सर्वात्मवाद
सर्वात्मवाद (अंग्रेज़ी: Animism) वह दार्शनिक, धार्मिक या आध्यात्मिक विचार है कि आत्मा न केवल मनुष्यों में होती है, वरन् सभी जन्तुओं, वनस्पतियों, चट्टानों, प्राकृतिक परिघटनाओं[1] में भी होती है। इससे भी आगे जाकर कभी-कभी शब्दों, नामों, उपमाओं, रूपकों आदि में भी आत्मा के अस्तित्व की बात कही जाती है। सर्वात्मवाद का दर्शन मुख्यत: आदिवासी समाजों में पाया जाता है, परन्तु यह हिन्दुओं के कुछ सम्प्रदायों में भी यह पाया जाता है।[2]
प्रयोग
हिन्दी में सर्वात्मवाद का प्रयोग निम्नलिखित तीन अर्थों में होता है-
- (क) कुछ लोग सर्वेश्वरवाद[3] के अर्थ में सर्वात्मवाद का प्रयोग करते है, जैसे रामचन्द्र शुक्ल और श्यामसुन्दर दास ने क्रमश: जायसी और कबीर के प्रसंग में किया है। यह सर्वात्मवाद का सर्वथा दूषित प्रयोग है। ईश्वर और आत्मा के प्रत्ययों में महान् अंतर है। ईश्वर ईशन या शासन करता है, आत्मा से यह अर्थ कथमपि नहीं लिया जा सकता। अंग्रेज़ी शब्द 'पैंथीज्म' के लिए सर्वेश्वरवाद उपयुक्त शब्द है, सर्वात्मवाद नहीं।
- (ख) भारतीय दर्शन में शंकराचार्य के अद्वैतवाद के अर्थ में भी सर्वात्मवाद का प्रयोग होता है, क्योंकि उनके अनुसार 'आत्मैवेदं सर्वम्', आत्मा ही यह सब कुछ है। बिना आत्मा के किसी वस्तु का ग्रहण नहीं हो सकता है, अत: आत्मा ही सब कुछ है- "आत्म- व्यतिरेकेण अग्रहणात् आत्मैवसर्वम्"। यहाँ आत्मा ही एक और अद्वितीय सत् है, अन्य कुछ जो आत्मा से भिन्न है, वस्तुत: मिथ्या है। आत्मपूर्वक सब कुछ को समझने पर 'सब कुछ' आत्मा ही प्रतीत होगा। अत: यह सर्व और आत्मा का तत्त्ववाद के अनुसार अभिन्न अर्थ है। यह सर्वात्मवाद का भारतीय अर्थ है। यह गढ़ा हुआ शब्द नहीं है। हिन्दी साहित्य में सर्वात्मवाद का यह अर्थ प्राय: नहीं किया जाता।
- (ग) हिन्दी में सर्वात्मवाद एक नया तथा गढ़ा हुआ शब्द समझा जाता है। इसका वही अर्थ लिया जाता है, जो अंग्रेज़ी शब्द पैनसाइकिज्म[4] का है। 'पैनसाइकिज्म' के अनुसार समस्त विश्व चेतन प्राणियों से ही बना है। सभी चेतन प्राणी मनुष्य जैसे ही हैं। अचेतन कोई वस्तु नहीं है तथाकथित जड वस्तुत: चैतन्यवान् प्राणी है, पर उसकी चेतना सुप्तावस्था में है। यूरोप में लाइबनीज का दर्शन इस वाद का प्रमुख उदाहरण है। भारत में ऐसा दर्शन कभी विकसित नहीं हुआ।[2]
सर्वजीववाद और सर्वात्मवाद
भारतीय दर्शन के सर्वात्मवाद से लाइबनीज के दर्शन को पृथक् रखने के लिए दूसरे को सर्वात्मवाद न कहकर 'सर्वजीववाद' या 'सर्वचेतनवाद' कहना अधिक उपयुक्त है। सर्वजीववाद और सर्वात्मवाद का अंतर समझ लेना आवश्यक है। पहले में जड़ वस्तु मिथ्या नहीं है, दूसरे में है। पहले में जड़ वस्तु सुप्त जीव या चेतन प्राणी है, दूसरे में वह मिथ्या है। पहले में चेतन प्राणी या जीव अनेक है, दूसरे में आत्मा एक और अद्वितीय है। इस प्रकार सर्वजीववाद वैपुल्यवाद है तो सर्वात्मवाद अद्वैतवाद। सर्वात्मवाद की आत्मा का प्रत्ययन भी सर्वजीववाद के जीव या चेतन प्राणी की चेतनता से भिन्न है। पहले में आत्मा 'नेति-नेति' या 'सत् चित् आनन्द' है, तो दूसरे में चेतनता केवल ज्ञान, भाव और इच्छा प्राप्त करने वाली है। आत्मा ज्ञाता, कर्ता और भोक्ता नहीं है, सर्वजीववाद या जीव ज्ञाता, कर्ता और भोक्ता है।
शंकराचार्य के दर्शन में प्रयोग
हिन्दी के संत साहित्य में शंकराचार्य के दर्शन के अर्थ में सर्वात्मवाद का प्रचुर प्रयोग है, पर उसमें सर्वेश्वरवाद और सर्वात्मवाद को पृथक् करना कठिन है। विशुद्ध सर्वात्मवाद प्रौढ़ दार्शनिकों की ही कृतियों में पाया जाता है। हिन्दी दर्शन के सम्राट निश्चलदास के 'विचार-सागर' और 'वृत्ति- प्रभाकर' में सर्वात्मवाद उसी अर्थ मे सिद्ध किया गया है, जिस अर्थ में वह अद्वैतवेदांत के ग्रंथों में है।[5][2]
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