मौर्यकालीन भारत

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मौर्यकालीन भारत

मौर्य साम्राज्य की सामाजिक आर्थिक, शासन प्रबंन्ध तथा धर्म और कला सम्बन्धी जानकारी के लिए कौटिल्य का अर्थशास्त्र, मैगस्थनीज़ कृत इंडिका तथा अशोक के अभिलेखों का ठीक से अर्थ लगाया जाए तो पता चलेगा कि वे एक दूसरे के पूरक हैं। रुद्रदामन के जूनागढ़ शिलालेख से भी प्रान्तीय शासन के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। मौर्य काल की जानकारी के लिए अर्थशास्त्र की प्रामाणिकता के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। परम्परागत धारणा के आधार पर इसे चंद्रगुप्त मौर्य के मंत्री चाणक्य (विष्णुगुप्त) द्वारा रचित मानकर ई0 पू0 चौथी शताब्दी का बताया जाता है। किन्तु वैज्ञानिक ढंग से किए गए आधुनिक शोध ने इस मत के प्रति आशंका व्यक्त की है। इस संदर्भ में ट्रांटमैन के शोधकार्य का उल्लेख अनुचित न होगा। अर्थशास्त्र की शैली के सांख्यकीय विश्लेषण द्वारा उन्होंने स्पष्ट किया है कि इसकी रचना एक युग विशेष में नहीं अपितु विभिन्न शताब्दियों में हुई और इसीलिए यह किसी व्यक्ति विशेष की रचना न होकर विभिन्न हाथों की कृति है। जहाँ कुछ अध्याय मौर्य काल के हैं वहाँ अधिकांश अध्याय ऐसे भी हैं जो तीसरी, चौथी शताब्दी ईस्वी में रचे गए।

मौर्यकालीन समाज

पूर्ववर्ती धर्मशास्त्रों की भाँति कौटिल्य ने भी वर्णाश्रम व्यवस्था को सामाजिक संगठन का आधार माना है। उसके अनुसार वर्णाश्रम व्यवस्था की रक्षा करना राजा का कर्तव्य है। धर्मशास्त्रों के अनुसार कौटिल्य ने भी चारों वर्णों के व्यवसाय निर्धारित किए। किन्तु शूद्र को शिल्पकला और सेवावृत्ति के अतिरिक्त कृषि, पशुपालन और वाणिज्य से आजीविका चलाने की अनुमति दी है। इन्हें सम्मिलित रूप में "वार्ता" कहा गया है। निश्चित है कि इस व्यवस्था से शूद्र के आर्थिक सुधार का प्रभाव उसकी सामाजिक स्थिति पर भी पड़ा होगा। कौटिल्य द्वारा निर्धारित शूद्रों के व्यवसाय वास्तविकता के अधिक निकट है। वैश्यों के सहायक के रूप में अथवा स्वतंत्र रूप से शूद्र भी कृषि, पशुपालन तथा व्यापार किया करते थे। अर्थशास्त्र में एक और परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है और वह यह कि शूद्र को आर्य कहा गया है तथा उसे म्लेच्छ से भिन्न माना गया है। कहा गया है कि आर्य शूद्र को दास नहीं बनाया जा सकता, यद्यपि म्लेच्छों में संतान को दास रूप में बेचना या ख़रीदना दोष नहीं है।

समाज में ब्राह्मणों का विशिष्ट स्थान था, किन्तु मनु तथा पूर्वगामी धर्मसूत्रों की भाँति इस तथ्य को बार बार दुहराने का प्रयास अर्थशास्त्र में नहीं किया गया है। यह बात अस्वीकार नहीं की जा सकती कि ब्राह्मण, समाज का बौद्धिक और धार्मिक नेतृत्व करते थे, वे ही शिक्षक तथा पुरोहित होते थे। ब्राह्मणों द्वारा यज्ञ करवाए जाने का उल्लेख मेगस्थनीज़ ने भी किया है। राजा के पुरोहित और क़ानून मंत्री अधिकांश इसी वर्ग से नियुक्त किए जाते थे। उन्हें आर्थिक और क़ानन सम्बन्धी विशेष अधिकार प्राप्त थे। राजा के शिक्षकों, यज्ञ कराने वाले पुरोहित (आचार्य) तथा वेदपाठी ब्राह्मणों को भूमि दान में दी जाती थी। यह भूमि 'ब्रह्मदेय' कहलाती थी और यह पूर्णतः कर मुक्त थी। ब्राह्मणों की समाज में प्रधानता बहुत पहले से चली आ रही थी और इस व्यवस्था में भी इसका प्रचलन विरोध नहीं किया गया।

