रिया का साम्य
  3. शब्दसाम्य - दोभिन्न वस्तुओं का एक ही नाम होना।

इसमें से अंतिम तो श्लेष की शब्द क्रीड़ा दिखाने वालों के ही काम का है। रहे सादृश्य और साधार्म्य। विचार करने पर इन दोनों में प्रभाव साम्य छिपा मिलेगा। सिद्ध कवियों की दृष्टि ऐसे ही अप्रस्तुतों की ओर जाती है, जो प्रस्तुतों के समान ही सौंदर्य, दीप्ति, कांति, कोमलता, प्रचंडता, भीषणता, उग्रता, उदासी, अवसाद, खिन्नता इत्यादि की भावना जगाते हैं। काव्य में बँधे चले आते हुए उपमान अधिकतर इसी के हैं। केवल रूप रंग, आकार या व्यापार को ऊपर से देखकर या नाप जोखकर, भावना पर उनका प्रभाव परखे बिना वे नहीं रखे जाते थे। पीछे कवि कर्म के बहुत कुछ श्रमसाध्य या अभ्यासगम्य होने के कारण जब कृत्रिमता आने लगी, तब बहुत से उपमान केवल बाहरी नाप जोख के अनुसार भी रखे जाने लगे। कटि की सूक्ष्मता दिखाने के लिए सिंहनी और भिड़ सामने लाई जाने लगी।[4]

काव्य शैली की विशेषता

'छायावाद' बड़ी सहृदयता के साथ प्रभाव साम्य पर ही विशेष लक्ष्य रखकर चला है। कहीं-कहीं तो बाहरी सादृश्य या साधार्म्य अत्यंत अल्प या न रहने पर भी आभ्यंतर प्रभाव साम्य लेकर अप्रस्तुतों का सन्निवेश कर दिया जाता है। ऐसे अप्रस्तुत अधिकतर उपलक्षण के रूप में या प्रतीकवत होते हैं, जैसे- सुख, आनंद, प्रफुल्लता, यौवन काल इत्यादि के स्थान पर उनके द्योतक उषा, प्रभात, मधुकाल, प्रिया के स्थान पर मुकुल; प्रेमी के स्थान पर मधुप; श्वेत या शुभ्र के स्थान पर कुंद, रजत; माधुर्य के स्थान पर मधु; दीप्तिमान या कांतिमान के स्थान पर स्वर्ण; विषाद या अवसाद के स्थान पर अंधकार, अंधेरी रात, संधया की छाया, पतझड़, मानसिक आकुलता या क्षोभ के स्थान पर झंझा, तूफान, भावतरंग के लिए झंकार, भावप्र्रवाह के लिए संगीत या मुरली का स्वर इत्यादि। आभ्यंतर प्रभाव साम्य के आधार पर लाक्षणिक और व्यंजनात्मक पद्धति का प्रगल्भ और प्रचुर विकास 'छायावाद' की काव्य शैली की असली विशेषता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 छायावाद का वास्तविक स्वरूप (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 04 अक्टूबर, 2013।
  2. 2.0 2.1 2.2 छायावाद और हिन्दी काव्य (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 04 अक्टूबर, 2013। सन्दर्भ त्रुटि: <ref> अमान्य टैग है; "aa" नाम कई बार विभिन्न सामग्रियों में परिभाषित हो चुका है
  3. छायावाद क्या है (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 04 अक्टूबर, 2013।
  4. 4.0 4.1 छायावाद (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 01 अक्टूबर, 2013।
  5. जो बहुत आया करती है।

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