ब्राह्मणादि चार वर्णों के अतिरिक्त कौटिल्य ने अनेक वर्णसंकर जातियों का भी उल्लेख किया है। इनकी उत्पत्ति धर्मशास्त्रों की भाँति विभिन्न वर्णों के अनुलोम और प्रतिलोम विवाहों में बताई गई है। जिन वर्णसंकर जातियों का उल्लेख है वे हैं - अम्बष्ठ निषाद, पारशव, रथकार, क्षत्ता, वेदेहक, मागध, सूत, पुल्लकस, वेण, चंडाल, श्वपाक इत्यादि। इनमें से कुछ आदिवासी जातियाँ थीं। जो निश्चित व्यवसाय से आजीविका चलाती थीं। कौटिल्य ने चांडालों के अतिरिक्त अन्य सभी वर्णसंकर जातियों को शूद्र माना है। इनके अतिरिक्त तंतुवाय (जुलाहे), रजक (धोबी), दर्जी, सुनार, लुहार, बढ़ई आदि व्यवसाय पर आधारित वर्ग, जाति का रूप धारण कर चुके थे। अर्थशास्त्र में इन सबका समावेश शूद्र वर्ण के अंतर्गत किया गया है। अशोक के शिलालेखों में दास और कर्मकर का उल्लेख है। जो शूद्र वर्ग के अंदर ही समाविष्ट किए जाते हैं।

जातिप्रथा की कुछ विशेषताओं की पुष्टि मेगस्थनीज़ की इंडिका से होती है। मेगस्थनीज़ ने लिखा है कि कोई भी व्यक्ति अपनी जाति के बाहर विवाह नहीं कर सकता, न वह अपने व्यवसाय को दूसरी जाति के व्यवसाय में बदल ही सकता है। केवल ब्राह्मणों को ही अपनी विशेष स्थिति के कारण यह अधिकार प्राप्त था। धर्मशास्त्रों में भी ब्राह्मणों को आपातकाल में क्षत्रीय तथा वैश्य का व्यवसाय अपनाने की अनुमति दी गई है।

मेगस्थनीज़ द्वारा भारतीय समाज का वर्गीकरण, भारतीय ग्रंथों में वर्णित वर्गीकरण से भिन्न है। मेगस्थनीज़ ने भारतीय समाज को सात जातियों में विभक्त किया है -

  1. दार्शनिक
  2. किसान
  3. अहीर
  4. कारीगर या शिल्पी
  5. सैनिक
  6. निरीक्षक
  7. सभासद तथा अन्य शासक वर्ग।

मेगस्थनीज़ का यह वर्णन भारतीय वर्णव्यवस्था या जातिवयवस्था से मेल नहीं खाता। दार्शनिकों की जाति को मेगस्थनीज़ दो श्रेणियों में विभक्त करता है -

  1. ब्राह्मण
  2. श्रमण।

ब्राह्मण 37 वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करके गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते थे। ब्राह्मणों की वृत्ति के सम्बन्ध में मेगस्थनीज़ लिखता है कि यज्ञ, अत्येष्टि क्रिया तथा अन्य धार्मिक कृत्य करवाने के बदले में उन्हें बहुमूल्य दक्षिणा मिलती है। श्रमणों को भी दो श्रेणियों में बाँटा गया है। जो वनों में रहते थे और कंद-मूल-फलों पर आजीविका चलाते थे इन्हें वैखानस या वानप्रस्थ आश्रम से सम्बद्ध माना जा सकता है। दूसरी श्रेणी के श्रमण वे थे जो आयुर्वेद में कुशल होते थे और समाज में सम्मानित थे। मेगस्थनीज़ के श्रमण तथा ब्राह्मण, वानप्रस्थाश्रम अथवा संन्यासियों से अधिक मेल खाते हैं, जैन और बौद्ध धर्मों से नहीं। मौर्यकालीन भारतीय समाज का जो सप्तवर्गीय चित्रण मेगस्थनीज ने प्रस्तुत किया है, उसमें जाति, वर्ण और व्यवसाय के अंतर को भुला दिया गया है। सम्भवतः एक विदेशी होने के कारण मेगस्थनीज भारतीय समाज की जटिलताओं को समझने में असमर्थ था।

परिवार में स्त्रियों की स्थिति स्मृतिकाल की अपेक्षा अब अधिक सुरक्षित थी। उन्हें पुनर्विवाह तथा नियोग की अनुमति थी। किन्तु फिर भी मौर्याकाल में स्त्रियों की स्थिति को अधिक उन्नत नहीं कहा जा सकता। उन्हें बाहर जाने की स्वतंत्रता नहीं थी और पति की इच्छा के विरुद्ध वे कोई कार्य नहीं कर सकती थीं। संभ्रांत घर कि स्त्रियाँ प्रायः घर के अंदर ही रहती थी। कौटिल्य ने ऐसी स्त्रियों को 'अनिष्कासिनी' कहा है। राजघराने के अंतःपुर का उल्लेख अर्थशास्त्र तथा अशोक के अभिलेखों में है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से सती प्रथा के प्रचलित होने का कोई प्रमाण नहीं मिलता। इस समय के धर्मशास्त्र इस प्रथा के विरुद्ध थे। बौद्ध तथा जैन अनुश्रुतियों में भी इसका उल्लेख नहीं है। किन्तु यूनानी लेखकों ने उत्तर पश्चिम में सैनिकों की स्त्रियों के सती होने का उल्लेख किया है। योद्धा वर्ग की स्त्रियों में सती की यह प्रथा प्रचलित रही होगी।

मौर्य युग में भी बहुत सी स्त्रियाँ ऐसी थीं जो विवाह द्वारा पारिवारिक जीवन न बिताकर गणिका या वेश्या के रूप में जीवन यापन करती थीं। वे अनेक प्रकार से राजा का मनोरंजन करती थीं। स्वतंत्ररूप से वेश्यावृत्ति करने वाली स्त्रियाँ 'रूपाजीवा' कहलाती थीं। इनसे राज्य को आय होती थी। इनके कार्यों का निरीक्षण गणिकाध्यक्ष तथा एक राजपुरुष करता था। बहुत सी गणिकाएँ गुप्तचर विभाग में भी काम करती थीं।

नगरों का जीवन चहल पहल का था। नट, नर्तक, गायक, वादक, तमाशा दिखाने वाले, रस्सी पर नाचने वाले तथा मदारी गाँवों और नगरों में अपनी कला का प्रदर्शन करते थे। इन कलाकारों के गाँवों में प्रवेश पर निषेध था किन्तु नगरों में ऐसा प्रतिबंध नहीं था। नगरों में प्रेक्षाएँ लोकप्रिय थीं। स्त्री और पुरुष कलाकार दोनों प्रेक्षाओं में भाग लेते थे। इन्हें रंगोपजीवी तथा रंगोपजीविनी कहते थे।

विहार, यात्रा, समाज, प्रवहण अन्य माध्यम से जिनके द्वारा जनता सामूहिक रूप से अपना मनोरंजन करती थी। एक प्रकार से समाज के वे जिनमें लोग सुरापान, माँस भक्षण तथा मल्लयुज़ को देखकर मनोरंजन करते थे। अशोक को ये समाज पसंद नहीं थे। अतः उसने नए समाजों का प्रारम्भ किया जिनमें हस्ति, अग्निस्तंभ तथा विमानों की झाकियाँ दिखाई जाती थीं, ताकि लोगों में धर्माचरण को प्रोत्साहन मिले। कुछ ऐसे समाज भी थे जो सरस्वती के भवन में आयोजित होते थे और इनमें साहित्यिक नाटकों का अभिनय तथा गोष्ठियों का आयोजन होता था। विहार यात्राओं में मृगया और सुरापान की प्रधानता रहती थी। अशोक ने इन यात्राओं को बंद करवा दिया और धम्म यात्राओं का प्रारम्भ किया। प्रवहण भी एक प्रकार के सामूहिक समारोह थे जिनमें भोज्य और पेय पदार्थों का प्रचुरता से उपयोग किया जाता था।

मौर्यकालीन आर्थिक व्यवस्था

राज्य की अर्थव्यवस्था कृषि, पशुपालन और वाणिज्य व्यापार पर आधारित थी। इनको सम्मिलित रूप से 'वार्ता' कहा गया है अर्थात वृत्ति का साधन। इन व्यवसायों में कृषि मुख्य था। एक अच्छे जनपद की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए कौटिल्य ने कहा है कि भूमि कृषि योग्य होनी चाहिए। वह 'अदेव मातृक' हो अर्थात ऐसी भूमि हो कि उसमें बिना वर्षा के अच्छी खेती हो सके। मेगस्थनीज़ के अनुसार दूसरी जाति में किसान लोग हैं जो दूसरों से संख्या में अधिक हैं। अन्य राजकीय सेवाओं से मुक्त होने के कारण वे सारा समय खेती में लगाते हैं। मेगस्थनीज़ ने आगे लिखा है कि भूमि पशुओं के निर्वाह योग्य है तथा अन्य खाद्य पदार्थ प्रदान करती हैं। चूँकि यहाँ वर्षा साल में दो बार होती है, अतः भारत में दो फ़सलें काटते हैं। देश के प्रायः समस्त मैदानों में ऐसी सीलन रहती है जो भूमि को समान रूप से उपजाऊ रखती है। मेगस्थनीज़ ने इस बात को अनेक बार दोहराया है कि शत्रु, अपनी भूमि पर काम करते हुए किसी को हानि नहीं पहुँचाता, क्योंकि इस वर्ग (किसान) के लोग सर्वसाधारण द्वारा हितकारी माने जाते हैं। इसलिए हानि से बचाए जाते हैं।

कृषि

राजकीय भूमि पर दासों, कर्मकरों और क़ैदियों द्वारा जुताई और बुआई होती थी। दास, कर्मकरों को भोजन आदि दिया जाता था और कार्य के दौरान नक़द मासिक वेतन भी दिया जाता था। परन्तु ऐसी भी राजकीय भूमि होती थी जिस पर सीताध्यक्ष द्वारा खेती नहीं कराई जाती थी। ऐसी भूमि पर करद कृषक खेती करते थे। कृषियोग्य तैयार खेतों को खेती के लिए किसानों को दे दिया जाता। जो भूमि कृषि योग्य न हो उसे यदि कोई खेती के योग्य बना ले तो यह भूमि उससे वापस नहीं ली जाती थी। मेगस्थनीज़, स्ट्राबो, ऐरियन इत्यादि यूनानी लेखकों के अनुसार सारी भूमि राजा की होती थी। वे राजा के लिए खेती करते थे और ¼ भाग राजा को लगान देते थे। यूनानी लेखकों का अभिप्राय राजकीय भूमि से है जो किसानों को बटाई पर दी जाती थी। कौटिल्य के अनुसार यदि वे अपने बीज, बैल और हथियार लाएँ तो वे उपज के ½ भाग के अधिकारी थे। यदि कृषि—उपकरण राज्य द्वारा दिए जाएँ तो वे ¼ या 1/3 अंश के भागी थे। इस राजकीय भूमि के अतिरिक्त ऐसी भूमि भी थी, जो गृहपतियों तथा अन्य कृषकों की निजी भूमि होती थी, जिस पर वे खेती करते थे और उपज का एक भाग कर के रूप में राजा को देते थे। यह अंश आमतौर पर उपज का छठा भाग होता था। किन्तु कभी—कभी ¼ भाग भी हो सकता था। इन कृषकों के ऊपर नियामक अधिकारी, समाहर्ता, स्थानिक तथा गोप होते थे, जो गाँवों में भूमि तथा अन्य प्रकार की सम्पत्ति के आँकड़े तथा लेखा रखते थे। राज्य की भूमि की व्यवस्था सीताध्यक्ष द्वारा होती थी और उससे होने वाली आय को कौटिल्य सीता कहा है। अनेक प्रमाणों से भूमि पर व्यक्तिगत अधिकार सिद्ध होता है। अर्थशास्त्र में क्षेत्रक (भूस्वामी) तथा उपवास (काश्तकार) के बीच स्पष्ट भेद दिखाया गया है। भूमि के सम्बन्ध में 'स्वाम्य' का उल्लेख है। कहा गया है कि जिस भूमि का स्वामी नहीं है वह राजा की हो जाती है। 'स्वाम्य' से व्यक्ति का भूमि पर अधिकार सिद्ध हो जाता है। व्यक्ति को भूमि के क्रय तथा विक्रय का अधिकार था। राज्य की ओर से सिंचाई का उचित प्रबन्ध था। इसे 'सेतुबंध' कहा गया है। इसके अंतर्गत तालाब, कुएँ तथा झीलों पर बाँध बनाकर एक स्थान पर पानी एकत्रित करना इत्यादि निर्माण कार्य आते हैं। मौर्यों के समय सौराष्ट्र में सुदर्शन झील के बाँध का निर्माण इस सेतुबंध का एक उदाहरण है। सिंचाई के लिए अलग कर देना पड़ता था। जिसकी दर उपज का 1/5 से 1/3 भाग तक थी। भूमिकर और सिंचाई कर को मिलाकर किसान को उपज का क़रीब ½ भाग देना पड़ता था। राज्य के अलावा लोग स्वयं कुएँ खुदवाकर तालाब या बावड़ी बनाकर सिंचाई की व्यवस्था करते थे। उन्हें प्रारम्भ में छूट देकर प्रोत्साहित किया जाता था। किन्तु कुछ समय बाद उन्हें भी सिंचाई कर देना पड़ता था।

पशुपालन

मेगस्थनीज़ ने लिखा है कि भारत में दुर्भिक्ष (अकाल) नहीं पड़ते। किन्तु कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अध्ययन से स्पष्ट है कि दुर्भिक्ष पड़ते थे और दुर्भिक्ष के समय राज्य द्वारा जनता की भलाई के उपाय किए जाते थे। जैन अनुश्रुति के अनुसार मगध में 12 साल का एक दुर्भिक्ष पड़ा था। सोहगोरा और महास्थान अभिलेख में दुर्भिक्ष के अवसर पर राज्य द्वारा, राज्य कोष्ठागार से अनाज वितरण का विवरण है।

इसके अतिरिक्त वन प्रदेश एवं चारागाह थे। वन दो प्रकार के होते थे -

  1. 'हस्तिवन' जहाँ पर हाथी रहते थे। ये हाथी राज्य की सम्पत्ति थे और लड़ाई के समय प्रयोग किए जाते थे।
  2. 'द्रव्यवन' जहाँ से अनेक प्रकार की लकड़ी तथा लौहा, ताँबा इत्यादि धातुएँ प्राप्त होती थी।

जंगलों पर राज्य का अधिकार था। इन वनों की उपज राज्य के कोष्ठागारों में पहुँचाई जाती थी और वहाँ से कारखानों में, जहाँ लकड़ी, मिट्टी तथा धातु की अनेक उपयोगी वस्तुएँ तथा युद्ध के लिए अस्त्र—शस्त्र बनाए जाते थे। कारखानों में बनी वस्तुएँ पण्याध्यक्ष के नियंत्रण में बाज़ारों में बेची जाती थीं।

व्यापार

मौर्यों के शासनकाल में राजनीतिक एकता तथा शक्तिशाली केन्द्रीय शासन के नियंत्रण से शिल्पों को प्रोत्साहन मिला। प्रशासनिक सुधार के साथ व्यापार की सुविधाएँ और व्यापार का पोषण करने वाले शिल्पों ने छोटे छोटे उद्योगों का रूप धारण कर लिया। मेगस्थनीज़ ने शिल्पियों को चौथी जाति माना है। उसके अनुसार, उनमे से कुछ राज्य को कर देते थे और नियत सेवाएँ भी करते थे। पुराना नियम यह था कि शिल्पी कर के बदले महीने में एक दिन राजा के यहाँ काम करते थे। यह नियम ग़ैर—सरकारी शिल्पियों के लिए था। किन्तु जो राजा के शिल्पी होते थे, वे अनेक प्रकार की धातुओं, लकड़ियों तथा पत्थरों से राज्य के लिए विविध वस्तुओं का निर्माण करते थे। मेगस्थनीज़ ने जहाज़ बनाने वालों, कवच तथा आयुधों का निर्माण करने वालों और खेती के लिए अनेक प्रकार के औज़ार बनाने वालों का उल्लेख किया है। खानों और जंगलों से प्राप्त धातु तथा लकड़ी से राज्य अनेक प्रकार के उद्योगों का संचालन करता था। वस्त्र उद्योग भी राज्य के द्वारा संचालित था। अतः इन विविध उद्योगों में अनेक शिल्पी विभिन्न अध्यक्षों के निरीक्षण में कार्य करते थे और राज्य से वेतन पाते थे। किन्तु अनेक स्वतंत्र शिल्पी भी थे। ये श्रेणियों में संगठित थे। श्रेणियों में संगठित होने से उनके वेतन तथा अन्य अधिकार अधिक सुरक्षित थे। शिल्पी के जीवन तथा सम्पत्ति—सुरक्षा की राज्य की ओर से पूरी व्यवस्था थी।

मौर्य युग का प्रधान उद्योग सूत कातने और बुनने का था। ऊन, रेशे, कपास, शण क्षोम और रेशम सूत कातने के लिए प्रयुक्त होते थे। अर्थशास्त्र से पता चलता है कि काशी, वंग, पुण्ड्र, कलिंग, मालवा सूती वस्त्र के लिए प्रसिद्ध थे। काशी और पुण्ड्र में रेशमी कपड़े भी बनते थे। प्राचीन काल से वंग का मलमल विश्वविख्यात था। चीन पट्ट का उल्लेख कौटिल्य में है जिससे पता चलता है कि रेशम चीन से आता था। मेगस्थनीज़ ने भारतीय वस्त्रों की बड़ी प्रशंसा की है। सरकारी कारख़ानों के अतिरिक्त जुलाहे स्वतंत्र रूप से भी कार्य करते थे।

खानों से कच्ची धातु निकालने, उसे गलाने, शुद्ध करने और लचीला बनाने की क्रिया की अच्छी जानकारी प्राप्त हो चुकी थी। मेगस्थनीज़ ने भारत में अनेक प्रकार की धातुओं की खानों का ज़िक्र किया है। जैसे सोना, चाँदी, ताँबा, लोहा आदि। इनका उपयोग आभूषण, बर्तन, युद्ध के हथियार, सिक्के आदि बनाने के लिए किया जाता था। लोहाध्यक्ष के निरीक्षण में युद्ध के हथियार तथा कृषि के उपकरण बनाने के लिए लोहे का उपयोग किया जाता था। सोने और चाँदी के अनेक प्रकार के आभूषण तथा सिक्के सुवर्णाध्यक्ष व लक्षणाध्यक्ष के निरीक्षण में बनते थे।

मणि मुक्ताओं का उपयोग समृद्ध परिवारों में होता था। मोतियों को अनेक लड़ियों में पिरोकर हार बनाए जाते थे, जो गले में पहने जाते थे। मुक्ता लड़ियाँ कमर और हाथों को सजाने के लिए उपयोग में लाई जाती थी। इस प्रकार मणिकार और सुवर्णकार राजघराने तथा समृद्ध परिवारों की आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे।

इन उद्योगों के अतिरिक्त कई अन्य उद्योग भी मौर्य काल में अच्छी अवस्था में थे, जैसे हाथीदाँत का काम करने वाले, मिट्टी के बर्तन बनाने वाले तथा चर्मकार। पशुओं की खाल जूते बनाने, वर्म या ढाल बनाने के लिए उपयोग में लाई जाती थी।

  • नियार्कस ने लिखा है कि भारतीय श्वेत रंग के जूते पहनते हैं, जो कि अति सुन्दर होते हैं। इनकी एड़ियाँ कुछ ऊँची बनाई जाती हैं। हाथीदाँत के काम में भारतीय बहुत पहले से ही कुशल थे।
  • एरियन ने समृद्ध परिवारों के द्वारा हाथीदाँत के कर्णाभूषण का इस्तेमाल किए जाने का उल्लेख किया है। यद्यपि कौटिल्य ने कुम्भकार की श्रेणियों का उल्लेख नहीं किया है। फिर भी हमें मालूम है कि मिट्टी के बर्तन साधारण लोगों के द्वारा बड़ी मात्रा में उपयोग में लाए जाते थे। मौर्यकाल के काली ओपदार मिट्टी के बर्तन मिले हैं, जो पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार ऊँचे वर्ग के लोगों के द्वारा प्रयोग में लाए जाते थे। पत्थर तराशने का व्यवसाय भी विकसित अवस्था में रहा होगा। अशोक के समय में एक ही पत्थर के बने हुए स्तंभ इसका ज्वलंत प्रमाण हैं। पत्थर पर पालिश का काम अपने चरमोत्कर्ष पर था। सारनाथ सिंह स्तंभ तथा बाराबर गुफ़ाओं की चमक अद्वितीय है।

मौर्यकालीन व्यापार

भारतवर्ष के विभिन्न राज्यों के एक शासनसूत्र में बँधने से व्यापार को प्रोत्साहन मिला। प्रशासनिक एवं सैनिक आवश्यकता के कारण यातायात मार्ग में वृद्धि हुई तथा मार्गों की सुरक्षा भी बढ़ी। कृषि तथा उद्योगों के लिए वस्तुएँ देश के विभिन्न भागों में एक स्थान से दूसरे स्थान पर आसानी से पहुँचती थी। उत्तर—पश्चिमी भाग यूनानियों के अधिकार से मौर्यों के अधिकार में आ गया। दक्षिण की विजय से दक्षिण और पश्चिम व्यापार मार्ग पर मौर्यों का नियंत्रण हो गया। कलिंग की विजय से पूर्व और पूर्व—दक्षिण व्यापार मार्ग निष्कंटक हो गया। मेगस्थनीज़ के विवरण के स्पष्ट है कि मार्ग निर्माण का एक विशेष अधिकारी था जो एग्रोनोमोई कहलाता था। ये सड़कों की देखरेख करते थे और 10 स्टेडिया की दूरी पर एक स्तंभ खड़ा कर देते थे। साम्राज्य के राजमार्गों में उत्तर—पश्चिम को पाटलिपुत्र से मिलाने वाला राजमार्ग था। मेगस्थनीज़ के अनुसार इसकी लम्बाई 1,300 मील थी। पाटलिपुत्र के आगे यह मार्ग ताम्रलिप्ति (तामलूक) तक जाता था। हिमालय की ओर जाने वाले मार्ग की तुलना दक्षिण को जाने वाले मार्ग से करते हुए कौटिल्य ने दक्षिण—मार्ग अधिक लाभदायक बताया है। क्योंकि दक्षिण से बहुमूल्य व्यापार की वस्तुए जैसे मुक्ता, मणि, हीरे, सोना, शंख इत्यादि आते थे। दक्षिण के लिए एक पुराना मार्ग श्रावस्ती से गोदावरी के तटवर्ती नगर प्रतिष्ठान तक जाता था। इसी मार्ग को सम्भवतः उत्तरी मैसूर तक आगे बढ़ाया गया। कृष्णा, गोदावरी और तुंगभद्रा के किनारे होते हुए कई मार्ग व्यापार सैनिक अभियान तथा शासन की आवश्यकता के अनुसार बनाए गए होंगे। उत्तर की ओर एक पुराना मार्ग चंपा से बनारस तक और वहाँ से जमुना के किनारे—किनारे कौशाबी तक जाता था। इसके बाद स्थल मार्ग से कौशाबी से सिंधु—सौबीर तक व्यापार मार्ग जाता था। एक तीसरा मार्ग श्रावस्ती से राजगृह तक था।

पश्चिमी तट पर भी समुद्री मार्ग भड़ोच और काठियावाड़ होकर लंका तक जाता था। पश्चिमी तट पर सोपारा भी महत्वपूर्ण बंदरगाह था। पूर्व में जहाज़ बंगाल में ताम्रलिप्ति के बंदरगाह से पूर्वी तट के अनेक बंदरगाह से होते हुए श्रीलंका जाते थे। रोमिला थापर के अनुसार अशोक द्वारा कलिंग की विजय का एक कारण व्यापार की दृष्टि से कलिंग का महत्व था। महानदी और गोदावरी के बीच स्थित होने के कारण बंगाल और दक्षिण का व्यापार सुरक्षित नहीं था।

कौटिल्य ने स्थलमार्गीय व्यापार की अपेक्षा नदी मार्गों से व्यापार को अधिक सुरक्षित माना है क्योंकि यह चोर डाकुओं के भय से अपेक्षाकृत मुक्त था। किन्तु नदियों से व्यापार स्थायी नहीं था। स्थल मार्ग में अनेक कठिनाइयाँ थीं, चोरों और जंगली जानवरों से विशेष भय था। मरुस्थल की यात्रा अत्यन्त कठिन थी। ख़तरों और कठिनाइयों के कारण व्यापारी काफ़िलों में संगठित होकर चलते थे। व्यापारियों को यातायात और सुरक्षा सम्बन्धी सुविधाएँ प्राप्त थीं। यदि मार्ग में व्यापारियों का नुकसान हो जाए तो राज्य क्षतिपूर्ति करता था। इसके बदले व्यापारियों से अनेक शुल्क लिए जाते थे।

अंतर्देशीय व्यापार की भाँति ही स्थल और जलमार्ग से विदेशों के साथ व्यापार को मौर्यों के सुसंगठित शासन से लाभ प्राप्त हुआ। यूनानी शासकों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध की वजह से पश्चिमी एशिया और मिस्र के साथ भारत के व्यापार के लिए अनुकूल वातावरण बना। एक मुख्य स्थल मार्ग तक्षशिला से क़ाबुल, बैक्ट्रिया, और वहाँ से पश्चिमी देशों की तरफ़ जाता था। समुद्री मार्ग भारत के पश्चिमी समुद्रतट से फ़ारस की खाड़ी होते हुए अदन तक जाता था। भारत से और मिस्र से आने वाली व्यापार—वस्तुओं का विनिमय अरब सागर के तटवर्ती बंदरगाहों पर होता था। भारत से मिस्र को हाथीदाँत, कछुए सीपियाँ, मोती, रंग, नील और बहुमूल्य लकड़ी निर्यात होती थी।

प्रजा के हित के लिए शिल्पियों और व्यापारियों पर सरकार का नियंत्रण था। व्यापारियों को आदेश था कि पुराना माल संस्थाध्यक्ष की आज्ञा के बिना न तो बेचा जा सकता था और न ही बंधक रखा जा सकता था। माप और तोल का प्रति चौथे महीने राज्य कर्मचारियों के द्वारा निरीक्षण होता था। कम तौलने वाले को दंड दिया जाता था। लाभ की दर निश्चित थी। देशज वस्तुओं पर 4 प्रतिशत और आयात—वस्तुओं पर 10 प्रतिशत बिक्री कर लिया जाता था। मेगस्थनीज़ के अनुसार बिक्रीकर न देने वाले के लिए मृत्युदंड था।

मौर्ययुगीन अर्थव्यवस्था के उपर्युक्त विवेचन को सर्वागीण बनाने के लिए यह आवश्यक है कि पुरातात्विक साक्ष्यों पर भी एक दृष्टिपात कर लिया जाए। जहाँ तक मौर्ययुगीन पुरातात्विक संस्कृति का सवाल है, यह नश्चित रूप से कहा जा सकता है कि उत्तरी काली पालिश के मृदभांडों की जिस संस्कृति का प्रादुर्भाव महात्मा बुद्ध के काल में हुआ था, वह मौर्ययुग में अपनी चरम सीमा पर दृष्टिगोचर होती है। इस संस्कृति का विवरण उत्तर, उत्तर—पश्चिम, पूर्व एवं दक्कन के विहंगम क्षेत्र में इसका प्रसार हो चुका था। उत्तर—पश्चिम में कंधार, तक्षशिला, उदेग्राम आदि स्थलों से लेकर पूर्व में चंद्रकेतुगढ़ तक, उत्तर में रोपड़, हस्तिनापुर, तिलौराकोट एवं श्रावस्ती से लेकर दक्षिण में ब्रह्मपुरी, छब्रोली आदि तक इस संस्कृति के अवशेष मिलते हैं। पालि एवं संस्कृत ग्रंथों में कौशाबी, श्रावस्ती, अयोध्या, कपिलवस्तु, वाराणसी, वैशाली, राजगीर, पाटलिपुत्र आदि जिन नगरों का उल्लेख मिलता है, वे सभी मौर्ययुग में पर्याप्त पल्लवित अवस्था में थे। अनेक शहर तो प्रशासन के केन्द्र थे। किन्तु इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि ऐसे अनेक नगर थे, जो प्रसिद्ध व्यापार मार्गों पर स्थित थे। भारतीय इतिहास में शहरीकरण का जो दूसरा चरण बुद्ध युग से आरम्भ हुआ, उसके पल्लवीकरण में मौर्ययुगीन व्यापारियों एवं शिल्पियों ने विशेष योगदान दिया। यद्यपि उत्तरी काली पालिश के मृदभांडों की संस्कृति से सम्बन्धित बहुत से ग्रामीण स्थलों का उत्खनन नहीं हो पाया है। किन्तु मध्य गंगा घाटी में विभिन्न शिल्प विधाओं, व्यापार एवं शहरीकरण का जो विवरण हम पढ़ते हैं, वह एक सुदृढ़ ग्रामीण आधार के बिना अकल्पनीय है।



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